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डेली न्यूज़

  • 14 Jul, 2021
  • 67 min read
शासन व्यवस्था

UAPA की सख्त प्रकृति

प्रिलिम्स के लिये

गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 1952; फादर स्टेन स्वामी

मेन्स के लिये

आतंकवाद विरोधी कानूनों की आवश्यकता और इनके दुरुपयोग की रोकथाम

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जेसुइट पुजारी और आदिवासी अधिकार कार्यकर्त्ता फादर स्टेन स्वामी (Father Stan Swamy) की न्यायिक हिरासत में मृत्यु ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम [Unlawful Activities (Prevention) Act- UAPA] के कड़े प्रावधानों की तरफ सबका ध्यान खींचा है।

  • UAPA भारत का प्रमुख आतंकवाद विरोधी कानून है, जिसके कारण जमानत प्राप्त करना अधिक कठिन हो जाता है।
  • इस कठिनाई को फादर स्वामी की अस्पताल में कैदी के रूप में मौत के प्रमुख कारणों में से एक के तौर पर देखा जा रहा है और इस तरह संवैधानिक स्वतंत्रता से समझौता किया जा रहा है।

प्रमुख बिंदु

  • UAPA की पृष्ठभूमि:

    • भारत सरकार ने वर्ष 1960 के दशक के मध्य में विभिन्न अलगाव आंदोलनों को रोकने के लिये एक सख्त कानून बनाने पर विचार किया।
    • इसे बनाने की तत्कालीन प्रेरणा मार्च 1967 में नक्सलबाड़ी में एक किसान विद्रोह ने प्रदान की।
    • राष्ट्रपति ने 17 जून, 1966 को गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अध्यादेश जारी किया था।
      • इस अध्यादेश का उद्देश्य "व्यक्तियों और संघों की गैरकानूनी गतिविधियों की अधिक प्रभावी रोकथाम करना" था।
    • संसद के प्रारंभिक प्रतिरोध (इसकी कठोर प्रकृति के कारण) के बाद वर्ष 1967 में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम पारित किया गया।
    • इस अधिनियम में किसी संघ या व्यक्तियों के निकाय, जो किसी ऐसी गतिविधि में लिप्त है तथा अलगाव की परिकल्पना करती है या देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को अस्वीकार करती है, को "गैरकानूनी" घोषित करने का प्रावधान है।
    • UAPA के अधिनियमन से पहले संघों को आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम [Criminal Law (Amendment) Act], 1952 के अंतर्गत गैरकानूनी घोषित किया जाता था।
      • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रतिबंधों का प्रावधान गैरकानूनी था क्योंकि किसी भी प्रतिबंध की वैधता की जाँच करने के लिये कोई न्यायिक तंत्र नहीं था।
    • इसलिये UAPA में एक अधिकरण (Tribunal) का प्रावधान शामिल किया गया था, जिसे छः महीने के भीतर संगठनों को गैरकानूनी घोषित करने वाली अधिसूचना की पुष्टि करनी होती है।
    • आतंकवाद रोकथाम अधिनियम (Prevention of Terrorism Act- POTA) , 2002 के निरस्त होने के बाद UAPA का विस्तार किया गया ताकि पहले के कानूनों में आतंकवादी कृत्यों को शामिल किया जा सके।
  • अधिनियम की वर्तमान स्थिति:

    • UAPA के दायरे का विस्तार करने के लिये इसे वर्ष 2004 और वर्ष 2013 में संशोधित किया गया।
    • कानून का विस्तारित दायरा:
      • आतंकवादी कृत्यों और गतिविधियों के लिये सज़ा।
      • देश की सुरक्षा के लिये खतरा पैदा करने वाले कार्य, उसकी आर्थिक सुरक्षा (वित्तीय और मौद्रिक सुरक्षा, भोजन, आजीविका, ऊर्जा पारिस्थितिक तथा पर्यावरण सुरक्षा) शामिल है।
      • आतंकवादी उद्देश्यों के लिये धन के उपयोग को रोकने के प्रावधान।
    • संगठनों पर प्रतिबंध शुरू में दो वर्ष के लिये था लेकिन वर्ष 2013 से अभियोजन की अवधि को बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया गया है।
    • इसके अलावा इन संशोधनों का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विभिन्न आतंकवाद विरोधी प्रस्तावों और वित्तीय कार्रवाई कार्यबल की आवश्यकताओं को प्रभावी बनाना है।
    • वर्ष 2019 में व्यक्तियों को आतंकवादी के रूप में नामित करने के लिये सरकार को सशक्त बनाने हेतु अधिनियम में संशोधन किया गया था।
  • UAPA का काम करने का ढंग:

    • नशीले पदार्थों से निपटने वाले अन्य विशेष कानूनों और आतंकवाद पर प्रतिबंध लगाने से संबंधित समाप्त हो चुके कानूनों की तरह UAPA भी इसे और अधिक मज़बूत करने के लिये आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को संशोधित करता है। उदाहरण के लिये-
      • रिमांड आदेश सामान्यतः 15 के बजाय 30 दिनों के लिये हो सकता है।
      • चार्जशीट दाखिल करने से पहले न्यायिक हिरासत की अधिकतम अवधि सामान्यतः 90 दिनों से 180 दिनों तक बढ़ाई जा सकती है।
  • UAPA को लेकर विवाद:

    • आतंकवादी अधिनियम की अस्पष्ट परिभाषा: UAPA के तहत एक "आतंकवादी अधिनियम" की परिभाषा ‘आतंकवाद का मुकाबला करते हुए मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक’ द्वारा प्रचारित परिभाषा से काफी भिन्न है।
      • दूसरी ओर UAPA "आतंकवादी अधिनियम" की एक व्यापक और अस्पष्ट परिभाषा प्रदान करता है जिसमें किसी व्यक्ति की मृत्यु या व्यक्ति को चोट लगना, किसी भी संपत्ति को नुकसान आदि शामिल है।
    • जमानत से इनकार: UAPA के साथ बड़ी समस्या इसकी धारा 43 (डी) (5) है, जिससे किसी भी आरोपी व्यक्ति के लिये जमानत प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।
      • इस मामले में यदि पुलिस ने आरोप-पत्र दायर किया है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सही है, तो जमानत नहीं दी जा सकती।
      • इसके अलावा इस पर सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि जमानत पर विचार करने वाली अदालत को सबूतों की बहुत गहराई से जाँच नहीं करनी चाहिये, बल्कि व्यापक संभावनाओं के आधार पर अभियोजन पक्ष से संबंधित होना चाहिये।
      • इस प्रकार UAPA वस्तुतः जमानत से इनकार करता है, जो स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की सुरक्षा और गारंटी है।
    • ट्रायल में देरी: भारत में न्याय वितरण प्रणाली की स्थिति को देखते हुए मुकदमों के स्तर पर लंबित मामलों की दर औसतन 95.5% है।
    • राज्य को अधिक शक्ति मिलना: इसमें कोई भी ऐसा कार्य शामिल हो सकता है जो "धमकी देने की संभावना" या "लोगों में आतंक फैलाने की संभावना" से संबंधित हो तथा जो इन कृत्यों की वास्तविक जाँच के बिना सरकार को किसी भी सामान्य नागरिक या कार्यकर्त्ता को आतंकवादी घोषित करने के लिये बेलगाम शक्ति प्रदान करता है।
      • यह राज्य प्राधिकरण को उन व्यक्तियों को हिरासत में लेने और गिरफ्तार करने की अस्पष्ट शक्ति देता है, जिनके बारे में राज्य यह मानता है कि वे आतंकवादी गतिविधियों में शामिल थे।
    • संघवाद को कम आँकना: कुछ विशेषज्ञों का मानना ​​है कि यह संघीय ढाँचे के खिलाफ है क्योंकि यह आतंकवाद के मामलों में राज्य पुलिस के अधिकार की उपेक्षा करता है, यह देखते हुए कि 'पुलिस' भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत राज्य का विषय है।

