राजस्थान Switch to English
केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान
चर्चा में क्यों?
राजस्थान में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान, जिसे 'पक्षियों का स्वर्ग' कहा जाता है, अब कछुओं के लिये एक महत्त्वपूर्ण अभयारण्य के रूप में उभर रहा है।
- यहाँ राज्य में पाई जाने वाली 10 में से 8 कछुआ प्रजातियाँ संरक्षित हैं, जिससे यह क्षेत्र कछुओं के लिये सबसे समृद्ध आवासों में से एक बन गया है।
मुख्य बिंदु
- केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान के बारे में:
- केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान राजस्थान के भरतपुर में स्थित एक आर्द्रभूमि और पक्षी अभयारण्य है। यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल और दुनिया के सबसे महत्त्वपूर्ण पक्षी विहारों में से एक है।
- चिल्का झील (ओडिशा) और केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राजस्थान) को वर्ष 1981 में भारत के पहले रामसर स्थलों के रूप में मान्यता दी गई थी।
- वर्तमान में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान और लोकटक झील (मणिपुर), मॉन्ट्रेक्स रिकॉर्ड में दर्ज हैं।
- यह अपनी समृद्ध पक्षी विविधता और जल पक्षियों की बहुलता के लिये प्रसिद्ध है। यह उद्यान पक्षियों की 365 से अधिक प्रजातियों का घर है, जिसमें कई दुर्लभ और संकटग्रस्त प्रजातियाँ शामिल हैं, जैसे कि साइबेरियाई क्रेन।
- उत्तरी गोलार्द्ध के दूर-दराज़ के क्षेत्रों से विभिन्न प्रजातियाँ प्रजनन हेतु अभयारण्य में आती हैं। साइबेरियन क्रेन उन दुर्लभ प्रजातियों में से एक है जिसे यहाँ देखा जा सकता है।
- जीव-जंतु:
- इस क्षेत्र में सियार, सांभर, नीलगाय, जंगली बिल्लियाँ, लकड़बग्घे, जंगली सूअर, साही और नेवला जैसे जानवर देखे जा सकते हैं।
- वनस्पति वर्ग:
- प्रमुख वनस्पति प्रकार उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन हैं जो शुष्क घास के मैदान के साथ मिश्रित बबूल निलोटिका प्रभुत्त्व वाले क्षेत्र हैं।
- नदियाँ:
- गंभीर और बाणगंगा दो नदियाँ हैं, जो इस राष्ट्रीय उद्यान से होकर बहती हैं।
- कछुओं के आवास के लिये आदर्श परिस्थितियाँ:
- उद्यान के भीतर जल निकायों, वन आवरण और भूमि का अनूठा मिश्रण कछुओं के लिये एक आदर्श पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करता है।
- गहरे तालाब, दलदली क्षेत्र और घनी वनस्पति कछुओं के अवास बनाने, भोजन की तलाश और प्रजनन के लिये अनुकूलतम परिस्थितियाँ प्रदान करते हैं।
- केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में पाई जाने वाली कछुआ प्रजातियाँ:
- यह उद्यान सैकड़ों कछुओं का घर है, जिनमें से कई कछुओं की आयु 200 वर्ष से भी अधिक मानी जाती है।
- ये प्राचीन सरीसृप उद्यान की पारिस्थितिक और सांस्कृतिक समृद्धि में वृद्धि करते हैं।
- विविध प्रजातियों में से भारतीय सॉफ्टशेल कछुआ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।
- तालाबों और नदियों में पनपने वाला यह जलीय जंतुओं और पौधों का भक्षण करके जलीय स्वास्थ्य को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- यह प्राकृतिक सफाई जल निकायों को शुद्ध करने और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है।
- क्राउंड रिवर टर्टल, एक शाकाहारी प्रजाति है, जिसके चेहरे पर पीले-नारंगी धारियाँ होती हैं, यह उद्यान की जैवविविधता में वृद्धि करती है।
- अन्य दुर्लभ प्रजातियों में शामिल हैं:
- भारतीय फ्लैपशेल कछुआ
- भारतीय तंबू (Tent) कछुआ
- भारतीय सितारा (star) कछुआ
भारतीय सॉफ्टशेल कछुआ (गंगा सॉफ्टशेल कछुआ)
- परिचय:
- भारतीय सॉफ्टशेल कछुआ, जिसे गंगा सॉफ्टशेल कछुआ भी कहा जाता है, उत्तरी और पूर्वी भारत की नदियों में पाई जाने वाली एक ताज़े पानी की प्रजाति है।
- यह ट्रियोनीचिडे परिवार से संबंधित है, जो कठोर शल्कों के स्थान पर लचीले, चमड़े जैसे खोल वाले कछुओं के लिये जाना जाता है।
- प्राकृतिक आवास:
- यह प्रजाति मुख्यतः गंगा, सिंधु और महानदी जैसी प्रमुख नदियों में निवास करती है।
- यह झीलों, तालाबों, नहरों और अन्य ताज़े पानी के निकायों में भी पाया जाता है।
- विशेषताएँ:
- कछुए का कवच (ऊपरी खोल) चिकना, अंडाकार अथवा गोलाकार होता है।
- इसका कवच आमतौर पर जैतून या हरे रंग का दिखाई देता है, जिसके किनारे पर अक्सर पीला रंग होता है।
