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अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बनाम राष्ट्रवाद: 21वीं सदी की सबसे बड़ी वैचारिक टकराहट

  • 18 Nov, 2025

21वीं सदी की सबसे बड़ी वैचारिक टकराहटें; प्रौद्योगिकी एवं समाज, लोकतंत्र एवं सत्तावाद और जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया जैसे विषयों पर केंद्रित रही हैं। इनमें एक विषय ऐसा है जो अलग आयाम लेकर हमारे सामने प्रस्तुत होता है तथा वह है वैश्वीकरण या अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और राष्ट्रवादके मध्य संबंध कैसे होने चाहिये। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और राष्ट्रवाद पर होने वाली बहस मूलतः उसी व्यापक प्रश्न का विस्तार है, जिसमें वैश्वीकरण की चुनौतियों और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के बीच संतुलन खोजने की कोशिश की जाती है। इस पर चर्चा पर आगे बढ़ने से पहले हमें यह समझना होगा कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का ठीक ठीक आशय क्या है।

विचार के स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत और व्यवहार का एक प्रमुख घटक है। इसमें देश साझा उद्देश्यों को प्राप्त करने और उन समस्याओं का समाधान करने को सहयोग करते हैं जो राष्ट्रीय सीमाओं से परे चली जाती हैं। उदाहरण के लिये, जलवायु परिवर्तन, महामारी और आर्थिक विकास। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तब होता है जब देश साझा चुनौतियों का समाधान करने एवं आपसी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये मिलकर काम करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एक विशिष्ट प्रणाली के माध्यम से आकार लेता है। इसका आशय यह हुआ कि सहयोग, विभिन्न औपचारिक और अनौपचारिक माध्यमों से होता है, जिनमें संधियाँ, अंतर्राष्ट्रीय संगठन एवं क्षेत्रीय समझौते शामिल हैं। ऐसी प्रणाली को बनाने की प्रेरणा का स्रोत अपने देश, अपने समाज के हित में होता है। यह पारस्परिक हित एवं इस मान्यता से प्रेरित होता है कि सामूहिक प्रयास, प्राय: देशों द्वारा अकेले किये प्रयासों की तुलना में अनुकूल परिणाम देते हैं। यह प्राय: व्यापार, स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा जैसे कई क्षेत्रों में सहयोग हो सकता है।

अब दूसरा महत्त्वपूर्ण शब्द समझते हैं। राष्ट्रवाद का आशय क्या है। यह एक ऐसी विचारधारा है जो राष्ट्रकी अवधारणा पर केंद्रित है, जो एक साझा पहचान वाले लोगों का एक समूह है, जिसमें प्राय: एक समान भाषा, संस्कृति और इतिहास होता है। इसमें अपने राष्ट्र की मज़बूत पहचान को बनाए रखने और उसके हितों की सक्रिय रूप से रक्षा व संवर्द्धन करने का भाव शामिल होता है। राष्ट्रवाद एक ऐसी विचारधारा है जो अपने राष्ट्र के प्रति प्राथमिकता, निष्ठा और समर्पण को सर्वोपरि मानती है। उसके लिये किसी अन्यन का स्थान सीमित या नहीं के बराबर है। राष्ट्रवाद राज्य संप्रभुता, या किसी राज्य के बाहरी हस्तक्षेप के बिना स्वयं शासन करने के अधिकार की अवधारणा को पुष्ट करता है। इससे उन अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर संदेह उत्पन्न हो सकता है जिन्हें राष्ट्रीय अधिकार को सीमित करने वाला माना जाता है।

राष्ट्रवाद एक जटिल विचारधारा है जो राष्ट्रीय एकता और गौरव का स्रोत बन सकती है। यह नागरिकों में देशभक्ति और साझा पहचान की भावना को गहरा करता है तथा राष्ट्रीय पर्वों, खेल आयोजनों एवं विशिष्ट अवसरों पर सामाजिक एकजुटता को मज़बूत बनाता है। तब वे एकता का प्रतीक बन जाते हैं और नागरिकों को राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के लिये प्रेरित करते हैं। यह गौरव की भावना को बढ़ावा देती है और विकास की दिशा में ऊर्जा प्रदान करती है। जब राष्ट्रवाद चरम पर पहुँच जाता है, तो यह विभाजनकारी शक्ति बन जाता है। यह संघर्ष, सामाजिक विभाजन और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा एवं बहिष्कार को जन्म दे सकता है। नाजी जर्मनी या फासीवादी इटली में देखा गया कि अंधराष्ट्रवाद ने घृणा एवं हिंसा को बढ़ावा दिया। अतिवादी राष्ट्रवाद धार्मिक या जातीय आधार पर अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेलता है, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है और लोकतंत्र कमज़ोर होता है। राष्ट्रवाद का आक्रामक रूप, राष्ट्र की श्रेष्ठता के दावों को प्रोत्साहित करते हैं, जो विस्तारवाद और अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों का कारण बनते हैं। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों में यूरोपीय राष्ट्रवाद की भूमिका इसका प्रमाण है, जहाँ सीमाओं का विस्तार एवं संसाधनों पर नियंत्रण की होड़ ने विश्वयुद्ध को जन्म दिया। 

