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भारतीय राजव्यवस्था

भारत की न्यायिक प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन

यह एडिटोरियल 20/08/2025 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित "Streamlining Case Management at the Supreme Court: A Successful Approach to Reducing Pendency" पर आधारित है। इस लेख के तहत 4.83% तक लंबित मामलों को कम करने में सर्वोच्च न्यायालय की सफलता पर प्रकाश डाला गया है; हालाँकि, भारत की न्यायपालिका में चुनौतियाँ बनी हुई हैं तथापि विभिन्न न्यायालयों में लंबित मामले अभी भी एक महत्त्वपूर्ण चिंता का विषय हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में सुनियोजित सुधारों की एक शृंखला के माध्यम से केवल 100 दिनों में लंबित मामलों की संख्या में 4.83% की कमी लाकर एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। न्यायपालिका की चुनौतियाँ केवल सर्वोच्च न्यायालय तक सीमित नहीं हैं। “न्याय में विलंब, न्याय से वंचित करने के समान है !” का लगातार मुद्दा इस प्रणाली को प्रभावित करता रहता है और न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर विलंब अभी भी व्यापक है। हालाँकि यह प्रगति अन्य न्यायिक मंचों के लिये एक मूल्यवान मॉडल तो प्रस्तुत करती है, तथापि यह लंबित मामलों के मूल कारणों का समाधान करने तथा समग्र भारत में समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिये एक अधिक व्यवस्थित एवं डेटा-आधारित दृष्टिकोण की आवश्यकता को भी उजागर करती है।

भारत में न्याय वितरण प्रणाली में कौन-से सुधार पेश किये गए हैं?

  • संस्थागत और मिशन-आधारित सुधार:
    • राष्ट्रीय न्याय वितरण एवं विधिक सुधार मिशन (2011): इसकी स्थापना विलंब और लंबित मामलों को कम करके अभिगम्यता में सुधार लाने तथा संरचनात्मक परिवर्तनों एवं प्रदर्शन मानकों के माध्यम से उत्तरदायित्व बढ़ाने के लिये की गई थी।
    • फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTCs): 14वें वित्त आयोग के तत्त्वावधान में, सरकार ने जघन्य अपराधों; वरिष्ठ नागरिकों, महिलाओं, बच्चों आदि से जुड़े मामलों से निपटने के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किये हैं।
      • अक्तूबर 2024 तक, पूरे भारत में 800 से अधिक FTC कार्यरत थे।
    • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG): राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) ज़िला व अधीनस्थ न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के आदेशों, निर्णयों एवं केस विवरणों का एक व्यापक डेटाबेस प्रदान करता है।
      • वर्तमान में, यह पूरे भारत में 18,735 ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों के केस विवरणों को कवर करता है।
  • न्यायिक सुधार के लिये विधायी उपाय: न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या कम करने और कार्य-प्रणाली को सुचारू बनाने के लिये, सरकार ने वाणिज्यिक न्यायालय (संशोधन) अधिनियम, 2018, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 और मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019 जैसे विभिन्न कानूनों में संशोधन किये हैं।
  • न्यायपालिका का डिजिटल परिवर्तन:
    • ई-कोर्ट: ई-कोर्ट्स मिशन मोड प्रोजेक्ट का उद्देश्य डिजिटल सॉल्यूशन्स के माध्यम से न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया को बेहतर बनाना है।
      • इसके अतिरिक्त, वकीलों और वादियों को नागरिक-केंद्रित सेवाएँ प्रदान करके डिजिटल डिवाइड को समाप्त करने के लिये आभासी न्यायालयों और ई-सेवा केंद्रों को क्रियाशील बनाया गया है।
      • दिसंबर 2024 तकके तहत, , WAN परियोजना 99.5% न्यायालय परिसर आपस में जुड़ चुके हैं, जिससे देश भर में 3,240 न्यायालयों और 1,272 कारागारों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग संभव हो गई है।
    • टेली-लॉ और प्रो बोनो (जनहितार्थ निशुल्क सेवा) संस्कृति को बढ़ावा: यह कार्यक्रम वर्ष 2017 में कॉमन सर्विस सेंटर्स (CSCs) के माध्यम से विधिक परामर्श लेने वाले वंचित वर्गों को जोड़ने वाला एक प्रभावी और विश्वसनीय ई-इंटरफेस प्लेटफॉर्म प्रदान करने के लिये शुरू किया गया था।
      • इसके अलावा, प्रो बोनो संस्कृति को संस्थागत बनाने के प्रयास किये गए हैं, जिसमें एक तकनीकी कार्यढाँचा अधिवक्ताओं को NyayaBandhu पर प्रो बोनो अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण करने की अनुमति देता है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR): वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को बढ़ावा देने के लिये, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 में संशोधन किया गया, जिससे वाणिज्यिक विवादों के मामले में पूर्व-संस्था मध्यस्थता और निपटान (PIMS) अनिवार्य हो गया।
    • इसके अतिरिक्त, समय-सीमा निर्धारित करके विवादों के शीघ्र समाधान में तीव्रता लाने के लिये मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में संशोधन किया गया है।
    • लोक न्यायालय आम लोगों के लिये उपलब्ध एक महत्त्वपूर्ण वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र है।