आगे की राह:

  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा प्रदान करने के राज्य के दायित्व के बीच रेखा खींचना दुविधा का मामला है।
  • संवैधानिक स्वतंत्रता की अनिवार्यता और आतंकवाद विरोधी गतिविधियों के बीच संतुलन बनाना राज्य, न्यायपालिका, नागरिक समाज पर निर्भर करता है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजनीति

असम-मिज़ोरम सीमा विवाद

प्रीलिम्स के लिये

पूर्वोत्तर की भौगौलिक अवसंरचना

मेन्स के लिये

असम-मिज़ोरम सीमा विवाद, भारत में सीमा-विवादों की समग्र स्थिति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में असम के कछार ज़िले के अंदर कथित तौर पर मिज़ोरम के निवासियों द्वारा कई ‘इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस’ यानी आईईडी विस्फोट किये गए हैं। ये विस्फोट लंबे समय से अनसुलझे असम-मिज़ोरम सीमा विवाद के फिर से उभरने का संकेत देते हैं।

  • असम और मिज़ोरम के बीच सीमा का मुद्दा मिज़ोरम के गठन के बाद अस्तित्त्व में आया था। मिज़ोरम सर्वप्रथम वर्ष 1972 में एक केंद्रशासित प्रदेश के रूप में और फिर वर्ष 1987 में एक पूर्ण राज्य के रूप में अस्तित्त्व में आया।
  • भारत में अंतर्राज्यीय विवाद बहुआयामी हैं, सीमा विवादों के अलावा देश में पानी (नदियों) के बँटवारे और प्रवासन को लेकर भी विवाद देखने को मिलते हैं, जो कि भारत की संघीय राजनीति को भी प्रभावित करते हैं।

नोट

  • औपनिवेशिक काल के दौरान मिज़ोरम को असम के ‘लुशाई हिल्स’ ज़िले के नाम से जाना जाता था।
  • मिज़ोरम राज्य अधिनियम, 1986 द्वारा वर्ष 1987 में मिज़ोरम को राज्य का दर्जा दिया गया था।
  • असम वर्ष 1950 में भारत का एक घटक राज्य बन गया और 1960 तथा 1970 के दशक की शुरुआत के बीच इसके अधिकांश क्षेत्र को पूर्वोत्तर में स्वतंत्र राज्य बना दिया गया।

प्रमुख बिंदु

  • असम-मिज़ोरम सीमा विवाद- पृष्ठभूमि

    • असम और मिज़ोरम के बीच मौजूदा सीमा विवाद की शुरुआत औपनिवेशिक युग के दौरान तब हुई थी जब ब्रिटिश राज की प्रशासनिक ज़रूरतों के अनुसार इस क्षेत्र का आंतरिक सीमांकन किया गया था।
    • असम-मिज़ोरम विवाद ब्रिटिश काल में पारित दो अधिसूचनाओं के कारणउत्पन्न हुआ।
      • सबसे पहली अधिसूचना वर्ष 1875 में जारी की गई, जिसके तहत ‘लुशाई हिल्स’ क्षेत्र को कछार के मैदानी इलाकों से अलग कर दिया गया।
      • दूसरी अधिसूचना वर्ष 1933 में जारी हुई और इसके तहत ‘लुशाई हिल्स’ तथा मणिपुर के बीच एक सीमा का सीमांकन किया गया।
    • मिज़ोरम का मानना है कि सीमा का सीमांकन वर्ष 1875 की अधिसूचना के आधार पर किया जाना चाहिये था, जो कि ‘बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन’ (BEFR) अधिनियम, 1873 के तहत जारी की गई थी।
      • मिज़ो नेता वर्ष 1933 में अधिसूचित सीमांकन के विरुद्ध हैं, क्योंकि उनके अनुसार इस अधिसूचना के दौरान मिज़ो समाज से परामर्श नहीं किया गया था।
      • वहीं दूसरी ओर असम सरकार वर्ष 1933 के सीमांकन को अपना आधार मानती है।
      • परिणामस्वरूप दोनों राज्यों की अपनी-अपनी सीमा के बारे में अलग-अलग धारणा बनी हुई है और यही विवाद का मुख्य कारण है।
    • असम और मिज़ोरम को अलग करने वाली 164.6 किलोमीटर की अंतर-राज्यीय सीमा है, जिसमें असम के तीन ज़िले- कछार, हैलाकांडी और करीमगंज, मिज़ोरम के कोलासिब, ममित एवं आइज़ोल ज़िलों के साथ सीमा साझा करते हैं।
    • इसके अलावा मिज़ोरम और असम के बीच की सीमा पहाड़ियों, घाटियों, नदियों तथा जंगलों के कारण स्वाभाविक रूप से विभाजित है एवं दोनों पक्षों के बीच यह विवाद एक काल्पनिक रेखा संबंधी धारणात्मक मतभेदों पर आधारित है।
    • हालाँकि पूर्वोत्तर के जटिल सीमा समीकरणों में असम और मिज़ोरम के निवासियों के बीच संघर्ष असम के अन्य पड़ोसी राज्यों जैसे नगालैंड की तुलना में काफी कम है।

Mizoram

  • भारत में अंतर्राज्यीय विवादों की समग्र स्थिति:

    • सीमा का मुद्दा: राज्यों के बीच सीमा विवाद भारत में अंतर्राज्यीय विवादों के प्रमुख कारणों में से एक है। उदाहरण के लिये-
      • कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों ही बेलगाम पर अपना दावा करते हैं, जिससे इन दोनों के बीच समय-समय पर विवाद देखने को मिलता रहता है।
      • पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम [North-Eastern Areas (Reorganisation) Act], 1971 ने मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों की स्थापना तथा मेघालय के गठन से पूर्वोत्तर भारत के राजनीतिक मानचित्र को बदल दिया।
        • इस पुनर्गठन के परिणामस्वरूप पूर्वोत्तर क्षेत्र में कई सीमा विवाद हुए हैं जैसे- असम-नगालैंड, असम-मेघालय आदि।
    • प्रवासन का मुद्दा: कुछ राज्यों में दूसरे राज्यों के प्रवासियों और नौकरी चाहने वालों को लेकर हिंसक आंदोलन हुए हैं।
      • ऐसा इसलिये है क्योंकि मौजूदा संसाधन और रोज़गार के अवसर बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
      • संबंधित राज्यों में रोज़गार में वरीयता के लिये 'सन ऑफ द साइल' (Sons of The Soil) की अवधारणा संघवाद की जड़ों को नष्ट कर देती है।
    • जल संसाधनों के बँटवारे पर विवाद: सबसे लंबे समय से चल रहा और विवादास्पद अंतर्राज्यीय मुद्दा नदी के पानी के बँटवारे का रहा है।
      • भारत की अधिकांश नदियाँ अंतर्राज्यीय हैं, अर्थात् ये एक से अधिक राज्यों से होकर बहती हैं।
      • पानी की मांग में वृद्धि के कारण नदी के पानी के बँटवारे को लेकर कई अंतर्राज्यीय विवाद सामने आए हैं।

आगे की राह:

  • राज्यों के बीच सीमा विवादों को वास्तविक सीमा स्थानों के उपग्रह मानचित्रण का उपयोग करके सुलझाया जा सकता है।
  • अंतर-राज्यीय परिषद को पुनर्जीवित करना अंतर-राज्यीय विवाद के समाधान के लिये एक विकल्प हो सकता है।
    • संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत अंतर-राज्यीय परिषद से विवादों पर पूछताछ और सलाह देने, सभी राज्यों के लिये सामान्य विषयों पर चर्चा करने तथा बेहतर नीति समन्वय हेतु सिफारिशें करने की अपेक्षा की जाती है।
  • इसी तरह प्रत्येक क्षेत्र में राज्यों की सामान्य चिंता के मामलों पर चर्चा करने हेतु क्षेत्रीय परिषदों को पुनर्जीवित किये जाने की आवश्यकता है। जैसे- सामाजिक और आर्थिक योजना, सीमा विवाद, अंतर-राज्यीय परिवहन आदि से संबंधित मामले।
  • भारत अनेकता में एकता का प्रतीक है। हालाँकि इस एकता को और मज़बूत करने के लिये केंद्र तथा राज्य सरकारें दोनों को सहकारी संघवाद के लोकाचार को आत्मसात करने की आवश्यकता है।

स्रोत- द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

वर्ष 2020 के बाद वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क

प्रिलिम्स के लिये:

जैविक विविधता अभिसमय, कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़, जैविक विविधता, कार्टाजेना प्रोटोकॉल, नागोया प्रोटोकॉल

मेन्स के लिये:

नए वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क का लक्ष्य एवं उद्देश्य

चर्चा में क्यों?

जैविक विविधता पर सयुक्त राष्ट्र अभिसमय’ (United Nations Convention on Biological Diversity) ने वर्ष 2030 तक प्रकृति प्रबंधन हेतु विकासशील देशों को वित्त उपलब्ध कराने के लिये विभिन्न स्रोतों से अतिरिक्त 200 बिलियन अमेरिकी डाॅलर के वित्तपोषण की मांग की है।

  • यह उन मांगों और लक्ष्यों में से एक है जिसे वर्ष 2030 तक एक नए वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क के आधिकारिक मसौदे में निर्धारित किया गया है।

जैविक विविधता अभिसमय (CBD)

  • जैविक विविधता अभिसमय (Convention on Biological Diversity- CBD), जैव विविधता के संरक्षण हेतु कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि है जो वर्ष 1993 से लागू है। इसके 3 मुख्य उद्देश्य हैं:
    • जैव विविधता का संरक्षण।
    • जैविक विविधता के घटकों का सतत् उपयोग।
    • आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से होने वाले लाभों का उचित और न्यायसंगत वितरण।
  • लगभग सभी देशों ने इसकी पुष्टि की है (अमेरिका ने इस संधि पर हस्ताक्षर तो किये हैं लेकिन पुष्टि नहीं की है)।
  • CBD का सचिवालय मॉन्ट्रियल, कनाडा में स्थित है जो संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तहत संचालित होता है।
  • जैविक विविधता अभिसमय के तहत पार्टियांँ (देश) नियमित अंतराल पर मिलती हैं और इन बैठकों को कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (Conference of Parties - COP) कहा जाता है।
  • वर्ष 2000 में जैव सुरक्षा पर एक पूरक समझौते के रुप में कार्टाजेना प्रोटोकॉल (Cartagena Protocol on Biosafety) को अपनाया गया था। यह 11 सितंबर, 2003 को लागू हुआ।
    • यह प्रोटोकॉल आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप संशोधित जीवित जीवों द्वारा उत्पन्न संभावित जोखिमों से जैविक विविधता की रक्षा करता है।
  • आनुवंशिक संसाधनों तक पहुंँच सुनिशचित तकरने और उनके उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभों के उचित एवं न्यायसंगत साझाकरण को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2010 में नागोया प्रोटोकॉल को जापान के नागोया शहर में संपन्न
  • COP10 में अपनाया गया था। यह 12 अक्तूबर, 2014 को लागू हुआ।
    • यह प्रोटोकॉल न केवल CBD के तहत शामिल आनुवंशिक संसाधनों और उनके उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभों पर लागू होता है, बल्कि आनुवंशिक संसाधनों से जुड़े उस पारंपरिक ज्ञान (Traditional knowledge (TK) को भी कवर करता है जो CBDऔर इसके उपयोग से होने वाले लाभों से आच्छादित हैं।
  • COP-10 में आनुवंशिक संसाधनों पर नागोया प्रोटोकॉल को अपनाने के साथ, जैव विविधता को बचाने हेतु सभी देशों द्वारा कार्रवाई के लिये दस वर्ष की रूपरेख को भी अपनाया गया।
  • वर्ष 2010 में नागोया में CBD की कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP)-10 में वर्ष 2011-2020 हेतु ‘जैव विविधता के लिये रणनीतिक योजना’ को अपनाया गया। इसमें पहली बार विषय विशिष्ट 20 जैव विविधता लक्ष्यों- जिन्हें आइचीजैव विविधता लक्ष्य के रूप में भी जाना जाता है, को अपनाया गया।
  • भारत में CBD के प्रावधानों को प्रभावी बनाने हेतु वर्ष 2002 में जैविक विविधता अधिनियम अधिनियमित किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • पृष्ठभूमि:

    • जैव विविधता और इससे प्राप्त होने वाले लाभ, मानव कल्याण के साथ-साथ पृथ्वी की मौलिक ज़रूरतें हैं। चल रहे प्रयासों के बावजूद वैश्विक स्तर पर जैव विविधता की स्थिति बिगड़ रही है तथा व्यापार-उद्देश्यों के तहत इसमें गिरावट जारी रहने या इसके और खराब होने का अनुमान है।
    • वर्ष 2020 के बाद का वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क जैव विविधता 2011-2020 हेतु एक रणनीतिक योजना पर आधारित है।
      • जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र दशक 2011-2020 (United Nations Decade on Biodiversity 2011-2020 ) के समाप्त होने के साथ ही IUCN द्वारा सक्रिय रूप से एक ममहत्त्वाकांक्षी नए वैश्विक जैव विविधता ढांँचे के विकास को अपनाए जाने का आह्वान किया जा रहा है।
  • उद्देश्य:

    • मार्गदर्शक बल/शक्ति: यह एक नया फ्रेमवर्क/ढांँचा है जो प्रकृति की रक्षा करने और वर्ष 2020 से वर्ष 2030 तक मनुष्यों के लिये इसकी आवश्यक सेवाओं को बनाए रखने हेतु एक वैश्विक मार्गदर्शक शक्ति के रूप में कार्य करेगा।
    • लक्ष्य निर्धारित करना: यह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय लक्ष्यों को निर्धारित एवं विकसित करने, आवश्यकतानुसार राष्ट्रीय रणनीतियों और कार्य योजनाओं को अद्यतन करने, वैश्विक स्तर पर प्रगति की नियमित निगरानी तथा समीक्षा करने हेतु कन्वेंशन के 196 दलों के लिये एक वैश्विक, परिणाम-उन्मुख ढांँचा है।
    • तत्काल और परिवर्तनकारी कार्रवाई: फ्रेमवर्क का उद्देश्य सरकारों और संपूर्ण समाज द्वारा जैविक विविधता, इसके प्रोटोकॉल और अन्य जैव विविधता से संबंधित बहुपक्षीय समझौतों, प्रक्रियाओं तथा उपकरणों पर कन्वेंशन के उद्देश्यों में योगदान करने हेतु तत्काल परिवर्तनकारी कार्रवाई को बढ़ावा देना है।
    • क्षमता निर्माण: इसका उद्देश्य लक्ष्यों को पूरा करने हेतु संरक्षण उपाय करने के लिये समुदायों/सरकारों के उचित क्षमता निर्माण को सुनिश्चित करना है।
      • इनमें उन देशों को विवादास्पद प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण शामिल है जिनके पास वर्तमान में व्यापक वैज्ञानिक सहयोग और प्रौद्योगिकी नहीं है।
  • लक्ष्य और उद्देश्य:

    • वर्ष 2050 तक नए फ्रेमवर्क के निम्नलिखित चार लक्ष्यों को प्राप्त किया जाना है:
      • जैव विविधता के विलुप्त होने तथा उसमें गिरावट को रोकना।
      • संरक्षण द्वारा मनुष्यों के लिये प्रकृति की सेवाओं को बढ़ाने और उन्हें बनाए रखना।
      • आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से सभी के लिये उचित और समान लाभ सुनिश्चित करना।
      • वर्ष 2050 के विज़न को प्राप्त करने हेतु उपलब्ध वित्तीय और कार्यान्वयन के अन्य आवश्यक साधनों के मध्य अंतर को कम करना।
    • 2030 कार्य-उन्मुख लक्ष्य : 2030 के दशक में तत्काल कार्रवाई के लिये इस फ्रेमवर्क में 21 कार्य-उन्मुख लक्ष्य हैं।
      • उनमें से एक है संरक्षित क्षेत्रों के तहत विश्व के कम- से-कम 30% भूमि और समुद्र क्षेत्र को लाना।
      • एक अन्य लक्ष्य जैव विविधता के लिये हानिकारक प्रोत्साहनों को पुनर्निर्देशित करना, उनका पुन: उपयोग करना, सुधार करना और उचित एवं न्यायसंगत तरीके से उन्हें प्रतिवर्ष कम-से-कम 500 बिलियन डॉलर से कम करना" है।
  • SDGs के साथ संबंध:

    • यह फ्रेमवर्क ‘सतत् विकास के लिये 2030 एजेंडा’ के कार्यान्वयन में एक मौलिक योगदान है।
    • साथ ही सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) की दिशा में प्रगति के लिये रूपरेखा को लागू करने हेतु आवश्यक शर्तें तैयार करने में मदद मिलेगी।
  • वित्तीय सहायता की आवश्यकता:

    • विकासशील देशों के लिये और अधिक वित्तीय सहायता हेतु फ्रेमवर्क की मांग, जैव विविधता के नुकसान से संबंधित पीड़ितों की सहायता करने के लिये सबसे कठिन है।
    • इस फ्रेमवर्क को लागू करने के लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं जो वर्ष 2030 तक प्रतिवर्ष कम-से-कम 700 बिलियन डॉलर तक के वित्तपोषण के अंतर को उत्तरोत्तर कम करेंगे।
    • वित्तीय प्रतिबद्धता को प्रतिवर्ष कम-से-कम $200 बिलियन तक बढ़ाना होगा। इसमें विकासशील देशों को प्रतिवर्ष 10 अरब डॉलर का अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रवाह शामिल है।

फ्रेमवर्क में परिवर्तन का सिद्धांत:

  • इस फ्रेमवर्क को परिवर्तन के सिद्धांत के आधार पर बनाया गया है जो यह मानता है कि आर्थिक, सामाजिक और वित्तीय मॉडल को बदलने के लिये वैश्विक, क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर तत्काल नीतिगत कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
  • जिन प्रवृत्तियों ने जैव विविधता के नुकसान को बढ़ाया है, वे अगले 10 वर्षों (2030 तक) में स्थिर हो जाएंगे और वर्ष 2050 तक "प्रकृति के साथ सद्भाव में रहने" संबंधी अभिसमय के दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिये अगले 20 वर्षों में प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में सुधार करने में सहायता करेंगे।

Theory of change

स्रोत-डाउन टू अर्थ


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

उपकक्षीय उड़ान

प्रिलिम्स के लिये:

उपकक्षीय उड़ान, सिरीशा बंदला, कारमन रेखा

मेन्स के लिये:

उपकक्षीय उड़ान का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘वर्जिन गेलेक्टिक’ (Virgin Galactic) के ‘वीएसएस यूनिटी स्पेसशिप’ पर छह व्यक्तियों के एक चालक दल ने ‘एज ऑफ स्पेस’ की संक्षिप्त यात्रा की, जिसे उपकक्षीय उड़ान (Suborbital Flight) के रूप में जाना जाता है।

  • भारत में पैदा हुई अंतरिक्ष यात्री ‘सिरीशा बंदला’ (Sirisha Bandla) चालक दल का हिस्सा थीं। वह कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स के बाद अंतरिक्ष में जाने वाली भारतीय मूल की तीसरी महिला हैं।
  • ‘वर्जिन गेलेक्टिक’ एक ब्रिटिश-अमेरिकी स्पेसफ्लाइट कंपनी है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में कार्यरत है।

प्रमुख बिंदु

  • उपकक्षीय उड़ान/प्रक्षेपवक्र:

    • जब कोई वस्तु लगभग 28,000 किमी./घंटा या अधिक की क्षैतिज गति से यात्रा करती है, तो वह वायुमंडल से ऊपर होते हुए कक्षा में चली जाती है।
      • पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिये उपग्रहों को उस गति सीमा (कक्षीय वेग) तक पहुँचने की आवश्यकता होती है।

SBT 

  • ऐसा उपग्रह गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी की ओर गति कर रहा होगा। लेकिन इसकी क्षैतिज गति इतनी तेज़ होती है कि नीचे की गति को लंबवत कर सके ताकि यह एक वृत्ताकार पथ पर ही आगे बढ़े।
  • 28,000 किमी./घंटा से धीमी गति से यात्रा करने वाली किसी भी वस्तु को अंततः पृथ्वी पर वापस लौटना होगा।
  • अंतरिक्ष में प्रक्षेपित कोई भी वस्तु जब अंतरिक्ष में बने रहने के लिये पर्याप्त क्षैतिज वेग तक पहुँचती है तो वह वापस पृथ्वी पर गिर जाती है। इसलिये वे एक उपकक्षीय प्रक्षेपवक्र में उड़ते हैं।
    • इसका मतलब यह है कि जब ये यान अंतरिक्ष की अनिर्धारित सीमा को पार करेंगे, तो वे इतनी तेज़ी से नहीं जा सकेंगे कि एक बार वहाँ पहुँचने के बाद अंतरिक्ष में रह सकें।
  • उप-कक्षीय उड़ानों का महत्त्व:

    • स्थापित पहुँच :
      • यह उच्च अनुमानित उड़ान दर के कारण नवाचार और प्रयोगात्मक परिवर्तन के लिये तैयार की गई उड़ान की स्थापित पहुँच प्रदान करेगा।
    • अनुसंधान:
      • सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण अनुसंधान के लिये उपकक्षीय उड़ानें सहायक होंगी। सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण या माइक्रोग्रैविटी वह स्थिति है जिसमें लोग या वस्तु भारहीन प्रतीत होते हैं।
      • उप-कक्षीय उड़ानें भी हवाई जहाज़ो में परवलयिक उड़ानों का एक विकल्प हो सकती हैं, वर्तमान में जिसे अंतरिक्ष एजेंसियों द्वारा ​​शून्य गुरुत्वाकर्षण का अनुकरण करने के लिये उपयोग किया जाता है।
        • शून्य गुरुत्वाकर्षण या शून्य-जी को केवल भारहीनता की अवस्था या परिस्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
    • प्रभावी लागत:
  • अंतरिक्ष का क्षोर/कारमन रेखा:

    • अंतरिक्ष की सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत सीमा को कारमन रेखा (Karman Line) के रूप में जाना जाता है। इंटरनेशनल एयरोनॉटिकल फेडरेशन (FAI) द्वारा समुद्र तल से पृथ्वी के औसतन 100 कि.मी. की ऊँचाई पर एक काल्पनिक रेखा को कारमन रेखा के रूप में परिभाषित करता है।
      • FAI आकाशीय क्षेत्रों के लिये विश्व शासी निकाय है तथा मानव अंतरिक्षयान के संबंध में परिभाषाओं का भी संचालन करता है।

atmosphere space

    • कारमन रेखा की तुलना अंतर्राष्ट्रीय जल से की गई है क्योंकि इस रेखा से दूर-दूर तक कोई राष्ट्रीय सीमाएँ एवं मानवीय कानून लागू नहीं हैं।
    • इसका नाम हंगेरियन अमेरिकी इंजीनियर और भौतिक विज्ञानी थिओडोर वॉन कारमन (Theodore von Karman,1881-1963) के नाम पर रखा गया है, जो मुख्य रूप से वैमानिकी एवं अंतरिक्ष विज्ञान में सक्रिय थे।
    • वह ऊँचाई की गणना करने वाले प्रथम व्यक्ति थे, वैमानिकी उड़ान के ज़रिये उन्होंने स्वयं 83.6 किमी. की दूरी तय की तथा इस बात का समर्थन किया कि ऊँचाई पर वातावरण बहुत क्षीण/दुर्बल हो जाता है ।
    • हालाँकि अन्य संगठन इस परिभाषा को नहीं अपनाते हैं। अंतरिक्ष के क्षोर को परिभाषित करने वाला कोई अंतर्राष्ट्रीय कानून नहीं है, इसलिये राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र की यह एक सीमा है।

स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

अति तरल हीलियम गैस में फ्यू-इलेक्ट्रॉन बबल्स

प्रिलिम्स के लिये:

हीलियम गैस, क्वथनांक, अतिचालकता, फ्यू-इलेक्ट्रॉन बबल्स, इलेक्ट्रॉन

मेन्स के लिये:

फ्यू-इलेक्ट्रॉन बबल्स का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science- IISc), बंगलूरू के वैज्ञानिकों ने पहली बार अति तरल हीलियम गैस (Superfluid Helium Gas) में फ्यू-इलेक्ट्रॉन बबल्स (Few-Electron Bubbles- FEBs) की दो प्रजातियों की खोज की है।

हीलियम:

  • हीलियम एक रासयनिक तत्त्व है जिसका प्रतीक (Symbol) He तथा परमाणु क्रमांक 2 है। वर्ष 1895 में फ्रांँसीसी खगोलशास्त्री पियरे जानसेन (Pierre Janssen) द्वारा पृथ्वी पर हीलियम के अस्तित्व की खोज की गई थी।
  • यह एक रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, नॉन टॉक्सिक, अक्रिय तथा एकल परमाण्विक नोबल गैस (Noble Gas) है जो आवर्त सारणी (Periodic Table) में नोबल गैस समूह में प्रथम गैस है।
  • इसका क्वथनांक (Boiling Point) सभी तत्त्वों में सबसे कम है।

इलेक्ट्रॉन:

  • पदार्थ (Matter) परमाणुओं से मिलकर बना है, जो हाइड्रोजन, हीलियम या ऑक्सीजन जैसे रासायनिक तत्त्वों की मूल इकाइयाँ हैं।
  • परमाणु तीन कणों से बने होते हैं: प्रोटॉन (Protons), न्यूट्रॉन (Neutron) और इलेक्ट्रॉन (Electron)।
  • अत: इलेक्ट्रॉन सब एटोमिक पार्टिकल्स (Subatomic Particles) होते हैं जो एक परमाणु के नाभिक की परिक्रमा करते हैं। सामान्यत: ये ऋणात्मक आवेश वाले होते हैं और परमाणु के नाभिक से बहुत छोटे होते हैं।

atom

प्रमुख बिंदु

  • इलेक्ट्रॉन बबल्स:

    • एक इलेक्ट्रॉन बबल्स/बुलबुला एक क्रायोजेनिक गैस या तरल जैसे- नियॉन या हीलियम में एक मुक्त इलेक्ट्रॉन के समीप निर्मित खाली स्थान है। ये सामान्यत: वायुमंडलीय दाब में लगभग 2 एनएम व्यास के बहुत छोटे कण के रूप में पाए जाते हैं।
    • हीलियम के अति तरल (Superfluid) रूप में जब इलेक्ट्रॉन को प्रेषित किया जाता है तो यह सिंगल इलेक्ट्रॉन बबल्स (SEB) बनाता है, यह एक गुहा होती है जो हीलियम परमाणुओं से मुक्त होती है और इसमें सिर्फ इलेक्ट्रॉन होते हैं। बबल्स का स्वरूप इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा स्थिति पर निर्भर करता है।
      • उदाहरण के लिये जब इलेक्ट्रॉन का ऊर्जा स्तर न्यूनतम (ग्राउंड स्टेट) होता है तो बबल्स गोलाकार होंगे। इसके अलावा मल्टीपल इलेक्ट्रॉन बबल्स (MEB) भी होते हैं जिनमें हज़ारों इलेक्ट्रॉन रहते हैं।
      • अति तरलता (Superfluidity) , तरल हीलियम में परम शून्य (-273.15 डिग्री सेल्सियस) के तापमान पर घर्षण रहित प्रवाह और अन्य बाह्य प्रभावों से युक्त है तथा अतिचालकता (Superconductivity) ठोस में इलेक्ट्रॉनों के समान घर्षण रहित प्रभाव है। प्रत्येक मामले में असामान्य प्रतिक्रिया क्वांटम यांत्रिक प्रभावों से उत्पन्न होती है।
  • फ्यू-इलेक्ट्रॉन बबल्स (FEB):
    • दूसरी ओर FEB तरल हीलियम में नैनोमीटर के आकार की गुहाएँ होती हैं, जिनमें केवल कुछ मुट्ठी भर मुक्त इलेक्ट्रॉन होते हैं। मुक्त इलेक्ट्रॉनों के बीच की संख्या, अवस्था और परस्पर क्रिया सामग्री के भौतिक तथा रासायनिक गुणों को निर्धारित करती है।
      • FEB एक ऐसी प्रणाली बनाता है जिसमें इलेक्ट्रॉन-इलेक्ट्रॉन इंटरैक्शन और इलेक्ट्रॉन-सरफेस इंटरैक्शन दोनों होते हैं।
      • FEB कम-से-कम 15 मिलीसेकंड के लिये स्थिर पाए गए (क्वांटम परिवर्तन आमतौर पर बहुत कम समय के पैमाने पर होते हैं) जो शोधकर्त्ताओं को इन्हें ट्रैप करने और उनका अध्ययन करने में सक्षम बनाता है।
  • महत्त्व:

    • अध्ययन संपत्ति:
      • FEB यह अध्ययन करने के लिये एक उपयोगी मॉडल के रूप में काम कर सकता है कि किसी सामग्री में इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा स्थिति और उनके बीच की अंतःक्रिया उसके गुणों को कैसे प्रभावित करती है।
    • घटनाओं को समझना:
      • ऐसी कई घटनाएँ हैं जिन्हें समझने में FEB वैज्ञानिकों को मदद कर सकता है, जैसे:
        • अधिक तरल और चिपचिपे पदार्थों में तीव्र प्रवाह या अतितरल हीलियम में ऊष्मा का प्रवाह।
        • जिस तरह बहुत कम तापमान पर अतिचालक सामग्री में बिना प्रतिरोध के धारा प्रवाहित होती है, उसी तरह अति तरल हीलियम भी बहुत कम तापमान पर कुशलता से उष्मा का संचालन करता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय अर्थव्यवस्था