आर्थिक रूप से, राष्ट्रवाद संरक्षणवादी नीतियों में प्रकट होता है। उदाहरण के लिये, टैरिफ और आयात प्रतिबंध। ये घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से बचाते हैं। अमेरिका में 'अमेरिका फर्स्ट' नीति या भारत की 'मेक इन इंडिया' पहल इसके उदाहरण हैं। ये नीतियाँ रोज़गार सृजन और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देती हैं, लेकिन वैश्विक व्यापार को बाधित करती हैं। राष्ट्रवाद राष्ट्र की अनोखी संस्कृति, भाषा, परंपराओं और मूल्यों के संरक्षण पर ज़ोर देता है। यह साहित्य, कला और शिक्षा के माध्यम से सांस्कृतिक विरासत को जीवंत बनाए रखता है। इससे सांस्कृतिक गौरव बढ़ता है, लेकिन यदि यह बहुसांस्कृतिक समाजों में थोपा जाए, तो यह विविधता को दबाकर सांस्कृतिक एकरूपता को बढ़ावा दे सकती है। संक्षेप में राष्ट्रवाद का संतुलित रूप समाज को सशक्‍त बनाता है, जबकि इसका अतिवाद विनाशकारी होता है। 

रेफ़्रेम किया हुआ वाक्य — हिंदी में:

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और राष्ट्रवाद के संबंध को देखें तो स्पष्ट होता है कि जहाँ वैशिक सहयोग साझा प्रयासों पर बल देता है, वहीं राष्ट्रवाद राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखता है। इसी कारण दोनों के बीच स्वाभाविक रूप से एक मूलभूत तनाव उभर आता है। राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, वैश्विक मामलों में दो प्रतिस्पर्द्धी दृष्टिकोण हैं जो प्राय: परस्पर विरोधी सिद्ध होते हैं। राष्ट्रवाद राष्ट्रीय हितों, संप्रभुता और स्वायत्तता पर ज़ोर देता है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग वैश्विक चुनौतियों के समाधान के लिये देशों में समन्वय एवं समझौते पर आधारित होता है। यह टकराव आधुनिक विश्व में स्पष्ट है, जहाँ जलवायु परिवर्तन, महामारी और व्यापार के मुद्दे सीमाओं से परे हैं, लेकिन राष्ट्रवादी नीतियाँ उन्हें बाधित करती हैं। संयुक्त राष्ट्र या विश्व व्यापार संगठन जैसे संस्थान, सहयोग को बढ़ावा देते हैं, परंतु राष्ट्रवादी नेता इन्हें राष्ट्रीय संप्रभुता पर अतिक्रमण मानते हैं। यह द्वंद्व न केवल नीतिगत स्तर पर बल्कि वैचारिक रूप से भी गहरा है, जो वैश्वीकरण की प्रगति को प्रभावित करता है।

इस टकराव का मूल परस्पर विरोधी प्राथमिकताएँ’, हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिये राज्यों को साझा हितों के लिये त्याग करने होते हैं, जो राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से अस्वीकार्य हो सकता है। राष्ट्रवाद संकीर्ण राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता है जैसे घरेलू अर्थव्यवस्था या सुरक्षा, जबकि वैश्विक समझौते लंबी अवधि के लाभ के लिये हितों को छोड़ने के लिये कहते हैं। जलवायु वार्ता इसका प्रमुख उदाहरण है। पेरिस समझौते में देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने का वादा किया, लेकिन राष्ट्रवादी सरकारों ने इसे नहीं माना क्योंकि यह घरेलू कोयला उद्योग और नौकरियों को प्रभावित करता था। भारत जैसे विकासशील देशों में भी, जलवायु नीतियाँ राष्ट्रीय विकास को बाधित करने वाली मानी जाती हैं, जिससे वैश्विक सहमति कठिन हो जाती है। 