भारतीय न्यायपालिका की प्रभावशीलता को प्रभावित करने वाली प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • बढ़ते लंबित मामले और न्याय में विलंब: भारत की न्यायिक प्रणाली वर्तमान में विभिन्न न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक लंबित मामलों के बोझ तले दबी हुई है। अधीनस्थ न्यायालयों में, इनमें से 50% से अधिक मामले तीन वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।
    • राज्यसभा में साझा किये गए आँकड़ों (2023) के अनुसार, उच्च न्यायालयों में 1,514 मामले और अधीनस्थ व ज़िला न्यायालयों में 1,390 मामले 50 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।
    • ये व्यापक लंबित मामले न केवल वादियों को समय पर न्याय से वंचित करते हैं, बल्कि न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को भी कम करते हैं।
    • यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि “तारीख पर तारीख” मुहावरा भारत की न्यायिक प्रणाली में लगातार हो रही विलंब का प्रतीक बन गया है।
  • निरंतर न्यायिक रिक्तियाँ: न्यायपालिका के सभी स्तरों पर न्यायाधीशों की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है, जो लंबित मामलों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि कर रही है।
    • इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (IJR) 2025 के अनुसार, वर्ष 2020 और 2024 के दौरान, भारतीय न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या में लगभग 20% की वृद्धि हुई है। इस तीव्र वृद्धि के बावजूद, न्यायिक रिक्तियाँ लगातार उच्च बनी हुई हैं, उच्च न्यायालयों में स्वीकृत पदों का लगभग 33% रिक्त है।
    • भारत का न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात विश्व में सबसे कम है, जहाँ प्रति दस लाख लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश हैं।
      • यह आँकड़ा विधि आयोग द्वारा वर्ष 1987 में अनुशंसित प्रति दस लाख 50 न्यायाधीशों के मानक के आधे से भी कम (सर्वोच्च न्यायालय ऑब्ज़र्वर) है।
      • यह कमी न केवल वर्तमान न्यायाधीशों पर अधिक बोझ डालती है, बल्कि समग्र न्यायिक प्रक्रिया को भी बाधित करती है।
    • कॉलेजियम प्रणाली, न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए, प्रायः इसकी अपारदर्शिता एवं नियुक्तियों में विलंब के लिये आलोचना की जाती है, जिससे समस्या और बढ़ जाती है।
  • अवसंरचनात्मक और तकनीकी खामियाँ: आधुनिकीकरण के प्रयासों के बावजूद, कई भारतीय न्यायालयों में अभी भी पर्याप्त अवसंरचनात्मक और तकनीकी सहायता का अभाव है, जिससे कुशल न्याय प्रदान करने में बाधा आ रही है।
    • ज़िला न्यायपालिका में न्यायाधीशों के स्वीकृत 25,081 पदों के लिये, 4,250 न्यायालय कक्षों और 6,021 आवासीय इकाइयों की कमी है।
    • भारत भर की न्यायालयों में, ई-न्यायालय पहल अपर्याप्त कनेक्टिविटी, अप्रशिक्षित कर्मियों और अपर्याप्त अवसंरचनाओं के कारण संघर्ष करती है।
    • ई-सेवा केंद्र, ई-फाइलिंग प्रणाली और कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग आशाजनक समाधान प्रदान करते हैं, लेकिन उनका प्रभाव असमान और प्रायः प्रतीकात्मक होता है। जैसा कि आईजेआर चेतावनी देता है, "प्रौद्योगिकी संरचनात्मक सुधार का विकल्प नहीं हो सकती।"
      • मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा वर्ष 2021 में किये गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि केवल 41% अवर न्यायालय परिसरों में स्टूडियो-आधारित वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाएँ थीं तथा केवल 38% में कारागारों के साथ वीडियो लिंकेज थे, जो तकनीकी कमियों को उजागर करता है।
  • न्यायिक उत्तरदायित्व का अभाव: न्यायिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिये एक सुदृढ़ तंत्र का अभाव चिंता का विषय रहा है, जो न्यायपालिका में जनता के विश्वास को प्रभावित कर सकता है।
    • न्यायाधीशों को पदच्युत करने के लिये वर्तमान महाभियोग प्रणाली का प्रयोग बहुत कम होता है और यह उन मामलों में अपर्याप्त मानी जाती है जहाँ आचरण महाभियोग योग्य अपराध से कम हो। 
    • कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के प्रस्ताव को सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में खारिज कर दिया था, जिसके कारण न्यायिक स्वतंत्रता बनाम उत्तरदायित्व पर बहस जारी है।
      • न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा (दिल्ली उच्च न्यायालय) सहित हाल के विवादों ने न्यायिक कार्यप्रणाली और नियुक्तियों में अधिक पारदर्शिता की माँग को बढ़ावा दिया है।
    • साथ ही, हाल ही में एक सूचना का अधिकार (RTI) से पता चला है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने ज़िला न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों पर आँकड़े देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि “ऐसा कोई आँकड़ा नहीं रखा जाता है,” जिससे उत्तरदायित्व को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • न्याय तक अभिगम्यता में बाधाएँ: न्याय तक अभिगम्यता प्राप्त करने में बाधाएँ एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई हैं, विशेषकर समाज के सीमांत और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये।
    • हालाँकि विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987, आर्थिक रूप से वंचित व्यक्तियों को निशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने का आदेश देता है, लेकिन इसका कार्यान्वयन असंगत बना हुआ है। संसाधनों की कमी, सीमित अभिगम्यता और प्रक्रियागत जटिलताएँ प्रायः विधिक सहायता सेवाओं के प्रभावी वितरण में बाधा डालती हैं।
      • भारत की लगभग 80% आबादी विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत निशुल्क विधिक सहायता के लिये पात्र है। हालाँकि, केवल लगभग 1% पात्र व्यक्ति ही इन सेवाओं का उपयोग कर पाते हैं।
    • पिछले एक दशक में, भारतीय कारागारों में विचाराधीन कैदियों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है।
      • IJR- 2025 के अनुसार, विचाराधीन कैदी अब देश की कारागारों में बंदी संख्या का 76% हिस्सा हैं, जो वर्ष 2012 में 66% था।
  • न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व और विविधता का अभाव: भारतीय न्यायपालिका में विविध समूहों का कम प्रतिनिधित्व (विशेष रूप से लिंग, जाति और क्षेत्रीय विविधता के संदर्भ में) एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है।
    • भारत में अभी भी अपनी पहली महिला मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति प्रतीक्षारत है और वर्ष 2027 में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना द्वारा यह पदभार ग्रहण करने की उम्मीद है।
    • मार्च 2025 तक, उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व केवल 14.27% है।
      • 8 उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला न्यायाधीश हैं, जबकि उत्तराखंड, मेघालय और त्रिपुरा के उच्च न्यायालयों में कोई भी महिला न्यायाधीश नहीं है।
    • अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व भी कम बना हुआ है।
      • विविधता का यह अभाव न केवल न्यायपालिका की धारणा को प्रभावित करता है, बल्कि सीमांत समुदायों से जुड़े मामलों की समझ एवं व्याख्या को भी संभावित रूप से प्रभावित करता है।
    • इसके अलावा, 'अंकल जज सिंड्रोम' पक्षपात को दर्शाता है, जो योग्यता को कम करता है तथा न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में जनता के विश्वास को कम करता है।
  •  न्यायिक सक्रियता और संभावित अतिक्रमण: न्यायिक सक्रियता और अतिक्रमण के बीच की बारीक रेखा बहस का विषय बनी हुई है।
    • न्यायिक सक्रियता ने विधायी कमियों को भरने (जैसा कि विशाखा निर्णय (1997) में देखा गया है) और मूल अधिकारों के दायरे को व्यापक बनाने (जैसा कि मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में देखा गया है) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
      • हालाँकि, आलोचकों का तर्क है कि यह कभी-कभी विधायिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देती है।
    • हाल ही में चुनावी बॉण्ड योजना मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, जिसमें उसने न केवल कानून को रद्द किया, बल्कि दानकर्त्ता की जानकारी के प्रकटीकरण के लिये विस्तृत निर्देश भी जारी किये, एक हालिया उदाहरण है जिस पर न्यायिक अतिक्रमण के रूप में बहस हुई है।
  • कार्यपालिका का हस्तक्षेप और न्यायिक स्वतंत्रता: न्यायिक स्वतंत्रता और कार्यपालिका की निगरानी के बीच का नाजुक संतुलन एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है।
    • सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित न्यायिक नियुक्तियों को स्वीकृति देने में सरकार के विलंब और न्यायाधीशों के चुनिंदा स्थानांतरण ने चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
      • साथ ही, वर्ष 2020 में न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर के स्थानांतरण को प्रायः न्यायपालिका पर कार्यपालिका के संभावित प्रभाव से संबंधित चिंताओं के एक प्रमुख उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है।
    • इसके अलावा, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के राज्यसभा में नामांकन ने बहस छेड़ दी है, कुछ पर्यवेक्षकों ने आगाह किया है कि इस तरह के कदमों से “क्विड प्रो क्वो” (अर्थात् किसी वस्तु के बदले में दिया गया उपकार) की धारणाएँ उत्पन्न हो सकती हैं तथा न्यायिक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठ सकते हैं।

