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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

पर्यावरण संरक्षण और मानवीय अस्तित्व

पिछले कई दिनों से सारे TV चैनल और अखबार 'बिपरजॉय….. बिपरजॉय…' चिल्ला रहे हैं। यह अरब सागर में उठा एक अति विनाशकारी चक्रवातीय तूफान है जिसने गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान राज्यों तथा पाकिस्तान में कराची में भीषण तबाही मचाई है। भारत में विनाशकारी तूफान पहले भी आते रहे हैं, फिर 'बिपरजॉय' पर इतना कोलाहल क्यों?

2017 में आयी एक शानदार हिन्दी फिल्म "कड़वी हवा" में गुलजार साहब की एक अत्यंत मार्मिक कविता है–

"बंजारे लगते हैं मौसम;
मौसम बेघर होने लगे हैं।
जंगल, पेड़, पहाड़, समंदर;
इंसान सब कुछ काट रहा है,
छील-छील कर खाल ज़मी की;
टुकड़ा-टुकड़ा बाँट रहा है,
आसमान से उतरे मौसम;
सारे बंजर होने लगे हैं,
मौसम बेघर होने लगे हैं।
दरियाओं पर बाँध बने हैं;
फोड़ते हैं सिर चट्टानों से,
'बंदी' लगती है ये ज़मीन;
डरती है अब इंसानों से,
बहती हवा पर चलने वाले;
पाँव पत्थर होने लगे हैं,
मौसम बेघर होने लगे हैं।"

हम यदि पिछले 25-30 वर्षों में अपने इर्द-गिर्द हो रहे परिवर्तनों और उनके परिणामों पर दृष्टि डालें तो कवि द्वारा रचित शब्दों का यह खेल, क्या अत्यंत कटु यथार्थ सिद्ध नहीं होता है?

पर्यावरण क्या है? मेरी समझ से तो यह हमारा अपना घर है, जिसमें हम सभी रहते हैं। यह कुछ ऐसा नहीं है जो हमसे जुदा हो और हमारे घर के बाहर कहीं दूर स्थित हो, और जिसमें होने वाले किसी भी परिवर्तन का हम पर कोई भी प्रभाव न पड़ता हो। कम से कम हमारा भारतीय दर्शन तो यही कहता है।

अथर्ववेद के 12वें अध्याय के प्रथम सूक्त (भूमि सूक्त) की 12वीं ऋचा इस प्रकार उद्धृत है-

"ध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः ।
तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता, भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ।
पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु ॥१२॥"

इसका अर्थ है कि “हे देवी पृथ्वी, आपके भीतर एक पवित्र ऊर्जा का स्रोत है, हमें उस ऊर्जा से पवित्र करें। हे देवी पृथ्वी, आप मेरी माता हैं और पर्जन्य (वर्षा के देवता अर्थात मेघ) मेरे पिता हैं। आप दोनों ही मिलकर हमारा लालन-पालन करते हैं।"

यानि भारतीय दर्शन के अनुसार पर्यावरण से मानव का सम्बन्ध माता-पिता व सन्तान का बताया गया है, अर्थात मानव का अस्तित्व पर्यावरण पर ही निर्भर है। किंतु मानव-बुद्धि की श्रेष्ठता के अहंकार और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी क्षमता की सफलता से ओत-प्रोत होकर इंसान ने स्वयं अपने अस्तित्व के लिये संकट खड़ा कर लिया है।

चक्रवात 'बिपरजॉय' के बारे में यदि कुछ दुर्लभ तथ्यों पर हम नज़र डालें तो हम इसे समझ पायेंगे –

  1. अभी तक अति विनाशक तूफान बंगाल की खाड़ी के क्षेत्र में उठते थे। अरब सागर में इतना विनाशक तूफान पहली दफा ही उठा है।
  2. अरब सागर में अब तक यह सबसे लंबे समय तक बने रहने वाला तूफान है। इस दौरान इसकी विनाशक क्षमता (हवाओं की गति) निरंतर बढ़ती रही। 6th जून को मात्र 55 कि.मी. प्रति घण्टे की हवाओं वाला यह तूफान 8th जून तक 130 कि.मी. प्रति घण्टे, तथा 10th जून तक करीब 196 कि.मी. प्रति घण्टे वाली हवाओं को धारण कर चुका था।
  3. अरब सागरीय क्षेत्र में पानी इतना गर्म पहले कभी नहीं हुआ जितना इस बार।

क्या इन प्रश्नों से हम आँखें चुरा सकते हैं? यह तूफान इतनी विचित्र विशेषताएं क्यों लिये हुए है, क्या हमारे पास इसका उत्तर है?