विश्वास का क्षरण, एक और प्रमुख मुद्दा है। राष्ट्रवाद 'हम बनाम वे' की मानसिकता को जन्म देता है, जो पड़ोसी देशों या अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को दुश्मन के रूप में चित्रित करता है। इससे कूटनीतिक विश्वास कम होता है, जो समझौतों की आधारशिला है। उदाहरण के लिये, ब्रेक्ज़िट, ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर होना राष्ट्रवादी भावनाओं से प्रेरित था, जिसने यूरोपीय एकता को तोड़ा और व्यापार समझौतों में अविश्वास उत्पन्न किया। चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध ने भी वैश्विक आपूर्ति शृंखला को बाधित किया। यह मानसिकता, गठबंधनों को कमज़ोर करती है। जैसे अमेरिकी की वर्तमान नीतियाँ, सहयोगियों के मन में संदेह जगाती हैं। परिणामस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ जैसे परमाणु अप्रसार संधि लागू करना कठिन हो जाता है, क्योंकि राष्ट्रवादी नेता उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के विरुद्ध मानते हैं।

राष्ट्रवाद के बढ़ने से वैश्विक शासन में बाधाएँ और स्पष्ट होती हैं। कई विचारक अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर संदेह करते हैं। वे इन्हें 'वैश्विक श्रेष्ठवर्ग' का प्रतीक मानते हैं, जो राष्ट्रीय संप्रभुता नष्ट करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की आलोचना कोविड महामारी में हुई। तब राष्ट्रवादी मीडिया ने उसे चीन-समर्थक बताया। इससे बहुपक्षवाद कमज़ोर होता है और वैश्विक समस्याएँ अनसुलझी रह जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो अधिकार का दुरुपयोग भी राष्ट्रवादी हितों से प्रेरित है, जो सहयोग को बाधित करता है।

इस टकराव को ऐतिहासिक संदर्भ रेखांकित करता है। 20वीं सदी की शुरुआत में यूरोपीय राष्ट्रवाद ने प्रथम विश्व युद्ध की नींव रखी। साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएँ सहयोग की कमी से टकराईं। नाजी जर्मनी का चरम राष्ट्रवाद द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बना, जिसमें 'आर्यन श्रेष्ठता' के नाम पर विस्तारवाद हुआ। इनसे सबक लेकर वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई, जो सहयोग को संस्थागत बनाने का प्रयास था। शीत युद्ध में भी राष्ट्रवादी ब्लॉक ने भी वैश्विक शांति को बाधित किया।

इसके बाद भी, संभावित सह-अस्तित्व का अवसर मंदिम नहीं पड़ता। कुछ विद्वान जैसे एंथनी स्मिथ तर्क देते हैं कि 'नागरिक राष्ट्रवाद', अंतर्राष्ट्रीयतावाद के साथ सह-अस्तित्व में रह सकता है, जहाँ राष्ट्रीय हित वैश्विक हितों का विस्तार हों। जैसे यूरोपीय संघ में जर्मनी राष्ट्रीय पहचान बनाए रखते हुए यूरोपीय सहयोग में भाग लेते हैं। भारत की 'वसुधैव कुटुंबकम्' की अवधारणा राष्ट्रवाद को वैश्विक परिवारवाद से जोड़ती है। हालाँकि यह संतुलन संदर्भ-निर्भर है। विकसित देशों में यह आसान है, जबकि विकासशील देशों में संसाधन की कमी से राष्ट्रवाद प्रबल होता है। जलवायु सम्मेलनों में भारत सरीखे देश 'सामान्य लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियाँ' का तर्क देते हैं, जो राष्ट्रवाद और सहयोग का मिश्रण है।

कुल मिलाकर, राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का संबंध गतिशील है। संतुलित राष्ट्रवाद वैश्विक सहयोग को मजबूत बना सकता है, लेकिन अतिवाद इसे नष्ट करता है। भविष्य में, समझ के विस्तार और कूटनीति से इस टकराव को कम किया जा सकता है, ताकि वैश्विक चुनौतियाँ सामूहिक रूप से हल हों। अन्यथा, विश्व एक बार फिर विभाजन की खाई में गिर सकता है। 

राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, के टकराव के आलोक में वैश्वीकरण के पुनर्परिभाषण में भारत की मध्यस्थ भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कभी एकतरफा आर्थिक एकीकरण के रूप में देखे गया वैश्वीकरण राष्ट्रवाद की लहरों से प्रभावित होकर पुनर्परिभाषित हो रहा है। इसमें भारत एक संतुलित मध्यस्थ के रूप में उभर रहा है, जो अपनी राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हुए वैश्विक सहयोग को मज़बूत बनाने का प्रयास कर रहा है। भारत की विदेश नीति 'रणनीतिक स्‍वायत्‍ता' पर आधारित है, जो अमेरिका, चीन और रूस जैसी महाशक्तियों के बीच संतुलन बनाए रखते हुए ग्लोबल साउथ या वैश्विक दक्षिण की आवाज़ को उठा रही है।