भारतीय न्यायपालिका की दक्षता और प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • प्रौद्योगिकी के माध्यम से केस प्रबंधन को सुव्यवस्थित करना: भारत ई-कोर्ट परियोजना को पूरी तरह से लागू और विस्तारित करके, न्यायालयी रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण, ऑनलाइन केस फाइलिंग एवं AI-सहायता प्राप्त केस प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करके लंबित मामलों की संख्या को उल्लेखनीय रूप से कम कर सकता है।
    • सिंगापुर की न्यायपालिका की इंटीग्रेटेड केस मैनेजमेंट सिस्टम (ICMS) के साथ सफलता एक उत्कृष्ट मॉडल के रूप में कार्य करती है।
    • जमानत आदेशों के त्वरित प्रसारण के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा FASTER (इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड्स का तेज़ और सुरक्षित ट्रांसमिशन) प्रणाली की शुरुआत सही दिशा में एक कदम है।
    • इसके अलावा, SUVAS एवं SUPACE नवीन AI-संचालित पहल हैं जिनका न्याय तक अभिगम्यता में सुधार तथा न्यायालयी दक्षता बढ़ाने के लिये और विस्तार किया जा सकता है।
      • न्यायिक कर्मियों और वकीलों के लिये व्यापक प्रशिक्षण के साथ, ऐसी पहलों का सभी स्तरों की न्यायालयों तक विस्तार करके, केस प्रबंधन दक्षता में सुधार किया जा सकता है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्रों को बढ़ावा देना: मध्यस्थता, पंचनिर्णय एवं लोक न्यायालयों जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों को बढ़ावा देना और उन्हें सुदृढ़ करना औपचारिक न्यायालयों पर बोझ को बहुत हद तक कम कर सकता है।
    • भारत का हालिया मध्यस्थता अधिनियम, 2023, मध्यस्थता के लिये एक वैधानिक आधार प्रदान करता है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की आवश्यकता है।
    • अधिक मध्यस्थता केंद्र स्थापित करना, पेशेवर मध्यस्थों को प्रशिक्षित करना और कर लाभों या समझौतों के तीव्र प्रवर्तन के माध्यम से वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को प्रोत्साहित करना, वादियों को विवाद समाधान के इन तीव्र, कम विरोधात्मक तरीकों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है।
  • न्यायिक नियुक्तियों और रिक्तियों में सुधार: न्यायिक रिक्तियों को दूर करने के लिये नियुक्ति प्रक्रिया को सरल बनाने तथा न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में वृद्धि करने की आवश्यकता है।
    • सामाजिक, क्षेत्रीय और लैंगिक आधार पर पारदर्शिता, उत्तरदायित्व एवं व्यापक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये एक न्यायिक नियुक्ति आयोग की शुरुआत करके कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।
    • इसके अलावा, न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ाने से, जैसा कि UK में लागू किया गया है (उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिये 75 वर्ष), अनुभवी न्यायविदों को बनाए रखने तथा रिक्तियों को कम करने में सहायता मिल सकती है।
  • विधिक सहायता और न्याय तक अभिगम्यता को सुदृढ़ करना: न्याय तक अभिगम्यता में सुधार के लिये विधिक सहायता सेवाओं को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।
    • भारत नीदरलैंड की न्यायिक प्रणाली से प्रेरणा ले सकता है, जहाँ प्रत्येक नागरिक को उसकी आय-स्तर के आधार पर सब्सिडी प्राप्त विधिक सहायता का अधिकार है।
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) को और अधिक प्रभावी बनाने के लिये इसके वित्त पोषण में वृद्धि करके, मोबाइल लीगल क्लीनिकों (जैसा कि कुछ भारतीय राज्यों में किया गया है) के माध्यम से इसकी अभिगम्यता का विस्तार करके तथा निशुल्क सेवाओं के लिये विधि विद्यालयों के साथ साझेदारी के माध्यम से इसे मज़बूत करके विधिक सहायता को और अधिक सुलभ बनाया जा सकता है।
      • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से निशुल्क विधिक परामर्श प्रदान करने वाली टेली-लॉ सेवा की शुरुआत एक सकारात्मक कदम है जिसका और भी विस्तार एवं प्रचार किया जा सकता है।
