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भारतीय राजव्यवस्था

भारत की न्यायिक प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन

  • 21 Aug 2025
  • 167 min read

यह एडिटोरियल 20/08/2025 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित "Streamlining Case Management at the Supreme Court: A Successful Approach to Reducing Pendency" पर आधारित है। इस लेख के तहत 4.83% तक लंबित मामलों को कम करने में सर्वोच्च न्यायालय की सफलता पर प्रकाश डाला गया है; हालाँकि, भारत की न्यायपालिका में चुनौतियाँ बनी हुई हैं तथापि विभिन्न न्यायालयों में लंबित मामले अभी भी एक महत्त्वपूर्ण चिंता का विषय हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में सुनियोजित सुधारों की एक शृंखला के माध्यम से केवल 100 दिनों में लंबित मामलों की संख्या में 4.83% की कमी लाकर एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। न्यायपालिका की चुनौतियाँ केवल सर्वोच्च न्यायालय तक सीमित नहीं हैं। “न्याय में विलंब, न्याय से वंचित करने के समान है !” का लगातार मुद्दा इस प्रणाली को प्रभावित करता रहता है और न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर विलंब अभी भी व्यापक है। हालाँकि यह प्रगति अन्य न्यायिक मंचों के लिये एक मूल्यवान मॉडल तो प्रस्तुत करती है, तथापि यह लंबित मामलों के मूल कारणों का समाधान करने तथा समग्र भारत में समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिये एक अधिक व्यवस्थित एवं डेटा-आधारित दृष्टिकोण की आवश्यकता को भी उजागर करती है।

भारत में न्याय वितरण प्रणाली में कौन-से सुधार पेश किये गए हैं?

  • संस्थागत और मिशन-आधारित सुधार:
    • राष्ट्रीय न्याय वितरण एवं विधिक सुधार मिशन (2011): इसकी स्थापना विलंब और लंबित मामलों को कम करके अभिगम्यता में सुधार लाने तथा संरचनात्मक परिवर्तनों एवं प्रदर्शन मानकों के माध्यम से उत्तरदायित्व बढ़ाने के लिये की गई थी।
    • फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTCs): 14वें वित्त आयोग के तत्त्वावधान में, सरकार ने जघन्य अपराधों; वरिष्ठ नागरिकों, महिलाओं, बच्चों आदि से जुड़े मामलों से निपटने के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किये हैं।
      • अक्तूबर 2024 तक, पूरे भारत में 800 से अधिक FTC कार्यरत थे।
    • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG): राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) ज़िला व अधीनस्थ न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के आदेशों, निर्णयों एवं केस विवरणों का एक व्यापक डेटाबेस प्रदान करता है।
      • वर्तमान में, यह पूरे भारत में 18,735 ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों के केस विवरणों को कवर करता है।
  • न्यायिक सुधार के लिये विधायी उपाय: न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या कम करने और कार्य-प्रणाली को सुचारू बनाने के लिये, सरकार ने वाणिज्यिक न्यायालय (संशोधन) अधिनियम, 2018, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 और मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019 जैसे विभिन्न कानूनों में संशोधन किये हैं।
  • न्यायपालिका का डिजिटल परिवर्तन:
    • ई-कोर्ट: ई-कोर्ट्स मिशन मोड प्रोजेक्ट का उद्देश्य डिजिटल सॉल्यूशन्स के माध्यम से न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया को बेहतर बनाना है।
      • इसके अतिरिक्त, वकीलों और वादियों को नागरिक-केंद्रित सेवाएँ प्रदान करके डिजिटल डिवाइड को समाप्त करने के लिये आभासी न्यायालयों और ई-सेवा केंद्रों को क्रियाशील बनाया गया है।
      • दिसंबर 2024 तकके तहत, , WAN परियोजना 99.5% न्यायालय परिसर आपस में जुड़ चुके हैं, जिससे देश भर में 3,240 न्यायालयों और 1,272 कारागारों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग संभव हो गई है।
    • टेली-लॉ और प्रो बोनो (जनहितार्थ निशुल्क सेवा) संस्कृति को बढ़ावा: यह कार्यक्रम वर्ष 2017 में कॉमन सर्विस सेंटर्स (CSCs) के माध्यम से विधिक परामर्श लेने वाले वंचित वर्गों को जोड़ने वाला एक प्रभावी और विश्वसनीय ई-इंटरफेस प्लेटफॉर्म प्रदान करने के लिये शुरू किया गया था।
      • इसके अलावा, प्रो बोनो संस्कृति को संस्थागत बनाने के प्रयास किये गए हैं, जिसमें एक तकनीकी कार्यढाँचा अधिवक्ताओं को NyayaBandhu पर प्रो बोनो अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण करने की अनुमति देता है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR): वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को बढ़ावा देने के लिये, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 में संशोधन किया गया, जिससे वाणिज्यिक विवादों के मामले में पूर्व-संस्था मध्यस्थता और निपटान (PIMS) अनिवार्य हो गया।
    • इसके अतिरिक्त, समय-सीमा निर्धारित करके विवादों के शीघ्र समाधान में तीव्रता लाने के लिये मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में संशोधन किया गया है।
    • लोक न्यायालय आम लोगों के लिये उपलब्ध एक महत्त्वपूर्ण वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र है।

