कृषि
कपास उत्पादकता मिशन
प्रिलिम्स के लिये:कपास उत्पादकता मिशन, टेक्सटाइल विजन 2030, "5F" दृष्टिकोण, बीटी (बैसिलस थुरिंजिएंसिस) कपास, बोल्गार्ड-II, पीएम मित्र योजना, भारतीय कपास निगम (CCI), डिजिटल कृषि मिशन 2021-25, कॉट-एली मोबाइल एप मेन्स के लिये:कपास उत्पादकता के लिये मिशन की आवश्यकता, कपास क्षेत्र के विकास के लिये सरकारी पहल। |
स्रोत: पीआईबी
चर्चा में क्यों?
भारत की वस्त्र मूल्य शृंखला को सुदृढ़ करने और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाने हेतु सरकार ने वस्त्र उद्योग के लिये विज़न 2030 के अनुरूप ‘कपास उत्पादकता मिशन’ शुरू किया है।
- भारत के लिये वस्त्र विज़न 2030 का लक्ष्य 250 बिलियन अमेरिकी डॉलर का वस्त्र उद्योग निर्मित करके भारत को वैश्विक वस्त्र विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित करना तथा वर्ष 2030 तक वैश्विक वस्त्र निर्यात को 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचाना है।
कपास उत्पादकता मिशन क्या है?
- परिचय: यह देश में कपास उत्पादन को उल्लेखनीय रूप से बढ़ाने के लिये भारत सरकार द्वारा केंद्रीय बजट 2025-26 में शुरू की गई एक पाँच वर्षीय पहल है।
- यह कपास किसानों को वैज्ञानिक और तकनीकी सहायता प्रदान करेगा, जो कपड़ा क्षेत्र के लिए सरकार के 5F विज़न- फार्म टू फाइबर, फाइबर टू फैक्ट्री, फैक्ट्री टू फैशन, फैशन टू फॉरेन के अनुरूप होगा।
- इसका उद्देश्य किसानों की आय में वृद्धि करना है, साथ ही उच्च गुणवत्ता वाले कपास की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करना है, जो भारत के पारंपरिक कपड़ा उद्योग को पुनर्जीवित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग (DARE) इस मिशन के कार्यान्वयन के लिये नोडल एजेंसी है, तथा वस्त्र मंत्रालय प्रमुख भागीदार है।
- मुख्य उद्देश्य:
- उन्नत वैज्ञानिक तरीकों को अपनाकर तथा एक्स्ट्रा लॉन्ग स्टेपल (ELS) कपास सहित जलवायु-अनुकूल, कीट-प्रतिरोधी और उच्च उपज देने वाली किस्मों को विकसित करके कपास की उत्पादकता में वृद्धि करना।
- ELS कपास अपने लंबे रेशों, बेहतर मज़बूती, कोमलता और टिकाऊपन के लिये जाना जाता है।
- फाइबर की गुणवत्ता में सुधार के लिये उन्नत प्रजनन तकनीकों और जैव प्रौद्योगिकी उपकरणों का उपयोग करना।
- किसानों को अत्याधुनिक तकनीकों से सुसज्जित करना ताकि वे जलवायु संबंधी तथा कीट-जनित चुनौतियों के प्रति सक्षम और सहनशील बन सकें।
- उन्नत वैज्ञानिक तरीकों को अपनाकर तथा एक्स्ट्रा लॉन्ग स्टेपल (ELS) कपास सहित जलवायु-अनुकूल, कीट-प्रतिरोधी और उच्च उपज देने वाली किस्मों को विकसित करके कपास की उत्पादकता में वृद्धि करना।
कपास उत्पादकता मिशन की आवश्यकता के प्रमुख कारण क्या हैं?
- कम उत्पादकता: कपास की खेती के क्षेत्र में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है, भारत में कुल 130.61 लाख हेक्टेयर भूमि पर कपास की खेती होती है, जो विश्व के कुल कपास क्षेत्रफल (324.16 लाख हेक्टेयर) का लगभग 40% है।
- हालाँकि उत्पादकता के मामले में भारत विश्व में 39वें स्थान पर है, जहाँ कपास की औसत उपज मात्र 447 किलोग्राम/हेक्टेयर है।
- कपास के आयात पर बढ़ती निर्भरता: भारत में कपास का आयात वर्ष 2023–24 में 518.4 मिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2024–25 में 1.04 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया है। वहीं निर्यात में गिरावट आई है जो वर्ष 2023–24 में 729.4 मिलियन डॉलर था, वह वर्ष 2024–25 में घटकर 660.5 मिलियन डॉलर रह गया।
- सफलता के बाद ठहराव: हालाँकि भारत में बीटी (बैसिलस थुरिंजिएंसिस) कपास और बोल्गार्ड-II तकनीक की सफलता देखी गई है, लेकिन वर्ष 2006 के बाद से अब तक कोई नया जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM) कपास वैरायटी मंज़ूरी नहीं दी गई है।
- संक्रमण: कपास उत्पादन में गिरावट मुख्य रूप से पिंक बॉलवर्म (PBW) के बढ़ते संक्रमण के कारण है।
- प्रारंभ में, Bt कपास ने कीट नियंत्रण में प्रभावी भूमिका निभाई, लेकिन समय के साथ-साथ पिंक बॉलवर्म (Pink Bollworm - PBW) ने Bt प्रोटीन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली।
- वैश्विक बाज़ारों में खोए हुए अवसर: अमेरिका और ब्राज़ील जैसे देश, जहाँ जैव-प्रौद्योगिकी (Biotech) का व्यापक उपयोग होता है, आज उन निर्यात बाजारों पर कब्ज़ा कर रहे हैं जिन पर कभी भारत का प्रभुत्त्व था।
भारत में कपास की खेती को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक क्या हैं?