    • विशेष रूप से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 और 39 के अनुसार, सामाजिक एवं आर्थिक दोनों प्रकृति के न्याय को सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय अवसंरचना और संसाधन प्रबंधन: कुशल न्याय प्रदान करने के लिये न्यायालय अवसंरचना में सुधार अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • पूर्व मुख्य न्यायाधीश, एन.वी. रमण ने न्यायालयों के लिये पर्याप्त अवसंरचना की व्यवस्था हेतु भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIAI) विकसित करने का सुझाव दिया।
    • केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) के तहत आवंटित धनराशि का एक बड़ा हिस्सा सख्त दिशानिर्देशों और प्रशासनिक लालफीताशाही के कारण अप्रयुक्त रह जाता है। NITI आयोग के फ्लेक्सी-फंड दिशानिर्देशों में उल्लिखित धनराशि के उपयोग में लचीलापन लाने से राज्यों को न्यायपालिका से संबंधित व्यापक अवसंरचना आवश्यकताओं के लिये धनराशि का उपयोग करने की अनुमति मिल सकती है।
      • इसके अतिरिक्त, यह अनुशंसा की जाती है कि योजना को विस्तार देने से पहले CSS के वित्तीय और भौतिक प्रदर्शन का CAG द्वारा गहन ऑडिट किया जाए।
    • फोकस क्षेत्रों में अधिक न्यायालय कक्षों का निर्माण, वादियों एवं गवाहों के लिये सुविधाओं में सुधार तथा यह सुनिश्चित करना शामिल होना चाहिये कि सभी न्यायालयों में बुनियादी अवसंरचनाएँ और तकनीक उपलब्ध हों।
      • न्यायालय की अवधि के इष्टतम उपयोग एवं मुकदमों के उचित निर्धारण सहित कुशल संसाधन प्रबंधन, उत्पादकता को और बढ़ा सकता है।
  • विशिष्ट न्यायालय और न्यायाधिकरण: अधिक विशिष्ट न्यायालयों और न्यायाधिकरणों की स्थापना से कानून के विशिष्ट क्षेत्रों में मामलों के समाधान में तीव्रता आ सकती है। 
    • उदाहरण के लिये, भारत के राष्ट्रीय कंपनी कानून अधिकरण (NCLT) ने कॉर्पोरेट विवादों को कुशलतापूर्वक सुलझाने में सफलता दिखाई है। वित्त वर्ष 2024 में, NCLT ने 269 समाधान योजनाओं को स्वीकृति दी, जो वित्त वर्ष 2023 के 189 से 42% अधिक है।
    • विभिन्न कानूनी क्षेत्रों के लिये जर्मनी की विशिष्ट न्यायालयों की प्रणाली से सीख लेते हुए, भारत इस मॉडल का विस्तार पर्यावरण कानून, साइबर अपराध और बौद्धिक संपदा अधिकार जैसे क्षेत्रों में कर सकता है, जिससे इस क्षेत्र में विशेषज्ञता वाले न्यायाधीशों के माध्यम से तीव्र एवं अधिक सूचित निर्णय सुनिश्चित हो सकें।
  • पारदर्शिता और जन सहभागिता बढ़ाना: कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, बहुभाषी निर्णय जारी किये जाने चाहिये तथा जन-विश्वास एवं अभिगम्यता बनाने के लिये विधिक साक्षरता कार्यक्रम शुरू किये जाने चाहिये।
    • न्यायिक प्रदर्शन मूल्यांकन की एक पारदर्शी प्रणाली को लागू करने से उत्तरदायित्व और दक्षता बढ़ सकती है।
      • संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा कई राज्यों में न्यायिक प्रदर्शन मूल्यांकन का उपयोग एक आदर्श प्रस्तुत करता है। 
  • न्यायिक अधिकारियों के लिये करुणा प्रशिक्षण का कार्यान्वयन: सभी स्तरों पर न्यायिक अधिकारियों के लिये व्यापक करुणा प्रशिक्षण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन से न्याय प्रदान करने की गुणवत्ता और कथित निष्पक्षता में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।  
    • भारत में, राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी न्यायाधीशों के लिये अपने पाठ्यक्रम में अनिवार्य करुणा प्रशिक्षण को शामिल कर सकती है, जिसमें वास्तविक मामलों के परिदृश्यों एवं भूमिका-निर्धारण अभ्यासों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।
    • साथ ही, न्यायाधीशों और वकीलों के लिये अनिवार्य निरंतर विधिक शिक्षा, विधिक सेवाओं एवं न्यायिक निर्णय लेने की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार ला सकती है।
      • वकीलों के लिये सिंगापुर की अनिवार्य निरंतर व्यावसायिक विकास (CPD) योजना एक उत्कृष्ट मॉडल है।
    • इसके अलावा, न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांत न्यायाधीशों के बीच नैतिक आचरण के लिये एक रूपरेखा प्रदान करते हैं, जो सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता और उत्तरदायित्व पर बल देते हैं।
    • साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में जारी हैंडबुक, जिसमें भारतीय न्यायालयों में लैंगिक रूप से अन्यायपूर्ण भाषा के प्रयोग को चिह्नित कर हतोत्साहित किया गया है, न्यायपालिका में लैंगिक संवेदनशीलता सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

