प्रकृति के बिना प्रगति अधूरी - विज्ञान, नीति और जीवनशैली का त्रिकोणीय संतुलन
- 05 Jun, 2025

21वीं सदी में प्रगति को प्रायः आर्थिक वृद्धि, तकनीकी नवाचार और आधारभूत ढाँचे के विस्तार के रूप में देखा जाता है। हालाँकि, इस विकास की गति ने प्राकृतिक संसाधनों पर असाधारण दबाव उत्पन्न किया है, जिससे पृथ्वी की पारिस्थितिकीय प्रणालियाँ संकट में आ गई हैं। वनों की कटाई, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण एवं प्रदूषण—ये सब विकास की एकपक्षीय अवधारणा की कीमत पर प्रकृति से दूर होते मानव समाज के लक्षण हैं। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट होता जा रहा है कि प्रकृति के बिना कोई भी प्रगति संवहनीय या समावेशी नहीं हो सकती। ‘प्रगति’ को केवल आर्थिक मानकों से नहीं, बल्कि उसके पर्यावरणीय, सामाजिक और नैतिक प्रभावों के समुचित संतुलन से मापा जाना चाहिये। आज के जटिल पर्यावरणीय संकट बहुआयामी हैं और इनके समाधान भी समन्वित दृष्टिकोण की मांग करते हैं। यही कारण है कि विज्ञान, नीति और जीवनशैली के तीनों घटकों के मध्य संतुलन स्थापित करना समय की आवश्यकता बन चुका है। इस संदर्भ में, विश्व पर्यावरण दिवस 2025 एक वैश्विक मंच प्रदान करता है, जहाँ सरकारें, वैज्ञानिक समुदाय और नागरिक समाज मिलकर पर्यावरणीय चेतना एवं कार्रवाई को दिशा प्रदान करते हैं।
विश्व पर्यावरण दिवस 2025
विश्व पर्यावरण दिवस (World Environment Day) हर वर्ष 5 जून को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के तत्वावधान में मनाया जाता है। यह दिवस न केवल पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति वैश्विक चेतना बढ़ाने का अवसर है, बल्कि यह नीति-निर्माताओं, वैज्ञानिकों और आम लोगों को साझा समाधान खोजने के लिये एक मंच प्रदान करता है।
- विषय (Theme): #BeatPlasticPollution (प्लास्टिक प्रदूषण समाप्त करें)
- आयोजक देश: दक्षिण कोरिया
- मुख्य आयोजन स्थल: जेजू प्रांत (Jeju Province)
मुख्य उद्देश्य और अभियान लक्ष्य
- प्लास्टिक प्रदूषण के विरुद्ध वैश्विक जागरूकता बढ़ाना।
- वैज्ञानिक प्रमाणों के माध्यम से प्लास्टिक के स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी पर प्रभाव को उजागर करना।
- “Refuse, Reduce, Reuse, Recycle, Rethink” जैसे व्यवहारों को प्रोत्साहित करना।
- वर्ष 2022 में संपन्न वैश्विक प्लास्टिक संधि (Plastic Pollution Treaty) के प्रति प्रतिबद्धता को दोहराना।
- स्थानीय समुदायों और सरकारों को समाधान अपनाने के लिये प्रेरित करना।
दक्षिण कोरिया – मेज़बान देश के रूप में
- यह दूसरी बार है जब दक्षिण कोरिया इस दिवस की वैश्विक मेज़बानी कर रहा है (पहली बार 1997 में)।
- प्रगति के क्षेत्र:
- जल एवं वायु गुणवत्ता में सुधार।
- रासायनिक प्रबंधन और पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली।
- पूर्ण जीवनचक्र प्लास्टिक रणनीति (उत्पादन से लेकर पुनः उपयोग और पुनःचक्रण तक) का क्रियान्वयन।
- विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (Extended Producer Responsibility) के माध्यम से व्यवसायों को ज़िम्मेदार बनाया गया है।
- जेजू प्रांत की भूमिका:
- प्रांत को वर्ष 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण मुक्त बनाने का लक्ष्य रखा गया है।
- घरेलू अपशिष्ट प्रबंधन पर बल दिया गया है जहाँ अपशिष्ट स्रोत से पृथक्करण अनिवार्य है और उच्च पुनर्चक्रण दर सुनिश्चित किया गया है।