- कपास: कपास एक नरम और फूला हुआ मुख्य रेशेदार फसल है, जो अपने बीजों के चारों ओर बने गुच्छे (बोल) में उगती है।
- उत्तर भारत में कपास की बुवाई अप्रैल और मई के बीच की जाती है, जबकि दक्षिण भारत में मानसून के मौसम के कारण इसकी बुवाई का मौसम थोड़ा देर से होता है।
- उत्पादन: भारत कपास की खेती के क्षेत्रफल में दुनिया में पहले स्थान पर है और यह विश्व के कुल कपास उत्पादन क्षेत्रफल का लगभग 40% हिस्सा है। भारत के प्रमुख कपास उत्पादन क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
- भारत कपास उत्पादन में विश्व में दूसरे स्थान पर है। वर्ष 2022-23 में भारत का अनुमानित उत्पादन 343.47 लाख बेल (5.84 मिलियन मीट्रिक टन) था, जो विश्व कपास उत्पादन का लगभग 23.83% हिस्सा है।
- भारत कपास की उत्पादकता (यील्ड) में विश्व में 39वें स्थान पर है, जो अमेरिका, चीन और ब्राज़ील जैसे देशों से काफी पीछे है।
- भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कपास उपभोक्ता है, जो 2023 में विश्व कपास खपत का लगभग 22.24% हिस्सा रखता है। भारत की कपास खपत में से केवल 10% से भी कम हिस्सा कपड़ा उद्योग द्वारा आयातित होता है।
- इसकी खेती को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक:
- कपास 43°C तक का तापमान सहन कर सकता है लेकिन 21°C से कम तापमान हानिकारक है।
- कपास की अच्छी वृद्धि के लिये लगभग 210 बिना हिमपात वाले दिन और 50 से 100 सेंटीमीटर वर्षा की आवश्यकता होती है।
- फलों के बनने की अवधि के दौरान गरम दिन और ठंडी रातें, जिनमें तापमान में बड़ा फर्क होता है, कपास के गुच्छे (बोल) और रेशों के बेहतर विकास को प्रोत्साहित करती हैं।
- कपास विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में उगाई जाती है, जिसमें उत्तरी क्षेत्र में अच्छी जल निकासी वाली गहरी जलोढ़ मिट्टी, मध्य भारत की काली चिकनी (चिकनी-दार) मिट्टी तथा दक्षिण भारत की काली तथा मिश्रित मिट्टी शामिल हैं।
- कपास लवणता के प्रति अर्द्ध-सहिष्णु है और जलभराव के प्रति संवेदनशील होती है। यह हल्की, अच्छी जलनिकासी वाली मिट्टी को प्राथमिकता देती है, जो नमी को बनाए रख सके।
कपास क्षेत्र के विकास के लिये भारत की पहल
भारत को कपास के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिये कौन-कौन से कदम आवश्यक हैं?
- अनुसंधान एवं जैव-प्रौद्योगिकी अनुमोदन में तेज़ी लाना: पिंक बॉलवर्म (PBW) के प्रतिरोध से निपटने के लिये अगली पीढ़ी की जीएम कपास (Bt 3.0, खरपतवार-प्रतिरोधी गुण, RNAi तकनीक) को शीघ्र अनुमोदन देना आवश्यक है।
- ब्राज़ील और अमेरिका जैसे देशों ने उन्नत जैव-प्रौद्योगिकी तकनीकों को अपनाकर 1,500 किग्रा/हेक्टेयर से अधिक उत्पादकता हासिल की है।
- एक्स्ट्रा लॉन्ग स्टेपल (ELS) कपास को बढ़ावा देना: प्रीमियम MSP, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और क्लस्टर-आधारित दृष्टिकोण ELS कपास की व्यापकता बढ़ाने और निर्यात प्रतिस्पर्द्धा को मज़बूत करने के लिये अत्यंत आवश्यक हैं।
- कृषि निर्यात नीति (2018) ने निर्यातोन्मुख किस्मों के उत्पादन पर विशेष ज़ोर दिया था।
- समेकित कीट एवं कृषि प्रबंधन (Integrated Pest and Farm Management): इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट (IPM) को बड़े पैमाने पर अपनाएँ और गुलाबी सुंडी (PBW) की क्षेत्र-आधारित रोकथाम के लिये फेरोमोन ट्रैप, स्टेराइल मेल टेक्निक्स तथा फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन) का उपयोग करना।
- ICAR-CICR द्वारा विकसित PBW प्रबंधन प्रोटोकॉल के महाराष्ट्र में सफल परिणाम प्राप्त हुए।
- बाज़ार और निर्यात प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देना: “कस्तूरी कॉटन इंडिया” ब्रांड के माध्यम से उच्च गुणवत्ता और स्थिरता को वैश्विक बाज़ारों में प्रचारित करना।
- कपास गुणवत्ता परीक्षण केंद्र तथा क्लस्टर आधारित वस्त्र पार्क (PM-MITRA) को प्रोत्साहित करना।
- डिजिटल कपास पारिस्थितिकी तंत्र: AI-संचालित कीट अलर्ट, उपज निगरानी के लिये रिमोट सेंसिंग, और ट्रेसेबिलिटी के लिये ब्लॉकचेन कपास मूल्य शृंखला का आधुनिकीकरण कर सकते हैं।
- डिजिटल कृषि मिशन 2021-25 कृषि में उभरती प्रौद्योगिकियों के उपयोग का समर्थन करता है।
- जलवायु-स्मार्ट कपास की खेती: उत्पादकता बढ़ाने और लागत घटाने के लिये सूक्ष्म सिंचाई (माइक्रो-इरिगेशन), जैविक खेती तथा सटीक पोषक तत्व प्रबंधन (प्रिसीजन न्यूट्रिएंट मैनेजमेंट) को अपनाएँ।
- अशोक दलवाई समिति ने जल संकट से निपटने के लिये जलवायु-अनुकूल कृषि अभ्यासों को अपनाने की सिफारिश की है।
निष्कर्ष:
यदि इस मिशन को तत्परता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ लागू किया जाए, तो यह न केवल कपास की उत्पादकता में वृद्धि कर सकता है, बल्कि आयात पर निर्भरता को भी कम कर सकता है, निर्यात को पुनर्जीवित कर सकता है, किसानों की आय बढ़ा सकता है तथा पूरी कपास मूल्य शृंखला को हरित बना सकता है। यह सीधे तौर पर SDG-2: शून्य भूख और उत्पादकता में वृद्धि, SDG-8: उचित कार्य और आर्थिक विकास, SDG-9: नवाचार और बुनियादी ढाँचे का विकास, सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को आगे बढ़ाता है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: कपास उत्पादकता मिशन, भारत की वस्त्र मूल्य शृंखला को सुदृढ़ करने की एक रणनीतिक पहल है। टेक्सटाइल विज़न 2030 के संदर्भ में इस मिशन के प्रमुख उद्देश्यों एवं कार्यान्वयन रणनीति पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न(PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में कौन-कौन-से कार्यकलाप अर्थव्यवस्था में वास्तविक क्षेत्रक (रियल सेक्टर) का निर्माण करते हैं? (2022)
नीचे दिये कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये : (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. भारत में अत्यधिक विकेंद्रीकृत सूती वस्त्र उद्योग के कारकों का विश्लेषण कीजिये। (2013) |
जैव विविधता और पर्यावरण
मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस
प्रिलिम्स के लिये:मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस, मैंग्रोव, भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2023, सुंदरबन, तटीय आवास और मूर्त आय के लिये मैंग्रोव की नई पहल (MISHTI), सतत् झींगा पालन हेतु समुदाय-आधारित पहल (SAIME)। मेन्स के लिये:मैंग्रोव का महत्त्व, भारत में मैंग्रोव से संबंधित चुनौतियाँ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस (26 जुलाई) एक महत्त्वपूर्ण अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि ये तटीय संरक्षक वैश्विक वनों की तुलना में 3 से 5 गुना तेज़ी से लुप्त हो रहे हैं।
- UNESCO और IUCN के आँकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 1985 से अब तक वैश्विक मैंग्रोव आच्छादन आधा हो चुका है तथा शेष बचे पारिस्थितिकी तंत्रों में से 50% अब विघटन के खतरे में हैं।
- तमिलनाडु वन विभाग ने एक जनजागरूकता शिविर का आयोजन किया, जिसमें मैंग्रोव जैव विविधता और पारिस्थितिक पुनर्स्थापन के लिये फिशबोन चैनल तकनीक पर प्रकाश डाला गया।
मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस
- प्रत्येक वर्ष 26 जुलाई को मनाया जाने वाला यह दिवस मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्रों के महत्त्व के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से मनाया जाता है। ये पारिस्थितिक तंत्र विशिष्ट, विशेष और संवेदनशील होते हैं, जिनके स्थायी प्रबंधन, संरक्षण तथा उपयोग को बढ़ावा देना इसका प्रमुख उद्देश्य है।
- इस दिवस को वर्ष 2015 में UNESCO के महासम्मेलन द्वारा अपनाया गया था, ताकि तटीय सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण और जलवायु शमन में मैंग्रोव वनों की महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक तथा सामाजिक-आर्थिक भूमिका को रेखांकित किया जा सके।
मैंग्रोव पुनर्स्थापन की फिशबोन तकनीक
- यह उन क्षेत्रों में मैंग्रोव वनों के पुनर्स्थापन की एक विधि है जहाँ ज्वारीय जल प्रवाह कमज़ोर होता है। इसमें एक केंद्रीय ‘बैकबोन’ नहर और उससे कोणीय रूप से जुड़ी सहायक नहरें बनाई जाती हैं, जिससे जल खाड़ियों (Creeks) से दूसरी ओर प्रवाहित होता है।
- जब क्षेत्र में लवणता और जल प्रवाह उपयुक्त हो जाता है, तब मैंग्रोव पौधों के अंकुर रोपे जाते हैं। यह तकनीक प्राकृतिक खाड़ियों की संरचना की तरह कार्य करती है, जिससे ज्वारीय जल का प्रसार बढ़ता है और न्यूनतम हस्तक्षेप में प्राकृतिक रूप से मैंग्रोव पुनर्जीवित होने लगते हैं।
मैंग्रोव क्या हैं?
- परिचय: मैंग्रोव एक विशेष प्रकार का तटीय पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसमें लवण-सहिष्णु (हैलोफाइटिक) वृक्ष और झाड़ियाँ शामिल होती हैं, जो उष्णकटिबंधीय तथा उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के ज्वार-भाटा क्षेत्र में पाए जाते हैं।
- ये पौधे लवणीय, ऑक्सीजन की कमी वाले (अवायवीय) वातावरण, धीमे बहाव वाले जल और महीन तलछट वाले क्षेत्रों में जीवित रहने के लिये विशेष रूप से अनुकूलित होते हैं।
- सामान्य मैंग्रोव प्रजातियों में रेड मैंग्रोव, ग्रे मैंग्रोव और राइज़ोफोरा शामिल हैं, जो तटीय सुरक्षा, कार्बन अवशोषण तथा जैव विविधता संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- भारत में मैंग्रोव आच्छादन: भारत वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR) 2023 के अनुसार, भारत का मैंग्रोव आच्छादन लगभग 4,992 वर्ग किलोमीटर है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 0.15% है।
- भारत में सबसे बड़ा मैंग्रोव आवरण पश्चिम बंगाल में है, जबकि दूसरे स्थान पर गुजरात है।
मैंग्रोव का महत्त्व क्या है?
