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शिक्षा में साहित्य की प्रासंगिकता

साहित्य का शाब्दिक अर्थ सहभाव है। सहभाव शब्द और अर्थ के मध्य विद्यमान होता है। साहित्य की परिभाषा इतनी व्यापकता लिए हुए है कि इसमें संपूर्ण मानव जीवन समाहित किया जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।’ महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘ज्ञानराशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।’ दोनों विद्वानों की परिभाषाओं को ध्यान में रखकर सामान्य बात जो सामने आती है वह यह है कि सर्वप्रथम तो साहित्य प्रगतिशील होता है और इसके अंतर्गत हमारे समाज से संबंधित महत्वपूर्ण, सूक्ष्म तथा गहन ज्ञान समाहित होता है ।

शिक्षा की बात की जाए तो वर्तमान संदर्भ में इसे बेहद संकुचित अर्थों में देखा जाने लगा है। शिक्षा का अर्थ स्कूली ज्ञान तक सीमित मान लिया जाता है, जब कि ज्ञानवान मनुष्यों का मानना है कि व्यक्ति की शिक्षा जीवन के नैरंतर्य के साथ-साथ चलती रहती है । शिक्षा में साहित्य की प्रासंगिकता को कदापि नकारा नहीं जा सकता । शिक्षा और साहित्य दोनों ही मानवीय अभिवृद्धि के अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष हैं। शिक्षा के अंतर्गत जो ज्ञान सिद्धांतों द्वारा प्रदान किया जाता है, वही ज्ञान साहित्य के द्वारा रोचकता के साथ दिया जाता है । रामधारी सिंह दिनकर अपने काव्य संग्रह चक्रवाल की भूमिका में लिखते हैं कि “बुद्धि पर जमी हुई पपड़ियाँ विज्ञान के शोधों से टूटती हैं, किंतु मनुष्य के हृदय पर की पपड़ियों को तोड़ने का काम नाटक, उपन्यास, चित्र, संगीत और कविताएँ ही करती हैं।” साहित्य इन्हीं पपड़ियों को तोड़कर एक संवेदनशील मनुष्य को गढ़ता है, जिसकी आवश्यकता दिन-प्रति-दिन अमानवीय होते जा रहे समाज को है।

साहित्य के द्वारा भिन्न परंपराओं, समाजों, भाषाओं और संस्कृतियों से अवगत होने का अवसर प्राप्त होता है जिससे कि संवेदनशीलता और सामाजिक जागरूकता का स्वत: ही विकास होता है। शिक्षा प्रमुख रूप से विद्यार्थियों को कौशल, रचनात्मकता, विचारशीलता, नवीन सिद्धांतों का ज्ञान प्रदान करती है। साहित्य इसी ज्ञान को कहानियों, नाटक, उपन्यास, कविता आदि के माध्यम से विश्लेषित करता आया है। साहित्य और शिक्षा को यदि एक-दूसरे का पूरक कहा जाए तो यह सही ही होगा। विष्णुशर्मा की पंचतंत्र की कहानियों का उदाहरण लेकर यह बात समझिए कि किस प्रकार बड़ी-बड़ी सीख रोचक घटनाओं के माध्यम से छात्रों को प्रदान की जाती है, जो कि सीधे-सपाट तरीके से बतलाने पर संभवत समझानी कठिन प्रतीत होती है। प्रेमचंद लिखते हैं कि “जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जागृत हो - जो हमें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकार नहीं।”

दरअसल साहित्य मनुष्य की अनुभूतियों को जागृत करने का कार्य करता है। यह सामाजिक समस्याओं, संबंधों, मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों और व्यक्तिगत अनुभवों को समझने में मददगार साबित होता है। शिक्षा में साहित्य का एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी है कि इसके माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करना हम सीख पाते हैं । यह भाषा का कुशल प्रयोग करना सिखलाता है। साहित्य के अत्यधिक अध्ययन से संवादात्मक क्षमता का और भी विकास होता है। साहित्य न केवल यह दर्शाता है कि जीवन की वास्तविकता क्या है, अपितु यह भी बतलाता है कि जीवन कैसा होना चाहिए। जॉन मिल्टन लिखते हैं ‘साहित्य एक जीवनशैली का निर्माण करता है।’ शिक्षा और साहित्य दोनों ही मनुष्य के लिए सही दिशा और सही जीवनशैली का निर्माण करने का प्रयास करते हैं। शिक्षा में साहित्य की प्रासंगिकता इस बात से और अधिक बढ़ जाती है कि वे छात्रों की मानसिक परिधि और दृष्टिकोण को विस्तार प्रदान करता है। छात्रों को सच्चाई, ईमानदारी, न्यायप्रियता और समता के भावों की ओर अग्रसारित करता है। प्रेमचंद का कथन है कि “साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है । जहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता है।

प्रेमचंद के इस कथन से यह बात सामने आती है कि शिक्षा में सिद्धांतों और फॉर्मूलाबाजी की सहायता से जो बात विद्यार्थी ठीक से नहीं समझ पाते, वहीं यह कार्य साहित्य आसानी से कर देता है। मनुष्य उपदेशों और नसीहतों से नहीं समझता, वह समझता है जब उसके भाव क्षेत्र को छुआ जाता है और उसके कोमल मनोभावों को संपादित किया जाता है। साहित्य मनुष्य के भीतर की सहज मानवीय करुणा को जागृत करने का कार्य करता है।

शिक्षा में साहित्य की आवश्यकता इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि इससे विचार शक्ति का विकास होता है । भिन्न-भिन्न विषयवस्तुओं का अध्ययन करने से न केवल भिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से परिचित हुआ जाता है, अपितु विचार-विमर्श की क्षमता, समस्या समाधान और अभिव्यक्तियों में भी परिवर्तन देखने को मिलता है।

किसी भी भाषा का साहित्य अपने अंतर्गत अनेक ऐतिहासिक तथ्यों को भी समाहित किए हुए होता है। साहित्य को केवल मनोरंजन समझना संकीर्ण मनोवृत्ति के मनुष्यों का कार्य है। साहित्य किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। प्राचीन भाषाओं का ज्ञान साहित्य से प्राप्त होता है। पुरातन परम्पराओं के संबंध में साहित्य जानकारी प्रदान करता आ रहा है। कहा जा सकता है कि साहित्यिक ज्ञान हमारी सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ाने का कार्य करता है।

साहित्य की शिक्षा छात्र-छात्राओं में स्वतंत्र सोच का बीजारोपण करने का कार्य करती है। स्वतंत्र विचार बहुत से सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि विषयों के संबंध में तर्कसंगत ढंग से सोचने का अवसर देते हैं। साहित्य किसी भी मनुष्य के भीतर की सद्वृतियों को उजागर करने का कार्य करता है। प्रेमचंद के अनुसार “साहित्य ही मनोविकारों के रहस्य खोलकर सद्वृत्तियों को जगाता है। सत्य को रसों द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, ज्ञान और विवेक द्वारा नहीं कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार चुमकारकर बच्चों को जितनी सफलता से वश में किया जा सकता है, डांट-फटकार से संभव नहीं।”

साहित्य सामाजिक सद्भाव को प्रश्रय देकर असामान्यताओं को मिटाने का प्रयास करता है। सहृदय व्यक्तियों के मध्य एकात्म स्थापित करने का कार्य साहित्य प्राचीन समय से ही करता आ रहा है। साहित्य द्वारा ऐसे बहुत से आदर्शात्मक चरित्रों की सृष्टि की जाती है जो कि कालजयी और अनुकरणीय बन जाते हैं। साहित्यिक शिक्षा द्वारा जब विद्यार्थी इन आदर्शात्मक चरित्रों के संबंध में जानकारी पाते हैं, तो वे इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। उदाहरणस्वरूप समझिए कि सत्यहरिश्चंद्र की कथा वर्तमान समाज में आज भी अपनी प्रासंगिकता कैसे बनाए हुए है? हरिश्चंद्र का पात्र सत्य का वह प्रतिमान बन चुका है, जिसे आज भी आदर्श माना जाता है और यह कथा कहीं न कहीं मनुष्य को झूठ बोलने से पहले एक बार सोचने पर विवश तो अवश्य ही करती है।