अब से लाखों वर्ष पूर्व जब हमारे पूर्वज दो पैरों पर खड़ा होना सीख रहे थे और जब उनकी पूँछ हुआ करती थी, तब से लेकर अब तक, जब हम लोग मंगल ग्रह तक पहुँच रहे हैं, पर्यावरण ही हमेशा व्यक्ति के अस्तित्व का आधार रहा है। जब मानव इस धरा पर नहीं था, वायु, जल, वन, वन्य-जीव आदि प्राकृतिक तत्व तब भी पृथ्वी पर फल-फूल रहे थे। यानि पर्यावरण से ही हम हैं, हमसे पर्यावरण नहीं है। बिना हवा, पानी, मिट्टी, वनों और जैव-विविधता के हम लोग अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते, जिसके कारण विश्व की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में इन्हें देवतुल्य मानकर इनकी उपासना की गयी है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इन प्राकृतिक तत्वों में अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा है वरन इन सभी की स्थिति प्रत्येक गुज़रते दिन के साथ बद-से-बदतर होती जा रही है, जिसके लिये स्पष्टत: अनियोजित व अंधाधुंध मानवीय गतिविधियां उत्तरदायी हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं है कि पर्यावरण में होने वाले इस ह्रास का सीधा प्रभाव मनुष्य पर पड़ रहा है और हमारे जीवन-स्तर में वास्तविक रूप से गिरावट आती जा रही है। 2013 की केदारनाथ त्रासदी (जिसके चिन्ह आज 10 वर्षों बाद भी साफ देखे जा सकते हैं) 2017 में अमेरिका में आये अति विनाशक चक्रवात 'इरमा' और 'हार्वे' (सिम्पसन स्केल पर क्रमशः कैटेगरी-4 व कैटेगरी-5 के तूफान), 2019 में अटलांटिक महासागर में उठे बेहद शक्तिशाली समुद्री तूफान 'डोरियन' (कैटेगरी-5 क्षमता का तूफान), 2022 में यूरोप की अविश्वसनीय हीट वेव (जिसने 6000 से अधिक जानें ले ली), 2023 में भारत में आया 'बिपरजॉय' चक्रवात तो सिर्फ बानगी हैं। वास्तविकता इनसे कहीं अधिक भयानक रूप धारण कर रही है। यही कारण है कि मानव-बुद्धि की श्रेष्ठता स्थापित करने और अत्याधिक प्रौद्योगिकी विकास करने के बाद भी हमें प्रत्येक वर्ष पर्यावरण संरक्षण के लिये दुनिया भर के ताम-झाम, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, कॉन्फ्रेंस और सेमिनार, समझौते करने के लिये मजबूर होना पड़ता है।

वास्तव में पर्यावरण में होम्योस्टेसिस क्रियाविधि (अर्थात किसी प्रकार के पारिस्थितिकी असंतुलन को स्वत: ठीक करने वाली स्वचालित क्रियाविधि) कार्य करती है परंतु यदि मानवीय गतिविधियों के फलस्वरुप उत्पन्न पारिस्थितिकी क्षरण की गति इस होम्योस्टेसिस क्रियाविधि को भी पीछे छोड़ दे, उस दशा में हम स्वयं अपना ही अस्तित्व समाप्त करने की इबारत लिख रहे होते हैं।

वर्तमान युग आर्थिक मुनाफे का युग है। किसी भी व्यक्ति या विषय की प्रासंगिकता सिर्फ तभी सिद्ध होती है जब उससे किसी प्रकार का आर्थिक लाभ परिलक्षित होता हो। दुर्भाग्यवश हम भी शायद पर्यावरण संरक्षण के महत्व को तभी समझ सकते हैं जब उसके आर्थिक लाभों को समझ सकें। वास्तव में पर्यावरण हमें प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अनेक ऐसी सेवायें प्रदान करता है जिनका यदि मौद्रिक रूपांतरण किया जाये तो वह राशि इतनी अधिक होगी जिसकी भरपाई श्रेष्ठ मानव-बुद्धि व अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी द्वारा किया जाना भी असंभव होगा। इन्हें 'पारिस्थितिकी सेवायें' (Ecosystem Services) कहते हैं। जैसे –

1. कृषि - मानव जीवन का आधार कृषि है। क्या बिना मृदा और बिना जल के कृषि कार्य की कल्पना की जा सकती है? क्या बिना प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के खाद्यान्न फसलें, पशुओं के हरे चारे, और फलों से लदे वृक्ष हम देख सकते हैं? यहाँ तक कि हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में भी जल की महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है। क्या कोई प्रौद्योगिकी मृदा, जल या प्रकाश संश्लेषण का स्थान ले सकती है?