- कार्बन पृथक्करण: मैंग्रोव प्रति हेक्टेयर लगभग 394 टन कार्बन संग्रहित करते हैं, जो अधिकांश स्थलीय वनों से अधिक है, क्योंकि इनकी अवायवीय और लवणीय मिट्टी अपघटन को धीमा कर देती है।
- यूनेस्को के अनुसार, 1 हेक्टेयर में 3,754 टन तक कार्बन संग्रहित हो सकता है, जो प्रत्येक वर्ष 2,650 से अधिक कारों को हटाने के बराबर है।
- ये अनोखे तरीके से कार्बन को सहस्राब्दियों तक मिट्टी में बंद रखते हैं, जिससे ये जलवायु परिवर्तन शमन के लिये महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं।
- यूनेस्को के अनुसार, 1 हेक्टेयर में 3,754 टन तक कार्बन संग्रहित हो सकता है, जो प्रत्येक वर्ष 2,650 से अधिक कारों को हटाने के बराबर है।
- तटीय संरक्षण: मैंग्रोव तूफानी लहरों, सुनामी और तटीय कटाव के विरुद्ध नेचुरल बफर तथा "बायो-शील्ड" के रूप में कार्य करते हैं।
- उनकी सघन जड़ प्रणालियाँ तरंग ऊर्जा को अवशोषित तथा तटरेखाओं को स्थिर करती हैं, जिससे तरंग ऊर्जा में 5-35% और बाढ़ की गहराई में 15-20% की कमी आती है तथा अत्यधिक तूफानों के दौरान यह कमी 70% से अधिक हो जाती है, जो तटीय क्षेत्रों में आपदा जोखिम न्यूनीकरण और जलवायु अनुकूलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- जैव विविधता हॉटस्पॉट: मैंग्रोव विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों जैसे कि कीचड़युक्त तटों और हवाई जड़ों में स्थलीय और जलीय प्रजातियों का समर्थन करते हैं।
- भारत के मैंग्रोव 21 संघों में 5,746 प्रजातियों (84% जीव) पाई जाती हैं, जो विश्व स्तर पर सबसे अधिक है, जिनमें बंगाल टाइगर, 'एस्टुआरिन मगरमच्छ', भारतीय अजगर तथा 260 से अधिक पक्षी प्रजातियाँ शामिल हैं।
- ये समुद्री जीवन के लिये पोषक स्थल (नर्सरी) के रूप में कार्य करते हैं तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में एक-तिहाई जंगली मछलियों के संग्रहण (मत्स्य पालन) का समर्थन करते हैं।
- आर्थिक महत्त्व, खाद्य सुरक्षा और आजीविका सहायता: मैंग्रोव तटीय अर्थव्यवस्थाओं के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, जो मत्स्य संग्रहण, शहद संग्रह, नौका विहार और गैर-लकड़ी वन उपज को बढ़ावा देते हैं।
- वे प्रतिवर्ष लगभग 800 बिलियन जलीय प्रजातियों का पोषण करते हैं, पोषक तत्त्वों से भरपूर समुद्री भोजन (प्रोटीन, ओमेगा-3, विटामिन डी और B12, आयरन और जिंक से भरपूर) प्रदान करते हैं तथा नीली अर्थव्यवस्था के माध्यम से आजीविका को बनाए रखते हैं।
- मैंग्रोव पारिस्थितिक पर्यटन की भी संभावना प्रदान करते हैं तथा तटीय क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा एवं मानव कल्याण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सुंदरबन: पारिस्थितिक महत्त्व, चुनौतियाँ और संरक्षण प्रयास
- सुंदरबन, गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा में स्थित विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है, जिसे यूनेस्को बायोस्फीयर रिज़र्व और रामसर साइट के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसका पारिस्थितिक मूल्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- यह एक जैव विविधता हॉटस्पॉट है, जहाँ रॉयल बंगाल टाइगर, इरावदी और गंगा डोल्फिन, खारे पानी के मगरमच्छ जैसे जीवों का वास है तथा यह चक्रवातों से तटीय क्षेत्रों की सुरक्षा एवं कार्बन अवशोषण के लिये भी अत्यंत आवश्यक है।
- हालाँकि, यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन (समुद्र-स्तर में वृद्धि, चक्रवात), तटीय कटाव और अस्थिर आजीविकाओं जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है।
- संरक्षण प्रयासों में शामिल हैं:
- मैंग्रोव वृक्षारोपण के लिये सरकार द्वारा वित्तीय सहायता में वृद्धि,
- भारत-बांग्लादेश के बीच जलवायु-स्मार्ट गाँव पहल,
- तथा स्थायी संरक्षण के लिये समुदाय-आधारित संयुक्त मैंग्रोव प्रबंधन जैसे उपाय।
मैंग्रोव के लिये प्रमुख खतरे क्या हैं?
- कृषि हेतु भूमि परिवर्तन: "स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स मैंग्रोव्स 2024" रिपोर्ट के अनुसार, मैंग्रोव भूमि का बड़े पैमाने पर एक्वाकल्चर (26%), पाम ऑइल बागानों और धान की खेती (43%) के लिये परिवर्तन, मैंग्रोव क्षरण का एक प्रमुख कारण है।
- शहरीकरण, बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ और तटीय पर्यटन भी मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्रों की वृहद स्तर पर वनों की कटाई और खंडन का कारण बनते हैं।
- प्रदूषण एवं औद्योगिक गतिविधियाँ: तेल रिसाव, औद्योगिक अपशिष्ट, और प्लास्टिक कचरा जल की गुणवत्ता को खराब करते हैं तथा मैंग्रोव पुनर्जीवन को बाधित करते हैं।
- नाइजर डेल्टा जैसे मामलों से यह स्पष्ट होता है कि तेल प्रदूषण से दीर्घकालिक पारिस्थितिक क्षति होती है। इसके अतिरिक्त लकड़ी की कटाई (Timber Extraction) और कोयला उत्पादन (Charcoal Production) भी पर्यावरणीय क्षरण में योगदान करते हैं।
- जलवायु परिवर्तन और समुद्र-स्तर में वृद्धि: जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते समुद्र स्तर, चक्रवातों की आवृत्ति में वृद्धि और तटीय कटाव अस्तित्व के लिये गंभीर खतरे उत्पन्न कर रहे हैं। IUCN रेड लिस्ट ऑफ इकोसिस्टम्स के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से 33% मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में हैं।
- आक्रामक प्रजातियाँ और जैव विविधता की हानि: प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा (Prosopis juliflora) जैसी आक्रामक प्रजातियाँ, जो तमिलनाडु और श्रीलंका में पाई जाती हैं, स्थानीय मैंग्रोव आवासों को गंभीर रूप से प्रभावित करती हैं। यह प्रजाति:
- मिट्टी की लवणता (Salinity) को बदल देती है,
- मीठे पानी की उपलब्धता को कम कर देती है,
- और प्राकृतिक पुनर्जनन (Natural Regeneration) को रोकती है। इससे स्थानीय जैव विविधता को खतरा उत्पन्न होता है।
मैंग्रोव संरक्षण से संबंधित प्रमुख पहल
आगे की राह
- कानूनी ढाँचे को मज़बूत करना: वनों की कटाई, प्रदूषण और अस्थिर तटीय विकास को रोकने के लिये कड़े कानून लागू करना।