जो भी मनुष्य इस कथा से अवगत होगा वह यह भलीभांति प्रकार जानता और समझता है कि सत्य का मार्ग कठिन सही, परंतु अंत भला ही होता है। जबकि यह बात अत्यंत साधारण तरीके से समझाने पर कि ‘सदैव सत्य बोलना चाहिए’ बेहद कठिन प्रतीत होती है ।

शिक्षा के अंतर्गत आने वाले अनेक विषयों के ज्ञान से मनुष्य उच्च पद, बड़ी नौकरी, शानो-शौकत आदि तो प्राप्त कर सकता है परंतु साहित्य जो मानवीय करुणा, संवेदनशीलता, सद्भाव, एकात्म, भाषायी ज्ञान, सांस्कृतिक ज्ञान, संयम, सौहार्द प्रदान करता है, वह कोई भी वैज्ञानिक विषय प्रदान नहीं कर सकता। प्रेमचंद ने अपने निबंध ‘जीवन में साहित्य का स्थान’ में साहित्य के महत्त्व को रेखांकित करते हुए नादिरशाह का उदाहरण दिया है।

“नादिरशाह से ज्यादा निर्दयी मनुष्य और कौन हो सकता है- हमारा आशय दिल्ली में हत्याएँ कराने वाले नादिरशाह से है। अगर दिल्ली का कत्लेआम सत्य घटना है, तो नादिरशाह के निर्दयी होने में कोई संदेह नहीं रहता। उस समय आपको मालूम है, किस बात से प्रभावित होकर उसने कत्लेआम बंद करवाने का हुक्म दिया था? दिल्ली के बादशाह का वजीर एक रसिक मनुष्य था। जब उसने देखा कि नादिरशाह का क्रोध किसी तरह नहीं शांत होता और दिल्ली वालों के खून की नदी बहती चली जाती है, यहाँ तक कि खुद नादिरशाह के मुंहलगे अफसर भी उसके सामने आने का साहस नहीं करते, तो वह हथेलियों पर जान रखकर नादिरशाह के पास पहुंचा और यह शेर पढ़ा-

‘कसे न मांद कि दीगर ब तेगे नाज कुशी

मगर कि जिंदा कुनी खल्क रा ब बाज कुशी ।’

इसका अर्थ यह हुआ कि तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी को जिंदा न छोड़ा। अब तो इसके सिवा कोई उपाय नहीं है कि तुम मुर्दों को फिर जिला दे और फिर उन्हें मारना शुरू करे। यह फारसी के एक प्रसिद्ध कवि का श्रृंगार विषयक शेर है; पर इसे सुनकर कातिल के दिल में मनुष्य जाग उठा। इस शेर ने उसके हृदय की कोमल भाग को स्पर्श कर दिया और कत्लेआम तुरंत बंद कर दिया गया।”

इस उदाहरण द्वारा साहित्य की शक्ति और क्षमता को हम समझ सकते हैं। शिक्षा में जब साहित्य प्रवेश करता है तो वह उच्च चिंतन के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है। जीवन की वास्तविकता को लेकर संवेदनशील प्राणियों में गति और बेचैनी पैदा करता है। अंतत: साहित्य की शिक्षा में प्रासंगिकता सदैव महत्वपूर्ण रही है और यह निरंतर महत्वपूर्ण बनी रहेगी।

  डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय  

डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री हासिल की है। वर्तमान में वे दिल्ली शिक्षा निदेशालय के अंतर्गत हिंदी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं।

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