मृदा में रासायनिक कीटनाशक व उर्वरकों के बेतहाशा प्रयोग से उसमें कैंसर कारक तत्वों की मात्रा खतरनाक ढंग से बढ़ रही है जो सब्जियों व अन्य खाद्य पदार्थों के साथ मानव शरीर व समस्त खाद्य श्रृंखला में भी शामिल हो रही है।

इस बात के पुख्ता प्रमाण दिये जा चुके हैं कि वातावरण में लगातार बढ़ती कार्बन डाई आक्साइड के कारण विश्व स्तर पर प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है।

जल की उपस्थिति के कारण ही नदी घाटी क्षेत्रों में महान सभ्यताएं विकसित हुईं। हालिया रिलीज तमिल फिल्म "पोन्नीयन सेल्वन" में 'पोन्नी' नदी (कावेरी) की महिमा का बखान करते एक गीत की शुरुआत इस प्रकार होती है -

"ओ कावेरिया!! तेरी काया,
अम्बर शीश झुकाए।
धरती के माथे की रेखा दिखे तू;
इठलाती-बलखाती ऐसे चले तू,
वीरों के डेरे हैं तेरे किनारे;
घोड़ों की प्यासों को हैं तेरे धारे,"

लगभग इसी प्रकार स्तुति-गान हम अपनी सभी नदियों के बारे में पढ़ते-सुनते आये हैं। लेकिन वास्तव में हमने अपनी नदियों का क्या हाल बना रखा है? उत्तर प्रदेश में गोमती, सई व केरल में पेरियार, चेलियार, तमिलनाडु में ताम्रपर्नी नदियों में अवैध खनन, औद्योगिक प्रदूषण की मात्रा इतनी बढ़ चुकी है कि इन्हें 'जैविक आपदा (Biological disasters)' घोषित किया जा चुका है। दिल्ली-मथुरा स्ट्रेच में यमुना नदी और कानपुर-वाराणसी स्ट्रेच में गंगा नदी की हालत किसी से छुपी नहीं है। जलवायु परिवर्तन जैसी परिघटना से इस आपदा की तीव्रता में और बढ़ोत्तरी ही होने वाली है, जहाँ नदियों के विलुप्त होने तक की बातें की जा रही हैं।

2. पशुपालन - बहुत दूर न जाते हुये सिर्फ कुछ उदाहरण से इसे समझते हैं। मधुमक्खियों तथा इसी प्रकार के अन्य पराग कीटों की अनुपस्थिति में शुद्ध शहद का निर्माण किस प्रकार होगा? वर्तमान में पूरे विश्व का डेयरी उद्योग दुधारू पशुओं पर टिका हुआ है। क्या कोई प्रौद्योगिकी इन कीटों या दुधारू पशुओं का स्थान ले सकती है? यदि भविष्य में ऐसा होता भी है तो उस प्रौद्योगिकी की कीमत क्या होगी?

3. पारिस्थितिकी संतुलन - यह पारिस्थितिकी सेवाओं का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। निम्न कुछ बिंदुओं पर ध्यान देकर हम इसे समझ सकते हैं –

  • खाद्य श्रृंखला व खाद्य जाल के स्थिरीकरण के संदर्भ में जैव-विविधता की महती भूमिका।
  • भू-जैव-रासायनिक चक्र (Bio Geochemical cycle) को संतुलित बनाये रखने में वनस्पतियों, जीवाणुओं और मृदा की भूमिका।
  • वनों द्वारा वाष्प-उत्सर्जन के ज़रिये किसी क्षेत्र में बारिश लाना तथा आर्द्रता, तापमान का यथोचित स्तर बनाये रखना (माइक्रो-क्लाइमेट प्रबंधन)।
  • वनों द्वारा मिट्टी को बाँधे रखकर मृदा अपरदन रोकना, भूस्खलन व बाढ़ जैसी आपदाएं रोकना (मैंग्रोव्स वनों द्वारा तटीय अपरदन, सूनामी व चक्रवात से भी बचाव) और भू-जल स्तंभ रीचार्ज में भी अहम भूमिका निभाना।

लेकिन वनीय विनाश और पर्यावरण प्रदूषण बढ़ते जाने से ये सारी व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हो रही हैं। इनका सीधा असर मानव जीवन पर पड़ना तय है। केपटाउन में 2018 में 'जीरो वाटर डे' की चेतावनी जारी की गयी थी। दिल्ली एन.सी.आर. क्षेत्र में भी भूजल स्तर खतरनाक ढंग से नीचे जा रहा है।