उर्वरक क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भरता’

प्रिलिम्स के लिये

नीम कोटेड यूरिया, नई यूरिया नीति 2015, पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी योजना, नई निवेश नीति 2012

मेन्स के लिये

उर्वरक क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भरता’ हासिल करने के लिये सरकार द्वारा की गई विभिन्न पहलें

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रसायन एवं उर्वरक मंत्री ने भारत को उर्वरक क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भर’ बनाने हेतु उर्वरक विभाग द्वारा शुरू की गई पहलों की समीक्षा की।

  • ज्ञात हो कि सरकार वैकल्पिक उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिये ‘बाज़ार विकास सहायता’ (MDA) नीति को उदार बनाने की योजना बना रही है।

प्रमुख बिंदु

  • ‘बाज़ार विकास सहायता’ (MDA) नीति

    • ‘बाज़ार विकास सहायता’ (MDA) नीति प्रारंभ में केवल शहरी खाद तक ही सीमित थी।
    • लंबे समय से इस नीति के विस्तार और इसमें जैविक कचरे जैसे- बायोगैस, हरी खाद, ग्रामीण क्षेत्रों की जैविक खाद, ठोस/तरल घोल आदि को शामिल करने की मांग की जा रही थी।
    • यह विस्तार पूर्णतः ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का पूरक होगा।
  • सरकारी पहल और योजनाएँ:

    • नीम कोटेड यूरिया (Neem Coated Urea- NCU)
      • उर्वरक विभाग (DoF) ने सभी घरेलू उत्पादकों के लिये शत-प्रतिशत यूरिया का उत्पादन ‘नीम कोटेड यूरिया’ (NCU) के रूप में करने को अनिवार्य कर दिया है।
      • ‘नीम कोटेड यूरिया’ के उपयोग के लाभ
        • मृदा स्वास्थ्य में सुधार।
        • पौध संरक्षण रसायनों के उपयोग में कमी।
        • कीट और रोग के हमले में कमी।
        • धान, गन्ना, मक्का, सोयाबीन, अरहर/लाल चने आदि की उपज में वृद्धि।
        • गैर-कृषि उद्देश्यों के लिये उपयोग में कमी।
        • नाइट्रोजन के धीमे रिसाव के कारण ‘नीम कोटेड यूरिया’ की नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (NUE) बढ़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप सामान्य यूरिया की तुलना में ‘नीम कोटेड यूरिया’ में नाइट्रोजन की खपत कम होती है।
    • नई यूरिया नीति (NUP) 2015
      • नीति के उद्देश्य-
        • स्वदेशी यूरिया उत्पादन को अधिकतम करना।
        • यूरिया इकाइयों में ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देना।
        • भारत सरकार पर सब्सिडी के बोझ को युक्तिसंगत बनाना।
    • नई निवेश नीति, 2012:
      • सरकार ने जनवरी 2013 में नई निवेश नीति (New Investment Policy- NIP), 2012 की घोषणा की जिसे वर्ष 2014 में यूरिया क्षेत्र में नए निवेश की सुविधा तथा भारत को यूरिया क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिये संशोधित किया गया।
    • शहरी खाद के संवर्द्धन पर नीति:
      • भारत सरकार ने शहरी खाद के उत्पादन और खपत को बढ़ाने के लिये 1500 रुपए की बाज़ार विकास सहायता (Market Development Assistance) प्रदान करने के लिये वर्ष 2016 में डीओएफ द्वारा अधिसूचित सिटी कम्पोस्ट को बढ़ावा देने की नीति को मंज़ूरी दी।
      • बिक्री की मात्रा बढ़ाने के लिये शहरी खाद का विपणन करने के इच्छुक खाद निर्माताओं को सीधे किसानों को थोक में शहरी खाद बेचने की अनुमति दी गई थी।
      • शहरी खाद का विपणन करने वाली उर्वरक कंपनियाँ उर्वरकों के लिये प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (Direct Benefit Transfer- DBT) के अंतर्गत आती हैं।
    • उर्वरक क्षेत्र में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का उपयोग:
      • डीओएफ ने भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India) और परमाणु खनिज निदेशालय (Atomic Mineral Directorate) के सहयोग से इसरो के राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर (National Remote Sensing Centre) द्वारा “परावर्तन स्पेक्ट्रोस्कोपी एवं पृथ्वी अवलोकन डेटा का उपयोग करके चट्टानी फॉस्फेट के संसाधन का मानचित्रण” (Resource Mapping of Rock Phosphate using Reflectance
      • Spectroscopy and Earth Observations Data) पर तीन वर्ष का प्रारंभिक अध्ययन शुरू किया।
    • पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी योजना:
      • इसे डीओएफ द्वारा अप्रैल 2010 से लागू किया गया है।
      • इस योजना के अंतर्गत वार्षिक आधार पर तय की गई सब्सिडी की एक निश्चित राशि सब्सिडी वाले फॉस्फेटिक और पोटासिक ( Phosphatic & Potassic) उर्वरकों के प्रत्येक ग्रेड पर इसकी पोषक सामग्री के आधार पर प्रदान की जाती है।
      • इसका उद्देश्य उर्वरकों का संतुलित उपयोग सुनिश्चित करना, कृषि उत्पादकता में सुधार, स्वदेशी उर्वरक उद्योग के विकास को बढ़ावा देना और सब्सिडी के बोझ को कम करना है।

भारत में उर्वरक की खपत:

  • वित्तीय वर्ष 20 में भारत की उर्वरक खपत लगभग 61 मिलियन टन थी, जिसमें से 55% यूरिया था और अनुमान है कि वित्त वर्ष 2015 में इसमें 5 मिलियन टन की वृद्धि हुई थी।
  • चूँकि गैर-यूरिया (MoP, DAP, जटिल) किस्मों की लागत अधिक होती है, कई किसान वास्तव में ज़रूरत से ज़्यादा यूरिया का उपयोग करना पसंद करते हैं।
  • सरकार ने यूरिया की खपत को कम करने के लिये कई उपाय किये हैं। इसने गैर-कृषि उपयोग हेतु यूरिया के अवैध प्रयोग को कम करने के लिये नीम कोटेड यूरिया की शुरुआत की। इसने जैविक और शून्य-बजट खेती को बढ़ावा दिया।
  • वर्तमान में देश का उर्वरक उत्पादन 42-45 मिलियन टन है और आयात लगभग 18 मिलियन टन है।
  • यूरिया पर सब्सिडी:

    • केंद्र प्रत्येक संयंत्र में उत्पादन लागत के आधार पर उर्वरक निर्माताओं को यूरिया पर सब्सिडी का भुगतान करता है और इकाइयों को सरकार द्वारा निर्धारित अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) पर उर्वरक बेचना आवश्यक है।
  • गैर-यूरिया उर्वरकों पर सब्सिडी:

    • गैर-यूरिया उर्वरकों की MRP कंपनियों द्वारा नियंत्रित या तय की जाती है। हालाँकि केंद्र इन पोषक तत्त्वों पर एक फ्लैट प्रति टन सब्सिडी का भुगतान करता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनकी कीमत "उचित स्तर" पर है।
      • गैर-यूरिया उर्वरकों के उदाहरण: डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी), म्यूरेट ऑफ पोटाश (एमओपी)।
      • सभी गैर-यूरिया आधारित उर्वरकों को पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी योजना के तहत विनियमित किया जाता है।

स्रोत-पीआईबी


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भूटान में लॉन्च हुआ भीम-UPI

प्रिलिम्स के लिये:

रुपे कार्ड योजना, रुपे कार्ड, त्वरित प्रतिक्रिया कोड

मेन्स के लिये:

भुगतान तथा निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के केंद्रीय वित्त मंत्री ने अपने समकक्ष भूटान के वित्त मंत्री के साथ मिलकर भीम-UPI अर्थात् भारत इंटरफेस फॉर मनी-यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (Bharat Interface for Money-Unified Payments Interface- BHIM-UPI) को भूटान में लॉन्च किया है

  • भुगतान प्रणाली एनपीसीआई इंटरनेशनल पेमेंट्स लिमिटेड (NIPL), भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (NPCI) की अंतर्राष्ट्रीय शाखा, भूटान की रॉयल मॉनीटरी अथॉरिटी (RMA) के साथ साझेदारी में शुरू की गई थी।

प्रमुख बिंदु:

  • भूटान अपने त्वरित प्रतिक्रिया ( Quick Response- QR) कोड हेतु UPI मानकों को अपनाने वाला पहला देश है। यह भीम एप के माध्यम से भारत के निकटतम पड़ोसी देशों में मोबाइल आधारित भुगतान स्वीकार करने वाला प्रथम देश भी है।
  • व्यापारिक स्थलों (Merchant Locations) पर BHIM-UP स्वीकृति प्राप्त करने वाला सिंगापुर के बाद यह दूसरा देश भी है।
  • भूटान एकमात्र ऐसा देश बन जाएगा जो रुपे कार्ड (RuPay Cards) जारी करने और स्वीकार करने के साथ-साथ भीम-यूपीआई को भी स्वीकार करेगा।
  • भारत इंटरफेस फॉर मनी-यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (BHIM-UPI):
    • भारत इंटरफेस फॉर मनी (BHIM) को भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (NPCI) द्वारा विकसित किया गया है।
    • यह मोबाइल फोन के माध्यम से तेज़ गति से सुरक्षित, विश्वसनीय कैशलेस भुगतान को सक्षम करने की एक पहल है।
    • भीम यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) सीधे बैंक के माध्यम से ई-भुगतान सुविधा पर आधारित है।
    • यह अन्य यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस (UPI) ऐप्लिकेशन और बैंक खातों के साथ अंतर-संचालित है।
      • यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) एक त्वरित रियल-टाइम भुगतान प्रणाली है, जो उपयोगकर्त्ताओं को अपने बैंक खाते का विवरण दूसरे पक्ष को बताए बिना कई बैंक खातों में रियल-टाइम के आधार पर धन हस्तांतरित करने की अनुमति देता है।
  • लाभ:

    • सरल, सुरक्षित, लागत प्रभावी मोबाइल-आधारित भुगतान प्रणाली डिजिटल भुगतान के सबसे प्रमुख रूपों में से एक बन गई है।
    • दोनों देशों (भारत एवं भूटान) के भुगतान के बुनियादी ढाँचे मूल रूप से जुड़े हुए हैं और इससे बड़ी संख्या में भारत के उन पर्यटकों एवं व्यापारियों को लाभ होगा, जो प्रत्येक वर्ष भूटान की यात्रा करते हैं।
      • यह एक बटन के स्पर्श मात्र से कैशलेस लेन-देन के माध्यम से दैनिक जीवन में आसानी के साथ ही यात्रा में सुगमता को भी बढ़ाएगा।
    • वर्ष 2020 में UPI ने 457 बिलियन अमेरिकी डॉलर के वाणिज्य को सक्षम किया, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 15% के बराबर है।

रुपे कार्ड योजना

  • रुपे (RuPay) भारत में अपनी तरह का पहला घरेलू डेबिट और क्रेडिट कार्ड भुगतान नेटवर्क है।
  • यह नाम रुपी (Rupee) और पेमेंट (Payment) दो शब्दों से मिलकर बना है जो इस बात पर ज़ोर देता है कि यह डेबिट तथा क्रेडिट कार्ड भुगतानों के लिये भारत की स्वयं की पहल है।
  • इस कार्ड का उपयोग सिंगापुर, भूटान, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), बहरीन और सऊदी अरब में लेन-देन के लिये भी किया जा सकता है।

भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम

  • यह निगम देश में खुदरा भुगतान और निपटान प्रणाली के संचालन के लिये एक समग्र संगठन है, जो भुगतान तथा निपटान प्रणाली अधिनियम (The Payment and Settlement Systems Act), 2007 के प्रावधानों के तहत भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) और भारतीय बैंक संघ (IBA) की एक पहल है।
  • यह कंपनी अधिनियम, 1956 (अब कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 8) की धारा 25 के प्रावधानों के अंतर्गत ‘गैर-लाभकारी संगठन’ है, जिसका उद्देश्य भारत में संपूर्ण बैंकिंग प्रणाली को भौतिक और इलेक्ट्रॉनिक भुगतान के लिये बुनियादी ढाँचा तथा निपटान प्रणाली प्रदान करना है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजनीति

मंत्रिमंडलीय समितियाँ

प्रिलिम्स के लिये:

मंत्रिमंडलीय समितियाँ, मंत्रिपरिषद, कार्य आवंटन नियमावली (1961)

मेन्स के लिये:

मंत्रिमंडलीय समितियों की भूमिका

चर्चा में क्यों?

मंत्रिपरिषद में बड़े पैमाने पर फेरबदल के बाद प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडलीय समितियों में कुछ बदलाव किये हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • आठ मंत्रिमंडलीय समितियाँ:
    • मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति।
    • आवास संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति।
    • आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति।
    • संसदीय मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति।
    • राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति।
    • केंद्रीय मंत्रिमंडल की सुरक्षा संबंधी समिति।
    • निवेश और विकास पर मंत्रिमंडलीय समिति।
    • रोज़गार और कौशल विकास पर मंत्रिमंडलीय समिति।
  • आवास संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति और संसदीय मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति को छोड़कर सभी समितियों का नेतृत्त्व प्रधानमंत्री द्वारा किया जाता है।
  • दूसरे शब्दों में उनका संविधान में उल्लेख नहीं है। हालाँकि ‘रूल ऑफ बिज़नेस’ उनकी स्थापना के लिये प्रावधान करता है।
  • भारत में कार्यपालिका भारत सरकार की कार्य आवंटन नियमावली, 1961 के तहत काम करती है।
    • ये नियम संविधान के अनुच्छेद 77(3) से प्रेरित हैं। जिसमें कहा गया है कि "राष्ट्रपति भारत सरकार के कार्यों को अधिक सुविधाजनक और उक्त कार्यों को मंत्रियों के बीच आवंटन के लिये नियम बनाएगा।"
  • प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल की स्थायी समितियों का गठन करता है और उन्हें सौंपे गए विशिष्ट कार्यों को निर्धारित करता है। वह समितियों की संख्या को बढ़ा या घटा सकता है।
    • समितियों के अलावा विभिन्न मुद्दों/विषयों को देखने के लिये मंत्रियों के कई समूह (GoMs) गठित किये जाते हैं।
  • मंत्रिमंडलीय समितियों की भूमिका:
    • इन समितियों का प्रयोग मंत्रिमंडल के अत्यधिक कार्यभार को कम करने के लिये एक संगठनात्मक उपकरण के रूप में किया जाता है। वे नीतिगत मुद्दों की गहन जाँच और प्रभावी समन्वय की सुविधा प्रदान करती हैं। ये समितियाँ श्रम विभाजन एवं प्रभावी प्रतिनिधित्त्व के सिद्धांतों पर आधारित हैं।
    • वे न केवल मुद्दों को हल करती हैं और मंत्रिमंडल के विचार के लिये प्रस्ताव तैयार करती हैं, बल्कि महत्त्वपूर्ण निर्णय भी लेती हैं, हालाँकि मंत्रिमंडल इनके फैसलों की समीक्षा कर सकती है।
  • मंत्री समूह (GoM):
    • ये कुछ आकस्मिक मुद्दों और महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर मंत्रिमंडल को सिफारिशें देने के लिये गठित तदर्थ निकाय हैं।
    • इनमें से कुछ GoMs को मंत्रिमंडल की ओर से निर्णय लेने का अधिकार है, जबकि अन्य केवल मंत्रिमंडल को सिफारिशें देते हैं।
      • ये विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय का एक व्यवहार्य और प्रभावी साधन बन गया है।
    • संबंधित मंत्रालयों का नेतृत्त्व करने वाले मंत्रियों को संबंधित GoMs में शामिल किया जाता है और उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् उन्हें भंग कर दिया जाता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

NRC की अपूर्णता के कारण आधार नामांकन में देरी

प्रिलिम्स के लिये

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, आधार

मेन्स के लिये

नागरिकता से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (National Register of Citizen- NRC) की प्रक्रिया को पूरा करने में देरी के चलते असम में 27 लाख से अधिक लोगों के आधार नामांकन में भी अनिश्चितता/देरी हुई है।

  • अगस्त 2019 में एनआरसी के प्रकाशन के बाद इन लोगों के बायोमेट्रिक्स (Biometric) अवरुद्ध (frozen) कर दिये गए थे।
  • केंद्र को पहले बायोमेट्रिक्स की अवरुद्धता हटाने के लिये कहा गया था क्योंकि एनआरसी को अभी तक नागरिकता हेतु एक दस्तावेज़ के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी।

आधार

  • यह भारत सरकार की ओर से भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (Unique Identification Authority of India- UIDAI) द्वारा जारी 12 अंकों की व्यक्तिगत पहचान संख्या है।
    • जुलाई 2016 में भारत सरकार द्वारा आधार अधिनियम (Aadhaar Act), 2016 के प्रावधानों का पालन करते हुए यूआईडीएआई इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में स्थापित एक वैधानिक प्राधिकरण है।
  • यह भारत में कहीं भी पहचान और पते के प्रमाण के रूप में कार्य करता है। यह 2 रूपों यथा- भौतिक तथा इलेक्ट्रॉनिक रूप (ई-आधार) में उपलब्ध है।
  • भारत का कोई भी निवासी (वह व्यक्ति जो आधार के नामांकन के आवेदन की तारीख से पहले एक वर्ष में 182 दिनों तक भारत में रहा हो) चाहे वह किसी भी उम्र, लिंग, वर्ग का हो इसका लाभ उठा सकता है।

प्रमुख बिंदु

  • राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर

    • ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ (NRC) प्रत्येक गाँव के संबंध में तैयार किया गया एक रजिस्टर होता है, जिसमें घरों या जोतों को क्रमानुसार दिखाया जाता है और प्रत्येक घर में रहने वाले व्यक्तियों की संख्या और नाम का विवरण भी शामिल होता है।
    • यह रजिस्टर पहली बार भारत की वर्ष 1951 की जनगणना के बाद तैयार किया गया था और हाल ही में इसे अपडेट भी किया गया है।
    • इसे अभी तक केवल असम में ही अपडेट किया गया है और सरकार इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी अपडेट करने की योजना बना रही है।
    • इसका उद्देश्य ‘अवैध’ अप्रवासियों को ‘वैध’ निवासियों से अलग करना है।
    • महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त, ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ के लिये नोडल एजेंसी है।
  • असम में ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ का मुद्दा- पृष्ठभूमि

    • असम में इसे अपडेट करने का मुद्दा इस लिहाज़ से महत्त्वपूर्ण है कि असम में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और वर्तमान बांग्लादेश (वर्ष 1971 के बाद) से काफी बड़े पैमाने पर अवैध प्रवासन देखा गया है।
    • इसके परिणामस्वरूप अवैध प्रवासियों को निर्वासित करने के लिये वर्ष 1979 से वर्ष 1985 तक छह वर्षीय लंबा आंदोलन भी हुआ।
    • वर्ष 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर के साथ ही यह आंदोलन समाप्त हो गया। इसके तहत अवैध प्रवासियों के निर्वासन के लिये 25 मार्च, 1971 को कट-ऑफ तिथि के रूप में निर्धारित किया गया था।
      • चूँकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 और 6 के तहत निर्धारित कट-ऑफ तिथि 19 जुलाई, 1949 थी, इसलिये नई तिथि को लागू करने के लिये नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन कर एक नया खंड पेश किया गया और इसे केवल असम के लिये लागू किया गया था।
      • असम समझौते पर अखिल असम छात्र संघ (AASU), अखिल असम गण संग्राम परिषद और केंद्र सरकार द्वारा हस्ताक्षर किये गए थे।
    • असम लोक निर्माण नामक एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) द्वारा वर्ष 2009 में सर्वोच्च न्यायालय (SC) में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें असम में अवैध बांग्लादेशियों की पहचान और उनके निर्वासन की मांग की गई थी।
    • दिसंबर 2014 में सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने आदेश दिया कि NRC को समयबद्ध तरीके से अपडेट किया जाए।
    • वर्ष 2018 के एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने पुन: सत्यापन की संभावना का उल्लेख करते हुए कहा था कि वह NRC में शामिल 10% नामों को पुनः सत्यापित करने पर विचार कर सकता है।
    • जुलाई 2019 में असम सरकार ने उच्चतम न्यायलय में एक हलफनामा (Affidavit) दायर किया था, जिसमें राज्य सरकार ने बांग्लादेश सीमा से सटे ज़िलों से NRC में शामिल 20% नामों और शेष ज़िलों से 10% नामों के पुनः सत्यापन किये जाने की मांग की थी।
      • हालाँकि तत्कालीन एनआरसी समन्वयक (NRC Coordinator) द्वारा नामों के पुनर्सत्यापन की बात कहे जाने के बाद सर्वोच्च न्यायलय ने राज्य सरकार की मांग को खारिज कर दिया था।
    • असम सरकार ने वर्ष 2019 में जारी ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ (National Register of Citizens- NRC) में शामिल राष्ट्रीयता के दावों के 10-20% नामों के पुनः सत्यापन की अपनी मांग को दोहराया है।
  • वर्तमान परिदृश्य:

    • असम की राज्य सरकार ने राज्य में ' विदेशियों' का पता लगाने के संबंध में नवीनतम डेटा प्रदान किया है।
    • इस डेटा के पुन: सत्यापन की आवश्यकता है क्योंकि असम के लोग एक सही NRC चाहते हैं।
    • इसके अलावा 19 लाख से अधिक बहिष्कृत लोगों की अस्वीकृति पर्ची (Rejection Slips) जारी करने में देरी हुई है जिसके माध्यम से वे राष्ट्रीयता का दावा करने के लिये न्यायालय तक जा सकें।
      • अधिकारियों ने देरी के कारणों के रूप में कोविड -19 महामारी (Covid-19 pandemic) तथा राज्य में बाढ़ का हवाला दिया है।
      • प्रत्येक व्यक्ति के लिये अस्वीकृति पर्चियों में अस्वीकृति का कारण भिन्न होगा और इस कारण के आधार पर वे ‘विदेशी अधिकरण’ (Foreigners’ Tribunal- FT) में अपने निष्कासन को चुनौती देने में सक्षम होंगे।
        • प्रत्येक व्यक्ति जिसका नाम अंतिम NRC में नहीं है, विदेशी ट्रिब्यूनल के सामने अपने मामले का प्रतिनिधित्व कर सकता है।

स्रोत: द हिंदू


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