- सामुदायिक भागीदारी: स्थायी आजीविका और संरक्षण एवं पुनरुद्धार के लिये "एडॉप्ट अ मैंग्रोव" जैसी पहलों के माध्यम से स्थानीय समुदायों को शामिल करना।
- अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी: फाइटोरेमेडिएशन, औषधीय अनुसंधान तथा वास्तविक समय निगरानी और सुरक्षा के लिये ड्रोन और AI के उपयोग को बढ़ावा देना।
- जैव-पुनर्स्थापन: जैव-पुनर्स्थापन का उपयोग करके क्षीण क्षेत्रों का पुनर्वास करना तथा जलवायु लचीलापन बनाने के लिये प्रजातियों की विविधता सुनिश्चित करना।
- सतत् विकास: पर्यावरण अनुकूल तटीय बुनियादी ढाँचे को प्रोत्साहित करना, जलीय कृषि को विनियमित करना तथा शहरी नियोजन में मैंग्रोव को एकीकृत करना।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: समन्वित संरक्षण प्रयासों के लिये रामसर कन्वेंशन और ब्लू कार्बन इनिशिएटिव जैसे वैश्विक प्लेटफार्मों का लाभ उठाना।
विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस (28 जुलाई)
- विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस, जो प्रतिवर्ष मनाया जाता है, पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता के संरक्षण की अत्यंत आवश्यकता को रेखांकित करता है।
- यह UNFCCC, CBD और SDG (विशेषकर लक्ष्य 13, 14 और 15) जैसे अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण ढाँचे के तहत प्रतिबद्धताओं को सुदृढ़ करता है।
- इस दिवस का उद्देश्य भारत की LiFE (पर्यावरण के लिये जीवनशैली) पहल को समर्थन देना है, जो लोगों को जल संरक्षण, अपशिष्ट में कमी और पर्यावरण अनुकूल परिवहन जैसी सतत् जीवनशैली की आदतों को अपनाने के लिये प्रेरित करती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत के संदर्भ में मैंग्रोव वनों का पारिस्थितिकीय एवं आर्थिक महत्त्व स्पष्ट कीजिये। इनके संरक्षण एवं सतत् उपयोग हेतु एक व्यापक रणनीति प्रस्तावित कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा के पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में मैंग्रोव वन, सदाबहार वन और पर्णपाती वन का संयोजन है? (2015) (a) उत्तर तटीय आंध्र प्रदेश उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. मैंग्रोव की कमी के कारणों पर चर्चा कीजिये और तटीय पारिस्थितिकी को बनाए रखने में उनके महत्त्व को समझाइये। (2019) |


अंतर्राष्ट्रीय संबंध
ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन का मेगा डैम
प्रारंभिक:यारलुंग जांगबो नदी, गंगा नदी, ब्रह्मपुत्र नदी। मुख्य:भारत-चीन संबंध, ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन की मेगा डैम/बाँध परियोजना, तिब्बत में चीन के नए बाँध निर्माण पर चिंताएँ |
स्रोत: हिन्दुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
चीन तिब्बत में यारलुंग जांगबो नदी (जिसे भारत में ब्रह्मपुत्र और बांग्लादेश में जमुना कहा जाता है) पर एक 60,000 मेगावॉट की जलविद्युत परियोजना का निर्माण कर रहा है। यह परियोजना अरुणाचल प्रदेश के पास स्थित गेलिंग (Gelling) क्षेत्र के निकट बनाई जा रही है।
- इस परियोजना की घोषणा वर्ष 2021 में की गई थी, जिसमें 5 कैस्केड (शृंखलाबद्ध) बाँधों का निर्माण शामिल है। यह परियोजना वर्ष 2030 तक पूरी होने की संभावना है।
- यह परियोजना थ्री जॉर्जेस डैम (विश्व का सबसे बड़ा जलविद्युत स्टेशन) से तीन गुना अधिक शक्तिशाली होगी।
ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन के मेगा डैम को लेकर भारत की प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?
- पारिस्थितिकीय और भूकंपीय जोखिम: यह क्षेत्र हिमालयी भूकंपीय सक्रिय क्षेत्र (Seismically Active Himalayan Zone) में स्थित है, जहाँ भारतीय और यूरेशियाई प्लेटें आपस में मिलती हैं। इस कारण यह क्षेत्र भूकंप, भूस्खलन और अचानक आने वाली बाढ़ (फ्लैश फ्लड्स) के लिये अत्यंत संवेदनशील है।
- यह परियोजना बड़े पैमाने पर विस्थापन का कारण बन सकती है, ठीक उसी प्रकार जैसे थ्री जॉर्जेस डैम के निर्माण के दौरान हुआ था, जिसमें 13 लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए थे।
- यह बाँध एक प्रकार के "वॉटर बम" (Water Bomb) के रूप में कार्य कर सकता है, जिसे चीन भूराजनीतिक दबाव बनाने के हथियार (Weapon) की तरह इस्तेमाल कर सकता है। विशेष रूप से तब जब भारत ने पहलगाम आतंकी हमले के बाद सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty) को निलंबित कर दिया है, ऐसे में यह स्थिति और भी संवेदनशील हो गई है।
- जल विज्ञान एवं पर्यावरणीय प्रभाव: ब्रह्मपुत्र नदी कृषि, आजीविका और जैव विविधता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- अगर अचानक पानी छोड़ा गया या नदी का प्रवाह मोड़ा गया, तो इससे पारिस्थितिक तंत्र को गंभीर नुकसान हो सकता है, विशेष रूप से सियांग क्षेत्र जैसे आदिवासी क्षेत्रों में, जहाँ आदि जनजाति (Adi Tribe) निवास करती है।
- परंपरागत ज्ञान की हानि: नदी प्रवाह के कृत्रिम नियंत्रण से स्थानीय समुदायों की पारंपरिक बाढ़ प्रबंधन प्रणालियाँ कमज़ोर पड़ जाती हैं। इससे न केवल जलवायु आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती है, बल्कि सदियों पुराने ज्ञान और जीवनशैली भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं।
- कानूनी और राजनयिक कमियाँ: चीन की एकतरफा जल परियोजनाएँ भारत के नदी तटीय अधिकारों (Riparian Rights) की अवहेलना करती हैं। क्योंकि चीन किसी भी अंतर्राष्ट्रीय जल-साझेदारी संधि (water-sharing treaty) का हस्ताक्षरकर्त्ता नहीं है।
- क्षेत्रीय जल और खाद्य सुरक्षा पर खतरा: यह बाँध भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सिंचाई, जलविद्युत उत्पादन तथा बाढ़ नियंत्रण को प्रभावित कर सकता है। इसके परिणामस्वरूप जल, खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा पर गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है, जिससे स्थानीय कृषि, आजीविका व खाद्य आपूर्ति भी प्रभावित हो सकती है।
ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा बाँध निर्माण पर भारत की प्रतिक्रिया क्या है?