वैश्वीकरण के पुनर्परिभाषण में भारत की भूमिका मुख्य रूप से ग्लोबल साउथ के प्रतिनिधि के रूप में है। भारत ने वर्ष 2023-24 में G20 की अध्यक्षता के समय 'वसुधैव कुटुंबकम्' की अवधारणा को आगे बढ़ाया, जो वैश्वीकरण को समावेशी बनाने पर ज़ोर देती है। वर्ष 2025 में, भारत ने महासागर डॉक्ट्ररिन (क्षेत्रों में सुरक्षा और विकास के लिये पारस्परिक और समग्र उन्नति) प्रारंभ की। यह मॉरीशस में शुरू हुई और यह डॉक्ट्ररिन वैश्वीकरण को केवल आर्थिक लाभ से आगे ले जाकर सुरक्षा, सतत् विकास और सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर केंद्रित करती है। भारत स्थाकनीय मुद्रा में व्यारपार को बढ़ावा दे रहा है। उदाहरण के लिये रुपए में व्यापार को प्रोत्सा हन दिया जा रहा है। यह डॉलर-केंद्रित वैश्वीकरण को चुनौती देता है और विकासशील देशों के लिये अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था का प्रस्ताव करता है।

राष्ट्रवाद के संदर्भ में, भारत की 'आत्मनिर्भर भारत' अभियान वैश्वीकरण को राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ जोड़ता है। यह संरक्षणवादी नीतियाँ अपनाते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को नहीं त्यागता। उदाहरणस्वरूप, जलवायु परिवर्तन के मुद्दों में भारत 'जलवायु न्याय' का पक्षधर है। वह विकसित देशों की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को रेखांकित करते हुए विकासशील देशों के लिये कोष एवं तकनीकी के हस्तांतरण की मांग करता है। कॉप सम्मेलनों में भारत की भूमिका मध्यस्थ की है, जो अमेरिका-चीन जैसे आधुनिक ध्रुवों के बीच पुल बनाती है। इसी प्रकार, यूक्रेन-रूस युद्ध या गाज़ा संकट में भारत की कूटनीति तटस्थ रहते हुए शांति वार्ताओं को प्रोत्साहित करती है, जो वैश्वीकरण के राजनीतिक आयाम को पुनर्परिभाषित करती है।

अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में सुधार की दिशा में भारत सक्रिय है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग और ब्रिक्स और एससीओ जैसे मंचों पर ज़ोर देकर भारत वैश्वीकरण को बहुपक्षीय बनाना चाहता है। वर्ष 2025 में, भारत की ग्लोबल साउथ आउटरीच रणनीति, दक्षिण दक्षिण सहयोग को सशक्त करती है जैसे अफ्रीकी यूनियन को G20 में शामिल करना। यह राष्ट्रवाद की 'हम बनाम वे' मानसिकता को कम करते हुए सह-अस्तित्व की संभावना तलाशता है। हालाँकि चीन के साथ सीमा विवाद और अमेरिका के साथ व्यापार जैसी चुनौतियाँ भारत की मध्यस्थता को जटिल बनाते हैं। फिर भी, भारत की अर्थव्यवस्था (2025 में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी होने की संभावना) इसे वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं जैसे सेमीकंडक्टर और पुनर्चक्रण ऊर्जा में इसे महत्त्वपूर्ण बनाती है।

कुल मिलाकर, भारत वैश्वीकरण के पुनर्परिभाषण में एक संतुलित मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा है, जो राष्ट्रवाद को वैश्विक हितों के साथ जोड़ता है। यह दृष्टिकोण न केवल भारत की राष्ट्रीय शक्ति को मज़बूत करता है, बल्कि एक अधिक न्यायपूर्ण और समावेशी वैश्विक व्यवस्था की नींव रखता है। भविष्य में, यदि भारत अपनी कूटनीति को और सशक्त करे, तो यह वैश्वीकरण को सतत् एवं मानवीय रूप दे सकता है। ऐसे में सहयोग की भावना, संघर्ष पर भारी हो सकती है। अंततः संतुलित दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद सहयोग का पूरक बने, न कि बाधा, ताकि वैश्विक चुनौतियाँ सामूहिक रूप से हल हों और एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था बने।

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