जलवायु परिवर्तन और भारी वर्षा - भारत के डेल्टा क्षेत्रों की संवेदनशीलता
- 10 Jun, 2025

वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन सबसे गंभीर वैश्विक चुनौतियों में से एक है, जिसका प्रभाव पृथ्वी के सभी पारिस्थितिक तंत्र और मानव समाज पर गहन रूप से पड़ रहा है। वैश्विक तापमान में वृद्धि, समुद्र स्तर में वृद्धि और मौसमी पैटर्न में बदलाव जैसे प्रभाव दुनिया के अनेक हिस्सों में प्रत्यक्ष रूप से देखे जा रहे हैं। एक प्रमुख कृषि प्रधान देश के रूप में भारत भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित है, जहाँ इसकी जीवन-शैली और अर्थव्यवस्था का एक बड़ा भाग मानसून पर निर्भर है। वर्तमान में भारत में भारी वर्षा की आवृत्ति में वृद्धि, मानसून के अस्थिर व्यवहार और बाढ़ जैसी आपदाओं में वृद्धि देखी जा रही है। ये बदलाव जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष परिणाम हैं, जिनका गंभीर असर देश के डेल्टा क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है। डेल्टा क्षेत्र नदियों के मुहाने पर स्थित होते हैं जहाँ नदी का मीठा जल समुद्र से मिलता है। भारत में गंगा-ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, कृष्णा, महानदी और कावेरी जैसे प्रमुख डेल्टा क्षेत्र मौजूद हैं, जिनका भौगोलिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यंत महत्त्व है।
डेल्टा क्षेत्र अपनी विशेष भौगोलिक संरचना, समुद्र से निकटता और नदियों के संगम की वजह से प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं। समुद्र स्तर में वृद्धि, मानसून की अनियमितता और भारी वर्षा की तीव्रता जैसे जलवायु कारक इन क्षेत्रों में बाढ़ के जोखिम को बढ़ाते हैं। इसके साथ ही मानवीय हस्तक्षेप (जैसे नगरीकरण), नदी संरक्षण की कमी, बांधों का असंतुलित निर्माण एवं पारिस्थितिक तंत्र का क्षरण इस संवेदनशीलता को और तीव्र करते हैं।
भारत के प्रमुख डेल्टा क्षेत्रों की भौगोलिक एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि
भारत की प्रमुख नदियाँ अपने प्रवाह के अंतिम चरण में समुद्र में मिलने से पूर्व विशाल मात्रा में तलछट जमा कर विस्तृत, उपजाऊ और जटिल डेल्टा क्षेत्रों का निर्माण करती हैं। ये डेल्टा क्षेत्र न केवल देश की खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण आजीविका और पारंपरिक जीवनशैली के आधार हैं बल्कि भौगोलिक रूप से संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र भी हैं। जलवायु परिवर्तन, भारी वर्षा और समुद्र स्तर में वृद्धि के कारण ये क्षेत्र विभिन्न पर्यावरणीय एवं सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
प्रमुख डेल्टा क्षेत्र
- गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा
- जैव-विविधता से भरपूर यह डेल्टा क्षेत्र भारत (पश्चिम बंगाल) और बांग्लादेश में विस्तृत है। इसकी सबसे विशिष्ट विशेषता सुंदरबन के मैंग्रोव वन हैं, जो वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक तटीय बफ़र के रूप में कार्य करते हैं। इस क्षेत्र में धान, जूट एवं गन्ने की खेती, मत्स्य पालन और मधु संग्रहण आजीविका के प्रमुख स्त्रोत हैं। उच्च जनसंख्या घनत्व, समुद्र जलस्तर में वृद्धि और चक्रवातों की तीव्रता के कारण यह क्षेत्र अत्यधिक जोखिमग्रस्त हो चुका है। सुंदरबन का क्षरण जैविक असंतुलन और मानव विस्थापन को बढ़ावा दे रहा है।
- गोदावरी डेल्टा
- आंध्र प्रदेश में स्थित यह डेल्टा क्षेत्र प्रायद्वीपीय भारत के सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है। यहाँ धान, गन्ना, मिर्च और तंबाकू की व्यापक खेती होती है। यह क्षेत्र आधुनिक सिंचाई प्रणालियों और नहर नेटवर्क से समृद्ध है, जिससे कृषि पर निर्भरता और भी बढ़ गई है। मछली पकड़ना और कुटीर उद्योग ग्रामीण जीवन का अभिन्न अंग हैं, लेकिन तटीय कटाव और जलवायु परिवर्तन से प्रेरित बाढ़ यहाँ की स्थिरता के लिये चुनौती बन रहे हैं।
