भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत में संतुलित औद्योगिक वितरण की सुनिश्चिता
प्रिलिम्स के लिये: भारत का औद्योगिक क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी, सेवा क्षेत्र, उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन, पीएम गति शक्ति- राष्ट्रीय मास्टर प्लान, स्टार्ट-अप इंडिया, मेक इन इंडिया 2.0, विशेष आर्थिक क्षेत्र
मेन्स के लिये: भारत में औद्योगिक क्षेत्र से जुड़ी चुनौतियाँ, औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिये हालिया सरकारी पहल
चर्चा में क्यों?
वित्त संबंधी स्थायी समिति (SCoF) ने सरकार से आग्रह किया है कि वह सभी राज्यों में उद्योगों का समान रूप से वितरण सुनिश्चित करने के लिये एक कार्ययोजना तैयार करे, जिससे संतुलित और न्यायसंगत आर्थिक विकास हो सके।
- समिति ने यह अवलोकन किया कि यद्यपि उद्योग एक राज्य विषय है, फिर भी राष्ट्रीय औद्योगिक नीति को आकार देने में केंद्र सरकार की भूमिका महत्त्वपूर्ण बनी रहती है।
SCoF के मुख्य अवलोकन एवं सिफारिशें
- मुख्य अवलोकन:
- स्थगित विनिवेश एवं PSE नीति: दिसंबर 2021 की नीति के तहत गैर-रणनीतिक क्षेत्रों में घाटे वाली केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों (CPSE) के निजीकरण/बंद करने की घोषणा के बावजूद अब तक कोई प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ है; विनिवेश योजनाएँ स्थिर बनी हुई हैं।
- निवेश दर बनाम विकास की आवश्यकता: भारत की निवेश दर अगले दशक में GDP का लगभग 31% ही है, जो विकास की आवश्यकताओं की तुलना में कम है।
- कमज़ोर राज्य प्रोत्साहन: यद्यपि उद्योग राज्य विषय है, फिर भी केंद्रीय पहलें महत्त्वपूर्ण हैं; हालाँकि, राज्यों को अपने PSU सुधारने हेतु दिये गए प्रोत्साहनों का समुचित उपयोग नहीं हुआ है और वे बड़े पैमाने पर अप्रभावी रहे हैं।
- राज्यों पर वित्तीय दबाव: कई राज्यों के अत्यधिक ऋणग्रस्त होने से उनकी अवसंरचना, औद्योगिक विकास और संतुलित वृद्धि में निवेश करने की क्षमता सीमित हो जाती है।
- मुख्य सिफारिशें:
- संरचनात्मक एवं औद्योगिक सुधार: गैर-रणनीतिक एवं घाटे में चल रही CPSE के विनिवेश/बंद करने की प्रक्रिया को तेज़ किया जाए तथा राज्य PSU सुधारों के लिये केंद्र की प्रोत्साहन योजनाओं को मज़बूत किया जाएँ।
- साथ ही, एक राष्ट्रीय कार्ययोजना तैयार की जाएँ ताकि औद्योगिक विकास संतुलित हो, क्षेत्रीय असमानताएँ घटें और समान विकास को बढ़ावा मिले।
- राजकोषीय एवं निवेश रणनीति: सार्वजनिक एवं निजी निवेश को प्रोत्साहित कर निवेश दर को GDP के 35% तक बढ़ाया जाएँ (ताकि 8% GDP वृद्धि दर को बनाए रखा जा सके)। साथ ही, अत्यधिक ऋणग्रस्त राज्यों के लिये ऐसी उपयुक्त राजकोषीय सुधार नीतियाँ लागू की जाएँ जो ऋण-घटाने और साथ ही बुनियादी अवसंरचना तथा सामाजिक क्षेत्र में निवेश जारी रखने के बीच संतुलन बना सकें।
- संरचनात्मक एवं औद्योगिक सुधार: गैर-रणनीतिक एवं घाटे में चल रही CPSE के विनिवेश/बंद करने की प्रक्रिया को तेज़ किया जाए तथा राज्य PSU सुधारों के लिये केंद्र की प्रोत्साहन योजनाओं को मज़बूत किया जाएँ।
भारत में असंतुलित औद्योगिक वृद्धि हेतु मुख्य कारक कौन-से हैं?