भारतीय न्यायपालिका की प्रभावशीलता को प्रभावित करने वाली प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • बढ़ते लंबित मामले और न्याय में विलंब: भारत की न्यायिक प्रणाली वर्तमान में विभिन्न न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक लंबित मामलों के बोझ तले दबी हुई है। अधीनस्थ न्यायालयों में, इनमें से 50% से अधिक मामले तीन वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।
    • राज्यसभा में साझा किये गए आँकड़ों (2023) के अनुसार, उच्च न्यायालयों में 1,514 मामले और अधीनस्थ व ज़िला न्यायालयों में 1,390 मामले 50 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।
    • ये व्यापक लंबित मामले न केवल वादियों को समय पर न्याय से वंचित करते हैं, बल्कि न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को भी कम करते हैं।
    • यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि “तारीख पर तारीख” मुहावरा भारत की न्यायिक प्रणाली में लगातार हो रही विलंब का प्रतीक बन गया है।
  • निरंतर न्यायिक रिक्तियाँ: न्यायपालिका के सभी स्तरों पर न्यायाधीशों की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है, जो लंबित मामलों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि कर रही है।
    • इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (IJR) 2025 के अनुसार, वर्ष 2020 और 2024 के दौरान, भारतीय न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या में लगभग 20% की वृद्धि हुई है। इस तीव्र वृद्धि के बावजूद, न्यायिक रिक्तियाँ लगातार उच्च बनी हुई हैं, उच्च न्यायालयों में स्वीकृत पदों का लगभग 33% रिक्त है।
    • भारत का न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात विश्व में सबसे कम है, जहाँ प्रति दस लाख लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश हैं।
      • यह आँकड़ा विधि आयोग द्वारा वर्ष 1987 में अनुशंसित प्रति दस लाख 50 न्यायाधीशों के मानक के आधे से भी कम (सर्वोच्च न्यायालय ऑब्ज़र्वर) है।
      • यह कमी न केवल वर्तमान न्यायाधीशों पर अधिक बोझ डालती है, बल्कि समग्र न्यायिक प्रक्रिया को भी बाधित करती है।
    • कॉलेजियम प्रणाली, न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए, प्रायः इसकी अपारदर्शिता एवं नियुक्तियों में विलंब के लिये आलोचना की जाती है, जिससे समस्या और बढ़ जाती है।
  • अवसंरचनात्मक और तकनीकी खामियाँ: आधुनिकीकरण के प्रयासों के बावजूद, कई भारतीय न्यायालयों में अभी भी पर्याप्त अवसंरचनात्मक और तकनीकी सहायता का अभाव है, जिससे कुशल न्याय प्रदान करने में बाधा आ रही है।
    • ज़िला न्यायपालिका में न्यायाधीशों के स्वीकृत 25,081 पदों के लिये, 4,250 न्यायालय कक्षों और 6,021 आवासीय इकाइयों की कमी है।
    • भारत भर की न्यायालयों में, ई-न्यायालय पहल अपर्याप्त कनेक्टिविटी, अप्रशिक्षित कर्मियों और अपर्याप्त अवसंरचनाओं के कारण संघर्ष करती है।
    • ई-सेवा केंद्र, ई-फाइलिंग प्रणाली और कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग आशाजनक समाधान प्रदान करते हैं, लेकिन उनका प्रभाव असमान और प्रायः प्रतीकात्मक होता है। जैसा कि आईजेआर चेतावनी देता है, "प्रौद्योगिकी संरचनात्मक सुधार का विकल्प नहीं हो सकती।"
      • मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा वर्ष 2021 में किये गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि केवल 41% अवर न्यायालय परिसरों में स्टूडियो-आधारित वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाएँ थीं तथा केवल 38% में कारागारों के साथ वीडियो लिंकेज थे, जो तकनीकी कमियों को उजागर करता है।
  • न्यायिक उत्तरदायित्व का अभाव: न्यायिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिये एक सुदृढ़ तंत्र का अभाव चिंता का विषय रहा है, जो न्यायपालिका में जनता के विश्वास को प्रभावित कर सकता है।
    • न्यायाधीशों को पदच्युत करने के लिये वर्तमान महाभियोग प्रणाली का प्रयोग बहुत कम होता है और यह उन मामलों में अपर्याप्त मानी जाती है जहाँ आचरण महाभियोग योग्य अपराध से कम हो। 
    • कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के प्रस्ताव को सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में खारिज कर दिया था, जिसके कारण न्यायिक स्वतंत्रता बनाम उत्तरदायित्व पर बहस जारी है।
      • न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा (दिल्ली उच्च न्यायालय) सहित हाल के विवादों ने न्यायिक कार्यप्रणाली और नियुक्तियों में अधिक पारदर्शिता की माँग को बढ़ावा दिया है।
