ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 06 Jun, 2025
  • 54 min read
शासन व्यवस्था

भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्रांति

प्रिलिम्स के लिये:

सौर विनिर्माण के लिये PLI योजना, PM सूर्य घर: मुफ्त बिजली योजना, PM-कुसुम, राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन (NGHM), इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल (EBP) कार्यक्रम, किफायती परिवहन के लिये सतत् विकल्प (SATAT), अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, ग्रीन बॉण्ड, महत्त्वपूर्ण खनिज, विशेष आर्थिक क्षेत्र, अपशिष्ट से ऊर्जा, लॉस एंड डैमेज फंड, वैश्विक पर्यावरण सुविधा (GEF), ग्रीन क्लाइमेट फंड

मेन्स के लिये:

भारत के नवीकरणीय ऊर्जा परिवर्तन को प्रेरित करने वाले कारक, भारत के नवीकरणीय ऊर्जा परिवर्तन के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ और उनसे निपटने के लिये सुझाए गए उपाय।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों?

भारत एक वैश्विक स्वच्छ ऊर्जा अभिकर्त्ता के रूप में उभरा है, जिसने केवल वर्ष 2024 में ही रिकॉर्ड 29 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन किया।

  • 232 गीगावॉट की स्थापित क्षमता और 176 गीगावॉट निर्माणाधीन क्षमता के साथ, भारत का ऊर्जा संक्रमण साहसिक सुधारों तथा दूरदर्शी नेतृत्व द्वारा संचालित होकर वैश्विक सतत् विकास प्रयासों को गति दे रहा है।

भारत में नवीकरणीय ऊर्जा विकास की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • स्थिति: भारत वैश्विक स्तर पर सौर ऊर्जा में तीसरे, पवन ऊर्जा में चौथे और कुल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में चौथे स्थान पर है। सौर ऊर्जा क्षमता वर्ष 2014 में 2.63 गीगावॉट से बढ़कर वर्ष 2025 में 108 गीगावॉट हो गई है (41 गुना वृद्धि), जबकि पवन ऊर्जा क्षमता 51 गीगावॉट से अधिक हो चुकी है।
    • भारत का लक्ष्य है कि वह वर्ष 2030 तक 500 गीगावॉट गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित क्षमता और वर्ष 2047 तक 1,800 गीगावॉट हासिल करे।
  • किये गए सुधार:
    • बाज़ार आधारित निविदा प्रक्रिया: भारत ने फीड-इन टैरिफ को पारदर्शी बोली प्रक्रिया से बदल दिया, जिससे सौर टैरिफ वर्ष 2010 में 10.95 रुपए प्रति यूनिट से घटकर वर्ष 2021 में 1.99 रुपए प्रति यूनिट रह गया।
    • ISTS शुल्क से छूट: इंटर-स्टेट ट्रांसमिशन सिस्टम (ISTS) शुल्क में छूट ने भौगोलिक बाधाएँ हटा दी हैं, जिससे पूरे देश में नवीकरणीय ऊर्जा का निर्बाध प्रवाह संभव हुआ है।
    • प्रमुख कार्यक्रम और पहल: 
      • सौर विनिर्माण के लिये PLI योजना: इस योजना के कारण भारत की सौर मॉड्यूल विनिर्माण क्षमता मार्च 2024 के 38 गीगावॉट से बढ़कर मार्च 2025 में 74 गीगावॉट हो गई।
      •  PM सूर्य घर: मुफ्त बिजली योजना: यह योजना 1 करोड़ घरों में 30 गीगावॉट विकेंद्रीकृत क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखती है, जिसमें 10 लाख से अधिक घर पहले ही शामिल हो चुके हैं।
      • PM-कुसुम योजना: इस योजना के तहत किसानों को सौर पंपों पर 60% तक सब्सिडी दी जाती है, जिससे उन्हें दिन के समय बिजली उपलब्ध होती है और अतिरिक्त आय सुनिश्चित होती है
      • राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन (NGHM) का लक्ष्य वर्ष 2030 तक प्रतिवर्ष 5 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) हरित हाइड्रोजन का उत्पादन करना है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर में निवेश और वर्ष 2030 के लिये एक सुदृढ़ ट्रांसमिशन रोडमैप तैयार किया गया है, ताकि ग्रिड में इसकी कुशल एकीकृत आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके। 
        • इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल (EBP) कार्यक्रम के तहत पेट्रोल में इथेनॉल का मिश्रण वर्ष 2013 में 1.5% से बढ़कर वर्ष 2024 में 15% हो गया है।
          • इससे ₹1.26 लाख करोड़ की विदेशी मुद्रा की बचत हुई है।
        • किफायती परिवहन के लिये सतत् विकल्प (SATAT) पहल के तहत 100 से अधिक संपीड़ित बायोगैस (CBG) संयंत्र स्थापित किये गए हैं और इसका लक्ष्य वर्ष 2028 तक 5% CBG मिश्रण को अनिवार्य बनाना है।
  • उभरते ऊर्जा क्षेत्र: अपतटीय पवन ऊर्जा पहलों के तहत वर्ष 2030 तक 37 गीगावाॅट की निविदाएँ जारी करने की योजना है, जिसे व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण का समर्थन प्राप्त है। गुजरात और तमिलनाडु में प्रायोगिक परियोजनाएँ आरंभ की गई हैं।
  • हाइब्रिड और राउंड-द-क्लॉक पावर नीति पवन-सौर हाइब्रिड संयोजनों तथा फर्म एंड डिस्पैचेबल रिन्यूएबल एनर्जी (FDRE) को प्रोत्साहित करती है, ताकि 24x7 स्वच्छ ऊर्जा समाधान विकसित किये जा सकें।
  • निवेश और वैश्विक नेतृत्व: भारत द्वारा प्रारंभ की गई अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) पहल, "एक सूर्य, एक विश्व, एक ग्रिड" की दृष्टि के तहत 100 से अधिक देशों को एकजुट करती है।
  • वित्त वर्ष 2024-25 में भारत के नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र का योगदान कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) प्रवाह में लगभग 8% रहा, जो कि वित्त वर्ष 2020-21 में लगभग 1% था।
  • री-इन्वेस्ट (RE-Invest) 2024 में वैश्विक निवेशकों ने भारत के स्वच्छ ऊर्जा भविष्य के लिये वर्ष 2030 तक ₹32.45 लाख करोड़ के निवेश का संकल्प लिया।