- सियांग अपर बहुद्देशीय परियोजना: भारत ने अरुणाचल प्रदेश में लगभग 11.2 गीगावॉट (GW) की जलविद्युत परियोजना की योजना बनाई है। यह परियोजना चीन द्वारा बनाए जा रहे बाँधों के जवाब में रणनीतिक एवं जल-सुरक्षा उपाय के रूप में विकसित की जा रही है। इसका उद्देश्य चीन के अपस्ट्रीम डैम से आने वाली बाढ़ को नियंत्रित करना और क्षेत्र की जल, ऊर्जा तथा पारिस्थितिकीय सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
- इस परियोजना में स्थानीय जनजातियों, विशेष रूप से आदि समुदाय की भागीदारी शामिल है।
- निगरानी और नदी का योगदान: भारत के पास ब्रह्मपुत्र बेसिन का केवल लगभग 34% हिस्सा है, फिर भी यह नदी के प्रवाह में 80% से अधिक का योगदान देता है, जिसका कारण है 2,371 मिमी वर्षा और हिमपिघलन, जबकि तिब्बत में केवल 300 मिमी वर्षा होती है।
- भारतीय सहायक नदियाँ, विशेष रूप से अरुणाचल प्रदेश और असम में, जल संसाधनों में 30% तथा जलविद्युत संभावनाओं में 41% का योगदान देती हैं, जिसमें अनेक चुनौतियों के बावजूद अरुणाचल प्रदेश की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
- प्रस्तावित नदी जोड़ो परियोजनाएँ:
- मानस–संकोष–तीस्ता–गंगा लिंक: इस परियोजना का उद्देश्य ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी मानस को संकोष और तीस्ता के माध्यम से गंगा से जोड़ना है।
- जोगीघोपा–तीस्ता–फरक्का लिंक: इस प्रस्ताव के अंतर्गत ब्रह्मपुत्र को जोगीघोपा बैराज पर गंगा से फरक्का के पास जोड़ने की योजना है।
- राजनयिक वार्ता और विश्वास-निर्माण उपाय (CBMs): भारत ने चीन के साथ चीन की बुनियादी अवसरंचना और उसके बहाव पर पड़ने वाले प्रभाव के संबंध में चिंता व्यक्त की।
- मार्च 2025 में बीजिंग में द्विपक्षीय वार्ताएँ हुईं, जिनमें जल-साझाकरण और सीमा पर सैनिकों की वापसी से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की गई।
- विश्वास-निर्माण उपायों के अंतर्गत पर्यटक वीज़ा और पाँच वर्षों के बाद कैलाश मानसरोवर यात्रा को पुनः शुरू किया गया।
- मार्च 2025 में बीजिंग में द्विपक्षीय वार्ताएँ हुईं, जिनमें जल-साझाकरण और सीमा पर सैनिकों की वापसी से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की गई।
चीन के ब्रह्मपुत्र बाँधों से उत्पन्न खतरे से निपटने के लिये भारत क्या उपाय कर सकता है?
- सामरिक जल अवसंरचना में तेज़ी लाना: भारत को अरुणाचल प्रदेश में अपर सियांग जलविद्युत परियोजना जैसे प्रोजेक्ट्स को तेज़ी से पूरा करना चाहिये, जिसमें 300 मीटर ऊँचा बाँध प्रस्तावित है जो अपस्ट्रीम (ऊपरी धारा) के प्रवाह में होने वाले उतार-चढ़ाव को नियंत्रित कर सकता है।
- साथ ही, ब्रह्मपुत्र बेसिन में जल भंडारण क्षमता का विस्तार करना भी आवश्यक है, जिससे चीन द्वारा की जा रही गतिविधियों से उत्पन्न बाढ़ और मौसमी जल संकट जैसी समस्याओं को कम किया जा सके।
- वैज्ञानिक एवं संस्थागत तैयारी को सुदृढ़ करना: चीन की बाँध-निर्माण गतिविधियों से उत्पन्न पारिस्थितिकीय और भू-राजनीतिक जोखिमों का वैज्ञानिक मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
- रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (IDSA) द्वारा रेखांकित की गई सिफारिशों के अनुसार, वास्तविक समय में डेटा मॉडलिंग और पूर्वानुमान विश्लेषण (Predictive Analytics) की संस्थागत क्षमताओं को मज़बूत करना आवश्यक है, जिससे जल के संभावित हथियारकरण की स्थिति में समय रहते प्रभावी प्रतिक्रिया दी जा सके।
- अंतर्संयोजन और चैनल डायवर्जन योजनाओं को लागू करना: भारत को राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (NWDA) की अंतर्संयोजन योजनाओं को क्रियान्वित करना चाहिये, जो ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों को गंगा बेसिन से जोड़कर अतिरिक्त जल को सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पुनर्निर्देशित करेंगी।
- इसके अतिरिक्त, अंतर्देशीय जल-चैनल प्रणालियाँ मानसूनी जलभराव को नियंत्रित करने और बाढ़ की संवेदनशीलता को कम करने के लिये एक बफर के रूप में कार्य कर सकती हैं।
- राजनय और क्षेत्रीय सहयोग को सशक्त करना: चीन ने वर्ष 2022 से भारत के साथ महत्त्वपूर्ण जलवैज्ञानिक (हाइड्रोलॉजिकल) डेटा साझा करना बंद कर दिया है।
- ब्रह्मपुत्र पर वर्ष 2002 से लागू समझौता ज्ञापन (MoU) जून 2023 में समाप्त हो गया और सतलुज नदी पर वर्ष 2005 में हुआ MoU नवंबर 2020 में समाप्त हो चुका है तथा तब से नवीनीकृत नहीं किया गया है।
- भारत को चाहिये कि वह चीन के साथ राजनयिक माध्यमों से संवाद को आगे बढ़ाए, ताकि डाउनस्ट्रीम (निचले प्रवाह) पर पड़ने वाले प्रभावों का सतत् मूल्यांकन करने हेतु वास्तविक समय में विस्तृत जल व परियोजना संबंधित डेटा प्राप्त किया जा सके।
- साथ ही, भूटान, बांग्लादेश और म्याँमार जैसे पड़ोसी देशों के साथ क्षेत्रीय समन्वय विकसित करना भी आवश्यक है, ताकि संयुक्त आपदा तैयारी, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली तथा साझा सीमावर्ती जल प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके।
ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली से संबंधित प्रमुख बिंदु
- उद्गम और प्रवाह: ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम तिब्बत में मानसरोवर झील के निकट कैलाश पर्वतमाला में स्थित चेमायुंगदुंग हिमनद (ग्लेशियर) से होता है, जहाँ इसे यारलुंग सांगपो (Yarlung Tsangpo) कहा जाता है।
- यह भारत में अरुणाचल प्रदेश के माध्यम से सियांग (या दिहांग) नाम से प्रवेश करती है, फिर असम से प्रवाहित होकर तीस्ता नदी से मिलकर बांग्लादेश में जमुना के नाम से प्रवेश करती है। इसके बाद यह गंगा (पद्मा) से गोआलुंडो घाट के पास मिलती है और अंततः मेघना नदी में विलीन होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
- बेसिन (घाटी): ब्रह्मपुत्र नदी घाटी का विस्तार तिब्बत (चीन), भूटान, भारत और बांग्लादेश तक है। भारत में इसका जलग्रहण क्षेत्र में अरुणाचल प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, मेघालय, नगालैंड और सिक्किम शामिल हैं।
- यह घाटी उत्तर और पश्चिम में हिमालय, पूर्व में पाटकै की पहाड़ियाँ, तथा दक्षिण में असम की पहाड़ियाँ से घिरी हुई है।
- ब्रह्मपुत्र नदी की लंबाई 2,900 किमी है, जिसमें से केवल 916 किमी भारत में बहती है।
(गंगा भारत के भीतर बहने वाली सबसे लंबी नदी है।)
- प्रमुख सहायक नदियाँ:
- दाहिने तट की नदियाँ: लोहित, दिबांग, सुबनसिरी, जिया भराली, धनसिरी, मानस, तोर्सा, संकोश, तीस्ता
- बाएँ तट की नदियाँ: बुरीदीहिंग, देशांग, दीखो, धनसिरी (दक्षिण), कोपिली।
- पारिस्थितिक एवं जल-विज्ञान संबंधी महत्त्व: ब्रह्मपुत्र नदी घाटी भारत के कुल जल संसाधनों का 30% से अधिक और देश की लगभग 41% जलविद्युत क्षमता में योगदान करती है।
- यह काज़ीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान जैसे महत्त्वपूर्ण जैव विविधता क्षेत्रों और समृद्ध पारिस्थितिक तंत्रों का समर्थन करती है।
- इस घाटी और उसके आसपास की पहाड़ियों में पतझड़ वाले वन (deciduous forests) पाए जाते हैं, जो पारिस्थितिक संतुलन और सतत विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
- यह काज़ीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान जैसे महत्त्वपूर्ण जैव विविधता क्षेत्रों और समृद्ध पारिस्थितिक तंत्रों का समर्थन करती है।
- विशेषताएँ: माजुली, विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप तथा उमानंदा, विश्व का सबसे छोटा नदी द्वीप, दोनों ही असम में ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित हैं, जो इसकी विशिष्ट जल-प्रवाही संरचना को दर्शाते हैं।
और पढ़ें: भारत की सीमा पार नदियाँ
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. तीस्ता नदी के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न . “चीन अपने आर्थिक संबंधों एवं सकारात्मक व्यापार अधिशेष को एशिया में संभाव्य सैनिक शक्ति हैसियत को विकसित करने के लिये उपकरण के रूप में इस्तेमाल कर रहा है”। इस कथन के प्रकाश में उसके पडौसी के रूप में भारत पर इसके प्रभाव पर चर्चा कीजिये। (2017) |


मुख्य परीक्षा
आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु पैरामीट्रिक बीमा
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन और बादल फटने के साथ-साथ 20 से अधिक बार अचानक बाढ़ आई, जिससे जलवायु परिवर्तन और भारत में बढ़ते आपदा जोखिम के कारण चरम मौसम की घटनाओं की अप्रत्याशितता उजागर हुई।
- वर्ष 2019 और 2023 के बीच भारत को मौसम संबंधी आपदाओं के कारण 56 बिलियन डॉलर से ज़्यादा का नुकसान हुआ। इस संदर्भ में, पैरामीट्रिक इंश्योरेंस जलवायु संबंधी जोखिमों के प्रबंधन के लिये एक त्वरित और पारदर्शी साधन के रूप में उभर रहा है।
भारत में बढ़ते आपदा जोखिमों से संबंधित प्रमुख आँकड़े क्या हैं?
- वर्ष 1900 से अब तक भारत में 764 प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ दर्ज की गई हैं, जिनमें से लगभग 50% आपदाएँ वर्ष 2000 के बाद हुई हैं, जो जलवायु अस्थिरता में वृद्धि को दर्शाती हैं।
- विश्व बैंक के अनुसार, वर्ष 1997 के बाद से भारत का सूखा-प्रवण क्षेत्र 57% तक बढ़ गया है, जबकि वर्ष 2012 के बाद से अत्यधिक वर्षा की घटनाएँ लगभग 85% तक बढ़ी हैं।
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक अत्यधिक गर्मी और आर्द्रता के कारण श्रम घंटों की हानि से भारत के GDP का लगभग 4.5% जोखिम में पड़ सकता है।
- एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जलवायु से संबंधित कुल नुकसानों में भारत की हिस्सेदारी लगभग 25% रही है, जो दक्षिण एशिया में सबसे अधिक है।
- ऐसी आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति, तीव्रता और आर्थिक बोझ को देखते हुए, नवीन बीमा समाधानों को संस्थागत बनाने की तत्काल आवश्यकता है।
पैरामीट्रिक इंश्योरेंस क्या है?