    • साथ ही, हाल ही में एक सूचना का अधिकार (RTI) से पता चला है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने ज़िला न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों पर आँकड़े देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि “ऐसा कोई आँकड़ा नहीं रखा जाता है,” जिससे उत्तरदायित्व को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • न्याय तक अभिगम्यता में बाधाएँ: न्याय तक अभिगम्यता प्राप्त करने में बाधाएँ एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई हैं, विशेषकर समाज के सीमांत और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये।
    • हालाँकि विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987, आर्थिक रूप से वंचित व्यक्तियों को निशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने का आदेश देता है, लेकिन इसका कार्यान्वयन असंगत बना हुआ है। संसाधनों की कमी, सीमित अभिगम्यता और प्रक्रियागत जटिलताएँ प्रायः विधिक सहायता सेवाओं के प्रभावी वितरण में बाधा डालती हैं।
      • भारत की लगभग 80% आबादी विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत निशुल्क विधिक सहायता के लिये पात्र है। हालाँकि, केवल लगभग 1% पात्र व्यक्ति ही इन सेवाओं का उपयोग कर पाते हैं।
    • पिछले एक दशक में, भारतीय कारागारों में विचाराधीन कैदियों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है।
      • IJR- 2025 के अनुसार, विचाराधीन कैदी अब देश की कारागारों में बंदी संख्या का 76% हिस्सा हैं, जो वर्ष 2012 में 66% था।
  • न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व और विविधता का अभाव: भारतीय न्यायपालिका में विविध समूहों का कम प्रतिनिधित्व (विशेष रूप से लिंग, जाति और क्षेत्रीय विविधता के संदर्भ में) एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है।
    • भारत में अभी भी अपनी पहली महिला मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति प्रतीक्षारत है और वर्ष 2027 में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना द्वारा यह पदभार ग्रहण करने की उम्मीद है।
    • मार्च 2025 तक, उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व केवल 14.27% है।
      • 8 उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला न्यायाधीश हैं, जबकि उत्तराखंड, मेघालय और त्रिपुरा के उच्च न्यायालयों में कोई भी महिला न्यायाधीश नहीं है।
    • अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व भी कम बना हुआ है।
      • विविधता का यह अभाव न केवल न्यायपालिका की धारणा को प्रभावित करता है, बल्कि सीमांत समुदायों से जुड़े मामलों की समझ एवं व्याख्या को भी संभावित रूप से प्रभावित करता है।
    • इसके अलावा, 'अंकल जज सिंड्रोम' पक्षपात को दर्शाता है, जो योग्यता को कम करता है तथा न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में जनता के विश्वास को कम करता है।
  •  न्यायिक सक्रियता और संभावित अतिक्रमण: न्यायिक सक्रियता और अतिक्रमण के बीच की बारीक रेखा बहस का विषय बनी हुई है।
    • न्यायिक सक्रियता ने विधायी कमियों को भरने (जैसा कि विशाखा निर्णय (1997) में देखा गया है) और मूल अधिकारों के दायरे को व्यापक बनाने (जैसा कि मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में देखा गया है) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
      • हालाँकि, आलोचकों का तर्क है कि यह कभी-कभी विधायिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देती है।
    • हाल ही में चुनावी बॉण्ड योजना मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, जिसमें उसने न केवल कानून को रद्द किया, बल्कि दानकर्त्ता की जानकारी के प्रकटीकरण के लिये विस्तृत निर्देश भी जारी किये, एक हालिया उदाहरण है जिस पर न्यायिक अतिक्रमण के रूप में बहस हुई है।
  • कार्यपालिका का हस्तक्षेप और न्यायिक स्वतंत्रता: न्यायिक स्वतंत्रता और कार्यपालिका की निगरानी के बीच का नाजुक संतुलन एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है।
    • सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित न्यायिक नियुक्तियों को स्वीकृति देने में सरकार के विलंब और न्यायाधीशों के चुनिंदा स्थानांतरण ने चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
      • साथ ही, वर्ष 2020 में न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर के स्थानांतरण को प्रायः न्यायपालिका पर कार्यपालिका के संभावित प्रभाव से संबंधित चिंताओं के एक प्रमुख उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है।
    • इसके अलावा, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के राज्यसभा में नामांकन ने बहस छेड़ दी है, कुछ पर्यवेक्षकों ने आगाह किया है कि इस तरह के कदमों से “क्विड प्रो क्वो” (अर्थात् किसी वस्तु के बदले में दिया गया उपकार) की धारणाएँ उत्पन्न हो सकती हैं तथा न्यायिक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठ सकते हैं।