- ऐतिहासिक कारक: भारत में औद्योगिक विकास की असमानता की नींव ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में पाई जाती है। जब व्यापार और बंदरगाहों तक पहुँच की सामरिक सुविधा के लिये उद्योगों को कुछ चुने हुए क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया था।
- उदाहरण: जूट उद्योग बंगाल (कोलकाता) में केंद्रित था और कपास वस्त्र उद्योग महाराष्ट्र (मुंबई) में। स्वतंत्रता के बाद भी यह क्षेत्रीय औद्योगिक असंतुलन बना रहा, जिसके कारण कई क्षेत्र पिछड़े रह गए।
- भौगोलिक एवं अवसंरचना संबंधी कारक: औद्योगिक वृद्धि पर भौगोलिक स्थिति और अवसंरचना का गहरा प्रभाव पड़ता है। हिमालयी राज्यों और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र जैसे कठिन भौगोलिक इलाकों में कमज़ोर कनेक्टिविटी, विद्युत की कमी तथा उच्च स्थापना लागत के कारण बड़े पैमाने पर उद्योग सीमित हैं।
- इसके विपरीत, तमिलनाडु, गुजरात एवं महाराष्ट्र जैसे तटीय तथा मैदानी क्षेत्र प्रमुख बंदरगाहों (मुंबई, कांडला), राजमार्गों व औद्योगिक गलियारों जैसे बेहतर बुनियादी अवसंरचना से लाभान्वित होते हैं, जो औद्योगिक विस्तार के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं और उनके औद्योगिक नेतृत्व को समर्थन देते हैं।
- कुशल जनशक्ति की उपलब्धता: बेंगलुरु (IT क्षेत्र) और चेन्नई (ऑटोमोबाइल) जैसे औद्योगिक क्लस्टर विश्वविद्यालयों तथा तकनीकी संस्थानों से समर्थित कुशल श्रमिकों को आकर्षित करते हैं।
- वहीं झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सीमित शैक्षिक ढाँचे तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण की कमी के कारण कौशल-आधारित उद्योगों का विकास कठिन हो जाता है।
- नीति एवं नियोजन असमानताएँ: औद्योगिक वृद्धि लक्षित नीतिगत समर्थन से प्रभावित होती है। हरित क्रांति ने पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लाभ पहुँचाकर कृषि-औद्योगिक विस्तार को प्रोत्साहित किया, जबकि पूर्वी और मध्य क्षेत्र पिछड़ गए।
- तमिलनाडु जैसे सक्रिय औद्योगिक नीतियों वाले राज्य उद्योगों को आकर्षित करते हैं, जबकि कम सहायक ढाँचे वाले राज्य पीछे रह जाते हैं।
- समूहन (Agglomeration) प्रभाव: उद्योग प्राय: एकत्रित होकर पैमाने की अर्थव्यवस्था, कुशल आपूर्तिकर्त्ताओं और लॉजिस्टिक सुविधाओं का लाभ उठाते हैं, जिससे क्षेत्रीय असमानताएँ और मज़बूत हो जाती हैं।
- उदाहरण: तमिलनाडु का ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग तथा गुजरात का वस्त्र क्लस्टर। इसके विपरीत, ओडिशा और असम जैसे परिधीय राज्य इन लाभों के अभाव में औद्योगिक केंद्र विकसित करने तथा निवेश आकर्षित करने में संघर्ष करते हैं।
भारत में औद्योगिक असंतुलन के प्रमुख निहितार्थ क्या हैं?