- कृष्णा डेल्टा
- कृष्णा नदी द्वारा निर्मित यह डेल्टा क्षेत्र धान उत्पादन के लिये राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्व रखता है। विजयवाड़ा से मछलीपट्टनम तक विस्तृत यह क्षेत्र उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी, विस्तृत सिंचाई नेटवर्क और सघन बस्तियों के लिये प्रसिद्ध है। कृषि के अतिरिक्त मछली पालन, डेयरी और कुटीर उद्योग यहाँ के आर्थिक तंत्र को सहारा देते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण असमय वर्षा, समुद्री तूफानों की तीव्रता और खारे पानी के प्रवेश की घटनाएँ बढ़ रही हैं, जो दीर्घकालिक कृषि उत्पादकता के लिये खतरा उत्पन्न कर रही हैं।
- कावेरी डेल्टा
- तमिलनाडु के पूर्वी तट पर स्थित यह डेल्टा क्षेत्र ‘दक्षिण भारत का धान्य भंडार’ कहलाता है। यह तंजावुर, तिरुचिरापल्ली और नागपट्टिनम जैसे ज़िलों में विस्तृत है और ऐतिहासिक रूप से चोल वंश की सिंचाई व्यवस्था के लिये प्रसिद्ध रहा है। यहाँ चावल, गन्ना, नारियल और केले की वृहत खेती होती है। अत्यधिक कृषि निर्भरता के कारण यहाँ की आर्थिक विविधता सीमित है, जिससे जलवायु संकट की स्थिति में जोखिम और बढ़ जाता है।
- महानदी डेल्टा
- ओडिशा राज्य के कटक, पुरी और केंद्रपाड़ा ज़िलों में विस्तृत यह डेल्टा क्षेत्र पारंपरिक रूप से धान, तिलहन और दलहन की खेती के लिये जाना जाता है। इसके साथ ही नदी एवं खाड़ी मत्स्य पालन स्थानीय आजीविका का अंग है। यह क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से सपाट और समुद्र के समीप होने के कारण नियमित रूप से बाढ़ से प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन के कारण यहाँ चक्रवातों की आवृत्ति एवं तीव्रता में वृद्धि देखी गई है, जिससे फसल क्षति, विस्थापन और स्वास्थ्य संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
- अन्य डेल्टा: नर्मदा, ताप्ती और माही
- पश्चिम भारत की ये नदियाँ संकीर्ण घाटियों से होकर समुद्र में गिरती हैं, जिससे अपेक्षाकृत छोटे और सीमित डेल्टा क्षेत्रों का निर्माण होता है। भले ही इनका आकार छोटा हो, फिर भी ये क्षेत्र औद्योगिक गतिविधियों, शहरीकरण और समुद्री मत्स्यग्रहण के कारण सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
जलवायु परिवर्तन और भारी वर्षा के रुझान
- भारी वर्षा की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता
- IMD के विश्लेषण के अनुसार, विशेष रूप से वर्ष 2000 के बाद भारत के कई हिस्सों में 24 घंटे की अवधि में होने वाली भारी वर्षा की घटनाओं में लगातार वृद्धि देखी गई है। यह प्रवृत्ति विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों, तटीय राज्यों और डेल्टा क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट रही है। ऐसी वर्षा प्रायः एक लघु समयांतराल में प्रकट होती है, जिससे बाढ़, जलजमाव, मिट्टी का कटाव और फसल क्षति जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। IPCC की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (AR6) के अनुसार, दक्षिण एशिया में मानसून पहले की तुलना में कम पूर्वानुमान योग्य होता जा रहा है। पारंपरिक 'समान वितरण' के बजाय वर्षा अब अधिक केंद्रित, अनियमित और असंतुलित हो गई है, जिससे मौसम चक्र का संतुलन भी प्रभावित हो रहा है। यह न केवल पारिस्थितिकीय संतुलन को बाधित करता है बल्कि मानव स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और आपदा जोखिम को भी गहरा करता है।
- असमान मानसूनी वितरण: अतिवृष्टि और सूखे का सह-अस्तित्व