भारतीय न्यायपालिका की दक्षता और प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • प्रौद्योगिकी के माध्यम से केस प्रबंधन को सुव्यवस्थित करना: भारत ई-कोर्ट परियोजना को पूरी तरह से लागू और विस्तारित करके, न्यायालयी रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण, ऑनलाइन केस फाइलिंग एवं AI-सहायता प्राप्त केस प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करके लंबित मामलों की संख्या को उल्लेखनीय रूप से कम कर सकता है।
    • सिंगापुर की न्यायपालिका की इंटीग्रेटेड केस मैनेजमेंट सिस्टम (ICMS) के साथ सफलता एक उत्कृष्ट मॉडल के रूप में कार्य करती है।
    • जमानत आदेशों के त्वरित प्रसारण के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा FASTER (इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड्स का तेज़ और सुरक्षित ट्रांसमिशन) प्रणाली की शुरुआत सही दिशा में एक कदम है।
    • इसके अलावा, SUVAS एवं SUPACE नवीन AI-संचालित पहल हैं जिनका न्याय तक अभिगम्यता में सुधार तथा न्यायालयी दक्षता बढ़ाने के लिये और विस्तार किया जा सकता है।
      • न्यायिक कर्मियों और वकीलों के लिये व्यापक प्रशिक्षण के साथ, ऐसी पहलों का सभी स्तरों की न्यायालयों तक विस्तार करके, केस प्रबंधन दक्षता में सुधार किया जा सकता है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्रों को बढ़ावा देना: मध्यस्थता, पंचनिर्णय एवं लोक न्यायालयों जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों को बढ़ावा देना और उन्हें सुदृढ़ करना औपचारिक न्यायालयों पर बोझ को बहुत हद तक कम कर सकता है।
    • भारत का हालिया मध्यस्थता अधिनियम, 2023, मध्यस्थता के लिये एक वैधानिक आधार प्रदान करता है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की आवश्यकता है।
    • अधिक मध्यस्थता केंद्र स्थापित करना, पेशेवर मध्यस्थों को प्रशिक्षित करना और कर लाभों या समझौतों के तीव्र प्रवर्तन के माध्यम से वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को प्रोत्साहित करना, वादियों को विवाद समाधान के इन तीव्र, कम विरोधात्मक तरीकों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है।
  • न्यायिक नियुक्तियों और रिक्तियों में सुधार: न्यायिक रिक्तियों को दूर करने के लिये नियुक्ति प्रक्रिया को सरल बनाने तथा न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में वृद्धि करने की आवश्यकता है।
    • सामाजिक, क्षेत्रीय और लैंगिक आधार पर पारदर्शिता, उत्तरदायित्व एवं व्यापक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये एक न्यायिक नियुक्ति आयोग की शुरुआत करके कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।
    • इसके अलावा, न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ाने से, जैसा कि UK में लागू किया गया है (उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिये 75 वर्ष), अनुभवी न्यायविदों को बनाए रखने तथा रिक्तियों को कम करने में सहायता मिल सकती है।
  • विधिक सहायता और न्याय तक अभिगम्यता को सुदृढ़ करना: न्याय तक अभिगम्यता में सुधार के लिये विधिक सहायता सेवाओं को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।
    • भारत नीदरलैंड की न्यायिक प्रणाली से प्रेरणा ले सकता है, जहाँ प्रत्येक नागरिक को उसकी आय-स्तर के आधार पर सब्सिडी प्राप्त विधिक सहायता का अधिकार है।
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) को और अधिक प्रभावी बनाने के लिये इसके वित्त पोषण में वृद्धि करके, मोबाइल लीगल क्लीनिकों (जैसा कि कुछ भारतीय राज्यों में किया गया है) के माध्यम से इसकी अभिगम्यता का विस्तार करके तथा निशुल्क सेवाओं के लिये विधि विद्यालयों के साथ साझेदारी के माध्यम से इसे मज़बूत करके विधिक सहायता को और अधिक सुलभ बनाया जा सकता है।
      • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से निशुल्क विधिक परामर्श प्रदान करने वाली टेली-लॉ सेवा की शुरुआत एक सकारात्मक कदम है जिसका और भी विस्तार एवं प्रचार किया जा सकता है।