4. प्रदूषण नियंत्रण व शुद्धिकरण - वनों, यहाँ तक कि छोटे पौधों द्वारा भी, प्रदूषण नियंत्रण व वायु शुद्धिकरण में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है जो विश्व के सर्वोत्तम एयर प्यूरीफायर द्वारा किया जाना भी असंभव है। इसी प्रकार आर्द्र भूमियों द्वारा भी जल शोधन का सस्ता व प्रभावी विकल्प कोई भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं दे सकता। पूर्वी कलकत्ता आर्द्र भूमि इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है।

5. वैश्विक जलवायु स्थिरीकरण - हमारे महासागर तथा महासागरीय धाराएं वैश्विक जलवायु हेतु अति महत्वपूर्ण हैं। मॉनसून जैसी अरबों लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाली परिघटना पूर्णतः इन्हीं पर आश्रित है। ये प्रतिवर्ष ग्रीनहाउस गैसों का 30% भाग भी अवशोषित करते हैं। परंतु सागरीय जल के निरंतर प्रदूषित होने और लगातार बढ़ते ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के फलस्वरुप सागरीय जल के गुण-धर्म तेजी से बदल रहे हैं जिससे पूरी मानव-जाति के सम्मुख अस्तित्व का संकट आ गया है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी का ऊष्मा बजट भी लगातार बिगड़ रहा है जिससे प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति व तीव्रता भी बढ़ रही है।

पर्यावरण की उपरोक्त भूमिकाओं को देखते हुये ही UN ने 2020-2030 की अवधि को "पारितंत्र पुनर्स्थापना का दशक" के तौर पर पहचाना है और 2022 में विश्व के कुल 10 पारितंत्र पुनर्स्थापना प्रोजेक्ट्स को मान्यता व सहायता देने का निर्णय लिया है। इनसे विश्व में करीब 68 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर उनके खोये हुये प्राकृतिक पारितंत्र को न सिर्फ बहाल किया जायेगा बल्कि कुल 15 मिलियन से अधिक रोज़गार सृजित किये जा सकेंगे। ये प्रोजेक्ट्स इस प्रकार हैं -

  1. त्रि देशीय अटलांटिक वन परियोजना समझौता (ब्राजील, पैरागुए, अर्जेंटीना)।
  2. अबूधाबी समुद्री क्षेत्र परियोजना।
  3. अफ्रीका के 11 देशों की संयुक्त महान हरित दीवार परियोजना।
  4. नमामि गंगे परियोजना (भारत)।
  5. मध्य अफ्रीका व केंद्रीय एशियाई देशों में संचालित बहु-देशीय पर्वतीय क्षेत्र पुनर्स्थापना कार्यक्रम।
  6. प्रशांत क्षेत्र में द्वीपीय क्षेत्र पुनर्स्थापना परियोजना।
  7. यूरेशिया घास क्षेत्र में संचालित 'अल्टिन डाला' परियोजना।
  8. केंद्रीय अमेरिका शुष्क कॉरिडोर परियोजना (6 देशों का संयुक्त समझौता)।
  9. इंडोनेशिया का 'बिल्डिंग विथ नेचर' कार्यक्रम।
  10. चीन का शान-शुई कार्यक्रम।

फिल्म 'कड़वी हवा' के एक दृश्य में छोटी बच्ची कुहू रात को सोते समय अपने दादाजी हैदू से बताती है "बाबा, हमाये क्लास में एक लड़का कह रहो कि साल में दुई मौसम होवे - गर्मी और सर्दी।….. फिर जब सब जने हँस दिये तो माटसाब डपट के बोले "बरसात को कहाँ गयो?" लड़का बोला " माटसाब, बरसात तो साल में बस दो-चार दिन ही पड़त है।"

हैदू (भारी आवाज में) - "सही कही उसने।"

कुहू - "हमाई किताब में तो चार मौसम लिखो है।"

हैदू - "पहले होते थे।"

कुहू - "तो अब काहे नहीं?"

हैदू चुपचाप सो जाता है। कुहू भी फिर सो जाती है।

  हर्ष कुमार त्रिपाठी  

हर्ष कुमार त्रिपाठी ने पूर्वांचल विश्वविद्यालय से बी. टेक. की उपाधि प्राप्त की है तथा DU के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से भूगोल विषय में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार के अधीन Govt. Boys. Sr. Sec. School, New Ashok Nagar में भूगोल विषय के प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं।

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