- परिभाषा: यह एक प्रकार का इंश्योरेंस जिसमें जिसमें भुगतान तब स्वतः हो जाता है जब पूर्व-निर्धारित मानदंड (जैसे वर्षा, तापमान, भूकंपीय गतिविधि आदि) एक निश्चित सीमा को पार कर जाते हैं।
- पारंपरिक इंश्योरेंस के विपरीत, जिसमे भौतिक क्षति के आकलन की आवश्यकता होती है, पैरामीट्रिक इंश्योरेंस पूर्वनिर्धारित मौसम ट्रिगर्स (वर्षा या हवा की गति) के आधार पर भुगतान प्रदान करता है। यह प्रणाली, विशेष रूप से विस्तृत आपदाओं के दौरान तेज़, सरल और परेशानी-मुक्त मुआवज़ा सुनिश्चित करती है।
- संबंधित केस स्टडीज़:
- राजस्थान और उत्तर प्रदेश में जल संतुलन सूचकांक (Water Balance Index) का उपयोग कर महिला लघु कृषकों को सूखे से सुरक्षा प्रदान की गई। उन्हें स्वचालित ऋण सहायता दी गई।
- नगालैंड भारत का पहला राज्य बना जिसने आपदा न्यूनीकरण निधियों का उपयोग कर भूस्खलन और अत्यधिक वर्षा के लिये बहु-वर्षीय पैरामीट्रिक कवर खरीदा।
- वैश्विक स्तर पर, अफ्रीका, प्रशांत द्वीप समूह और ब्रिटेन के देशों द्वारा सूखे और बाढ़ से लेकर चक्रवाती पवनों और बाढ़ की गहराई तक सब कुछ कवर करने हेतु पैरामीट्रिक उत्पादों का उपयोग किया जाता है।
पैरामीट्रिक इंश्योरेंस को आपदा जोखिम न्यूनीकरण ढाँचे में किस प्रकार एकीकृत किया जा सकता है?
- राज्य आपदा योजनाओं में पैरामीट्रिक मॉडल को शामिल करना: राज्यों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये कि वे राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (SDRF) या आपदा प्रबंधन कोष (Disaster Management Fund) के अंतर्गत "स्मार्ट राज्यों के लिये स्मार्ट कवर" के रूप में पैरामीट्रिक इंश्योरेंस नीतियाँ अपनाएँ।
- क्षेत्र-विशिष्ट कवरेज का विस्तार करना: इंश्योरेंस कवरेज को कृषि क्षेत्र (जो सूखा एवं बाढ़–दोनों प्रवण क्षेत्रों में किसानों की मदद कर सकता है), नवीकरणीय ऊर्जा, परिवहन और एमएसएमई क्षेत्रों में बढ़ाया जाए ताकि आर्थिक संकटों की शृंखला को रोका जा सके।
- जलवायु-सम्बंधित माइक्रोफाइनेंस उत्पाद विकसित करना: वित्तीय संस्थान ऐसी योजनाएँ तैयार कर सकते हैं जिनमें मौसमीय संकटों के समय ऋण अपने-आप कवर हो जाएँ, जिससे कमज़ोर वर्गों को समय पर राहत मिल सके।
- कमज़ोर उधारकर्त्ताओं, जैसे छोटे किसानों के लिये “पहले से सोच-समझकर योजना बनाने वाले इंश्योरेंस (इंश्योरेंस दैट थिंक अहेड)” को प्रोत्साहित करता है।
- सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देना: बेहतर मॉडल और पहुँच के लिये पुनर्बीमाकर्त्ताओं, कृषि-तकनीक फर्मों और स्टार्टअप्स के साथ सहयोग करना।
निष्कर्ष:
पैरामीट्रिक इंश्योरेंस आपदा प्रतिक्रिया को प्रतिक्रियात्मक मुआवज़े से सक्रिय सुरक्षा की ओर रूपांतरित करता है। यह सेंडाई आपदा जोखिम न्यूनीकरण फ्रेमवर्क पर आधारित होकर न केवल वित्तीय अनुकूलता सुनिश्चित करता है, बल्कि ग्लोबल वार्मिंग का सामना करते हुए विश्व में जलवायु न्याय को भी सुनिश्चित करता है।
मुख्य परीक्षा हेतु संबंधित कीवर्ड:
- जलवायु परिवर्तन और आपदा लचीलापन
- पूर्वानुमानित अनिश्चितता: जलवायु संबंधी चरम स्थितियाँ ज्ञात जोखिम हैं, ये कोई ब्लैक स्वान (अत्यंत दुर्लभ और अप्रत्याशित घटना) नहीं रहीं।
- “बचाव से लचीलेपन की ओर”: प्रतिक्रियात्मक राहत से सक्रिय तैयारी की ओर बदलाव।
- "शमन निवेश है, व्यय नहीं": जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये किया गया व्यय एक आर्थिक समझदारीपूर्ण निवेश है।
- पैरामीट्रिक बीमा और जलवायु वित्त
- “हानि आकलन से हानि पूर्वानुमान तक”: पूर्वानुमान-आधारित वित्तीय सुरक्षा।
- "तरलता पहली राहत है": आपदा के बाद तीव्र वित्तीय प्रवाह से सुधार सुनिश्चित होता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्स:प्रश्न. आपदा प्रबंधन में पूर्ववर्ती प्रतिक्रियात्मक उपागम से हटते हुए भारत सरकार द्वारा आरंभ किये गए अभिनूतन उपायों की विवेचना कीजिये। (2020) प्रश्न. आपदा प्रभावों और लोगों के लिये उसके खतरे को परिभाषित करने हेतु भेद्यता एक अत्यावश्यक तत्त्व है। आपदाओं के प्रति भेद्यता का किस प्रकार और किन-किन तरीकों के साथ चरित्र-चित्रण किया जा सकता है? आपदाओं के संदर्भ में भेद्यता के विभिन्न प्रकारों पर चर्चा कीजिये। (2019) प्रश्न. भारत में आपदा जोखिम न्यूनीकरण (डी० आर० आर०) के लिये 'सेंडाई आपदा जोखिम न्यूनीकरण प्रारूप (2015-2030)' हस्ताक्षरित करने से पूर्व एवं उसके पश्चात् किये गए विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिये। यह प्रारूप 'हयोगो कार्रवाई प्रारूप, 2005' से किस प्रकार भिन्न है? (2018) |