    • विशेष रूप से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 और 39 के अनुसार, सामाजिक एवं आर्थिक दोनों प्रकृति के न्याय को सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय अवसंरचना और संसाधन प्रबंधन: कुशल न्याय प्रदान करने के लिये न्यायालय अवसंरचना में सुधार अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • पूर्व मुख्य न्यायाधीश, एन.वी. रमण ने न्यायालयों के लिये पर्याप्त अवसंरचना की व्यवस्था हेतु भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIAI) विकसित करने का सुझाव दिया।
    • केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) के तहत आवंटित धनराशि का एक बड़ा हिस्सा सख्त दिशानिर्देशों और प्रशासनिक लालफीताशाही के कारण अप्रयुक्त रह जाता है। NITI आयोग के फ्लेक्सी-फंड दिशानिर्देशों में उल्लिखित धनराशि के उपयोग में लचीलापन लाने से राज्यों को न्यायपालिका से संबंधित व्यापक अवसंरचना आवश्यकताओं के लिये धनराशि का उपयोग करने की अनुमति मिल सकती है।
      • इसके अतिरिक्त, यह अनुशंसा की जाती है कि योजना को विस्तार देने से पहले CSS के वित्तीय और भौतिक प्रदर्शन का CAG द्वारा गहन ऑडिट किया जाए।
    • फोकस क्षेत्रों में अधिक न्यायालय कक्षों का निर्माण, वादियों एवं गवाहों के लिये सुविधाओं में सुधार तथा यह सुनिश्चित करना शामिल होना चाहिये कि सभी न्यायालयों में बुनियादी अवसंरचनाएँ और तकनीक उपलब्ध हों।
      • न्यायालय की अवधि के इष्टतम उपयोग एवं मुकदमों के उचित निर्धारण सहित कुशल संसाधन प्रबंधन, उत्पादकता को और बढ़ा सकता है।
  • विशिष्ट न्यायालय और न्यायाधिकरण: अधिक विशिष्ट न्यायालयों और न्यायाधिकरणों की स्थापना से कानून के विशिष्ट क्षेत्रों में मामलों के समाधान में तीव्रता आ सकती है। 
    • उदाहरण के लिये, भारत के राष्ट्रीय कंपनी कानून अधिकरण (NCLT) ने कॉर्पोरेट विवादों को कुशलतापूर्वक सुलझाने में सफलता दिखाई है। वित्त वर्ष 2024 में, NCLT ने 269 समाधान योजनाओं को स्वीकृति दी, जो वित्त वर्ष 2023 के 189 से 42% अधिक है।
    • विभिन्न कानूनी क्षेत्रों के लिये जर्मनी की विशिष्ट न्यायालयों की प्रणाली से सीख लेते हुए, भारत इस मॉडल का विस्तार पर्यावरण कानून, साइबर अपराध और बौद्धिक संपदा अधिकार जैसे क्षेत्रों में कर सकता है, जिससे इस क्षेत्र में विशेषज्ञता वाले न्यायाधीशों के माध्यम से तीव्र एवं अधिक सूचित निर्णय सुनिश्चित हो सकें।
  • पारदर्शिता और जन सहभागिता बढ़ाना: कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, बहुभाषी निर्णय जारी किये जाने चाहिये तथा जन-विश्वास एवं अभिगम्यता बनाने के लिये विधिक साक्षरता कार्यक्रम शुरू किये जाने चाहिये।
    • न्यायिक प्रदर्शन मूल्यांकन की एक पारदर्शी प्रणाली को लागू करने से उत्तरदायित्व और दक्षता बढ़ सकती है।
      • संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा कई राज्यों में न्यायिक प्रदर्शन मूल्यांकन का उपयोग एक आदर्श प्रस्तुत करता है। 
  • न्यायिक अधिकारियों के लिये करुणा प्रशिक्षण का कार्यान्वयन: सभी स्तरों पर न्यायिक अधिकारियों के लिये व्यापक करुणा प्रशिक्षण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन से न्याय प्रदान करने की गुणवत्ता और कथित निष्पक्षता में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।  
    • भारत में, राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी न्यायाधीशों के लिये अपने पाठ्यक्रम में अनिवार्य करुणा प्रशिक्षण को शामिल कर सकती है, जिसमें वास्तविक मामलों के परिदृश्यों एवं भूमिका-निर्धारण अभ्यासों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।
    • साथ ही, न्यायाधीशों और वकीलों के लिये अनिवार्य निरंतर विधिक शिक्षा, विधिक सेवाओं एवं न्यायिक निर्णय लेने की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार ला सकती है।
      • वकीलों के लिये सिंगापुर की अनिवार्य निरंतर व्यावसायिक विकास (CPD) योजना एक उत्कृष्ट मॉडल है।
    • इसके अलावा, न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांत न्यायाधीशों के बीच नैतिक आचरण के लिये एक रूपरेखा प्रदान करते हैं, जो सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता और उत्तरदायित्व पर बल देते हैं।
    • साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में जारी हैंडबुक, जिसमें भारतीय न्यायालयों में लैंगिक रूप से अन्यायपूर्ण भाषा के प्रयोग को चिह्नित कर हतोत्साहित किया गया है, न्यायपालिका में लैंगिक संवेदनशीलता सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