निष्कर्ष

भारत में न्यायिक सुधार को केवल संस्थागत प्रयासों तक सीमित न रहकर एक व्यापक सामाजिक माँग होनी चाहिये। जैसा कि डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था, “न्यायपालिका वह संरक्षक है जो लोकतंत्र को जीवित रखती है और सभ्य जीवन की अभिरक्षक है, जिस पर संपूर्ण राष्ट्र आस्था रखता है।” 

इसलिये न्यायिक सुधारों को तात्कालिकता के साथ लागू करना आवश्यक है, ताकि न्याय प्रत्येक नागरिक के लिये सुलभ हो सके।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न. भारत में लंबित मामलों में योगदान देने वाले कारकों का परीक्षण कीजिये तथा न्यायिक प्रणाली की दक्षता एवं अभिगम्यता में आवश्यक सुधारों को प्रस्तावित कीजिये।

India Justice Report 2025 | State-Based Justice System Performance | To The Point | Drishti IAS

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स
प्रश्न 1. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

भारत के राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर बैठने और कार्य करने हेतु बुलाया जा सकता है। 

भारत में किसी भी उच्च न्यायालय को अपने निर्णय के पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पास है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1                        

(b)  केवल 2

(c)  1 और 2 दोनों  

(d)  न तो 1 और न ही 2

उत्तर:(c)

मेन्स 

प्रश्न 1. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021)

प्रश्न 2. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत-चीन संबंधों में एक नई दिशा का निर्माण

प्रिलिम्स के लिये: चाइना+1 रणनीति, आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24, पीएम-डिवाइन, बिम्सटेक, इन-स्पेस, इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन

मेन्स के लिये: भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध, सहयोग और विवाद। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

भारत के विदेश मंत्री ने दिल्ली में चीन के विदेश मंत्री के साथ एक बैठक की, जो नवंबर 2024 में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) से सेनाओं के हटने के बाद पहली मंत्रिस्तरीय बैठक है। इस चर्चा का केंद्र शांति को सुदृढ़ करना, आर्थिक सहयोग को आगे बढ़ाना और रणनीतिक चुनौतियों का समाधान करना रहा।

भारत-चीन विदेश मंत्रियों की बैठक से क्या प्रमुख बातें सामने आईं?

  • तनाव कम करने और स्थिरता को बढ़ावा देना: दोनों पक्षों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि स्थायी संबंधों के लिये वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति आवश्यक है। भारत ने अपने 3D दृष्टिकोण को दोहराया — डिसएंगेजमेंट (सैन्य टकराव से पीछे हटना), डी-एस्केलेशन (तनाव को कम करना), और डी-इंडक्शन (सेना की वापसी)। इसके साथ ही भारत ने 3 आपसी सिद्धांतों- सम्मान, संवेदनशीलता और हितों पर भी बल दिया।
  • आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को मज़बूत करना:: वार्ता में व्यापार सुविधा, संपर्क, नदी डेटा साझाकरण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया गया, जबकि चीन ने पिछले प्रतिबंधों में ढील देते हुए उर्वरक, दुर्लभ मृदा और सुरंग खोदने वाली मशीनों की आपूर्ति करने पर सहमति व्यक्त की।
    • प्रमुख कदमों में लिपुलेख, शिपकी ला और नाथू ला के माध्यम से सीमा व्यापार को पुनः शुरू करना तथा पर्यटकों, व्यवसायों और मीडिया के लिये वीज़ा सुविधा प्रदान करना शामिल था।
  • सांस्कृतिक एवं लोगों के बीच संबंधों को सुगम बनाना: बैठक में कैलाश मानसरोवर यात्रा को पुनः आरंभ करने तथा पर्यटक वीजा की बहाली पर जोर दिया गया।
    • दोनों पक्षों ने वर्ष 2026 में पीपुल-टू-पीपुल संपर्क पर उच्च स्तरीय तंत्र (High-Level Mechanism) की बैठक आयोजित करने और एक साथ राजनयिक संबंधों की 75वीं वर्षगाँठ मनाने पर भी सहमति व्यक्त की।
  • क्षेत्रीय सुरक्षा और वैश्विक सहभागिता: भारत ने जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद पर चिंता जताई।
    • दोनों देशों ने बहुध्रुवीय विश्व की दिशा में कार्य करने, क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करने और SCO, BRICS और द्विपक्षीय तंत्र जैसे मंचों के माध्यम से सहयोग को मज़बूत करने पर बल दिया।

भारत और चीन के बीच सहयोग के प्रमुख क्षेत्र कौन से हैं?

  • सांस्कृतिक, शैक्षिक और पीपुल-टू-पीपुल संबंध: भारत और चीन के बीच सभ्यतागत संबंध हैं, जिनका उदाहरण ह्वेनसांग और बोधिधर्म हैं। ये संबंध शैक्षणिक सहयोग और भाषा कार्यक्रमों के माध्यम से और अधिक सुदृढ़ हो रहे हैं।
    • आयुर्वेद, योग और भारतीय शास्त्रीय कलाओं में चीन की बढ़ती रुचि, पर्यटन, तीर्थयात्रा और सीधी उड़ानों के साथ-साथ लोगों के बीच आपसी जुड़ाव को मज़बूत करती है।
  • पूंजी प्रवाह और प्रौद्योगिकी साझाकरण: भारतीय स्टार्टअप्स, विशेषकर यूनिकॉर्न ने प्रमुख चीनी फंडिंग को आकर्षित किया है, जिससे उनके विस्तार में सहायता मिली है।
    • वर्ष 2020 तक, 18 यूनिकॉर्न को चीन से 3.5 बिलियन अमरीकी डॉलर से अधिक का निवेश प्राप्त हुआ था।
    • बुनियादी ढाँचे और हाई-स्पीड रेल के क्षेत्र में चीन की उन्नत जानकारी भारत के औद्योगिक विकास के लिये लाभकारी है।
      • इस प्रकार की पूंजी प्रवाह और विशेषज्ञता रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बावजूद जटिल अंतरनिर्भरता को उजागर करती है।
  • बहुपक्षीय सहयोग: भारत और चीन ब्रिक्स, SCO, G-20, एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक (AIIB) और न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) में सहयोग कर वैश्विक दक्षिण एकजुटता, बहुध्रुवीयता और जलवायु कूटनीति को बढ़ावा दे रहे हैं।
    • चीन भारत के अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance- ISA)  का समर्थन करता है, तथा दोनों देशों की ऊर्जा परिवर्तन में साझी हिस्सेदारी है।
    • वर्ष 2024 ब्रिक्स कज़ान शिखर सम्मेलन सहित नेतृत्व बैठकें और शिखर सम्मेलन द्विपक्षीय संबंधों को रणनीतिक दिशा प्रदान करते हैं।
  • जलवायु न्याय और दक्षिण-दक्षिण सहयोग: भारत और चीन जलवायु न्याय, हरित वित्तपोषण और दक्षिण-दक्षिण सहयोग को आगे बढ़ाने में समान आधार पाते हैं।
    • दोनों देश पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए कार्बन टैरिफ और वैश्विक जलवायु शासन में अंतर्निहित असमानताओं के बारे में गहरी चिंताएँ साझा करते हैं।
      • यह अभिसरण अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर नीति संरेखण और समन्वय की अनुमति देता है।
    • COP29 में उन्होंने संयुक्त रूप से यूरोपीय संघ के कार्बन बॉर्डर टैक्स का विरोध किया, तथा इसके अनुचित प्रतिस्पर्द्धा और नकारात्मक आर्थिक प्रभावों के जोखिमों को चिह्नित किया।
      • इस तरह का सहयोग बहुपक्षीय जलवायु वार्ता में उनके एकजुट रुख को मज़बूत करता है।