- वर्तमान परिदृश्य में एक ओर जहाँ कुछ क्षेत्रों में लगातार अतिवृष्टि हो रही है, वहीं कुछ अन्य क्षेत्र दीर्घकालिक सूखे का सामना कर रहे हैं। 'वैकल्पिक चरम स्थितियों' (alternating extremes) का यह परिदृश्य डेल्टा क्षेत्रों में विशेष रूप से गंभीर होता जा रहा है। ये क्षेत्र जो पहले निरंतर कृषि और स्थिर जल आपूर्ति के लिये जाने जाते थे, अब अस्थिर जल उपलब्धता और फसल असफलता के संकट से जूझ रहे हैं।
- समुद्र स्तर वृद्धि और तटीय जोखिम
- जलवायु परिवर्तन का एक और गंभीर प्रभाव वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि के रूप में प्रकट हुआ है, जो डेल्टा क्षेत्रों के लिये एक प्रत्यक्ष एवं अस्तित्वगत संकट है। IPCC रिपोर्टों और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के आकलनों के अनुसार, बीते सौ वर्षों में समुद्र का स्तर औसतन 20 से 25 सेंटीमीटर तक बढ़ा है और वर्तमान रुझानों के अनुसार यह दर तेज़ हो रही है। इसका सीधा प्रभाव गंगा-ब्रह्मपुत्र, महानदी जैसे डेल्टा क्षेत्रों पर देखा जा रहा है, जहाँ तटीय कटाव, खारे जल का प्रवेश और बाढ़ की आवृत्ति में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। समुद्र स्तर में वृद्धि न केवल स्थानीय जैव विविधता को नष्ट कर रही है बल्कि तटीय आबादी के स्थायी विस्थापन की आशंका भी बढ़ा रही है।
- चक्रवातों की तीव्रता और बढ़ती विनाश क्षमता
- जलवायु परिवर्तन के कारण बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में समुद्री सतह का तापमान बढ़ रहा है, जिससे चक्रवातों की ऊर्जा, तीव्रता और जीवनकाल में वृद्धि हो रही है। भारत में हाल के वर्षों में आए चक्रवात, जैसे फानी (2019), अम्फान (2020), यास (2021) और मोचा (2023) ने न केवल आर्थिक दृष्टि से भारी क्षति पहुँचाई, बल्कि लाखों लोगों को विस्थापन के लिये भी विवश किया। वैज्ञानिक प्रमाण दर्शाते हैं कि समुद्र की गर्म सतह अधिक ऊर्जा उत्पन्न करती है, जिससे चक्रवात अधिक तेज़ी से विकसित होते हैं और अधिक विनाशकारी साबित होते हैं।
वर्तमान नीतियाँ, योजनाएँ और प्रबंधन प्रयास
भारत में डेल्टा क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन और बाढ़ जोखिम से निपटने के लिये केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कई नीतिगत और प्रबंधन प्रयास किये जा रहे हैं।
- सरकारी नीतियाँ:
- राष्ट्रीय जल नीति, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के दिशा-निर्देश एवं तटीय सुरक्षा नीति प्रमुख हैं। राष्ट्रीय जल नीति में जल संरक्षण, जल संसाधन प्रबंधन और सतत् विकास पर बल दिया गया है, जो डेल्टा क्षेत्र के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के अंतर्गत बाढ़ के जोखिम को कम करने, पूर्व-चेतावनी प्रणाली विकसित करने और राहत कार्यों को प्रभावी बनाने के लिये योजनाएँ तैयार की गई हैं।
- जलवायु अनुकूलन और आपदा जोखिम में कमी के कार्यक्रम:
- भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन योजना’ (NCCAP) के तहत डेल्टा क्षेत्र के लिये विशेष प्रावधान किये हैं। इस योजना के अंतर्गत मैंग्रोव संरक्षण, तटीय बाढ़ अवरोध का निर्माण और पारिस्थितिक तंत्र की पुनर्स्थापना जैसे कदम शामिल हैं। आपदा जोखिम कम करने के लिये स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में शहरी जल निकासी को बेहतर बनाने और जल संचयन प्रणालियों को स्थापित करने की दिशा में कार्य चल रहा है।
- स्थानीय स्तर पर सामुदायिक भागीदारी और तकनीकी उपाय:
- डेल्टा क्षेत्र की सुरक्षा में स्थानीय समुदायों की भागीदारी बढ़ाई जा रही है। ‘सामुदायिक आधारित आपदा जोखिम प्रबंधन’ (CBDRM) कार्यक्रम इसके उदाहरण हैं। इसके तहत स्थानीय लोगों को आपदा तैयारी, बचाव और पुनर्वास की शिक्षा दी जाती है। तकनीकी उपायों में बाढ़ पूर्व-चेतावनी प्रणाली, GIS एवं रिमोट सेंसिंग आधारित मॉनिटरिंग और ड्रोन सर्वेक्षण शामिल हैं।
- क्षेत्रीय जल प्रबंधन और संरक्षण:
- बांध, बैराज और जलाशयों के प्रबंधन में सुधार के लिये विभिन्न प्रयास किये जा रहे हैं। डेल्टा क्षेत्र में मैंग्रोव वन संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, क्योंकि ये प्राकृतिक बाढ़ अवरोधक के रूप में कार्य करते हैं। मैंग्रोव पुनरुद्धार से तटीय कटाव को कम करने में मदद मिलती है।
प्रभावी बचाव रणनीतियाँ और सुझाव
- जल निकासी और बाढ़ नियंत्रण के लिये तकनीकी उपाय:
- डेल्टा क्षेत्रों में बाढ़ नियंत्रण के लिये उन्नत जल निकासी प्रणालियाँ विकसित की जानी चाहिये। यह शहरों और ग्रामीण इलाकों में जलभराव रोकने में मदद करती हैं। इसके लिये बहु-स्तरीय जल निकासी नेटवर्क, फ्लड-प्रूफ निर्माण, जलाशय आदि का निर्माण महत्त्वपूर्ण है। नदी तटबंधों, बांधों और नहरों की नियमित देखरेख एवं सुधार से बाढ़ के प्रभाव को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही जल प्रबंधन के लिये आधुनिक तकनीकों, जैसे GIS, रिमोट सेंसिंग और मौसम पूर्वानुमान मॉडल का उपयोग आवश्यक है।
- प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण:
- मैंग्रोव वन एवं दलदली क्षेत्र डेल्टा पारिस्थितिकी के प्राकृतिक बफ़र हैं जो तटीय कटाव को रोकते हैं और बाढ़ के प्रभाव को कम करते हैं। इन प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और पुनर्स्थापन जलवायु परिवर्तन के प्रति डेल्टा क्षेत्रों की सुरक्षा में केंद्रीय भूमिका निभाता है। इनके विनाश को रोकने के लिये कड़े नियम लागू किये जाने चाहिये और स्थानीय समुदायों को संरक्षण में वृहत् रूप से शामिल किया जाना चाहिये।
- कृषि प्रणालियों में जलवायु-प्रतिरोधी सुधार:
- डेल्टा क्षेत्रों में कृषि आधारित आजीविका प्रमुख है। इस परिदृश्य में जलवायु-प्रतिरोधी कृषि तकनीकों को अपनाना आवश्यक है। इसमें जल-संवेदनशील फसलें, सूखा एवं बाढ़ प्रतिरोधी क़िस्म, बहु-फसली प्रणाली और सूक्ष्म सिंचाई तकनीकें शामिल हैं। इसके साथ ही जैविक खेती और मृदा संरक्षण के उपाय भी अपनाने चाहिये, ताकि भूमि की उर्वरता बनी रहे।
- आपदा तैयारी, चेतावनी प्रणाली और आपातकालीन प्रतिक्रिया तंत्र:
- जलवायु आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिये आपदा तैयारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पूर्व-चेतावनी प्रणालियाँ, मोबाइल आधारित अलर्ट और स्थानीय स्तर पर आपदा प्रतिक्रिया टीमों का गठन आवश्यक है। सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रम, नियमित आपदा ड्रिल और बचाव संसाधनों की उपलब्धता से प्रतिक्रिया समय को कम किया जा सकता है।
- सामाजिक सुरक्षा और पुनर्वास योजनाएँ:
- बाढ़ प्रभावित परिवारों के लिये सामाजिक सुरक्षा नेटवर्क विकसित करना आवश्यक है। इसमें बीमा योजनाएँ, आपदा राहत कोष, रोज़गार और पुनर्वास कार्यक्रम शामिल हैं। विशेष रूप से कमज़ोर वर्गों, जैसे महिला, बच्चे और वृद्धों के लिये लक्षित योजनाएँ बनानी चाहिये, ताकि वे आपदा के बाद त्वरित रूप से पुनःस्थापित हो सकें।
- नीति सुधार और दीर्घकालिक सतत् विकास मॉडल:
- नीति स्तर पर जलवायु प्रभावों को ध्यान में रखते हुए क्षेत्रीय विकास योजना का प्रभावी प्रबंधन आवश्यक है, जिसमें आर्थिक विकास पर्यावरण सुरक्षा और सामाजिक समरसता का संतुलन सुनिश्चित किया जा सके। दीर्घकालिक दृष्टि से स्मार्ट सिटी, हरित ऊर्जा और पारिस्थितिक तंत्र आधारित प्रबंधन को प्राथमिकता देना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिसमें राज्य और केंद्र सरकार के बीच बेहतर समन्वय तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग भी आवश्यक है।