निष्कर्ष

भारत में न्यायिक सुधार को केवल संस्थागत प्रयासों तक सीमित न रहकर एक व्यापक सामाजिक माँग होनी चाहिये। जैसा कि डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था, “न्यायपालिका वह संरक्षक है जो लोकतंत्र को जीवित रखती है और सभ्य जीवन की अभिरक्षक है, जिस पर संपूर्ण राष्ट्र आस्था रखता है।” 

इसलिये न्यायिक सुधारों को तात्कालिकता के साथ लागू करना आवश्यक है, ताकि न्याय प्रत्येक नागरिक के लिये सुलभ हो सके।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न. भारत में लंबित मामलों में योगदान देने वाले कारकों का परीक्षण कीजिये तथा न्यायिक प्रणाली की दक्षता एवं अभिगम्यता में आवश्यक सुधारों को प्रस्तावित कीजिये।

India Justice Report 2025 | State-Based Justice System Performance | To The Point | Drishti IAS

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स
प्रश्न 1. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

भारत के राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर बैठने और कार्य करने हेतु बुलाया जा सकता है। 

भारत में किसी भी उच्च न्यायालय को अपने निर्णय के पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पास है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1                        

(b)  केवल 2

(c)  1 और 2 दोनों  

(d)  न तो 1 और न ही 2

उत्तर:(c)

मेन्स 

प्रश्न 1. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021)

प्रश्न 2. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)

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