भारत के नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

  • कोयले से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण में बाधाएँ: भारत का कोयले से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण कई प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिनमें झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में रोज़गार तथा स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिये कोयले पर भारी निर्भरता एवं कोयला-आधारित ऊर्जा उत्पादन के अनुरूप विकसित बुनियादी ढाँचा शामिल हैं।
    • इसके अतिरिक्त, कोयला आधारित संयंत्रों को लगातार मंज़ूरी दिये जाने जैसी नीतिगत असंगतताएँ नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में निवेशकों के विश्वास को प्रभावित करती हैं और उनके उत्साह में कमी लाती हैं।
  • वित्तपोषण अंतराल: वर्ष 2030 तक लक्षित 500 गीगावाॅट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने के लिये भारत को वार्षिक ₹2 ट्रिलियन की आवश्यकता है—जो कि उसके संपूर्ण वर्ष 2023-24 के केंद्रीय बजट का आधा हिस्सा है।
    • इसके अतिरिक्त, नवीकरणीय ऊर्जा बुनियादी ढाँचे की उच्च पूंजी लागत और निवेश पर अपेक्षाकृत धीमा प्रतिफल कई निवेशकों के लिये बाधा उत्पन्न करता है।
  • ग्रिड एकीकरण और भंडारण की चुनौतियाँ: नवीकरणीय ऊर्जा, विशेष रूप से सौर और पवन ऊर्जा की अस्थायी प्रकृति, ग्रिड की स्थिरता के लिये चुनौती प्रस्तुत करती है, जिसके लिये मज़बूत ऊर्जा भंडारण तथा बेहतर बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता होती है।
    • मार्च 2024 तक, कुल स्थापित ऊर्जा भंडारण क्षमता 219.1 MWh थी, जबकि वर्ष 2032 तक 411 गीगावाॅट-घंटे (GWh) की ऊर्जा भंडारण क्षमता की आवश्यकता है। साथ ही, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे नवीकरणीय ऊर्जा समृद्ध राज्यों में क्रमशः 18.9% और 18% उच्च AT&C नुकसान की समस्या भी बनी हुई है।
  • आपूर्ति शृंखला की कमज़ोरियाँ: चीन भारत का सबसे बड़ा सौर सेल आपूर्तिकर्त्ता बना हुआ है, जिसने वित्त वर्ष 2024 में लगभग 56% बाज़ार हिस्सेदारी हासिल की है और साथ ही पवन टरबाइन आपूर्ति में भी इसका प्रभुत्व है।
    • भारत महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिये चीन पर निर्भर है और अपनी लिथियम तथा कोबाल्ट की अधिकांश आवश्यकता आयात करता है, जिसमें से 70% से अधिक लिथियम चीन से प्राप्त होता है, जो नवीकरणीय ऊर्जा उपकरणों के निर्माण के लिये आवश्यक हैं। 
  • भूमि एवं पर्यावरणीय बाधाएँ: सौर और पवन फार्मों की बढ़ती मांग के कारण भूमि संबंधी महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ सामने आ रही हैं, स्थान तथा बुनियादी ढाँचे के आधार पर सौर ऊर्जा के लिये 4-5 एकड़/मेगावाट और पवन ऊर्जा के लिये 2-40 एकड़/मेगावाट की आवश्यकता होती है।
    • भूमि के बड़े भू-भाग की आवश्यकता के कारण अक्सर कृषि उपयोग, शहरी विकास और प्राकृतिक आवासों के साथ प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न होती है, जिससे स्थानीय समुदायों तथा  पारिस्थितिकी तंत्रों के साथ संभावित संघर्ष उत्पन्न होता है।
    • उदाहरण के लिये, तमिलनाडु की सिल्लहल्ला जलविद्युत परियोजना जैवविविधता की हानि और पुनर्वास को लेकर चिंताएँ उजागर करती है, जो स्वच्छ ऊर्जा के लक्ष्यों को सामाजिक और पर्यावरणीय स्थिरता के साथ संतुलित करने की चुनौती को रेखांकित करता है।
  • ई-कचरा और उपयोग के बाद प्रबंधन की समस्याएँ: सौर पैनलों से निकलने वाले बढ़ते ई-कचरे की मात्रा सतत् विकास के लिये एक बड़ी चुनौती उत्पन्न करती है, क्योंकि अनुचित निपटान से कैडमियम और लेड जैसे विषैले पदार्थ पर्यावरण में मिल सकते हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, भारत वर्ष 2050 तक सौर पैनल अपशिष्ट का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक बन सकता है । 
    • भारत में अभी कोई व्यापक सोलर रीसाइक्लिंग नीति नहीं है तथा बड़े पैमाने पर रीसाइक्लिंग सुविधाओं की कमी गंभीर पर्यावरणीय जोखिम उत्पन्न करती है।

बढ़ती ऊर्जा मांग को पूरा करने के लिये भारत नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाने में किस प्रकार तेज़ी ला सकता है?