- यह ‘डिस्पोज़ेबल कप डिपॉजिट सिस्टम’ लागू करने वाला पहल प्रांत है।
- 2025 का वैश्विक संदर्भ:
- प्लास्टिक प्रदूषण तीन वैश्विक संकटों को बढ़ाता है:
- जलवायु परिवर्तन
- प्रकृति, भूमि, और जैव विविधता का क्षरण
- प्रदूषण और अपशिष्ट प्रबंधन संकट
- प्रभाव के आँकड़े:
- हर वर्ष 11 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट जलाशयों में प्रवेश करता है।
- प्रति वर्ष 300–600 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सामाजिक एवं पर्यावरणीय लागत उत्पन्न होती है।
- कृषि उत्पादों में प्लास्टिक उपयोग से मृदा में माइक्रोप्लास्टिक जमा हो रहे हैं।
- वैश्विक प्लास्टिक संधि पर प्रगति:
- प्लास्टिक प्रदूषण समाप्त करने हेतु वैश्विक संधि (Global Treaty) पर समझौता वार्ता जारी है।
- वार्ता का पाँचवाँ सत्र (INC-5) नवंबर 2024 में दक्षिण कोरिया में संपन्न हुआ।
- इसका दूसरा दौर 5 से 14 अगस्त 2025 को जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में आयोजित होगा।
- प्लास्टिक प्रदूषण तीन वैश्विक संकटों को बढ़ाता है:
विज्ञान और पर्यावरणीय नवाचार
- पारिस्थितिकी प्रणालियों की वैज्ञानिक समझ में विज्ञान की भूमिका
- प्राकृतिक तंत्रों को समझना आज के युग में मात्र वैज्ञानिक जिज्ञासा नहीं, बल्कि नीति-निर्माण और सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता बन चुका है। जलवायु मॉडलिंग, जैव विविधता सूचकांक, प्रदूषण ट्रैकिंग और उपग्रह डेटा जैसे साधन पर्यावरणीय जोखिमों की पहचान करने एवं पूर्वानुमान लगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- जलवायु मॉडल (Climate Models), जैसे कि IPCC द्वारा विकसित CMIP (Coupled Model Intercomparison Project), विभिन्न परिदृश्यों के आधार पर वैश्विक तापमान वृद्धि, समुद्र स्तर और वर्षा चक्र में संभावित परिवर्तनों का अनुमान लगाते हैं।
- जैव विविधता सूचकांक, जैसे Living Planet Index और Red List Index, प्रजातियों की संख्या और स्वास्थ्य की निगरानी करते हैं।
- GIS और रिमोट सेंसिंग तकनीकों द्वारा वनों की कटाई, भूमि उपयोग परिवर्तन और जल निकायों के क्षरण की निगरानी की जाती है।
- अंतःविषयक शोध के माध्यम से पारिस्थितिकी, भूविज्ञान, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को संबद्ध करते हुए वैज्ञानिक समुदाय अधिक व्यवहारिक एवं नीतिनिर्माता हेतु उपयोगी समाधान तैयार करते हैं।
- सतत् प्रौद्योगिकी में नवाचार
- जलवायु संकट से निपटने के लिये केवल समस्या की समझ पर्याप्त नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक नवाचार भी आवश्यक हैं जो ऊर्जा, कृषि, निर्माण और परिवहन जैसे क्षेत्रों में सतत् समाधानों की पेशकश करते हैं।
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत (जैसे सौर, पवन, जलविद्युत और बायोमास) जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को कम करने के रूप में क्रांतिकारी बदलाव ला रहे हैं। भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) की पहल इस दिशा में एक सशक्त क़दम है।
- कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS) तकनीकें वायुमंडल से CO₂ को जब्त कर भूगर्भ में सुरक्षित रूप से जमा करती हैं। Climeworks (स्विट्ज़रलैंड) जैसी कंपनियाँ इन तकनीकों को व्यावसायिक स्तर पर विकसित कर रही हैं।
- हरित भवन (Green Buildings), स्मार्ट कृषि तकनीक (जैसे ड्रिप सिंचाई, सेंसर्स आधारित फसल प्रबंधन) और जैविक खाद्य प्रणाली पर्यावरणीय प्रभाव को न्यून करने में सहायक भूमिका निभाते हैं।
- कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का प्रयोग पर्यावरणीय निगरानी, वन्यजीव ट्रैकिंग और ऊर्जा खपत अनुकूलन में किया जा रहा है। उदाहरण के लिये, IBM का ‘Green Horizon’ प्रोजेक्ट शहरी प्रदूषण पूर्वानुमान में AI का उपयोग करता है।
- संस्थागत और वैश्विक वैज्ञानिक सहयोग
- वैश्विक पर्यावरणीय संकटों के समाधान के लिये केवल राष्ट्रीय प्रयास पर्याप्त नहीं हैं; इनके लिये वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिक सहयोग अनिवार्य है।
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के संबंध में वैज्ञानिक आकलन प्रस्तुत करता है, जो दुनिया भर की सरकारों के लिये नीति-निर्माण का आधार प्रदान करते हैं।
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) पर्यावरणीय डेटा संग्रहण, रिपोर्टिंग और वैश्विक जागरूकता अभियानों में अग्रणी भूमिका निभाता है।
- नासा और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) जैसे संस्थान उपग्रह डेटा एवं मौसम पैटर्न पर महत्त्वपूर्ण शोध प्रस्तुत करते हैं, जिससे जलवायु पूर्वानुमान और आपदा प्रबंधन में सहायता प्राप्त होती है।
- ओपन साइंस (Open Science) और कम्युनिटी रिसर्च प्रोग्राम्स के माध्यम से सामान्य नागरिकों को भी वैज्ञानिक डेटा संग्रहण एवं पर्यावरणीय निगरानी में भागीदार बनाया जा रहा है। उदाहरण के लिये, ‘Citizen Science’ ऐप्स जो पक्षियों, तितलियों या प्रदूषण पर डेटा जुटाते हैं।
नीति और पर्यावरणीय शासन
- वैश्विक पर्यावरणीय शासन: वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय संकटों के समाधान के लिये संयुक्त एवं बहुपक्षीय सहयोग आवश्यक है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण और प्रदूषण जैसी समस्याएँ राष्ट्रीय सीमाओं में सीमित नहीं हैं।
- पेरिस समझौता (Paris Agreement, 2015): यह एक ऐतिहासिक वैश्विक संधि है, जिसके अंतर्गत विश्व के देशों ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का संकल्प लिया है। इसके अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDCs) के माध्यम से विभिन्न देश अपनी स्वयं की उत्सर्जन कटौती योजनाएँ तैयार करते हैं।
- COP सम्मेलन (Conference of Parties): जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के अंतर्गत वार्षिक बैठकें आयोजित की जाती हैं, जहाँ वैश्विक प्रगति और दायित्वों की समीक्षा की जाती है।
- सतत् विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals- SDGs): वर्ष 2030 तक प्राप्त किये जाने वाले 17 सतत् विकास लक्ष्य, जिनमें से कई प्रत्यक्षतः पर्यावरण से संबंधित हैं (जैसे SDG 13 – Climate Action, SDG 15 – Life on Land)।
- बहुपक्षीय पर्यावरणीय संधियाँ (Multilateral Environmental Agreements- MEAs): जैव विविधता अभिसमय (Convention on Biological Diversity- CBD), मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol), बेसेल कन्वेंशन (Basel Convention) आदि, जो वैश्विक पर्यावरणीय मानदंडों को स्थापित करते हैं।
- राष्ट्रीय और स्थानीय पर्यावरण नीतियाँ
- नीति-निर्माण का वास्तविक प्रभाव तब उत्पन्न होता है जब वैश्विक संधियों को राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर अनुकूलित एवं क्रियान्वित किया जाता है। उदाहरण के लिये- भारत सरकार ने 30 जून 2008 को जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC) की घोषणा की। इसका उद्देश्य भारत में पर्यावरणीय दृष्टि से संवहनीय और निम्न-कार्बन विकास पथ को प्रोत्साहित करना था। NAPCC को आठ राष्ट्रीय मिशनों (National Missions) के माध्यम से लागू किया गया, जिनमें शामिल हैं:
- राष्ट्रीय सौर मिशन (National Solar Mission): भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देना। इसका उद्देश्य 2022 तक सौर क्षमता को 100 गीगावाट तक पहुँचाना था।
- राष्ट्रीय जल मिशन (National Water Mission): जल संरक्षण, जल उपयोग की दक्षता बढ़ाना और जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न जल संकट का समाधान।
- राष्ट्रीय ऊर्जा दक्षता मिशन (National Mission on Enhanced Energy Efficiency): उद्योगों में ऊर्जा उपयोग की दक्षता बढ़ाने हेतु उपाय, जैसे PAT (Perform, Achieve and Trade) और STAR लेबलिंग कार्यक्रम।
- राष्ट्रीय सतत् आवास मिशन (National Mission on Sustainable Habitat): संवहनीय शहरी नियोजन, परिवहन और अपशिष्ट प्रबंधन पर बल।
- राष्ट्रीय हरित भारत मिशन (National Mission for a Green India): वनों का विस्तार, जैव विविधता का संरक्षण और पारिस्थितिकीय सेवाओं का पुनर्स्थापन।
- राष्ट्रीय हिमालय पारिस्थितिकी मिशन (National Mission for Sustaining the Himalayan Ecosystem): हिमालय क्षेत्र की संवेदनशील पारिस्थितिकीय प्रणाली का संरक्षण।
- राष्ट्रीय कृषि मिशन (National Mission on Sustainable Agriculture): जलवायु-सहिष्णु एवं प्रत्यास्थी कृषि पद्धतियों का विकास और किसानों को समर्थन।
- राष्ट्रीय जलवायु विज्ञान मिशन (National Mission on Strategic Knowledge for Climate Change): जलवायु परिवर्तन पर अनुसंधान और नीति-निर्माण के लिये वैज्ञानिक आधार तैयार करना।
- नीति-निर्माण का वास्तविक प्रभाव तब उत्पन्न होता है जब वैश्विक संधियों को राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर अनुकूलित एवं क्रियान्वित किया जाता है। उदाहरण के लिये- भारत सरकार ने 30 जून 2008 को जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC) की घोषणा की। इसका उद्देश्य भारत में पर्यावरणीय दृष्टि से संवहनीय और निम्न-कार्बन विकास पथ को प्रोत्साहित करना था। NAPCC को आठ राष्ट्रीय मिशनों (National Missions) के माध्यम से लागू किया गया, जिनमें शामिल हैं:
- राज्यस्तरीय प्रयास: इन मिशनों को राज्य स्तर पर प्रभावी बनाने हेतु राज्यों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अपनी राज्य जलवायु परिवर्तन कार्ययोजनाएँ (State Action Plans on Climate Change- SAPCCs) तैयार करें। भारत के सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने अपने SAPCCs तैयार कर NAPCC के दिशानिर्देशों के अनुरूप इन्हें लागू किया है। इन SAPCCs में राज्य-विशिष्ट जलवायु जोखिमों (जैसे सूखा, बाढ़, तटीय क्षरण, जल संकट आदि) को ध्यान में रखते हुए क्षेत्रीय अनुकूलन रणनीतियाँ तैयार की गई हैं।
- भारत सरकार ने वर्ष 2015 और 2019 के बीच कुछ राष्ट्रीय मिशनों को संशोधित किया और सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) और पेरिस समझौते के अनुरूप इनके लक्ष्यों को अद्यतन किया। इसके साथ ही, राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन की भी शुरुआत की गई है।