- संरक्षण की स्थिति:
- IUCN रेड लिस्ट: लुप्तप्राय
- वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (WPA), 1972: अनुसूची I
- CITES: परिशिष्ट I
- भारत में अन्य उल्लेखनीय सॉफ्टशेल कछुए:
- लीथ का सॉफ्टशेल कछुआ: प्रायद्वीपीय भारत का स्थानिक और गंभीर रूप से संकटग्रस्त के रूप में वर्गीकृत।
- मोर सॉफ्टशेल कछुआ: यह लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में शामिल है तथा पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के तालाबों और मंदिर जलाशयों में पाया जाता है।


झारखंड Switch to English
कॉलेजियम ने झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश की
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को झारखंड उच्च न्यायालय के अगले मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने की सिफारिश की है।
मुख्य बिंदु
- न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 124(2): सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और अन्य न्यायाधीशों के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
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अनुच्छेद 217: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद की जाती है।
- कॉलेजियम प्रणाली: कॉलेजियम प्रणाली सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की पद्धति को संदर्भित करती है।
- संविधान में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से इसका विकास हुआ है।
- संघटन:
- सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम: इसमें मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
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उच्च न्यायालय कॉलेजियम: इसका नेतृत्व उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उसके दो वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
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कॉलेजियम प्रणाली का विकास: यह प्रणाली सर्वोच्च न्यायालय के चार ऐतिहासिक मामलों के माध्यम से विकसित हुई, जिन्हें न्यायाधीशों के मामले कहा जाता है:
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प्रथम न्यायाधीश मामला (1981)– एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ
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सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि "परामर्श" शब्द का अर्थ "सहमति" नहीं है।
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इस फैसले ने न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्राथमिकता दी।
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दूसरा न्यायाधीश मामला (1993)– सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ
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न्यायालय ने प्रथम न्यायाधीश मामले को खारिज कर दिया और कहा कि परामर्श का अर्थ सहमति है।
- कॉलेजियम की अवधारणा प्रस्तुत की गई, जिसके तहत मुख्य न्यायाधीश को दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करना आवश्यक होगा।
- थर्ड जजेज़ केस (1998)
- सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम का विस्तार कर इसे पाँच सदस्यों तक कर दिया- मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश।
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)
- 99वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2014 द्वारा कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर NJAC की शुरुआत की गई।
- हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक स्वतंत्रता संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए इसे खारिज कर दिया।
- इस फैसले ने न्यायिक नियुक्तियों के लिये कॉलेजियम प्रणाली को एकमात्र तंत्र के रूप में पुनः पुष्टि की।


राजस्थान Switch to English
आना सागर झील के निकट वेटलैंड्स को मंजूरी
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने अजमेर के निकट दो नए आद्रभूमि विकसित करने के राजस्थान सरकार के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जिसका उद्देश्य आनासागर झील के आसपास सतत् शहरी विकास सुनिश्चित करते हुए पारिस्थितिक संतुलन बहाल करना है।
आना सागर झील