  • भूमि और जल संसाधनों का अनुकूलन: तैरते सौर पैनलों की स्थापना (जैसे- मध्य प्रदेश का ओंकारेश्वर फ्लोटिंग सोलर पार्क) के माध्यम से जलाशयों, झीलों और तटीय क्षेत्रों का उपयोग करते हुए ‘फ्लोटिंग सोलर क्रांति’ को बढ़ावा दिया जा सकता है। इससे भूमि संरक्षण सुनिश्चित होगा, जल का वाष्पीकरण कम होगा और ऊर्जा दक्षता में उल्लेखनीय वृद्धि होगी।
    • इसके साथ ही, दीर्घकालिक सौर कृषि पट्टों के माध्यम से स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन और कृषि के लिये दोहरी भूमि उपयोग को सक्षम करने हेतु भूमि पट्टे तथा कृषिवोल्टाइक को बढ़ावा देना है।
  • नवीकरणीय ऊर्जा क्लस्टर विकसित करना: स्वच्छ ऊर्जा विकास को बढ़ावा देने के लिये सुव्यवस्थित मंज़ूरी, राजकोषीय प्रोत्साहन और अनुसंधान एवं विकास से विनिर्माण तक एकीकृत मूल्य शृंखलाओं के साथ नवीकरणीय ऊर्जा विशेष आर्थिक क्षेत्र (RE-SEZ) स्थापित करना।
  • एकीकृत ट्रांसमिशन पहुँच के साथ अवनत या बंजर भूमि पर नवीकरणीय ऊर्जा पार्क विकसित कर कृषि को प्रभावित किये बिना भूमि उपयोग को अनुकूलित किया जा सकता है।
  • डिजिटल और उभरती प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाना: ब्लॉकचेन-आधारित पीयर-टू-पीयर (P2P) नवीकरणीय ऊर्जा ट्रेडिंग को अपनाकर बाज़ारों को विकेंद्रीकृत करना और उत्पादक-उपभोक्ताओं (प्रोज्यूमर्स) को सशक्त बनाना।
    • इसके साथ ही, नवीकरणीय ऊर्जा आपूर्ति की परिवर्तनशीलता को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिये स्मार्ट ग्रिड, पंप हाइड्रो और बैटरी भंडारण में निवेश करना।
  • नवीकरणीय अवसंरचना का विस्तार: भारत शहरी पवन ऊर्जा को एकत्रित करने के लिये छतों पर वर्टिकल एक्सिस विंड टर्बाइन (VAWTs) स्थापित करके नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा दे सकता है, साथ ही छत पर सौर ऊर्जा, माइक्रोग्रिड एवं सौर सिंचाई पंप जैसे विकेंद्रीकृत समाधान भी स्थापित कर सकता है। 
    • ये प्रणालियाँ ग्रामीण विद्युतीकरण को बढ़ाती हैं, कार्बन उत्सर्जन को कम करती हैं तथा ऑफ-ग्रिड क्षेत्रों को विश्वसनीय ऊर्जा प्रदान करती हैं।
  • अपशिष्ट से ऊर्जा और जैव ऊर्जा को बढ़ावा देना: अपशिष्ट को ऊर्जा और मूल्यवान उपोत्पादों में परिवर्तित करने के लिये अवायवीय पाचन, गैसीकरण एवं पायरोलिसिस का उपयोग करके परिपत्र अपशिष्ट से ऊर्जा पार्क (जैसे, जामनगर अपशिष्ट से ऊर्जा पार्क) विकसित करना।
    • ग्रामीण आय को बढ़ावा देने और ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने के लिये इथेनॉल मिश्रण और SATAT के माध्यम से जैव ईंधन एवं संपीड़ित बायोगैस (CBG) का विस्तार करना।
  • वैश्विक सहभागिता का विस्तार: भारत बड़े पैमाने पर नवीकरणीय परियोजनाओं के लिये वित्तीय संसाधन सुरक्षित करने हेतु हानि एवं क्षति कोष तथा हरित जलवायु कोष जैसे वैश्विक वित्तपोषण साधनों का  उपयोग कर सकता है।
    • नवीकरणीय ऊर्जा परिनियोजन और प्रौद्योगिकी अपनाने को बढ़ावा देने के लिये G-20 , अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ साझेदारी के माध्यम से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को सुदृढ़ करना।
    • भारत नवीकरणीय ऊर्जा हेतु वैश्विक मानक स्थापित करने के लिये IRENA जैसे अंतर्राष्ट्रीय निकायों के साथ सहयोग कर सकता है, जिसमें वित्तपोषण, प्रौद्योगिकी अपनाने और क्षमता निर्माण के लिये साझा रूपरेखाएँ शामिल हैं ।

निष्कर्ष

भारत का अक्षय ऊर्जा अभियान इसे वैश्विक स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में अग्रणी बनाता है। वित्तीय कमी और ग्रिड एकीकरण जैसी चुनौतियों के बावजूद , फ्लोटिंग सोलर, RE-SEZ तथा ग्रीन हाइड्रोजन जैसे नवाचार वर्ष 2030 तक 500 गीगावाॅट के लक्ष्य की ओर प्रगति को गति दे सकते हैं। यह परिवर्तन SDG 7 (सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा), SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) एवं SDG 9 (उद्योग, नवाचार एवं बुनियादी ढाँचा) का समर्थन करता है, ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करता है, सतत् विकास को बढ़ावा देता है जलवायु कार्रवाई को आगे बढ़ाता है

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: उन प्रमुख सुधारों पर चर्चा कीजिये जिन्होंने भारत के नवीकरणीय ऊर्जा विस्तार को तीव्र गति से संभव बनाया है तथा वैश्विक स्थिरता प्रयासों पर उनके प्रभाव पर चर्चा कीजिये।

 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास एजेंसी लिमिटेड (IREDA) के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2015)

  1. यह एक पब्लिक लिमिटेड सरकारी कंपनी है।
  2.  यह एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये।

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


मेन्स:

  1. प्रश्न. "सतत्, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।" इस संबंध में भारत में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018)
  2. प्रश्न. पारंपरिक ऊर्जा की समस्या को दूर करने के लिये भारत के हरित ऊर्जा गलियारे पर एक टिप्पणी लिखिये। (2013)

शासन व्यवस्था

विश्व दुग्ध दिवस 2025

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व दुग्ध दिवस, खाद्य और कृषि संगठन, राष्ट्रीय दुग्ध दिवस (NMD), बुनियादी पशुपालन सांख्यिकी (BAHS) 2024, मध्याह्न भोजन, गोबर-धन योजना, श्वेत क्रांति 2.0, ग्रीनहाउस गैस (GHG), गांठदार त्वचा रोग, स्वदेशी नस्ल, मीथेन, राष्ट्रीय गोकुल मिशन, स्वच्छता एवं फाइटोसैनिटरी (SPS)।  

मेन्स के लिये:

दुग्ध उत्पादन की वर्तमान स्थिति, दुग्ध उत्पादन का महत्त्व और इससे जुड़ी चुनौतियाँ, डेयरी क्षेत्र को सुदृढ़ करने की रणनीतियाँ।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

विश्व दुग्ध दिवस, दुग्ध के पोषण संबंधी, आर्थिक और पर्यावरणीय महत्त्व के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में डेयरी उद्योग की भूमिका को उजागर करने हेतु मनाया जाता है।

  • वर्ष 2001 में खाद्य और कृषि संगठन (FAO) द्वारा स्थापित, विश्व दुग्ध दिवस 2025 का विषय "लेट्स सेलिब्रेट द पॉवर ऑफ डेरी (Let’s Celebrate the Power of Dairy)" है, जो पोषण, ग्रामीण आजीविका, आर्थिक विकास व स्थिरता में डेयरी की भूमिका पर प्रकाश डालता है।

नोट: भारत में राष्ट्रीय दुग्ध दिवस (NMD) 26 नवंबर को डॉ. वर्गीस कुरियन की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। 

  • श्वेत क्रांति या ऑपरेशन फ्लड के जनक के रूप में विख्यात डॉ. वर्गीज कुरियन ने भारत को डेयरी की कमी वाले देश से विश्व के शीर्ष दुग्ध उत्पादक देश में बदल दिया।

भारत में दुग्ध उत्पादन की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • वैश्विक रैंकिंग: भारत वर्ष 1998 से विश्व का शीर्ष दुग्ध उत्पादक रहा है, जो अब वैश्विक स्तर पर दुग्ध का 25% उत्पादन करता है। वर्ष 2014-15 और वर्ष 2023-24 के बीच, दुग्ध उत्पादन 63.56% बढ़कर 146.3 मिलियन टन से 239.2 मिलियन टन हो गया।
    • वर्ष 1950-51 में भारत में प्रतिवर्ष 21 मिलियन टन से भी कम दुग्ध का उत्पादन होता था।
  • शीर्ष दुग्ध उत्पादक राज्य: बुनियादी पशुपालन सांख्यिकी (BAHS) 2024 के अनुसार, शीर्ष 5 दुग्ध उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश (16.21%), राजस्थान (14.51%), मध्य प्रदेश (8.91%), गुजरात (7.65%), महाराष्ट्र (6.71%) हैं। 
  • प्रति व्यक्ति दुग्ध की उपलब्धता: वर्ष 2023-24 में प्रति व्यक्ति दुग्ध की उपलब्धता प्रतिदिन 471 ग्राम से अधिक होगी, जो विश्व औसत 322 ग्राम से काफी अधिक है। 
  • पशु प्रकार के अनुसार दुग्ध उत्पादन:

श्वेत क्रांति 2.0 क्या है?

भारत में डेयरी उद्योग का महत्त्व क्या है?

  • ग्रामीण भारत की रीढ़: डेयरी उद्योग देश की GDP में 6% से अधिक का योगदान देता है और 80 मिलियन से अधिक डेयरी किसानों की आजीविका का समर्थन करता है। कृषि आय का लगभग 12-14% हिस्सा डेयरी से आता है।
  • पोषण सुरक्षा: भारत में दुग्ध की खपत 471 ग्राम/दिन है (विश्व औसत 322 ग्राम/दिन के मुकाबले)। यह विशेष रूप से शाकाहारी आहार में प्रोटीन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
    • डेयरी उत्पाद कैल्शियम, विटामिन B12 एवं उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन प्रदान करते हैं, जो एनीमिया और बौनेपन जैसी कमियों को दूर करते हैं।
  • महिला सशक्तीकरण: भारत के डेयरी उद्योग में महिलाओं की मज़बूत भागीदारी देखी जा रही है, सहकारी समितियों में 35% महिलाएँ हैं और 48,000 महिला-नेतृत्व वाली समितियाँ हैं, जो समावेशी विकास तथा ग्रामीण सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रही हैं। 
  • एकीकृत कृषि को समर्थन: भारत की विशाल पशुधन जनसंख्या (लगभग 303.76 मिलियन गौवंश और 74.26 मिलियन  बकरियाँ) जैविक खाद प्रदान करके मृदा की उर्वरता बढ़ाती है तथा बायोगैस उत्पादन को सक्षम बनाकर एकीकृत कृषि को सशक्त करती है।
  • सतत् विकास और जलवायु अनुकूलन: गौबरधन योजना के तहत गोबर एवं कृषि अपशिष्ट से बायो-CNG और जैविक उर्वरक बनाए जाते हैं, जिससे किसानों की आय बढ़ती है तथा एक अतिरिक्त आय स्रोत बनता है।
    • यह रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करता है, उत्पादन लागत घटाता है और अपशिष्ट से संपदा की ओर बढ़ते हुए स्वच्छ ऊर्जा, उत्सर्जन में कमी, ग्रामीण उद्यमिता तथा आर्थिक अनुकूलन को बढ़ावा देता है।
  • भावी विकास: श्वेत क्रांति 2.0 का लक्ष्य सहकारी समितियों द्वारा दुग्ध संग्रहण को 660 लाख लीटर से बढ़ाकर 1,000 लाख लीटर प्रतिदिन करना है तथा पाँचवें वर्ष तक प्रतिदिन 100 मिलियन किलोग्राम दुग्ध खरीद का लक्ष्य रखा गया है।
    • यह पहल दुग्ध उत्पादन, महिला सशक्तीकरण और कुपोषण से निपटने पर केंद्रित है।

भारत में डेयरी उद्योग की चुनौतियाँ क्या हैं?

  • पर्यावरणीय और जलवायु दबाव: हीटवेव के कारण दुग्ध उत्पादन में 10–30% तक की गिरावट आ सकती है, विशेषकर उत्तरी राज्यों में, जो भारत के कुल दुग्ध उत्पादन में 30% योगदान करते हैं। यह स्थिति डेयरी क्षेत्र की उत्पादकता और आय की स्थिरता के लिये एक गंभीर खतरा है।
  • उत्पादन लागत में वृद्धि: पिछले 30 वर्षों में उच्च गुणवत्ता वाले पशु आहार की कीमतों में 246% की वृद्धि हुई है, जबकि दुग्ध की कीमतों में केवल 68% की वृद्धि हुई है। इससे किसानों के लाभ का मार्जिन कम हो गया है।
  • उत्पादकता की चुनौतियाँ: भारत में डेयरी उत्पादकता कम है; वर्ष 2014 में 50 मिलियन गायों और 40 मिलियन भैंसों से 140 मिलियन टन दुग्ध का उत्पादन हुआ।  
  • रोग प्रकोप और पशु स्वास्थ्य: लंपी स्किन डिज़ीज़ (2022–23) जैसे हालिया प्रकोपों के कारण दुग्ध उत्पादन में 10% की गिरावट आई, जबकि मैस्टाइटिस से हर वर्ष ₹14,000 करोड़ का नुकसान होता है।
    • हीटवेव और आर्द्रता हेमरिज सेप्टीसीमिया (haemorrhagic septicaemia) जैसे रोगों को बढ़ावा देती हैं, जिनके उपचार की लागत किसानों की आय को प्रभावित करती है।
  • असंगठित क्षेत्र का प्रभुत्व: भारत में केवल 28% दुग्ध संगठित क्षेत्र, जिसमें सहकारी समितियाँ शामिल हैं, के माध्यम से प्रसंस्कृत होता है, जबकि 70% से अधिक दुग्ध असंगठित क्षेत्र में ही रहता है।
    • इससे गुणवत्ता नियंत्रण में कमी, कोल्ड चेन अवसंरचना की अनुपलब्धता और छोटे उत्पादकों के लिये सीमित बाज़ार तथा ऋण तक पहुँच जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
  • देशी नस्लों के लिये खतरा: क्रॉसब्रीडिंग (संकर प्रजनन) से उत्पादकता तो बढ़ती है, लेकिन क्रॉसब्रेड पशुओं पर अत्यधिक निर्भरता देशी नस्लों के अस्तित्व के लिये खतरा बन सकती है।
    • जहाँ केरल 96% की दर के साथ क्रॉसब्रीड अपनाने में अग्रणी है और राष्ट्रीय औसत 30% है, वहीं देशी नस्लों का संरक्षण जैवविविधता, रोग प्रतिरोधक क्षमता और सतत् दुग्ध उत्पादन के लिये अत्यंत आवश्यक है।
  • विपणन और भ्रामक आख्यान: A2 दुग्ध (A1 दुग्ध के विपरीत) को लेकर चल रहा विपणन प्रचार क्रॉसब्रेड गायों की अनुचित आलोचना कर सकता है, जबकि ये गायें भारत के कुल दुग्ध उत्पादन का 30% योगदान देती हैं—और इस संबंध में वैज्ञानिक प्रमाण भी सीमित हैं।
    • A1 और A2 दुग्ध में अंतर बीटा-केसीन प्रोटीन में एक छोटे आनुवंशिक परिवर्तन के कारण होता है।

भारत में डेयरी उद्योग को बेहतर बनाने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • आनुवंशिक परिष्करण: सेक्स-सॉर्टेड (SS) सीमेन की तकनीक के उपयोग से कांकरेज और गिर जैसी उच्च दुग्ध उत्पादन क्षमता वाली नस्लों से मादा बछड़ों के जन्म की संभावना बढ़ाई जा सकती है, जिससे भविष्य में दुग्ध देने वाली गायों की संख्या में वृद्धि होगी।
    • सेक्स-सॉर्टेड (SS) सीमेन की तकनीक से इच्छित लिंग के वंशज, जैसे- केवल मादा बछड़े, उत्पन्न किये जा सकते हैं।
  • एम्ब्रियो ट्रांसफर (ET) तकनीक: ET तकनीक उच्च आनुवंशिक क्षमता वाली (HGM) गायों की उत्पादकता बढ़ा सकती है, जिससे एक से अधिक भ्रूण बनाए जा सकते हैं और उन्हें सरोगेट गायों में प्रत्यारोपित किया जा सकता है।
    • इस तकनीक से एक उच्च आनुवंशिक क्षमता वाली गाय प्रतिवर्ष अधिकतम 12 बछड़े पैदा कर सकती है, जबकि सामान्य प्रजनन के माध्यम से एक जीवनकाल में केवल 5-7 बछड़े ही पैदा होते हैं।
  • उन्नत आहार गुणवत्ता: फलियाँ और अनाज जैसे आसानी से पचने वाले चारे खिलाने से किण्वन प्रक्रिया की अवधि कम हो जाती है, जिससे मीथेन उत्सर्जन घटता है। कुछ फीड एडिटिव्स सीधे मीथेन उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीवों को अवरुद्ध कर सकते हैं।
    • उदाहरण के लिये, अमूल टोटल मिक्स्ड रेशन (TMR) संयंत्र स्थापित कर रहा है, जो मक्का, ज्वार और ओट ग्रास से बने किफायती रेडी-टू-ईट चारे के मिश्रण पशुओं के लिये तैयार करेगा।
  • जलवायु-अनुकूल नस्लें: राष्ट्रीय गोकुल मिशन को मज़बूत करके A2 दुग्ध (A1 की तुलना में सुरक्षित) उत्पादित करने वाले मवेशियों को बढ़ावा देना, जो अधिक गर्मी में भी अनुकूल होते हैं।
  • प्रौद्योगिकी एवं डिजिटल समाधान अपनाना: IoT कॉलर और AI-आधारित थन स्कैनर का उपयोग कर मैस्टाइटिस (स्तनशोथ) का पता लगाना तथा संदूषण एवं श्रम लागत को कम करने हेतु स्वचालित दुग्ध देने वाली मशीनों का उपयोग करना।
    • 12-अंकों वाले पशु आईडी के साथ भारत पशुधन डेटाबेस लागू करना, जिससे स्वास्थ्य, प्रजनन और दुग्ध की गुणवत्ता पर नज़र रखी जा सके।
  • बुनियादी ढाँचे और शीत शृंखलाओं को मज़बूत करना: औपचारिक दुग्ध प्रसंस्करण को बढ़ाने के लिये सौर ऊर्जा संचालित शीतलन इकाइयों का विस्तार करना तथा गाँव-स्तरीय संग्रह केंद्रों को गुणवत्ता परीक्षण उपकरणों से उन्नत करना।

पशुधन क्षेत्र से संबंधित योजनाएँ:

निष्कर्ष

  • विश्व के सबसे बड़े डेयरी उत्पादक के रूप में, भारत का दुग्ध क्षेत्र ग्रामीण आजीविका, पोषण सुरक्षा और आर्थिक विकास का प्रमुख आधार है। हालाँकि जलवायु परिवर्तन, कम उत्पादकता तथा रोग प्रकोप जैसी चुनौतियों से निपटने के लिये नवाचारी समाधान आवश्यक हैंप्रौद्योगिकी ( एआई, सेक्स-सॉर्टेड सीमेन), जलवायु-लचीली नस्लों और संगठित बुनियादी ढाँचे का लाभ उठाकर स्थिरता को बढ़ावा दिया जा सकता है। राष्ट्रीय गोकुल मिशन जैसी योजनाओं को मज़बूत करने से भारत न केवल अपना वैश्विक डेयरी नेतृत्व बनाए रखेगा, बल्कि जलवायु जोखिम, खाद्य सुरक्षा और किसान आय जैसी चुनौतियों का भी समाधान करेगा।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पोषण सुरक्षा में डेयरी उद्योग के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।

   UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)   

मेन्स: 

प्रश्न: एकीकृत कृषि प्रणाली (IFS) कृषि उत्पादन को बनाए रखने में किस सीमा तक सहायक है? (2019)

प्रश्न. उत्तर-पश्चिम भारत के कृषि आधारित खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के स्थानीयकरण के कारकों पर चर्चा कीजिये। (2019)

प्रश्न. भारत में स्वतंत्रता के बाद कृषि क्षेत्र में हुई विभिन्न प्रकार की क्रांतियों की व्याख्या कीजिये। इन क्रांतियों ने भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार मदद की है? (2017)


कृषि

सिंचाई और फसल का समन्वय

प्रिलिम्स के लिये:

कदन्न (मिलेट्स), डिजिटल कृषि मिशन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, जल शक्ति अभियान, कृषि विज्ञान केंद्र

मेन्स के लिये:

सिंचाई अवसंरचना और फसल पैटर्न, जल-उपयोग दक्षता तथा सतत् कृषि, फसल पैटर्न को आकार देने में सब्सिडी एवं एमएसपी की भूमिका

स्रोत: फाइनेंसियल एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

भारत में कृषि में लंबे समय से यह माना जाता रहा है कि सिंचाई के विस्तार से स्वतः जल-गहन फसलों (जैसे- धान, गन्ना) की ओर रुझान बढ़ता है, लेकिन वित्त वर्ष 2011-12 से 2022-23 के आँकड़ों से पता चलता है कि सिंचाई और फसल संबंधी निर्णय एक साथ लिये जाते हैं, जो वर्षा तथा बाज़ार की स्थितियों जैसे तात्कालिक कारकों से प्रेरित होते हैं। 

  • सिंचाई निवेश को अधिक प्रभावी और सतत् बनाने के लिये इस गतिशीलता को समझना महत्त्वपूर्ण है।

सिंचाई और फसल के बीच क्या संबंध है?

  • सिंचाई और फसल पद्धति: विश्वसनीय सिंचाई किसानों को पारंपरिक निर्वाह फसलों (जैसे- कदन्न (मिलेट्स)) से उच्च मूल्य वाली फसलों (जैसे- फल, सब्ज़ियाँ और नकदी फसलें जैसे गन्ना और कपास ) की ओर स्थानांतरित करने में सक्षम बनाती है।
    • सिंचाई मानसून पर निर्भरता कम कर डबल या ट्रिपल क्रॉपिंग (एक वर्ष में दो/तीन फसलें) को संभव बनाती है, जिससे भूमि उपयोग दक्षता बढ़ती है।
    • बेहतर सिंचाई अवसंरचना वाले क्षेत्र (जैसे- पंजाब, हरियाणा) नहरों और ट्यूबवेलों में हरित क्रांति निवेश द्वारा समर्थित, समतल भू-भाग तथा उपजाऊ मिट्टी से लाभान्वित होते हैं। 
      • ये क्षेत्र मध्य और पूर्वी भारत के बड़े पैमाने पर वर्षा आधारित क्षेत्रों की तुलना में अधिक गहन तथा व्यावसायिक फसल पैटर्न को प्रदर्शित करते हैं।
    • उच्च उपज देने वाली किस्मों (HYV) को सुनिश्चित जल आपूर्ति की आवश्यकता होती है। सिंचाई ऐसी किस्मों को अपनाने में सहायक है, खासकर हरित क्रांति वाले क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में।
  • सिंचाई का समय: सिंचाई तब सबसे प्रभावी होती है जब यह बुवाई के मौसम के साथ संरेखित होती है। जब बुनियादी ढाँचा एक या दो वर्ष की देरी से उपलब्ध होता है, तो इसका प्रभाव कमज़ोर या नकारात्मक हो जाता है।
    • किसान क्या और कब बोना है, यह तय करते समय वर्तमान वर्षा, कीमतों, बीज तथा उर्वरक की उपलब्धता एवं नीतिगत संकेतों पर विचार करते हैं। ऐसे परिदृश्यों में देरी से सिंचाई करने से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती।
  • सिंचाई अवसंरचना से परे फसल विकल्प: यद्यपि सिंचाई महत्त्वपूर्ण है, लेकिन किसानों का फसल विकल्प अक्सर केवल सिंचाई अवसंरचना पर ही नहीं, बल्कि जल उपलब्धता, मौसम, इनपुट पहुँच और बाज़ार मूल्य जैसे वास्तविक समय कारकों पर निर्भर करता है।

भारत में सिंचाई और फसल उत्पादन के रुझान क्या हैं?

  • सकल सिंचित क्षेत्र (GIA): इसे वर्ष 2011-12 में 91.8 मिलियन हेक्टेयर से बढ़ाकर वर्ष 2022-23 में 122.3 मिलियन हेक्टेयर किया गया।
    • GIA कृषि वर्ष में विभिन्न मौसमों में सभी फसलों के तहत सिंचित क्षेत्रों का कुल योग है, GIA के तहत, एक ही वर्ष में दो/तीन बार सिंचित क्षेत्र को दो/तीन बार गिना जाता है।
  • सकल बोया गया क्षेत्र (GSA): इसी अवधि के दौरान यह 195.8 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 219.4 मिलियन हेक्टेयर हो गया।
    • सिंचित क्षेत्र का हिस्सा 46.9% से बढ़कर 55.8% हो गया।
    • GSA एक कृषि वर्ष में विभिन्न मौसमों में सभी फसलों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों का कुल योग है, GSA के तहत, एक ही वर्ष में दो/तीन बार बोए गए क्षेत्र को दो/तीन गुना के रूप में गिना जाता है।
  • फसल उपज: 841 किग्रा./एकड़ से बढ़कर 1,009 किग्रा./एकड़ हुई, औसत वार्षिक वृद्धि दर 1.67% रही।

विभिन्न सिंचाई प्रणालियाँ क्या हैं?

और पढ़ें: विभिन्न सिंचाई प्रणालियाँ

सिंचाई और फसल को समन्वित करने की क्या आवश्यकता है?

  • कुशल जल उपयोग: सिंचाई को वास्तविक फसल चक्रों के साथ संरेखित करने से जल की हानि को कम करने में मदद मिलती है और अति-सिंचाई को रोका जा सकता है
    • पंजाब में किसान कपास और मक्का के लिये मृदा नमी सेंसर के साथ ड्रिप सिंचाई का उपयोग करते हैं, जिससे जल का उपयोग 30% तक कम हो जाता है तथा प्रमुख फसल चरणों को लक्षित करके पैदावार बढ़ जाती है।
  • उच्च उत्पादकता: समय पर सिंचाई से फसल की इष्टतम वृद्धि को बढ़ावा मिलता है, विशेष रूप से उच्च उपज देने वाली और जल के प्रति संवेदनशील किस्मों के लिये।
  • जलवायु जोखिमों के प्रति अनुकूलन: अनियमित मानसून और बढ़ती चरम मौसम की घटनाओं के साथ, समन्वित योजना यह सुनिश्चित करती है कि सिंचाई सूखे के दौरान फसल की विफलता को रोकती है।
  • लागत प्रभावी अवसंरचना: नहरों, सूक्ष्म सिंचाई या भूजल प्रणालियों में निवेश से बेहतर लाभ मिलता है, जब वे किसानों की वास्तविक समय की फसल संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
  • पर्यावरणीय स्थिरता: गलत समय पर सिंचाई के कारण होने वाले जलभराव, लवणीकरण और भूजल की कमी के जोखिम को कम करता है।

पारंपरिक सिंचाई योजना में क्या खामियाँ हैं?

  • बुवाई चक्रों के साथ बेमेल: लंबे समय तक चलने वाली बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ (जैसे महाराष्ट्र की लंबे समय से विलंबित गोसीखुर्द सिंचाई परियोजना) अक्सर बुवाई के अधिकतम समय से पीछे हो जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रणालियों का कम उपयोग होता है।
    • केंद्र द्वारा प्रबंधित योजनाओं के अंतर्गत नहरों की मरम्मत या गाद निकालने का कार्य प्रायः मानसून के बाद पूरा किया जाता है, जिससे खरीफ मौसम के लिये यह अनावश्यक हो जाता है।
  • टॉप डाउन एप्रोच स्थानीय संदर्भ की उपेक्षा करती है: केंद्रीकृत सिंचाई योजना स्थानीय कृषि-जलवायु स्थितियों या फसल वरीयताओं को प्रतिबिंबित नहीं करती है।
    • पंजाब और हरियाणा में, जल-गहन धान को सरकारी समर्थन जारी रहने तथा नहर सिंचाई के संयुक्त प्रभाव से भूजल स्तर में भारी गिरावट आई है (भारत में कुल अनुमानित भूजल दोहन 122 से 199 बिलियन क्यूबिक मीटर के बीच है)। यह कठोर योजना की पारिस्थितिक कीमत को दर्शाता है।
      • मुफ्त विद्युत के कारण अत्यधिक बोरवेल के उपयोग से जलभृत में गंभीर कमी आई है, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में।
    • इसके अतिरिक्त, अपर्याप्त देख-रेख, सीपेज (जल रिसाव) और चोरी के कारण नहर-आधारित क्षेत्रों में जल की लगभग 40% तक हानि हो जाती है। पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं को औपचारिक सिंचाई योजना में बहुत कम शामिल किया जाता है।
  • इनपुट कन्वर्जेंस का अभाव: केवल सिंचाई से उत्पादकता नहीं बढ़ती, जब तक कि उसे गुणवत्तापूर्ण बीज, उर्वरक, कृषि ऋण और कृषि विस्तार सेवाओं के साथ जोड़ा न जाए।
    • उत्तर प्रदेश में, सिंचाई के विस्तार से उपज में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई क्योंकि प्रमाणित बीजों और मृदा स्वास्थ्य इनपुट तक किसानों की पहुँच सीमित रही।
  • वास्तविक समय के डेटा का अभाव: सिंचाई योजना में शायद ही कभी मौसम पूर्वानुमान, मृदा आर्द्रता मानचित्र या फसल प्रारूप जैसे तात्कालिक डेटा को शामिल किया जाता है, जिससे जल आवंटन की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
    • आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने सिंचाई को अधिक प्रभावी बनाने के लिये रिमोट सेंसिंग और फसल की जल आवश्यकता पर आधारित डेटा को अपनाना शुरू किया है, हालाँकि  ऐसे मॉडल अब भी सीमित स्तर पर ही लागू हैं।
    • प्रौद्योगिकी और वित्तीय बाधाएँ: पारंपरिक सिंचाई योजनाओं में आधुनिक सूक्ष्म सिंचाई (माइक्रो-इरिगेशन) या नवीकरणीय ऊर्जा चालित प्रणाली को एकीकृत नहीं किया जाता। उच्च लागत के कारण गरीब किसान ड्रिप सिंचाई जैसी तकनीकों से वंचित रह जाते हैं।
  • मृदा लवणता: अप्रभावी जल निकासी योजना के कारण सिंचित क्षेत्रों में जलभराव और मृदा लवणता की समस्या उत्पन्न होती है। 
    • वर्ष 2025 तक, भारत में लगभग 13 मिलियन हेक्टेयर सिंचित भूमि जलभराव तथा लवणता से प्रभावित हो सकती है, जो लवणीय भूजल के उपयोग तथा जलवायु परिवर्तन से और अधिक गंभीर हो जाएगी।
    • ये परिस्थितियाँ फसल उत्पादन में 80% तक की गिरावट ला सकती हैं और भूमि को छोड़ने की नौबत आ सकती है।
    • सिर्फ हरियाणा में ही, जलभराव वाली लवणीय मृदा प्रतिवर्ष 2 मिलियन टन से अधिक फसलों की हानि का कारण बनती हैं।

नोट: सिंचाई राज्य का विषय है और सिंचाई परियोजनाओं की योजना, क्रियान्वयन, वित्तपोषण तथा क्रियान्वयन एवं पूर्णता की प्राथमिकता संबंधित राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में है।

  • तथापि, केंद्र सरकार कार्यक्रम के दिशा-निर्देशों के अनुसार चयनित परियोजनाओं को शीघ्र पूरा करने के लिये प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) के अंतर्गत राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
  • PMKSY विभिन्न योजनाओं का एकीकरण है, जैसे- त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP), PMKSY - हर खेत को पानी (HKKP), PMKSY - प्रति बूँद अधिक फसल (PDMC) (कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित) और PMKSY - वाटरशेड विकास (WD) (भूमि संसाधन विभाग द्वारा कार्यान्वित)।

सतत् फसल प्रणाली सुनिश्चित करने हेतु सिंचाई योजना में किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • कृषि-परिस्थितिकी आधारित, क्षेत्र-विशिष्ट सिंचाई रणनीति अपनाना: व्यापक सिंचाई विस्तार की बजाय, मृदा प्रकार, वर्षा प्रारूप और जल उपलब्धता पर आधारित क्षेत्र-विशिष्ट योजना को प्राथमिकता दी जाए।
    • शुष्क क्षेत्रों में मिलेट मिशन जैसी योजनाओं के अंतर्गत मोटे अनाज, दालें और तिलहन को बढ़ावा देना चाहिये, ताकि जल संसाधनों पर दबाव कम हो।
  • सिंचाई को इनपुट सेवाओं के साथ एकीकृत करना: डिजिटल कृषि मिशन और इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (e-NAM) के माध्यम से सिंचाई निवेश को बीज, ऋण, उर्वरक तथा मौसम आधारित सलाह तक समय पर पहुँच के साथ जोड़ना।
    • आंध्र प्रदेश की रियल-टाइम गवर्नेंस सोसाइटी (RTGS) जैसे मॉडल को प्रोत्साहित करें, जो सटीक सिंचाई अनुसूची के लिये उपग्रह डेटा, मृदा आर्द्रता सेंसर और फसल मानचित्रों का उपयोग करता है।
  • सूक्ष्म सिंचाई और लघु-स्तरीय नवाचारों का विस्तार: प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) के प्रति बूँद अधिक फसल (PDMC) घटक को क्लस्टर आधारित, मांग-आधारित सब्सिडी और सूक्ष्म सिंचाई उपकरणों के लिये कस्टम हायरिंग केंद्रों की सुविधा देकर विस्तार दिया जाए।
    • सौर ऊर्जा चालित पंप, स्मार्ट ड्रिप किट्स और मोबाइल आधारित सिंचाई अलर्ट जैसी कम लागत वाली, किसान-मित्र नवाचारों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। 
  • इनपुट सब्सिडी का सुधार करना: अत्यधिक दोहन को हतोत्साहित करने और जल के कुशल उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिये मुफ्त या एक समान दर पर दी जाने वाली विद्युत और जल की सब्सिडी को लक्षित प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) से प्रतिस्थापित किया जाए।
    • पंजाब की “पानी बचाओ, पैसे कमाओ” योजना को अन्य भूजल-संकटग्रस्त राज्यों तक विस्तारित किया जाए, जिसमें कम जल उपयोग करने पर वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है।
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को सतत् फसल चक्रों से जोड़ा जाए, ताकि कम जल-आधारित फसलों की कृषि को प्रोत्साहन मिल सके।
  • पारंपरिक जल संचयन को बहाल करना: परंपरागत प्रणालियों (जैसे- तमिलनाडु में टैंक, राजस्थान के जोहड़) को आधुनिक सिंचाई ग्रिड से जोड़ते हुए मनरेगा और जल शक्ति अभियान के तहत एकीकृत किया जाए।
  • जल निकासी, लवणता और जलभराव की समस्याओं का सक्रिय रूप से समाधान: जल शक्ति मंत्रालय के तहत एक राष्ट्रीय ड्रेनेज मिशन प्रारंभ किया जाए, ताकि विशेष रूप से सिंधु-गंगा मैदानों में जलभराव और मृदा लवणता की समस्याओं का समाधान किया जा सके।
  • लवण-सहिष्णु फसल किस्मों (जैसे- ज्वार, जई और जौ) को प्रोत्साहित किया जाए और लवणता नियंत्रण हेतु सतही जल एवं भूजल के संयुक्त उपयोग को बढ़ावा दिया जाए।
  • क्षमता निर्माण और जागरूकता: कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) और गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से किसानों को जल संरक्षण की प्रथाओं, जलवायु जोखिमों तथा कुशल सिंचाई विधियों के बारे में शिक्षित किया जाए।

निष्कर्ष

भारत की सिंचाई योजना को अवसंरचना-केंद्रित दृष्टिकोण से आगे बढ़ते हुए जलवायु-स्मार्ट, किसानोन्मुखी और पारिस्थितिक रूप से सतत् प्रणालियों की ओर विकसित होना चाहिये। इस परिवर्तन के लिये नीतिगत समन्वय, व्यवहार में बदलाव और प्रौद्योगिकी का एकीकरण आवश्यक है, जिसे मज़बूत सामुदायिक भागीदारी तथा  संस्थागत सुधारों का समर्थन मिलना चाहिये। केवल तभी सिंचाई वास्तव में सतत् फसल प्रणाली को सक्षम बना सकेगी और भविष्य के लिये जल, खाद्य तथा आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगी।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: "सिंचाई में सुधार, भारत के भविष्य का पुनर्रूपांकन: सतत् कृषि की ओर मार्ग" – चर्चा कीजिये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राचीन नगर अपने उन्नत जल संचयन और प्रबंधन प्रणाली के लिए सुप्रसिद्ध है, जहाँ बाँधों की शृंखला का निर्माण किया गया था और संबद्ध जलाशयों में नहर के माध्यम से जल को प्रवाहित किया जाता था? (2021)

  1. धौलावीरा
  2. कालीबंगा 
  3. राखीगढ़ी
  4. रोपड़ 

उत्तर: a

प्रश्न 2. 'वॉटरक्रेडिट' के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. यह जल एवं स्वच्छता क्षेत्र में कार्य के लिये सूक्ष्म वित्त साधनों (माइक्रोफाइनेंस टूल्स) को लागू करता है।
  2. यह एक वैश्विक पहल है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक के तत्त्वावधान में प्रारंभ किया गया है।
  3. इसका उद्देश्य निर्धन व्यक्तियों को सहायिकी के बिना अपनी जल-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये समर्थ बनाना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

  1. केवल 1 और 2
  2. केवल 2 और 3
  3. केवल 1 और 3
  4. 1, 2 और 3

उत्तर: c


मेन्स: 

प्रश्न 1. जल संरक्षण एवं जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020)

प्रश्न 2. रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइए। (2020)


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2