भारत-चीन संबंधों में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • लगातार सीमा विवाद: 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) अब भी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है, जिससे दोनों पक्षों द्वारा बार-बार घुसपैठ और बुनियादी ढाँचे के निर्माण की घटनाएँ सामने आती रहती हैं।
    • चीन अकसाई चिन के 38,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा किये हुए है और अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को 'दक्षिण तिब्बत' बताकर अपना दावा करता है।
    • चीन अकसाई चिन के 38,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा किए हुए है और अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को दक्षिण तिब्बत बताकर दावा करता है।
    • पारस्परिक रूप से सहमत मानचित्रों के अभाव के कारण सत्यापन और गश्ती समन्वय जटिल हो जाता है, तथा देपसांग और चार्डिंग-निंगलुंग नाला जैसे टकराव वाले बिंदु अभी भी अनसुलझे हैं।
    • हाल ही में डोकलाम गतिरोध (2017) और गलवान घाटी संघर्ष (2020) भारत-चीन सीमा पर लगातार अस्थिरता को उजागर करते हैं।

  • आर्थिक असमानता और व्यापार निर्भरता: चीन भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साथी है (अमेरिका के बाद) 2024-25 में, जिसमें द्विपक्षीय व्यापार का कुल मूल्य 127.7 अरब अमेरिकी डॉलर है। भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 2023-24 में बढ़कर 85 अरब डॉलर हो गया है, जो 2022-23 में 83.2 अरब डॉलर था।
  • आर्थिक विषमता और व्यापार निर्भरता: चीन 2024-25 में भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार (अमेरिका के बाद) होगा, जिसका द्विपक्षीय व्यापार का कुल मूल्य 127.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर होगा और चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा वर्ष 2022-23 में 83.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2023-24 में 85 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो जाएगा।
    • भारत चीनी API, इलेक्ट्रॉनिक्स और सौर पैनल का आयात करता है और निर्यात ज्यादातर कम मूल्य का होता है, जबकि चीनी आयात उच्च मूल्य का होता है।
  • सामरिक एवं सुरक्षा चुनौतियाँ: PoK से होकर चीन का चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) और पाकिस्तान के साथ उसका सैन्य/परमाणु सहयोग भारत की सामरिक असुरक्षा को बढ़ाता है।
    • चीन वैश्विक मंचों पर भारत की न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) सदस्यता और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सीट की आकांक्षाओं में बाधा डालता है, साथ ही पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों को संरक्षण प्रदान करता है, जिससे भारत की रणनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ बाधित होती हैं।
    • इसके अलावा भारत चीनी प्रौद्योगिकी पर बहुत अधिक निर्भर है, चीनी कंपनियों के पास स्मार्टफोन बाज़ार का लगभग 75% हिस्सा है और EV, दूरसंचार और अर्द्धचालक जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र चीन पर निर्भर हैं।
      • चीन से जुड़े तत्त्वों द्वारा उत्पन्न साइबर खतरों ने स्वास्थ्य सेवा और विद्युत नेटवर्क को निशाना बनाया है, जिसके कारण भारत ने 300 से अधिक चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगा दिया है और हुआवेई जैसी कंपनियों को 5G परीक्षणों से बाहर कर दिया है।
  • जल विज्ञान और पर्यावरण संबंधी चिंताएँ: चीन का ब्रह्मपुत्र और सतलुज जैसी नदियों पर नियंत्रण है और मेडोग और जांगमु बाँध जैसी परियोजनाएँ भारत की जल सुरक्षा के लिये खतरा हैं और साथ ही महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय चिंताएँ भी पैदा कर रही हैं।
    • ब्रह्मपुत्र पर जलविज्ञान संबंधी आँककड़ों को साझा करने की समय सीमा 2023 में समाप्त हो गई है, हालाँकि हालिया चर्चाओं से इसके नवीकरण की उम्मीद जगी है, लेकिन स्थिति अभी भी संवेदनशील बनी हुई है और इसके लिये सावधानीपूर्वक प्रबंधन की आवश्यकता है।
  • क्षेत्रीय नेतृत्व के लिए प्रतिस्पर्द्धा: भारत और चीन दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में प्रभुत्व के लिये प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं, तथा चीन समुद्री रेशम मार्ग/मोतियों की माला के माध्यम से अपने समुद्री क्षेत्र का विस्तार कर रहा है।
    • श्रीलंका (हंबनटोटा) और म्याँमार (क्याउकप्यू) जैसे प्रमुख बंदरगाहों पर इसकी उपस्थिति भारत के क्षेत्रीय प्रभाव को चुनौती देती है।

भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों को सुदृढ़ करने हेतु क्या उपाय किये जाने चाहिये?