- अजमेर में स्थित यह एक कृत्रिम झील है, जिसका निर्माण पृथ्वीराज चौहान के पिता अरुणोराज या आणाजी चौहान ने बारहवीं शताब्दी के मध्य (1135-1150 ईस्वी) करवाया था।
- आणाजी द्वारा निर्मित कराए जाने के कारण ही इस झील का नाम आणा सागर या आना सागर पड़ा।
- आना सागर झील का विस्तार लगभग 13 किमी. की परिधि में फैला हुआ है।
- बाद में, मुगल शासक जहाँगीर ने झील के प्रांगण में दौलत बाग का निर्माण कराया,जिसे सुभाष उद्यान के नाम से भी जाना जाता है।
- शाहजहाँ ने 1637 ईस्वी में इसके आसपास संगमरमर की बारादरी (पवेलियन) का निर्माण कराया, जो झील की सुंदरता को और बढ़ाता है।
मुख्य बिंदु
- पृष्ठभूमि:
- आना सागर झील, जो अजमेर की एक महत्त्वपूर्ण शहरी जल निकाय है, अनियंत्रित विकास और इसके आसपास की मानव गतिविधियों के कारण पर्यावरणीय क्षरण का सामना कर रही है।
- इससे पहले राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने झील की हरित परिधि में बने कई अवैध निर्माणों, जिनमें सेवन वंडर्स की प्रतिकृति भी शामिल है, को हटाने का निर्देश दिया था, ताकि झील की पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा की जा सके।
- प्रस्तावित आर्द्रभूमि के स्थान:
- आना सागर के जलग्रहण क्षेत्र के बाहर दो आर्द्रभूमि का निर्माण किया जाएगा: हाथी-खेड़ा के पास फॉय सागर (वरुण सागर) एक्सटेंशन में 12 हेक्टेयर आर्द्रभूमि और तबीजी-1 में 10 हेक्टेयर आर्द्रभूमि।
- इन आर्द्रभूमियों का उद्देश्य क्षेत्र में जल संरक्षण क्षमता, जैवविविधता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य में सुधार करना है।
- वैज्ञानिक समीक्षा और पर्यावरण मूल्यांकन:
- अजमेर नगर निगम द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) ने एक व्यापक पर्यावरणीय मूल्यांकन किया।
- नीरी, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) के अंतर्गत एक प्रमुख अनुसंधान संस्थान है, जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन कार्य करती है।
- यह अनुसंधान एवं विकास, नीति विकास और प्रौद्योगिकी नवाचार के माध्यम से पर्यावरण प्रबंधन, प्रदूषण नियंत्रण और सतत् विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- अजमेर नगर निगम द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) ने एक व्यापक पर्यावरणीय मूल्यांकन किया।
आर्द्रभूमि
- आर्द्रभूमि को दलदल, दलदली भूमि, पीटलैंड या जल (प्राकृतिक या कृत्रिम) के क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें पानी स्थिर या बहता रहता है, जिसमें छह मीटर से अधिक गहराई वाले समुद्री क्षेत्र भी शामिल हैं।
- आर्द्रभूमियाँ इकोटोन होती हैं, जिनमें स्थलीय और जलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के बीच संक्रमणकालीन भूमि होती है।
- आर्द्रभूमि का महत्त्व:
- प्राकृतिक जल शुद्धिकर्ता: आर्द्रभूमियाँ (wetlands) प्राकृतिक जल फिल्टर के रूप में कार्य करती हैं, जो गाद को रोकती हैं, प्रदूषकों को विघटित करती हैं और अतिरिक्त पोषक तत्त्वों को अवशोषित करती हैं।
- बाढ़ नियंत्रण: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के अनुसार आर्द्रभूमियाँ अतिरिक्त जल को अवशोषित और संगृहीत करती हैं, जिससे बाढ़ के जोखिम में लगभग 60% तक कमी आती है और घरों व बुनियादी ढाँचे की सुरक्षा होती है।
- वन्यजीवों का आवास: स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (SAC) के अनुसार आर्द्रभूमियाँ पृथ्वी की सतह का केवल 6% हिस्सा घेरती हैं, फिर भी ये वैश्विक स्तर पर 40% से अधिक प्रजातियों, जिनमें सरस क्रेन जैसी संकटग्रस्त प्रजातियाँ भी शामिल हैं, को संरक्षण प्रदान करती हैं।
- कार्बन अवशोषण (Carbon Sequestration): आर्द्रभूमियों की मिट्टी और वनस्पति में महत्त्वपूर्ण मात्रा में कार्बन संगृहीत होता है। भारतीय जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन नेटवर्क (INCCA) के अनुसार, आर्द्रभूमियों का पुनरुद्धार भारत के जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है, जो कार्बन अवशोषण, स्वच्छ जल और बाढ़ जोखिम में कमी को संभव बनाता है।
संरक्षित क्षेत्र |
आर्द्रभूमि |
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शेरगढ़ वन्यजीव अभयारण्य |
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उत्तर प्रदेश Switch to English
सोयाबीन की उच्च उपज देने वाली किस्में
चर्चा में क्यों?