- क्षेत्रीय असमानता एवं विकासीय अंतर: महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे उच्च औद्योगिक संकेंद्रण वाले राज्यों में सामान्यतः आय, रोज़गार, बुनियादी अवसंरचना और GDP अधिक होती है (महाराष्ट्र (45.3 लाख करोड़ रुपए, 2024-25), उत्तर प्रदेश (25.5 लाख करोड़ रुपए, 2023-24) और तमिलनाडु (17.3 लाख करोड़ रुपए, 2024-25)।
- इसके विपरीत, बिहार (GDP 8.5 लाख करोड़, 2023-24), झारखंड (2.9 लाख करोड़ रुपए, 2023-24) और अधिकांश उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में कम उद्योग और कम औद्योगिक उत्पादन होने के कारण असमान आर्थिक विकास तथा जीवन स्तर में व्यापक अंतर है।
- प्रवासन एवं शहरी दबाव: औद्योगिक केंद्र रोज़गार, उच्च वेतन और बेहतर सुविधाओं की तलाश में पिछड़े क्षेत्रों के श्रमिकों को आकर्षित करते हैं, जिससे अंतर-राज्यीय प्रवासन बढ़ता है।
- मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली जैसे शहरों में भीड़भाड़, आवास की कमी, यातायात की भीड़, प्रदूषण और झुग्गियों का विस्तार जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जिससे सामाजिक तथा पर्यावरणीय दबाव बढ़ते हैं।
- EAC-PM (2023) के अनुसार, भारत में 40.2 करोड़ घरेलू प्रवासी थे, जिनमें प्रमुख प्रवासन केंद्र मुंबई, बेंगलुरु अर्बन, हावड़ा, सेंट्रल दिल्ली और हैदराबाद शामिल हैं।
- राजकोषीय असमानताएँ एवं संसाधन असंतुलन: औद्योगिक रूप से सघन राज्यों को अधिक कर राजस्व, रॉयल्टी और निवेश प्रवाह प्राप्त होता है, जिससे वे बुनियादी अवसंरचना, स्वास्थ्य तथा शिक्षा के लिये बेहतर वित्तपोषण कर पाते हैं।
- वहीं, कम औद्योगिक राज्य मुख्यतः केंद्रीय हस्तांतरणों पर निर्भर रहते हैं, बजट घाटे का सामना करते हैं और सीमित सार्वजनिक निवेश कर पाते हैं। इससे राज्यों के बीच विकासात्मक अंतर और बढ़ जाते हैं।
- उदाहरण: शीर्ष 5 औद्योगिक राज्य — महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली, तमिलनाडु और गुजरात ने वित्त वर्ष 2023-24 में कुल प्रत्यक्ष करों का 72% योगदान किया, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार तथा मध्य प्रदेश ने मिलकर केवल 5% योगदान दिया। यह गंभीर राजकोषीय असंतुलन को उजागर करता है।
- वहीं, कम औद्योगिक राज्य मुख्यतः केंद्रीय हस्तांतरणों पर निर्भर रहते हैं, बजट घाटे का सामना करते हैं और सीमित सार्वजनिक निवेश कर पाते हैं। इससे राज्यों के बीच विकासात्मक अंतर और बढ़ जाते हैं।
- संघीय तनाव एवं नीतिगत चुनौतियाँ: असमान औद्योगिक वृद्धि केंद्र और राज्यों के बीच संसाधनों, निवेश नीतियों तथा वित्तीय प्रोत्साहनों को लेकर तनाव उत्पन्न कर सकती है।
- प्रगतिशील राज्य अधिक स्वायत्तता का आग्रह कर सकते हैं, जबकि पिछड़े राज्य विशेष पैकेजों की अपेक्षा रखते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सहकारी संघवाद और समन्वित आर्थिक प्रबंधन हेतु कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं।
- सामाजिक-राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभाव: निरंतर औद्योगिक असंतुलन क्षेत्रीय असंतोष, राजनीतिक हाशियाकरण और सामाजिक अशांति को जन्म दे सकता है।
- यह निवेश पैटर्न को भी प्रभावित करता है, क्योंकि व्यवसाय बेहतर बुनियादी अवसंरचना, कुशल श्रम और औद्योगिक पारिस्थितिकी वाले क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हैं, जिससे पिछड़े क्षेत्रों में अविकास का दुष्चक्र बनता है।
भारत में औद्योगिक वृद्धि को बढ़ावा देने हेतु प्रमुख सरकारी पहलें क्या हैं?
- उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI): घरेलू विनिर्माण क्षमता को बढ़ाने हेतु।
- पीएम गति शक्ति- राष्ट्रीय मास्टर प्लान: मल्टीमॉडल कनेक्टिविटी अवसंरचना परियोजना।
- भारतमाला और सागरमाला परियोजना: कनेक्टिविटी में सुधार (सड़क और समुद्री)।
- स्टार्ट-अप इंडिया: भारत में स्टार्टअप संस्कृति को उत्प्रेरित करना।
- मेक इन इंडिया 2.0: भारत को वैश्विक डिज़ाइन और विनिर्माण केंद्र में बदलना।
- आत्मनिर्भर भारत अभियान: आयात पर निर्भरता कम करने के लिये।
- विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ): अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों के सृजन और वस्तुओं व सेवाओं के निर्यात को बढ़ावा देने के लिये।
- MSME इनोवेटिव स्कीम: विचारों को नवाचार में बदलने हेतु संपूर्ण मूल्य शृंखला को प्रोत्साहित करने के लिये, जिसमें इनक्यूबेशन और डिज़ाइन हस्तक्षेप शामिल हैं।
भारत में संतुलित औद्योगिक वृद्धि सुनिश्चित करने हेतु क्या उपाय किये जाने चाहिये?
- औद्योगिक स्थान नीति एवं प्रोत्साहन: अविकसित और पिछड़े क्षेत्रों की ओर निवेश को मार्गदर्शन देने के लिये एक व्यापक औद्योगिक स्थान नीति बनाई जाएँ, जिसमें प्राथमिकता वाले क्षेत्र और रणनीतिक क्षेत्रीय आवंटन शामिल हों।
- कम औद्योगिक राज्यों को महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे औद्योगिक रूप से उन्नत केंद्रों के साथ प्रतिस्पर्द्धी बनाने के लिये कर छूट, पूंजीगत सब्सिडी, रियायती ऋण, कम GST तथा निवेश से जुड़ी कटौती की पेशकश करना।
- लक्षित बुनियादी अवसंरचना विकास: औद्योगिक रूप से पिछड़े राज्यों में परिवहन कॉरिडोर, औद्योगिक पार्क, लॉजिस्टिक्स हब, विश्वसनीय ऊर्जा और डिजिटल अवसंरचना में निवेश किया जाएँ।
- औद्योगिक कॉरिडोर, विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) और डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर जैसी पहलें औद्योगिक स्थापना की लागत को कम कर सकती हैं तथा उत्तर-पूर्व एवं पूर्वी भारत जैसे दूरदराज़ क्षेत्रों में उद्योगों को आकर्षित कर सकती हैं।
- कौशल विकास एवं मानव पूँजी: कम विकसित क्षेत्रों में तकनीकी संस्थान, व्यावसायिक केंद्र और पुनः कौशल (Reskilling) कार्यक्रम स्थापित किये जाएँ।
- स्किल इंडिया और प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना जैसी योजनाएँ औद्योगिक क्लस्टरों के लिये तैयार कार्यबल उपलब्ध करा सकती हैं, जिससे कौशल-आधारित वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगा।
- क्लस्टर-आधारित एवं पारिस्थितिकी तंत्र विकास: पैमाने की अर्थव्यवस्था, आपूर्ति शृंखला एकीकरण और नवाचार को बढ़ावा देने के लिये क्षेत्र-विशिष्ट औद्योगिक क्लस्टरों को प्रोत्साहित किया जाएँ।
- उदाहरण: बिहार में वस्त्र क्लस्टर, उत्तर-पूर्व में इलेक्ट्रॉनिक्स और पूर्वी भारत में कृषि-औद्योगिक हब, जो स्थानीय उद्यमिता, रोज़गार तथा सतत् विकास को गति देंगे।
- नीति समन्वय एवं केंद्र-राज्य सहयोग: सहकारी संघवाद को मज़बूत किया जाएँ, ताकि केंद्रीय नीतियों को राज्य औद्योगिक योजनाओं के साथ जोड़ा जा सके और संसाधन, नियामक समर्थन एवं निवेश सुनिश्चित किये जा सकें।
- राज्यों की क्षमता के अनुसार प्रोत्साहन पैकेज और सुधार प्रदान किये जाएँ, ताकि समान औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिल सके।
निष्कर्ष
भारत की असमान औद्योगिक वृद्धि ऐतिहासिक, भौगोलिक, अवसंरचनात्मक और नीतिगत कारकों से उत्पन्न होती है। संतुलित औद्योगीकरण सुनिश्चित करने हेतु केंद्र-राज्य समन्वय आवश्यक है, जिसमें अवसंरचना, कौशल विकास, राजकोषीय प्रोत्साहन और क्लस्टर-आधारित विकास पर ध्यान दिया जाए, ताकि क्षेत्रीय असमानताओं को कम किया जा सके और प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाया जा सके।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में औद्योगिक असंतुलन ने क्षेत्रीय असमानता और राजकोषीय विषमताओं को बनाए रखा है, जिससे समावेशी विकास बाधित हुआ है। इसके प्रमुख निहितार्थों पर चर्चा कीजिये और संतुलित एवं न्यायसंगत औद्योगीकरण प्राप्त करने हेतु नीतिगत उपाय सुझाइए। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स:
प्रश्न. 'आठ मूल उद्योगों के सूचकांक (इंडेक्स ऑफ एट कोर इंडस्ट्रीज़)' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? (2015)
(a) कोयला उत्पादन
(b) विद्युत् उत्पादन
(c) उर्वरक उत्पादन
(d) इस्पात उत्पादन
उत्तर: (b)
मेन्स:
प्रश्न. "सुधार के बाद की अवधि में औद्योगिक विकास दर सकल-घरेलू-उत्पाद (जीडीपी) की समग्र वृद्धि से पीछे रह गई है" कारण बताइये। औद्योगिक नीति में हालिया बदलाव औद्योगिक विकास दर को बढ़ाने में कहाँ तक सक्षम हैं? (2017)
प्रश्न. आम तौर पर देश कृषि से उद्योग और फिर बाद में सेवाओं की ओर स्थानांतरित हो जाते हैं, लेकिन भारत सीधे कृषि से सेवाओं की ओर स्थानांतरित हो गया। देश में उद्योग की तुलना में सेवाओं की भारी वृद्धि के क्या कारण हैं? क्या मज़बूत औद्योगिक आधार के बिना भारत एक विकसित देश बन सकता है? (2014)
रैपिड फायर
एकीकृत वायु रक्षा हथियार प्रणाली
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) ने मिशन सुदर्शन चक्र के अंतर्गत एकीकृत वायु रक्षा हथियार प्रणाली (IADWS) का पहला उड़ान परीक्षण सफलतापूर्वक किया।
- मिशन सुदर्शन चक्र: 79वें स्वतंत्रता दिवस पर घोषित, यह एक राष्ट्रीय सुरक्षा पहल है जिसका उद्देश्य महत्त्वपूर्ण नागरिक और रक्षा बुनियादी ढाँचे की रक्षा के लिये वर्ष 2035 तक स्वदेशी आयरन डोम जैसी वायु रक्षा प्रणाली (उन्नत प्रौद्योगिकियों और बहुस्तरीय रक्षा प्रणालियों के साथ) विकसित करना है।
- इस मिशन का उद्देश्य दुश्मन के हमलों को निष्क्रिय करना और त्वरित जवाबी हमला करना, तीव्र एवं सटीक रक्षा सुनिश्चित करना तथा भारत की सामरिक स्वायत्तता को मज़बूत करना है।
- IADWS: यह एक उन्नत, स्वदेशी बहुस्तरीय वायु रक्षा प्रणाली है जिसमें QRSAM (त्वरित प्रतिक्रिया सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलें), VSHORADS (बहुत कम दूरी की वायु रक्षा प्रणाली) और DEW (निर्देशित ऊर्जा हथियार) (एक लेजर आधारित उच्च ऊर्जा प्रणाली) शामिल हैं।
- एक केंद्रीकृत कमान और नियंत्रण केंद्र द्वारा नियंत्रित, IADWS मानव रहित हवाई वाहनों (UAV) और मिसाइलों जैसे लक्ष्यों का वास्तविक समय पर पता लगाने और उन्हें निष्क्रिय करने को सुनिश्चित करता है।
- पाकिस्तानी ड्रोन और मिसाइलों को रोकने के लिये ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत द्वारा S-400, बराक-8 और आकाश प्रणालियों के प्रयोग पर आधारित है।
- इसके सफल उड़ान परीक्षण भारत की आत्मनिर्भर और एकीकृत वायु रक्षा क्षमताओं को मज़बूत करने की दिशा में एक बड़ा कदम हैं।
और पढ़ें: बैलिस्टिक और वायु रक्षा प्रणालियों में भारत की प्रगति |
रैपिड फायर
पल्मायरा पाम ट्री
ओडिशा ने पारिस्थितिकीय और सामाजिक लाभों के कारण पल्मायरा ट्री (ताड़ के पेड़ों) की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया है।
पलमायरा पाम ट्री (बोरासस फ्लेबेलिफ़र)
- परिचय: यह दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया मूल का होने के साथ-साथ अत्यधिक सूखा प्रतिरोधी है तथा तमिलनाडु के राज्य वृक्ष के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- यह मुख्यतः ओडिशा, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में पाया जाता है।
- तमिल संस्कृति में इसे कर्पगा वृक्षम् (“ऐसा दिव्य वृक्ष जो सब कुछ प्रदान करता है”) के रूप में पूजनीय माना जाता है, और इसके ताड़-पत्र पांडुलिपियों ने सदियों तक तमिल भाषा और साहित्य को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- पारिस्थितिकीय भूमिका: इसके फल (ताड़) जुलाई–अगस्त में पकते हैं, जिन्हें कम पैदावार के दौरान हाथियों द्वारा भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता हैं और साथ ही यह मानव-हाथी संघर्ष को भी कम करते हैं। इसकी ऊँची संरचना प्राकृतिक आकाशीय बिजली अवरोधक के रूप में कार्य करती है, जिससे मानसून के दौरान होने वाली मृत्युओं में कमी आती है।
- इसकी लंबी जड़ें भूजल पुनर्भरण, सूखे से निपटने में सहायता करती है तथा जल निकायों और तटों पर मृदा अपरदन को रोकने में भी सहायक होती है।
- महत्त्व: इसका फल गूदा (नुंगु) खनिजों से भरपूर ग्रीष्मकालीन शीतल पेय के रूप में उपयोग होता है, जबकि ताड़ की शक्कर (पनई करुप्पट्टी) एवं गुड़ तथा पदनीर (रस) और ताड़ी जैसे पेय आधुनिक उत्पादों के स्थान पर स्वास्थ्यवर्धक पारम्परिक विकल्प प्रदान करते हैं।
- पत्तियाँ छत, चटाई और हस्तशिल्प के लिये उपयोगी होती हैं, तथा इसकी लकड़ी निर्माण सामग्री और ईंधन प्रदान करती है।
और पढ़ें: ऑयल पाम वृक्षारोपण को प्राथमिकता |
रैपिड फायर
शरणार्थियों के लिये संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) ने श्रीलंका में वापस लौटने वाले तमिल शरणार्थियों की गिरफ्तारी के बाद भारत से श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों की स्वैच्छिक वापसी को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया है।
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR)
- परिचय: UNHCR संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी है, जिसकी स्थापना वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विस्थापित लोगों की सहायता के लिये की गई थी।
- इसका मुख्यालय जिनेवा, स्विटज़रलैंड में है तथा इसका परिचालन 137 देशों में है।
- कानूनी आधार: वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन एवं वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल द्वारा निर्देशित, जो शरणार्थियों को परिभाषित करता है और उनके अधिकारों एवं सुरक्षा के लिये वैश्विक मानक निर्धारित करता है।
- कार्य: यह शरणार्थियों को सुरक्षा, मानवीय सहायता, स्थायी समाधानों (शरण, प्रत्यावर्तन, एकीकरण, पुनर्वास) को बढ़ावा देता है तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत शरणार्थी नीतियों को तैयार करने में राज्यों को सहायता प्रदान करता है।
वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन एवं वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल
- परिचय: यह अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी कानून की नींव रखता है, शरणार्थी को अपने देश से बाहर के व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है, जो उत्पीड़न (जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, राजनीतिक राय या सामाजिक समूह के आधार पर) के डर के कारण वापस लौटने में असमर्थ/अनिच्छुक है।
- अधिदेश: यह गैर-वापसी के मूल सिद्धांत को कायम रखता है, यह सुनिश्चित करता है कि शरणार्थियों को खतरे में न लौटाया जाए, साथ ही आवास, शिक्षा, काम और कानूनी सुरक्षा के अधिकार प्रदान करता है।
- शरणार्थियों को मेजबान देश के कानूनों का सम्मान करना चाहिये, हालाँकि युद्ध अपराध या गंभीर अपराध के दोषियों को संरक्षण से बाहर रखा जाता है।
- भारत एवं UNHCR: भारत ने वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन या वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। शरणार्थियों का प्रबंधन सामान्य आव्रजन कानूनों के तहत किया जाता है।
- इसके बावजूद, भारत ने प्रमुख शरणार्थी समूहों - श्रीलंकाई तमिलों, तिब्बतियों, अफगानों, रोहिंग्याओं की मेजबानी की है तथा मानवीय आधार पर UNHCR के साथ सहयोग करता है।
और पढ़ें: शरणार्थी और नैतिकता |
रैपिड फायर
स्यूडोमोनास एरुगिनोसा
हाल ही में किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि स्यूडोमोनास एरुगिनोसा बैक्टीरिया में समान कोशिकाओं के भीतर भी दो अलग-अलग जीन (द्विस्थिर जीन) हो सकती हैं, जहाँ कुछ कोशिकाओं में कुछ जीन "सक्रिय (on)" रहते हैं जबकि अन्य कोशिकाओं में वही जीन "निष्क्रिय (off)" रहते हैं।
- glpD जीन, जो बैक्टीरिया को ग्लिसरॉल का उपयोग करने में सहायता करता है, उसका अभिव्यक्ति स्तर परिवर्तनीय होता है—कुछ कोशिकाओं में यह सक्रिय (on) रहता है, जिससे संक्रमण क्षमता बढ़ती है, जबकि अन्य में यह निष्क्रिय (off) हो जाता है।
- यह परिवर्तनशीलता एपिजेनेटिक वंशानुक्रम का एक रूप है, जिसका अर्थ है कि जीन की अभिव्यक्ति बिना DNA में किसी परिवर्तन के भी आगे स्थानांतरित हो सकती है।
स्यूडोमोनास एरुगिनोसा
- परिचय: यह एक ग्राम-नेगेटिव, एरोबिक, गैर-बीजाणु-निर्माण, छड़ के आकार का जीवाणु है, जो पर्यावरण में व्यापक रूप से पाया जाता है, जैसे मृदा और जल में, विशेष रूप से स्वच्छ जल में।
- संक्रमण की संभावना: स्वस्थ (प्रतिरक्षा-सक्षम) और कमज़ोर (प्रतिरक्षा-विहीन) दोनों प्रकार के मेज़बानों को संक्रमित कर सकता है।
- यह समुदाय-उपार्जित संक्रमणों का कारण बन सकता है, जैसे कि फॉलिकुलाइटिस, पंक्चर-घाव ऑस्टियोमायलाइटिस, न्यूमोनिया और ओटाइटिस एक्सटर्ना।
- भारत में यह लगभग 30% अस्पताल-जनित संक्रमणों (HAIs) के लिये उत्तरदायी है, जैसे वेंटिलेटर-संबंधित न्यूमोनिया, कैथेटर-संबंधित मूत्रमार्ग संक्रमण और रक्तप्रवाह संक्रमण
- यह प्लास्टिक सतहों पर जीवित रहता है, और केराटाइटिस (नेत्र संक्रमण) तथा घातक जलन संक्रमणों का मुख्य कारण है, विशेषकर ICU रोगियों में पनपता है।
- यह समुदाय-उपार्जित संक्रमणों का कारण बन सकता है, जैसे कि फॉलिकुलाइटिस, पंक्चर-घाव ऑस्टियोमायलाइटिस, न्यूमोनिया और ओटाइटिस एक्सटर्ना।
- एंटीबायोटिक प्रतिरोध: यह अपने अंतर्निहित प्रतिरोध (जैसे कठोर बाह्य झिल्ली और उत्प्रवाह पंप) और अर्जित प्रतिरोध (उत्परिवर्तन, प्लास्मिड, ट्रांसपोसोन, इंटेग्रॉन) के कारण अत्यधिक प्रतिरोधी है।
- केवल कुछ एंटीबायोटिक्स ही प्रभावी रहते हैं जैसे टोब्रामाइसिन, एमिकासिन आदि।