  • रणनीतिक संवाद को और सशक्त बनाना: वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर तनावपूर्ण बिंदुओं को हल करने के लिये विशेष प्रतिनिधि (SR) स्तर और सीमा मामलों पर परामर्श एवं समन्वय के लिये  कार्यकारी तंत्र (WMCC) की वार्ताएँ जारी रखी जाएँ, जिसमें पूर्ण विसैन्यीकरण, तनाव कम करना तथा शांति बहाल करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
    • SCO और BRICS जैसे मंचों पर नियमित सहभागिता विश्वास निर्माण कर सकती है तथा संघर्षों को रोकने में सहायक हो सकती है।
    • विश्वास-निर्माण उपायों (CBM) को केवल सैन्य वार्ताओं तक सीमित न रखकर, उन्हें आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान तक विस्तारित किया जाए ताकि सीमा क्षेत्रों में आपसी विश्वास बढ़ाया जा सके।
    • संवेदनशील क्षेत्रों में विमिलिटरीकृत बफर ज़ोन स्थापित करना और विसैन्यीकरण के लिये स्पष्ट प्रोटोकॉल पर सहमत होना आपसी विश्वास को सुदृढ़ करेगा तथा आकस्मिक संघर्षों को रोकेगा।
    • साथ ही, भारत को स्मार्ट सीमा अवसंरचना, ISR (खुफिया, निगरानी एवं टोही) तकनीकों तथा पर्वतीय युद्ध की तैयारी में निवेश कर अपनी विश्वसनीय प्रतिरोधक क्षमता को मज़बूत बनाना चाहिये।
  • आर्थिक और व्यापार संतुलन: चीन के साथ व्यापार महत्त्वपूर्ण बने रहने के बावजूद, भारत को चयनात्मक आर्थिक सहभागिता अपनानी चाहिये, जिसमें पूंजीगत वस्तुएँ और प्रौद्योगिकी आयात बढ़ाए जाएँ, जबकि दूरसंचार तथा फार्मास्यूटिकल्स जैसे रणनीतिक क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भरता कम की जाएँ।
    • बाज़ार पहुँच, निवेश जाँच और आपूर्ति शृंखला विविधीकरण पर संरचित वार्ताएँ ऐसे सहयोग की अनुमति देंगी, जिससे सुरक्षा से समझौता किये बिना सहभागिता सुनिश्चित की जा सके।
  • जल और पर्यावरणीय चिंताओं का प्रबंधन: ब्रह्मपुत्र पर हाइड्रोलॉजिकल डेटा साझा करना पुनः शुरू करके और दीर्घकालिक, संस्थागत जल-साझाकरण ढाँचा स्थापित करके सीमापार नदी शासन को सुदृढ़ किया जाएँ।
    • स्थाई बाँध प्रबंधन, बाढ़ पूर्वानुमान और जलवायु-सहिष्णु प्रथाओं के लिये संयुक्त तंत्र को बढ़ावा दिया जाएँ, जिसमें पर्यावरणीय सुरक्षा उपाय तथा पारिस्थितिक स्थिरता को शामिल किया जाए ताकि नदी के निचले इलाकों के समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
  • बहुपक्षीय सहयोग मंचों का उपयोग: भारत और चीन BRICS, SCO, G20 तथा जलवायु वार्ताओं जैसे मंचों पर साझा स्थान रखते हैं। वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के सुधार, दक्षिण-दक्षिण सहयोग और सतत् विकास वित्तपोषण जैसे मुद्दों पर आधारित गठबंधन बनाना द्विपक्षीय मतभेदों से परे सहयोग को बढ़ावा दे सकता है।
    • यह भारत को चीन के प्रभाव का लाभ उठाने में सहायता करता है और साथ ही अपनी नेतृत्व क्षमता को भी प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान करता है।
  • वृद्धिवाद के माध्यम से दीर्घकालिक विश्वास निर्माण: ‘भव्य पुनःस्थापना’ का लक्ष्य रखने के बजाय, भारत को वृद्धिशील विश्वास-निर्माण को अपनाना चाहिये और धीरे-धीरे विश्वास बढ़ाने के लिये छोटे-छोटे सत्यापन योग्य कदम उठाने चाहिये।
    • महामारी की तैयारी, आपदा राहत सहयोग और छात्र आदान-प्रदान जैसी पहल, मुख्य विवादों को सुलझाने से पहले कम लागत वाले, उच्च प्रभाव वाले विश्वास गुणक के रूप में कार्य कर सकती हैं।

निष्कर्ष

भारत-चीन संबंध धीरे-धीरे सीमाई स्थिरता, व्यापार और सामरिक संवाद के माध्यम से रचनात्मक सहभागिता की ओर बढ़ रहे हैं। यद्यपि क्षेत्रीय विवादों, आर्थिक असंतुलन और तकनीकी निर्भरता जैसी चुनौतियाँ अब भी मौजूद हैं, फिर भी विश्वास-निर्माण उपायों, सामरिक स्वायत्तता, क्षेत्रीय सहयोग तथा वैश्विक बहुध्रुवीय सहभागिता के संयोजन से एक स्थिर, सहयोगपूर्ण व भविष्यन्मुखी द्विपक्षीय संबंध की राह प्रशस्त की जा सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत-चीन संबंधों में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय स्थिरता और सहयोग बढ़ाने के उपाय भी सुझाएँ।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स

प्रश्न. कभी-कभी समाचारों में आने वाला 'बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (Belt and Road Initiative)' किसके मामलों के संदर्भ में आता है? (2016)

(a) अफ्रीकी संघ
(b) ब्राज़ील
(c) यूरोपीय संघ
(d) चीन

उत्तर: (d)

मेन्स 

प्रश्न. चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सी० पी० ई० सी०) को चीन की अपेक्षाकृत अधिक विशाल 'एक पट्टी एक सड़क' पहल के एक मूलभूत भाग के रूप में देखा जा रहा है। सी० पी० ई० सी० का एक संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कीजिये और भारत द्वारा उससे किनारा करने के कारण गिनाइए। (2018)


मुख्य परीक्षा

जल जीवन मिशन

स्रोत: PIB  

चर्चा में क्यों?

15 अगस्त, 2025 को जल जीवन मिशन (JJM) की 6वीं वर्षगाँठ मनाई गई, जिसमें 15 करोड़ घरों तक नल के जल की पहुँच सुनिश्चित करने के इसके प्रभाव को प्रदर्शित किया गया।

जल जीवन मिशन क्या है?

परिचय: 

  • 15 अगस्त, 2019 को शुरू किया गया जल जीवन मिशन (JJM) का उद्देश्य प्रत्येक ग्रामीण घर को वर्ष 2024 तक (अब 2028 तक बढ़ाया गया है) नल का जल उपलब्ध कराना है, जिसमें प्रति व्यक्ति प्रति दिन 55 लीटर पानी का लक्ष्य रखा गया है। यह एक केंद्रीय प्रायोजित योजना है, जिसे जल शक्ति मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।

उद्देश्य

म्नेमोनिक: TAP

  • T – Target Every Rural Household (प्रत्येक ग्रामीण परिवार को लक्ष्य बनाना): सभी ग्रामीण घरों को फंक्शनल हाउसहोल्ड टैप कनेक्शन (FHTC) उपलब्ध कराना।
  • A – Areas of Priority (प्राथमिकता वाले क्षेत्र): गुणवत्ता-प्रभावित, सूखा-ग्रस्त, मरुस्थलीय क्षेत्रों और सांसद आदर्श ग्राम योजना (SAGY) वाले गाँवों पर विशेष ध्यान।
  • P – Public Places (सार्वजनिक स्थान): स्कूलों, आँगनवाड़ी केंद्रों, ग्राम पंचायतों और सामुदायिक भवनों में नल की सुविधा सुनिश्चित करना।

विशेषताएँ:

म्नेमोनिक: WATER

  • W – Women and Weaker Sections (महिला और कमज़ोर वर्ग): गाँव जल एवं स्वच्छता समिति (VWSC) और पानी समितियों में 50% महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना।
  • A – Awareness and Stakeholder Involvement (जागरूकता और हितधारकों की भागीदारी): जल के लिये जनआंदोलन, श्रमदान जैसी स्वैच्छिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना।
  • T – Technological Interventions (प्रौद्योगिकीय हस्तक्षेप): JJM-IMIS (इंटीग्रेटेड मैनेजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम), रियल-टाइम डैशबोर्ड, और जल आपूर्ति हेतु IoT आधारित सेंसर समाधान।
  • E – Empowerment through Education (शिक्षा के माध्यम से सशक्तीकरण): प्रति गाँव 5 व्यक्तियों (विशेषकर महिलाओं) को जल गुणवत्ता परीक्षण का प्रशिक्षण प्रदान करना।
  • R – Rural Focus (ग्रामीण केंद्रित):हैबिटेशन’ से ‘हाउसहोल्ड’ पर ध्यान केंद्रित करते हुए विकेंद्रीकृत, मांग-आधारित और समुदाय-प्रबंधित जल आपूर्ति।             

COMPONENT OF JJM

JJM के कामकाज को प्रभावित करने वाली प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

म्नेमोनिक: GAPS

  • G – Gaps in Data (आँकड़ों में कमी): अविश्वसनीय आँकड़ों को लेकर चिंता, जिससे ग्रामीण जल आपूर्ति समस्याओं का समाधान कठिन हो जाता है। 12,000 से अधिक ग्रामीण बस्तियाँ लोहा, नाइट्रेट, लवणता और भारी धातुओं से प्रदूषित हैं।
  • A – Absence of Infrastructure Quality (बुनियादी ढाँचे की गुणवत्ता का अभाव): संसदीय स्थायी समिति ने रेखांकित किया कि पाइपलाइन बिछाने के बाद सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे की पुनर्बहाली कई राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में निम्न स्तर की है।
  • P – Poor Maintenance Planning (रखरखाव की कमज़ोर योजना): वर्ष 2025 के मध्य तक केवल 20 राज्यों ने ही मरम्मत और रखरखाव की व्यापक नीतियाँ बनाई हैं।
  • S – Sluggish Execution (निष्क्रिय क्रियान्वयन): आवश्यक कार्यों और परियोजनाओं के धीमे कार्यान्वयन से मिशन की प्रगति प्रभावित हो रही है।

जल जीवन मिशन (JJM) के कार्यान्वयन को बेहतर बनाने के लिये कौन-से प्रमुख कदम उठाए जा सकते है?

म्नेमोनिक: REPAIR

  • R - Revise Infrastructure Quality (बुनियादी ढाँचे की गुणवत्ता में सुधार): पुनर्स्थापन प्रावधानों को लागू करना, ठेकेदारों के भुगतान को सत्यापित गुणवत्ता से जोड़ना और एकीकृत योजना अपनाना। जल आपूर्ति परियोजनाओं में उच्च-गुणवत्ता वाले बुनियादी ढाँचे और जवाबदेही सुनिश्चित करना।
  • E - Ensure Data Authenticity (डेटा की प्रामाणिकता सुनिश्चित करना): थर्ड-पार्टी ऑडिट अनिवार्य करना, जियोटैगिंग का उपयोग करना और पारदर्शिता के लिये सार्वजनिक डैशबोर्ड स्थापित करना। डेटा की विश्वसनीयता बढ़ाना और JJM की प्रगति की प्रभावी निगरानी सुनिश्चित करना।
  • P - Performance-based Funding (प्रदर्शन-आधारित वित्तपोषण): पिछड़े राज्यों में टास्क फोर्स तैनात करना, फंडिंग को प्रदर्शन से जोड़ना। राज्यों की प्रगति के आधार पर फंडिंग को बाँधें ताकि जवाबदेही बढ़े और कार्यान्वयन तेज़ हो जाए।
  • A - Awareness & Testing (जागरूकता और परीक्षण): सुरक्षित पाइप जल सुनिश्चित करना, ग्राम पंचायतों द्वारा अनिवार्य परीक्षण कराना और जागरूकता अभियान चलाना। जल सुरक्षा पर सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाना तथा नियमित परीक्षण सुनिश्चित करना।
  • I - Integrate Financial Reforms (वित्तीय सुधारों का एकीकरण): ₹12,000 SBM-G प्रोत्साहन की समीक्षा करना और JJM को वर्षा जल संचयन एवं अटल भूजल योजना से जोड़ना। वित्तीय सहायता को मज़बूत करना और जल संरक्षण पहलों का एकीकरण करना।
  • R - Repair & Maintenance Planning (मरम्मत और रखरखाव से संबंधित योजना): राष्ट्रीय स्तर पर मरम्मत एवं रखरखाव की नीति सुनिश्चित करना और नियमित रूप से समीक्षा करना। बाधाओं को रोकना तथा जल प्रणालियों की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करना।

क्या आप जानते हैं?

  • पीने का पानी एक राज्य सूची का विषय है, जिसमे पेयजल आपूर्ति योजनाओं की योजना बनाने, अनुमोदन करने और लागू करने की शक्ति राज्य सरकार के पास होती है।
  • वर्ष 2019 में केवल 3.23 करोड़ ग्रामीण परिवारों (17%) के पास नल का पानी था, वर्ष 2025 तक यह कवरेज बढ़कर 15+ करोड़ परिवारों (80%) तक पहुँच गया।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: अपर्याप्त ग्रामीण जल आपूर्ति के वित्तीय और सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन कीजिये तथा उन्हें दूर करने के उपाय सुझाइये। 

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न   

मेन्स

प्रश्न 1. जल संरक्षण एवं जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020)

प्रश्न. जल तनाव (Water Stress) क्या है? भारत में क्षेत्रीय स्तर पर यह कैसे और क्यों भिन्न है? (2019)


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