खरीफ 2025 सीज़न से पहले, कृषि विभाग ने उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थानीय जलवायु-आधारित कृषि परिस्थितियों के तहत उपज को बेहतर बनाने के लिये कुछ विशेष उच्च-उपज वाली सोयाबीन किस्मों की खेती की सिफ़ारिश की है।
मुख्य बिंदु
- उच्च उपज देने वाली किस्में: इन किस्मों ने बुंदेलखंड क्षेत्र के विशिष्ट वर्षा पैटर्न, मिट्टी के प्रकार और तापमान प्रोफाइल के प्रति उत्कृष्ट अनुकूलनशीलता प्रदर्शित की है।
- उत्तर प्रदेश के लिये विशेष रूप से कोई अतिरिक्त राज्य-विशिष्ट सोयाबीन किस्म अधिसूचित नहीं की गई है।
-
क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुरूपता: ये किस्में मध्यम से गहरी काली मिट्टी तथा मानसून-आधारित वर्षा पैटर्न के तहत अच्छी पैदावार देने में सक्षम मानी जाती हैं।
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भारत में सोयाबीन की खेती: वर्तमान में इसकी खेती कुछ प्रमुख राज्यों में केंद्रित है, जो वैश्विक सोयाबीन उत्पादन में लगभग 4% का योगदान देती है।
-
प्रमुख सोयाबीन उत्पादक राज्यों में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात शामिल हैं।
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सोयाबीन की खेती का महत्व:
- जल दक्षता: सोयाबीन को धान की तुलना में काफी कम पानी की आवश्यकता होती है, जिससे यह सीमित जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों के लिये अत्यधिक उपयुक्त फसल मानी जाती है।
- आर्थिक लाभ: कम लागत और अच्छी पैदावार के चलते सोयाबीन की खेती से किसानों को धान के समान या उससे बेहतर आय प्राप्त हो सकती है।
- मृदा स्वास्थ्य: एक दलहनी फसल के रूप में सोयाबीन मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ाती है, जिससे रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता कम हो जाती है।
- फसल विविधीकरण: सोयाबीन को फसल चक्र प्रणालियों जैसे सोयाबीन-गेहूँ, सोयाबीन-मटर-ग्रीष्मकालीन मूंग आदि में प्रभावी रूप से एकीकृत किया जा सकता है, जिससे किसानों को अपनी फसल पद्धति में विविधता लाने और पानी की अधिक खपत वाली धान की खेती पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी।
- बाज़ार और पोषण मूल्य: सोयाबीन प्रोटीन और तेल दोनों से समृद्ध है, जिससे यह भोजन, पशु आहार और विभिन्न औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिये मूल्यवान है।
खरीफ फसलें
- खरीफ फसलें वे फसलें हैं, जो वर्षा ऋतु के दौरान बोई जाती हैं, जो भारत में आमतौर पर जून से सितंबर तक रहती है।
- इन फसलों को उगने के लिये अधिक पानी और गर्म मौसम की आवश्यकता होती है और ये मानसून पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।
- बुवाई का समय: जून से जुलाई (मानसून की शुरुआत में)
- कटाई का समय: अक्तूबर से नवंबर (मानसून का अंत में)
- प्रमुख खरीफ फसलें:
- धान (चावल), मक्का (मकई), मूँगफली, कपास, आदि।
रबी फसलें
- रबी की फसलें सर्दियों के मौसम में अक्तूबर से मार्च तक उगाई जाती हैं।
- ये फसलें आमतौर पर मानसून समाप्त होने के बाद बोई जाती हैं और विकास अवधि के दौरान इन्हें ठंडी जलवायु और कटाई के समय गर्म, शुष्क परिस्थितियों की आवश्यकता होती है।
- बुवाई का समय: अक्तूबर से नवंबर
- कटाई का समय: मार्च से अप्रैल
- प्रमुख रबी फसलें: गेहूँ, चना, मटर, सरसों, अलसी, आदि।


उत्तर प्रदेश Switch to English
प्रोजेक्ट अलंकार
चर्चा में क्यों?
