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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न. भारत के उपराष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका की समीक्षा कीजिये। आकलन कीजिये कि यह पद भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में संघीय व्यवस्था को बनाए रखने और उसे प्रोत्साहित करने में कितनी प्रभावी भूमिका निभाता है। (150 शब्द)

    12 Aug, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत के उपराष्ट्रपति के पद के संक्षिप्त परिचय से उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • भारत के उपराष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका का परीक्षण कीजिये।
    • आकलन कीजिये कि यह पद संघवाद को बनाए रखने और इसे बढ़ावा देने में कितनी प्रभावी भूमिका निभाता है।
    • आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    अनुच्छेद 63-71 के तहत स्थापित भारत का उपराष्ट्रपति दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पदाधिकारी होता है। हालाँकि इस पद के कार्यकारी अधिकार सीमित हैं, लेकिन इसका महत्त्व राज्यसभा के पदेन सभापति होने में निहित है, जो भारत के संघीय स्वरूप का प्रतीक है। इस प्रकार, उपराष्ट्रपति की भूमिका संघीय लोकतंत्र के कामकाज़ को सीधे प्रभावित करती है।

    मुख्य भाग:

    संवैधानिक भूमिका

    • निर्वाचन और पद: उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा (अनुच्छेद 66) किया जाता है, जो संसदीय सहमति का द्योतक है। वह राष्ट्रपति पद रिक्त होने पर कार्यवाहक राष्ट्रपति (अनुच्छेद 65) भी बनता है।
    • राज्यसभा का सभापति: वाद-विवादों का नियमन करता है, व्यवस्था बनाए रखता है, नियमों की व्याख्या करता है तथा बराबरी की स्थिति में निर्णायक मत का प्रयोग (अनुच्छेद 100) करता है।
    • समितियों को संदर्भित करना: अध्यक्ष के रूप में विधेयकों, प्रस्तावों और प्रस्तावों को विस्तृत विचार-विमर्श के लिये संसदीय समितियों के पास भेजकर एक प्रशासनिक भूमिका निभाता है।
    • राष्ट्रपति पद रिक्त होने की स्थिति: जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या उनके कार्यों का निर्वहन करता है, तो वह अस्थायी रूप से अध्यक्ष के रूप में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन बंद कर देता है।

    संघवाद में योगदान

    • राज्यों की अभिव्यक्ति के संरक्षक– राज्यसभा की अध्यक्षता करते हुए उपराष्ट्रपति यह सुनिश्चित करता है कि, राज्यों की आवाज़ विधायी प्रक्रिया में सुनी जाये, विशेषकर संविधान संशोधन जैसे मामलों में (जैसे: वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम, वर्ष 2016)।
    • निष्पक्ष निर्णायक– उससे अपेक्षा की जाती है कि वह राजनीतिक पक्षधरता से ऊपर उठकर संघ और राज्यों के हितों में संतुलन बनाए।
    • शासन की निरंतरता– कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका आपात या अंतराल की स्थितियों के दौरान संघीय संरचना में स्थिरता प्रदान करती है।

    सीमाएँ और चुनौतियाँ

    • पक्षपातपूर्ण निष्ठाएँ: उपराष्ट्रपति प्रायः राजनीतिक रूप से अनुभवी (वरिष्ठ राजनेता) होता है, जिससे निष्पक्षता पर संदेह उत्पन्न होता है।
      • किहोटो होलोहोन मामला (वर्ष 1992) में सर्वोच्च न्यायालय ने सभापति की अयोग्यता घोषित करने की शक्ति को बरकरार रखा, परंतु यह रेखांकित करते हुए कि तटस्थता हमेशा नहीं मानी जा सकती, इसे न्यायिक समीक्षा के अधीन कर दिया।
    • सीमित संघीय प्रभाव: राष्ट्रपति या राज्यपालों के विपरीत, उपराष्ट्रपति की केंद्र-राज्य संबंधों में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती; इसका प्रभाव वास्तविक के बजाय प्रक्रियात्मक होता है।
    • व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भरता: इस पद की प्रभावशीलता संवैधानिक ढाँचे से अधिक पदाधिकारी की निष्पक्षता और व्यक्तित्व पर आधारित है।
    • राज्यसभा का घटता स्थान: बार-बार व्यवधान और अवरोधों के कारण सार्थक संघीय विमर्श की गुंजाइश कम होती जा रही है।

    निष्कर्ष:

    राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति, संघीय संतुलन और विचार-विमर्श के एक मंच के रूप में सदन की भूमिका को कायम रखता है। जैसा कि सुभाष कश्यप ने कहा है, राज्यसभा को ‘परिपक्व पुनरीक्षण सदन’ की भूमिका निभानी चाहिये, जो बहुमतवादी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाए रखे। सभापति की निष्पक्षता को सुदृढ़ करना और रचनात्मक बहस को बढ़ावा देना आवश्यक है, ताकि यह पद सहकारी संघवाद को संरक्षित रखते हुए भारत की लोकतांत्रिक संरचना को और मज़बूत कर सके।

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