- यूरोपीय संघ का ‘The European Green Deal’ एक महत्त्वाकांक्षी नीति फ्रेमवर्क है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2050 तक यूरोप को कार्बन-तटस्थ महादेश बनाना है। इसमें चक्रीय अर्थव्यवस्था, स्वच्छ ऊर्जा और सतत् परिवहन पर बल दिया गया है।
- चीन की सरकार ने पारंपरिक विकास की बजाय ‘Ecological Civilization Model’ यानी ‘पारिस्थितिक सभ्यता’ की अवधारणा को अपनाया है, जहाँ पारिस्थितिकी, संस्कृति और विकास को एकीकृत किया गया है। इसमें पर्यावरणीय प्रदर्शन को स्थानीय सरकारों की जवाबदेही से जोड़ा गया है।
- नीति क्रियान्वयन की चुनौतियाँ: हालाँकि नीति-निर्माण आवश्यक है, किंतु उसे प्रभावी ढंग से लागू करना एक जटिल कार्य है। प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं:
- विधान और कार्यान्वयन के बीच का अंतर: उदाहरण के लिये, भारत में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 क्रियान्वित तो है, लेकिन वास्तविक क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार, संसाधनों की कमी और संस्थागत विफलताएँ बाधा उत्पन्न करती हैं।
- राजनीतिक अर्थशास्त्र: पर्यावरणीय निर्णय प्रायः आर्थिक हितों से टकराव रखते हैं। उदाहरण के लिये, कोयला आधारित उद्योगों का संरक्षण और रोज़गार के नाम पर प्रदूषणकारी परियोजनाओं की स्वीकृति।
- लॉबिइंग और प्रतिरोध: बड़े कॉर्पोरेट समूह नीति-निर्माण को प्रभावित करते हैं, जिससे कई बार पर्यावरणीय हितों की अनदेखी होती है। किसानों, आदिवासियों और अन्य समुदायों द्वारा नई नीतियों के प्रति अविश्वास भी एक व्यवहारिक चुनौती है।
- प्रशासनिक अक्षमता और समन्वय की कमी: विभिन्न विभागों, एजेंसियों और सरकार के स्तरों के बीच समन्वय की कमी के कारण नीति की प्रभावशीलता घटती है।
- नीति-निर्माण में सर्वोत्तम अभ्यास: कुछ देशों और संस्थानों ने पर्यावरण नीति में अभिनव एवं समावेशी दृष्टिकोण अपनाकर उल्लेखनीय सफलता हासिल की है।
- जन भागीदारी: नीति-निर्माण में आम नागरिकों, स्थानीय समुदायों, वैज्ञानिकों और गैर-सरकारी संस्थाओं की सहभागिता से नीतियों की स्वीकार्यता एवं प्रभावशीलता बढ़ती है।
- प्रोत्साहन आधारित योजनाएँ (Incentive-Based Mechanisms): भारत में PAT (Perform, Achieve and Trade) या FAME जैसी योजनाएँ बाज़ार-आधारित प्रोत्साहनों के माध्यम से हरित परिवर्तन को बल देती हैं।
- डेटा-संचालित और पारदर्शी नीति प्रक्रिया: नीति-निर्माण में रियल-टाइम डेटा, निगरानी और स्वतंत्र मूल्यांकन तंत्र का प्रयोग आवश्यक है। डिजिटल गवर्नेंस और ओपन डेटा प्लेटफॉर्म्स इसमें सहायक सिद्ध होते हैं।
जीवनशैली और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व
- उपभोक्ता व्यवहार के पर्यावरणीय परिणाम: आज की वैश्विक उपभोग संस्कृति, विशेष रूप से उच्च-मध्यवर्गीय और विकसित समाजों में, अत्यधिक संसाधन उपभोग, अस्थायी वस्तुओं की ओर आकर्षण और अवशिष्ट अपशिष्ट उत्पादन पर आधारित है। इससे न केवल ऊर्जा की मांग बढ़ी है, बल्कि जैव विविधता, जल स्रोतों और वायुमंडल पर भी गंभीर दबाव पड़ा है।
- अतिउपभोग और अपशिष्ट उत्पादन: विश्व बैंक के अनुसार, वैश्विक स्तर पर हर वर्ष लगभग 2.24 अरब टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता है, जिसमें से मात्र 13.5% ही पुनःचक्रण योग्य होता है। इनमें प्लास्टिक, इलेक्ट्रॉनिक और खाद्य अपशिष्ट प्रमुख हैं।
- कार्बन फुटप्रिंट: व्यक्तिगत स्तर पर दैनिक गतिविधियाँ (जैसे निजी वाहनों के बढ़ते उपयोग, एयर कंडीशनर का अत्यधिक उपयोग या मांस-आधारित आहार) ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को बढ़ाती हैं। एक अमेरिकी नागरिक का औसत कार्बन फुटप्रिंट 15 टन प्रति वर्ष से अधिक आकलित किया गया है, जो वैश्विक औसत (4 टन) से बहुत अधिक है।
- तेज़ी से बदलती फैशन संस्कृति (‘Fast Fashion’): सस्ते और तेज़ी से उत्पादित परिधानों की मांग ने वस्त्र उद्योग को दुनिया का दूसरा सबसे प्रदूषणकारी उद्योग बना दिया है, जहाँ यह न केवल जल और रसायनों का अत्यधिक उपयोग करता है, बल्कि विशाल स्तर पर अपशिष्ट भी उत्पन्न करता है।
- खाद्य प्रणाली और परिवहन व्यवहार: प्रोसेस्ड फूड, सुदीर्घ आपूर्ति शृंखलाएँ और निजी गाड़ियों पर अत्यधिक निर्भरता – ये सभी जीवनशैली के ऐसे आयाम हैं जो पर्यावरणीय दबाव को बढ़ाते हैं।
- ‘LiFE’ आंदोलन: पर्यावरण के लिये जीवनशैली: भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2021 में COP26 सम्मेलन के दौरान प्रस्तुत किया गया LiFE आंदोलन इस विचार पर आधारित है कि व्यक्तिगत जीवनशैली में छोटे-छोटे सचेत परिवर्तन भी जलवायु संकट के समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
- ‘प्रो-प्लैनेट पीपल’ की अवधारणा: ऐसा आबादी समूह जो निर्णय लेते समय पर्यावरण को प्राथमिकता देता है और यह केवल सरकारों पर निर्भर नहीं रहता।
- दैनिक जीवन में छोटे परिवर्तन अपनाना, जैसे जल एवं बिजली की बचत, प्लास्टिक के स्थान पर पुन: प्रयोग योग्य सामग्री का उपयोग, सामूहिक परिवहन का प्रयोग और स्थानीय एवं मौसमी खाद्य वस्तुओं का उपभोग।
- संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक मंचों ने भी LiFE को व्यवहारिक जलवायु नीति से जोड़ने की सराहना की है, जिससे यह एक वैश्विक आंदोलन बनता जा रहा है।
- शिक्षा, जागरूकता और युवाओं का नेतृत्व: पर्यावरणीय जागरूकता केवल जानकारी का विषय नहीं है, बल्कि यह मूल्य-आधारित शिक्षा की मांग करता है, जो युवाओं को सोचने, सवाल करने और समाधान खोजने के लिये प्रेरित करे।
- पर्यावरणीय शिक्षा का एकीकरण: भारत के स्कूली पाठ्यक्रम में कक्षा 6 से 12 तक ‘पर्यावरणीय अध्ययन’ शामिल है, हालाँकि इसके व्यवहारिक पहलुओं और स्थानीय परियोजनाओं पर बल देना आवश्यक है।
- ‘इको-क्लब’ और ‘ग्रीन कैंपस’ पहलें: कई विश्वविद्यालयों में संवहनीय पहलें अपनाई गई हैं, जैसे परिसर में सौर ऊर्जा का प्रयोग, कागज़ मुक्त प्रशासन और खाद्य अपशिष्ट प्रबंधन।
- युवाओं की नेतृत्वकारी भूमिका: ग्रेटा थनबर्ग (स्वीडन), लिसिप्रिया कंगुजम (भारत) और वनेसा नाकाते (युगांडा) जैसे बाल/युवा कार्यकर्त्ताओं ने वैश्विक मंचों पर पर्यावरणीय न्याय की आवाज़ बुलंद की है। भारत में ग्रीन स्टार्ट-अप, जैसे Phool.co या Bare Necessities (Zero-waste lifestyle) ने व्यवहारिक विकल्पों की पेशकश की है।
- समुदाय आधारित पर्यावरणीय प्रयास: सामुदायिक प्रयास पर्यावरणीय संरक्षण में स्थायित्व और व्यापक भागीदारी का समावेश करते हैं, विशेष रूप से जब ये पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का समन्वय करते हैं।
- शहरी बागवानी (Urban Gardening): छतों और बालकनियों में खाद्य उत्पादन, न केवल जैव विविधता को बढ़ाता है, बल्कि ‘food miles’ को भी घटाता है।
- शून्य अपशिष्ट पहलें (Zero-Waste Homes): स्वैच्छिक समूहों द्वारा “Refuse, Reduce, Reuse, Recycle, Rot” के सिद्धांतों पर आधारित जीवनशैली का प्रचार किया जा रहा है। उदाहरण के लिये, पुणे का “SWaCHCooperative”।
- स्थानीय स्वच्छता अभियान और झील/नदी पुनरुद्धार: “SayTrees” (बंगलूरू) या जल बिरादरी (Jal Biradari) जैसी पहलें नागरिकों को प्रत्यक्ष रूप से जल और वन संरक्षण में संलग्न करती हैं।
- जनजातीय और पारंपरिक पारिस्थितिकी ज्ञान: पूर्वोत्तर भारत की ‘झूम कृषि’ प्रणाली या हिमालयी समुदायों की जल प्रबंधन प्रणालियाँ आज भी संसाधनों का संवहनीय उपयोग सिखाती हैं।
त्रिकोणीय संतुलन की आवश्यकता और चुनौतियाँ: समाधान की ओर एक समग्र दृष्टिकोण
वर्तमान युग की पर्यावरणीय समस्याएँ जटिल और बहुआयामी हैं, जिनका समाधान केवल किसी एक क्षेत्र— विज्ञान, नीति या जीवनशैली—के प्रयासों से संभव नहीं है। जब तक ये तीनों स्तंभ एक समन्वित ढाँचे में मिलकर कार्य नहीं करते, तब तक सतत् विकास का सपना अधूरा रहेगा। इसीलिये विज्ञान, नीति और जीवनशैली के बीच त्रिकोणीय संतुलन की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई है। विज्ञान पर्यावरणीय जोखिमों की पहचान करता है और तकनीकी समाधान प्रस्तुत करता है। नीति-निर्माण वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में उन्हें लागू करने की व्यवस्था करता है। जीवनशैली वह व्यवहारिक पक्ष है, जहाँ व्यक्ति अपने दैनिक कार्यों में परिवर्तन लाकर संवहनीय विकास को साकार करता है। जब इन तीनों क्षेत्रों में तालमेल होता है, तभी व्यापक और स्थायी परिणाम संभव होते हैं।
- चुनौतियाँ
- संस्थागत जड़त्व और विभागीय विभाजन: नीति-निर्माण में विभिन्न सरकारी संस्थाओं के बीच तालमेल की कमी, धीमी कार्यप्रणाली और अलग-अलग प्राथमिकताएँ निर्णयों को बाधित करती हैं।
- आम लोगों की उदासीनता और भ्रामक जानकारी: पर्यावरणीय मुद्दों को लेकर जागरूकता की कमी और भ्रामक सूचनाएँ (जैसे जलवायु परिवर्तन को लेकर संदेह) लोगों के व्यवहार परिवर्तन में बाधा डालती हैं।
- तकनीकी असमानता और संसाधन-सुलभता का अभाव: विशेषकर अल्प-विकसित और विकासशील देशों में हरित प्रौद्योगिकी तक पहुँच अभी सीमित है, जिससे संवहनीय समाधान का लाभ समान रूप से नहीं मिल पाता।
- आर्थिक दबाव और अल्पकालिक राजनीतिक लक्ष्य: जब चुनावी लाभ के लिये अल्पकालिक राजनीतिक लक्ष्य को प्राथमिकता दी जाती है तो दीर्घकालिक पर्यावरणीय नीतियाँ उपेक्षित हो जाती हैं।
- समाधान
- बहुस्तरीय संवाद और सहयोग: विज्ञान, नीति और नागरिक समाज के बीच खुला एवं निरंतर संवाद आवश्यक है, ताकि पारस्परिक समझ और साझा लक्ष्य का निर्माण हो।
- शिक्षा और जन-जागरूकता: पर्यावरणीय शिक्षा को औपचारिक पाठ्यक्रम और जनसंचार माध्यमों के माध्यम से सशक्त बनाना होगा ताकि जीवनशैली में व्यवहारिक बदलाव लाया जा सके।
- नीतियों में पारदर्शिता और दीर्घकालिक दृष्टि: राजनीतिक नेतृत्व को अल्पकालिक लाभ से आगे बढ़कर पर्यावरणीय संवहनीयता के दीर्घकालिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख होना होगा।
- सुलभ और समावेशी तकनीकी नवाचार: तकनीकों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित कर समुदायों तक उनकी पहुँच सुनिश्चित करनी होगी।
आज, जब पृथ्वी पर पर्यावरणीय संकट के बादल गहराते जा रहे हैं, हमें यह स्वीकार करना होगा कि प्रकृति के बिना प्रगति अधूरी है। वास्तविक विकास वही है जो प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर हो। हमें अपने वैज्ञानिक प्रयासों को टिकाऊ दिशा देनी होगी, नीतियों को पर्यावरण के अनुकूल बनाना होगा और जीवनशैली को सरल, हरित एवं जागरूक बनाना होगा। यही त्रिकोणीय संतुलन हमारी धरती को आने वाली पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रखने की कुंजी है।