नई दिल्ली में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आयोजित बैठक के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार की शैक्षिक सुधार पहल 'प्रोजेक्ट अलंकार' की व्यापक रूप से सराहना की गई।
मुख्य बिंदु
- प्रोजेक्ट अलंकार के बारे में:
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इसे 1 अक्तूबर 2021 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लॉन्च किया गया था।
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इसका लक्ष्य 2,441 सरकारी माध्यमिक विद्यालयों में 35 बुनियादी ढाँचे और सुविधा मानदंडों का 100% अनुपालन सुनिश्चित करना है।
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इसका प्राथमिक लक्ष्य राज्य के विद्यार्थियों के लिये अधिक अनुकूल, समावेशी और आधुनिक शिक्षण वातावरण तैयार करना है।
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- विशेषताएँ:
- नवनिर्मित कक्षाओं, विज्ञान प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों, कंप्यूटर प्रयोगशालाओं और स्मार्ट कक्षाओं सहित भौतिक बुनियादी ढाँचे का उन्नयन।
- स्वच्छ पेयजल और स्वच्छ शौचालय जैसी आवश्यक सुविधाओं का प्रावधान, विशेष रूप से लड़कियों की स्वच्छता सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित करना।
- योजना के अंतर्गत विशिष्ट विद्यालयों का विकास:
- मुख्यमंत्री आदर्श विद्यालय (प्री-प्राइमरी से कक्षा 12 तक) और मुख्यमंत्री अभ्युदय विद्यालय (प्री-प्राइमरी से कक्षा 8 तक) भी विकसित किये जा रहे हैं।
- इन स्कूलों में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) प्रयोगशालाएँ, कंप्यूटर प्रयोगशालाएँ आदि सहित अत्याधुनिक सुविधाएँ हैं।
- प्रत्येक अभ्युदय स्कूल में 450 विद्यार्थियों की क्षमता है तथा विकास के लिये 1.42 करोड़ रुपए आवंटित किये गए हैं।
- 7 ज़िलों में 141 संस्कृत विद्यालयों का नवीनीकरण और आधुनिकीकरण, उनके पुनरुद्धार के लिये 14.94 करोड़ रुपए की समर्पित निधि।
- वित्तपोषण और कार्यान्वयन:
- प्रोजेक्ट अलंकार के वित्तपोषण स्रोतों में राज्य सरकार, समग्र शिक्षा अभियान, ग्राम पंचायतें, शहरी स्थानीय निकाय, कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) योगदान और स्वैच्छिक दान शामिल हैं।
- कार्यान्वयन की कड़ी निगरानी ज़िला मजिस्ट्रेटों की अध्यक्षता वाली ज़िला स्तरीय समितियों द्वारा की जाती है तथा राज्य शिक्षा निदेशक इसकी देखरेख करते हैं।
- प्रभाव और परिणाम:
- वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (ASER) 2024 के अनुसार, वर्ष 2022-23 और 2024-25 के बीच सरकारी माध्यमिक विद्यालयों में नामांकन में 23% की वृद्धि हुई।
- प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति (कक्षा 1-5) वर्ष 2010 से 2024 तक 11.5% बढ़ी, जबकि उच्च प्राथमिक उपस्थिति (कक्षा 6-8) वर्ष 2018 और 2024 के बीच 9.6% बढ़ी - जो देश में सबसे अधिक है।
- स्कूल पुस्तकालयों के उपयोग में 55.2% की वृद्धि हुई तथा बालिकाओं की शौचालय सुविधाओं तक पहुँच में 54.4% सुधार हुआ, जो बेहतर स्वच्छता और शिक्षण सहायता को दर्शाता है।
समग्र शिक्षा अभियान
- परिचय: केंद्रीय बजट 2018-19 में प्रस्तुत, समग्र शिक्षा एक व्यापक कार्यक्रम है जिसके अंतर्गत समान शिक्षण परिणाम सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्री-नर्सरी से बारहवीं कक्षा तक के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है।
- प्रमुख विशेषताएँ:
- योजनाओं का एकीकरण: इसमें पहले की तीन योजनाएँ सम्मिलित हैं:
- सर्व शिक्षा अभियान (SSA): सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा पर केंद्रित।
- राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA): इसका उद्देश्य माध्यमिक शिक्षा है।
- शिक्षक शिक्षा (TE): शिक्षकों के प्रशिक्षण पर केंद्रित।
- क्षेत्र-व्यापी विकास दृष्टिकोण: इस अभियान के अंतर्गत खंडित परियोजना-आधारित उद्देश्यों के स्थान पर सभी स्तरों (राज्य, ज़िला और उप-ज़िला) पर कार्यान्वयन को सुव्यवस्थित किया गया है।
- सतत् विकास लक्ष्यों के साथ संरेखण: लैंगिक असमानताओं को समाप्त करते हुए और सुभेद्य समूहों (SDG 4.1) के लिये पहुँच सुनिश्चित करते हुए निःशुल्क, समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित की जाती है (SDG 4.5)।
- कार्यान्वयन: यह केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) है, जिसका कार्यान्वयन राज्य/संघ राज्य क्षेत्र स्तर पर एकल राज्य कार्यान्वयन सोसायटी (SIS) के माध्यम से किया जाता है।
- SIS एक राज्य-पंजीकृत निकाय है जो CSS और विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वन करता है।
- योजनाओं का एकीकरण: इसमें पहले की तीन योजनाएँ सम्मिलित हैं:

