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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के 50 वर्ष - समालोचनात्मक विश्लेषण (भाग-I)

  आयुष वर्मा   

आयुष वर्मा गुजरात कैडर के वर्ष 2018 बैच के भारतीय वन सेवा अधिकारी हैं, आपको ऑल-राउंड उत्कृष्ट प्रदर्शन में भारत सरकार के स्वर्ण पदक, मुख्य वानिकी (कोर फॉरेस्ट्री) में उच्चतम स्थान के लिये स्वर्ण पदक एवं संजय सिंह मेमोरियल पुरस्कार के साथ-साथ हिल मेमोरियल पुरस्कार तथा वन तथा वनों में निवासरत लोगों हेतु किये गए उत्कृष्ट कार्यों के लिये के.एम. तिवारी स्मृति पुरस्कार, अकादमिक उत्कृष्टता के लिये डॉ. बी.एन.गांगुली पुरस्कार और IGNFA में पेशेवर प्रशिक्षण हेतु के.पी. सग्रेया श्रेष्ठ वणिक पुरस्कार प्रदान किया गया है। 

आपने IIT- BHU से इंजीनियरिंग विषय में स्नातक किया, पर्यावरण के क्षेत्र में आपकी विशेष रुचि थी जिसकी अभिव्यक्ति टाटा स्टील में आपके द्वारा प्रस्तुत जियो-सीक्वेस्ट्रेशन मॉडल के माध्यम से होती है। पर्यावरण के लिये आपका स्वाभाविक प्रेम, जीव जंतुओं के प्रति करुणा का भाव और माँ प्रकृति को अपने "प्रकृति ऋण" का भुगतान करने की एक आंतरिक इच्छा ने आपको वन सेवाओं की ओर प्रोत्साहित किया।

आपने गिर (पश्चिम) मंडल में सहायक वन संरक्षक के रूप में अपनी सेवा के दौरान गिर वन मंडल के लिये गश्त योजना पर एक पुस्तक भी लिखी है। वर्तमान में आप बोताड एवं भावनगर के अधिकार क्षेत्र के साथ सामाजिक वानिकी प्रभाग बोताड के उप वन संरक्षक के रूप में कार्यरत हैं- ये दोनों क्षेत्र ग्रेटर गिर क्षेत्र का हिस्सा हैं।

वानिकी में आपकी रुचि के क्षेत्रों में वन एवं वनों में निवासरत जनजातियाँ शामिल हैं (जिनके लिये आपने IGNFA की कार्यविधि में "जनजातियों और वनों" को संदर्भित एक रिपोर्ट लिखी थी), वन्यजीव संरक्षण हेतु आपके द्वारा किये गए कार्यों, जिनमें प्रमुख रूप से आपके द्वारा प्रस्तुत गिर वन मंडल हेतु गश्त योजना के लिये आपको शासन व्यवस्था के SKOCH अवार्ड से भी सम्मानित किया गया है।

इस लेख में आपने वनसंरक्षक के रूप में अपने क्षेत्र के अनुभवों और ज़मीनी ज्ञान के माध्यम से वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 पर राय व्यक्त की है। इस लेख के माध्यम से आपने WPA के कार्यान्वन में विभिन्न व्यावहारिक और प्रक्रियात्मक पहलुओं को इंगित करने का प्रयास किया है। अपने अनुमानों एवं अपनी व्यक्तिगत राय को अधिक वस्तुनिष्ठ बनाने के लिये आपने इस अधिनियम का एक SWOT विश्लेषण तैयार किया है। SWOT विश्लेषण एक प्रकल्प या एक व्यावसायिक उद्यम में शामिल शक्तियों (Strengths), कमज़ोरियों (Weakness), अवसरों (Opportunities) और खतरों (Threats) के मूल्यांकन के लिये इस्तेमाल की गई युक्ति है। 

अस्वीकरण

यहाँ व्यक्त विचार मुख्य रूप से लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं तथा आधिकारिक स्थिति नहीं रखते हैं। इस लेख में लेखक द्वारा अपने क्षेत्र के अनुभवों, व्यावसायिक प्रशिक्षण की सीख और वनसंरक्षक के रूप में अपने अवलोकनों के आधार पर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का निष्पक्ष विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है एवं किसी भी तरह या तरीके से, चाहे पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से इस लेख की व्याख्या सरकार के विचारों के रूप में नहीं की जानी चाहिये।

इस लेख (ब्लॉग) की योजना

इस लेख को दो भागों में प्रकाशित किया जाएगा-

भाग I:

  1. वन्यजीव संरक्षण की पृष्ठभूमि में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का योगदान
  2. अधिनियम के प्रमुख गुण एवं सकारात्मक पहलू
  3. कथित कमज़ोरियाँ और सुधार की गुंजाइश

भाग II:

  1. वन्यजीव संरक्षण की रूपरेखा को सुदृढ़ करने हेतु नवीन अवसर
  2. वन्यजीव संरक्षण की रूपरेखा के लिये संभावित खतरे
  3. WPA के 50 वर्षों पर लेखक की राय

यह लेख का भाग-I है, भाग-II के लिये यहाँ क्लिक करें

वन्यजीव संरक्षण की पृष्ठभूमि में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का योगदान

विलियम टेंपल होर्नडे ने अपने मौलिक कार्य 'अवर वैनिशिंग वाइल्डलाइफ' (1913) में सबसे पहले "वाइल्डलाइफ" शब्द गढ़ा था जो तथाकथित 'सभ्य' मनुष्य के अलावा अन्य प्रजातियों को दर्शाता है। उन्होंने धरती माता के सह-निवास के उनके अधिकार पर ज़ोर दिया। 

यह पुस्तक बेलगाम शिकार के कारण हुए वन्यजीवों के विनाश की पृष्ठभूमि में लिखी गई थी- इस समय विश्व वन्यजीवों की कई प्रजातियों में हुई व्यापक गिरावट का साक्षी बना था

उदाहरण के लिये 19वीं सदी के आरंभ में यात्री या जंगली कबूतर (पैसेंजर पिजन) इतने व्यापक झुंडों में यात्रा करने के लिये जाने जाते थे कि जहाँ वे उड़ते थे वहाँ सचमुच आकाश को काला कर देते थे। ठीक एक सदी उपरांत ये विलुप्त हो गए, विश्व ने वर्ष 1914 में अंतिम यात्री या जंगली कबूतर देखा था- जो कि पृथ्वी के विकासवादी इतिहास का एक अत्यल्प अवधि में इनकी विलुप्ति को संदर्भित करता है

यह वन्यजीव संरक्षण की आवश्यकता और महत्त्व को संदर्भित करता है तथा इनके शिकार (आखेट) को वास्तविकता में एक निर्मम 'क्रीडा' के रूप में मानने पर प्रतिबंध लगाता है जो इसमें शामिल शौर्य के झूठे प्रदर्शन पर निर्भर करता है। अन्य बातों के अतिरिक्त भारत का वन्यजीव संरक्षण इतिहास शायद ब्रिटिश काल के दौरान वन्य पक्षी संरक्षण अधिनियम, 1887 या वन्य पक्षी एवं प्राणी संरक्षण अधिनियम, 1912 आदि जैसे प्रमुख विधानों के रूप में विद्यमान है लेकिन इन सभी ब्रिटिश कानूनों की सामान्य भावना अथवा उद्देश्य राजघरानों के लिये स्थायी 'क्रीडा' एवं राजसी संपत्ति के रूप से वन्यजीव आबादी को संरक्षित रखना था 

स्वतंत्रता के उपरांत भारत में पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण अधिनियम, 1960 जैसे कानून बनाए गए किंतु यह निश्चित रूप से वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 अथवा WPA ही था जिसने भारत में वन्यजीव संरक्षण के लिये सही मायनों में एक विधिक रूपरेखा निर्मित करने हेतु नींव रखी। WPA, 1972 ने भारत को CITES समझौते का पक्षकार बनने में सक्षम बनाया इसके उल्लेखनीय उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

  • आखेट अथवा शिकार को प्रतिबंधित या विनियमित करना
  • वन्यजीव आवासों का संरक्षण एवं प्रबंधन
  • संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना
  • वन्यजीवों के व्यापार का विनियमन और नियंत्रण

वर्तमान में प्रतिष्ठित WPA, 1972 ने जब अपने 50 वर्ष पूरे कर लिये हैं तथा इस यात्रा के दौरान इस अधिनियम ने वर्ष 1991, वर्ष 2006 और हाल ही में वर्ष 2022 में कुछ बड़े संशोधन देखे हैं, साथ ही कई नियमों एवं दिशा-निर्देशों ने इसे पोषित करने का कार्य किया है, मुझे लगता है कि इस अधिनियम के विभिन्न पहलुओं और आयामों का विश्लेषण एक सेवारत वन अधिकारी की हैसियत से मेरे ज़मीनी अथवा फील्ड अनुभवों, मेरे प्रोफेशनल कोर्स की शिक्षाओं एवं वन्यजीव अपराधों से संबंधित ऑन-द-जॉब और इन-सर्विस ट्रेनिंग के आधार पर करना उचित है। जिसमें व्यावहारिक रूप से इसकी उपयोगिता एवं प्रयोज्यता, कानूनी दायरे में इसके कार्यान्वयन को प्रभावित करने वाले इसके प्रक्रियात्मक पहलुओं, वन्यजीव अपराध की गतिशीलता को संबोधित करने में इसकी तत्परता, वन्यजीवों को हानि पहुँचाने वाले तत्त्वों पर अंकुश लगाने में ज़मीनी स्तर पर इसके प्रभाव, इसकी विशेषताएँ तथा कमियाँ, इसके कार्यान्वयन से संबंधित अन्य व्यावहारिक पहलू आदि… तथा एक बड़ी सी कहानी को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिये WPA का SWOT विश्लेषण आदि शामिल होंगे।

WPA की प्रमुख विशेषताएँ एवं सकारात्मक पहलू

WPA देश में वन्यजीवों की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु एक महत्त्वपूर्ण विधान है, इसके प्रमुख गुणों/विशेषताओं को निम्नलिखित पहलुओं के माध्यम से देखा जा सकता है:

A. व्यवस्थित रूप से वन्यजीव अपराधों की जाँच और रोकथाम के लिये एक ठोस विधिक रूपरेखा प्रदान की गई तथा इस संबंध में अपराध किये जाने या प्रयास करने को  दंडात्मक कार्रवाई के अधीन रखा गया।

उदाहरण:

  • WPA की धारा 9 स्पष्ट रूप से शिकार पर प्रतिबंध लगाती है एवं शिकार की बहुत व्यापक व्याख्या प्रदान करती है, जैसा कि धारा 2(16) में स्पष्ट है, इसके अंतर्गत शिकार की परिभाषा में निम्नलिखित को शामिल किया गया है: 
    (a) किसी वन्य प्राणी या बंदी प्राणी को मारना या उसे विष देना और ऐसा करने का प्रत्येक प्रयत्न।
    (b) किसी वन्य प्राणी या बंदी प्राणी को पकड़ना, शिकार करना, फंदे में पकड़ना, जाल में फाँसना, हाँका लगाना या चारा डालकर फँसाना तथा ऐसा करने का प्रत्येक प्रयत्न।
    (c) किसी ऐसे प्राणी के शरीर के किसी भाग को क्षतिग्रस्त करना; या नष्ट करना या लेना अथवा वन्य पक्षियों या सरीसृपों की दशा में, ऐसे पक्षियों या सरीसृपों के अंडों को नुकसान पहुँचाना अथवा ऐसे पक्षियों या सरीसृपों के अंडों या घोसलों को क्षतिग्रस्त करना।

फील्ड अनुभव

गिर पूर्वी संभाग से प्राप्त एक चित्र- शेर को अवैध रूप से दर्शाने का प्रयास (lion show) जिसे वन कर्मचारियों द्वारा विफल कर दिया गया

शिकार की इतनी विस्तृत परिभाषा ने सामान्य जन मानस तथा अवैध कार्य करने वालों के लिये किसी भी वन्य प्राणी को जान-बूझकर क्षति पहुँचाने या लुभाने की गतिविधियों में शामिल होना जटिल बना दिया है जो कि वन्य प्राणियों के संरक्षण का एक निवारक उपाय है। गिर वन मंडल में सहायक वन संरक्षक के रूप में मेरे और मेरे फील्ड स्टाफ द्वारा अवैध लायन शो (शेर को अवैध रूप से प्रदर्शित करने का प्रयास) की जाँच के लिये इस अधिनियम की परिभाषा को प्रवर्तनीय बनाया गया- ऐसे अवैध लायन शो के अंतर्गत मुख्य रूप से आर्थिक हितों के उद्देश्य से शेर को सार्वजनिक प्रदर्शन के लिये भोजन का लालच देकर निश्चित स्थान पर आकर्षित किया जाता है ताकि उसकी वीडियोग्राफी की जा सके।

  • अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत संरक्षित क्षेत्रों को वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया है एवं अधिनियम की धारा 35 में राष्ट्रीय उद्यान उल्लिखित है, जबकि WPA के अध्याय 3 के अंतर्गत निषिद्ध कार्यों के विस्तृत प्रावधानों का उल्लेख किया गया है।

फील्ड अनुभव

कार्रवाई को तत्पर वन आरक्षी- द ग्रीन पुलिस (गिर पश्चिम संभाग)

अभयारण्य क्षेत्र में अतिक्रमण एवं प्रवेश, हानिकारक पदार्थों के उपयोग पर प्रतिबंध, वनाग्नि के कारण और इससे होने वाले नुकसान का पता लगाना आदि नियमित गश्त एवं निगरानी का हिस्सा हैं और ये कार्य वॉचटावर व पेट्रोलिंग संबंधी अन्य आधारिक संरचनाओं तथा वन कर्मचारियों की सहायता से किये जाते हैं।

विशेष रूप से जनजातियों एवं अभयारण्य के पूर्वी वन क्षेत्र पर निर्भर समुदायों में अक्सर जान-बूझकर आग प्रज्वलित करने की प्रवृत्ति देखी गई है- घास के नवीन स्थलों के लिये चरवाहों द्वारा एवं कट्टुनायकन (दक्षिण भारत) जैसे- शहद एकत्रित करने वाली जनजातियाँ इनमें प्रमुख हैं। इन चुनौतियों को संबोधित करने के लिये वन विभाग द्वारा WPA की  धारा 30 को प्रवर्तित किया गया है जो कि वनाग्नि को प्रेरित करने वाली गतिविधियों को प्रतिबंधित करती है।

  • दोषियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई: WPA का अध्याय VI और VI (A) विशेष रूप से वन्यजीवों के खिलाफ अपराधों से निपटने से संबंधित है।

अधिनियम की धारा 50(8) विशेष रूप से उन वन अधिकारियों, जो कि सहायक वन संरक्षक के पद से नीचे के रैंक के नहीं हैं, को तलाशी वारंट जारी करने एवं गवाहों की उपस्थिति तथा साक्ष्यों को रिकॉर्ड करने की अनुमति देती है।

उल्लेखनीय है कि वन अधिकारियों के सामने की गई स्वीकारोक्ति अदालतों में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है- अबूबकर बनाम केरल राज्य वाद (1989)।

फील्ड अनुभव

WPA के अंतर्गत उच्च दंड और कठोर दंडात्मक कार्रवाइयों के कारण भारतीय वन अधिनियम, 1927 को प्रवर्तित करते समय भी WPA के प्रावधानों को लागू किया जाता है, ताकि दोषियों के खिलाफ अपने केस को हम और अधिक मज़बूत कर सकें। WPA की धारा 56 में वर्णित है कि WPA को लागू करते समय अन्य विधियों का प्रवर्तन वर्जित नहीं होगा। इसी तरह अपने केस को मज़बूत करने के लिये हम WPA के साथ CrPC, IPC और शस्त्र अधिनियम आदि की धाराओं को भी शामिल करते हैं।

WPA की धारा 52 विशेष रूप से प्रयत्न और दुष्प्रेरण से संबंधित है। यह धारा क्षेत्र में शिकार के प्रयत्न के रूप में अनिष्टकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाने में सहायता करती है। उदाहरण के लिये फरवरी 2022 में अस्थायी श्रमिकों के एक समूह को गुजरात के गिर सोमनाथ ज़िले में जाल के साथ शिकार का प्रयत्न करते हुए पकड़ा गया था। इन्हें शिकार का प्रयत्न करते समय पकड़ा गया। 

इसी तरह वन्यजीव अपराध में दुष्प्रेरण या सहायता, संगठित अपराध के रूप में वन्यजीव अपराधों के गहरे सांठ-गांठ का पता लगाने का आधार है।

  • अनुसूची-1 से संबंधित प्रजातियों के मामले तथा पश्चातवर्ती अपराध के मामले में अपराध गैर-जमानती और संज्ञेय होगा। साथ ही अपराध के ऐसे मामलों में दंड के रूप में कारावास की अवधि कम-से-कम 3 वर्ष है। उल्लेखनीय है कि यह अधिनियम विशेष रूप से अवैध शिकार एवं व्यापार से प्राप्त संपत्ति को भी जब्त करने का प्रावधान करता है।

फील्ड अनुभव

विधिक न्यायालयों ने भी ऐसे प्रकरणों में सामान्य रूप से वन्यजीव समर्थक रुख अपनाया है, बशर्ते हम अपने प्रकरण/केस को तार्किक रूप से सिद्ध करने में सक्षम हों। यदि किसी अभियुक्त के पास वन्यजीव संबंधित अवैध उत्पाद आदि पाया जाता है तो WPA की धारा 57 के अनुसार इसे साबित करने का भार स्पष्ट रूप अभियुक्त पर होता है।

मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी हो रही है कि वन्यजीव अपराध के चार अलग-अलग  प्रकरणों, जिनमें सहायक वन संरक्षक गिर पश्चिम के रूप में सेवारत रहते हुए मैं एक इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर था, में निचले न्यायालयों ने जमानत को खारिज कर दिया था और अवैध लायन शो से संबंधित एक मामला माननीय उच्च न्यायालय में भी पहुँचा जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा जमानत को खारिज कर दिया गया था।

यह अधिनियम वन्यजीव अपराध में दोषी व्यक्ति को शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 54 के तहत संगठित अपराध में संलिप्त होने पर लाइसेंस रद्द करने की शक्ति देता है; यह सामान्य रूप से दोषियों के विरुद्ध ज़मीनी स्तर पर प्रवर्तनीय निवारक उपाय है।

WPA की धारा 34A स्पष्ट रूप से अतिक्रमण हटाने के लिये ACF रैंक और उससे ऊपर के वन अधिकारियों को शक्ति प्रदान करती है। मैं बहुत संतुष्टि के साथ यह साझा करता हूँ कि गिर अभयारण्य क्षेत्र से अतिक्रमण हटाने के लिये मैंने कई बार इस धारा का क्रियान्वयन किया है।

बाउंड्री पिलर चेकिंग अभ्यास भी एक नियमित उपाय है जो गिर वेस्ट के स्टाफ द्वारा किया जाता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आसपास के क्षेत्रों से वन्यजीव अभयारण्य को सीमांकित करने वाले बाउंड्री पिलर्स/ सीमा स्तंभों को कोई क्षति न पहुँची हो। मुझे यह सूचित करते हुए खुशी हो रही है कि अपनी पुस्तक "पेट्रोलिंग प्लान फॉर गिर वेस्ट डिवीज़न" में अन्य बातों के साथ-साथ, गश्ती योजना गतिविधियों के लिये मूल योजना में मैंने बाउंड्री पिलर चेकिंग अभ्यास का भी उल्लेख किया है।

अतः निष्कर्षतः मैं यह बताना चाहता हूँ कि WPA वन्यजीव अपराधों को रोकने और दोषियों को दंडित करने के लिये एक ठोस विधिक रूपरेखा प्रदान करता है।

B. चिड़ियाघर प्रबंधन

यह सहज ही जानने योग्य है कि चिड़ियाघर वन्यजीवों के लिये जैविक स्थान हैं- इसलिये वर्तमान में वन्यजीव-अनुकूल बाड़े चिड़ियाघरों के लिये नए आदर्श हैं

WPA 1972 में वर्ष 1991 में क्किये गए संशोधन के माध्यम से केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (CZA) की स्थापना की गई। चिड़ियाघर अब पहले की तरह ही पशु-पक्षियों संग्रह करने वाले पिंजरे नहीं है जहाँ वन्य प्राणियों का संग्रह मनोरंजक उद्देश्यों के लिये किया जाता था बल्कि अब उन्हें जैविक उद्यान के रूप में देखा जाता है। 

साथ ही WPA के अध्याय IV A के अंतर्गत CZA के गठन को राष्ट्रीय चिड़ियाघर नीति, 1998 के साथ जोड़ा गया। केंद्र सरकार द्वारा चिड़ियाघर के जीवों के विक्रय पर रोक लगाने के आदेश तथा चिड़ियाघर की मान्यता नियम, 2009 ने ऐसे प्राणियों को उनके स्थान से स्थानांतरण और स्वास्थ्य के संदर्भ में चिड़ियाघर संचालन को मानकीकृत किया है।

फील्ड अनुभव

  • WPA और CZA की स्थापना के बाद वन्यजीवों के अंतरण एवं अर्जन संबंधित विशिष्ट नियम और वैज्ञानिक रूप से ठोस दिशा-निर्देश निर्धारित किये गए हैं। CZA मानदंड और धारा 38 के अंतर्गत चिड़ियाघर द्वारा वन्य प्राणियों के अर्जन पर इस तरह के किसी भी वन्यजीव अंतरण संबंधी नियमों का सख्ती से पालन किया जा रहा है।
  • WPA की धारा 38H, चिड़ियाघरों की मान्यता के संदर्भ में सख्त मानदंडों का प्रावधान करती है जिनका पालन किया जाना अनिवार्य होता है।
  • इसके अलावा परिभाषित मानदंडों के आधार पर चिड़ियाघरों का वर्गीकरण अत्यंत लघु, लघु, मध्यम और बड़े चिड़ियाघर के रूप में किया जाता है।
  • केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण के प्रगतिशील मानदंडों और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के विधायी समर्थन के चलते, चिड़ियाघर भी एडुटेनमेंट (Edutainment) अर्थात् जनता को शिक्षित करने हेतु शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वन विभाग के लिये विस्तार और प्रवेश का मुख्य बिंदु बन गए हैं।
  • चिड़ियाघरों द्वारा लुप्तप्राय वन्यजीवों से संबंधित वंशावली पुस्तक/अध्ययन पुस्तक (Stud-book) का प्रबंधन एक स्वागत योग्य कदम है क्योंकि यह व्यक्तिगत रूप से इन जीवों की निगरानी में सहायक होगी।

C. WPA की धारा 12(bb) के अंतर्गत वन्यजीवों के लिये वैज्ञानिक प्रबंध का प्रावधान किया गया है जिसमें वैकल्पिक रूप से उपयुक्त आवास के लिये वन्यजीवों का स्थानांतरण और वन्य प्राणियों की आबादी का प्रबंधन शामिल है। यह धारा प्राणरक्षक औषिधयों के विनिर्माण के लिये सर्प-विष निकालने, संग्रह करने या तैयार करने की अनुमति भी देती है।

फील्ड अनुभव

1. शेरों की बढ़ती आबादी एवं इसके अधिवास की प्रादेशिक प्रकृति तथा स्वच्छ व खुले वनों में विचरण पसंद करने के कारण मानव निवास क्षेत्रों में प्रवेश करना इस जीव के लिये सामान्य बात है, और यही मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि का एक प्रमुख कारण भी है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अन्य बातों के साथ-साथ शेरों की उपाश्रित आबादी को बरदा वन्यजीव अभयारण्य, पोरबंदर में स्थानांतरित करने की योजना बनाई गई है।

2. चेन्नई, तमिलनाडु में वन विभाग विष रोधी प्राणरक्षक औषिधयों के निर्माण हेतु इरुला स्नेक कैचर्स (पारंपरिक सपेरों) को सक्रिय रूप से शामिल करता है।

3. चिड़ियाघरों में लुप्तप्राय प्रजातियों के बंदी प्रजनन द्वारा ऐसी प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिली है। उदाहरण के लिये सक्करबाग चिड़ियाघर, जूनागढ़ द्वारा शेरों के लिये शिकार की उपलब्धता बढ़ाने और इस प्रकार मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिये गिद्धों, ग्रे वुल्फ, एशियाई शेर तथा यहाँ तक कि चीतल-सांभर का भी सफल बंदी प्रजनन किया जा रहा है।

D. संरक्षण सफलता की कहानियाँ

WPA के प्रवर्तन के बाद प्रमुख वन्यजीव संरक्षण परियोजनाओं ने वन्यजीवों की घटती आबादी को रोकने में सहायता की है। इन संरक्षणों को राष्ट्रीय वन्यजीव कार्ययोजना, 1983 और इस तरह की अन्य योजनाओं का समर्थन प्राप्त है। इसके अतिरिक्त प्रमुख सरकारी कार्यक्रम जैसे- एकीकृत वन्यजीव विकास कार्यक्रम आदि के संदर्भ में WPA के प्रावधानों  ने इन लक्ष्यों को पूर्ण या आंशिक रूप से प्राप्त करने में सहायता प्रदान की है। साथ ही वर्ष 2006 में WPA के एक विशिष्ट संशोधन के बाद WPA के अध्याय IV B के अंतर्गत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) के प्रावधान ने बाघों की आबादी पर ध्यान केंद्रित करके वन के संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने में सहायता की है।

संरक्षण सफलता की कुछ उल्लेखनीय पहलें निम्नानुसार हैं:

  • प्रोजेक्ट टाइगर, 1972
  • इंडिया राइनो विज़न, 2020
  • प्रोजेक्ट एलीफेंट, 1992
  • प्रोजेक्ट हंगुल, 1970
  • प्रोजेक्ट लायन, 1972, वर्ष 2020 में पुनः प्रारंभ
  • प्रॉजेक्ट क्रोकोडाइल, 1975 ...आदि 

फील्ड अनुभव

ऐसी प्रमुख प्रजातियों के संरक्षण का एक वैज्ञानिक आधार होता है अर्थात् ये प्रजातियाँ कई बार अम्ब्रेला प्रजातियाँ होती हैं जो कि ऐसी प्रजातियाँ हैं जिनके संरक्षण से बड़ी संख्या में प्राकृतिक रूप से सहवर्ती प्रजातियों को भी संरक्षण मिलता है परिणामस्वरूप संबंधित खाद्य शृंखला की सभी प्रजातियों के संरक्षण में सहायता मिलती है। 

उदाहरण के लिये यह कोई संयोग नहीं है कि गिर वन्यजीव अभयारण्य में शाकाहारी जीवों की संख्या में एशियाई शेरों की संख्या के अनुरूप ही वृद्धि हुई है।

E. वन्यजीव अपराधों और अवैध वन्यजीव व्यापार का प्रतिकार 

WPA के अध्याय IV(C) के अंतर्गत वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो ( Wildlife Crime Control Bureau- WCCB) का गठन किया गया है जो अपने दृष्टिकोण में अंतर-अनुशासनात्मक है क्योंकि यह वन, पुलिस और सीमा शुल्क अधिकारियों के सहयोग से सहायता प्रदान करता है।

WPA का अध्याय V वन्य प्राणियों, ट्राफियों और वन्य प्राणी उत्पादों के व्यापार  एवं वाणिज्य को सख्ती से नियंत्रित करता है, जबकि अध्याय VI (A) स्पष्ट रूप से अवैध आखेट  तथा व्यापार से व्युत्पन्न संपत्ति के समपहरण का प्रावधान करता है।

फील्ड अनुभव

WCCB ने वन्यजीव अपराधों से निपटने के लिये कई अभियान संचालित किये हैं। कुछ उल्लेखनीय पहलें इस प्रकार हैं:

  • ऑपरेशन थंडरबर्ड - इंटरपोल के सहयोग से
  • ऑपरेशन लेस नो (LESKNOW) - कम ज्ञात प्रजातियों का संरक्षण
  • ऑपरेशन सेव कुर्म - कछुआ संरक्षण
  • ऑपरेशन फ्रीफ्लाई - पक्षियों को बचाओ
  • ऑपरेशन वाइल्डनेट - साइबर-अवैध शिकार को रोकने हेतु

इन सभी कार्यों को मूर्त रूप प्रदान करने के लिये WCCB को वन अधिकारियों, जनशक्ति एवं क्षेत्रीय प्रभाग के अन्य संसाधनों के साथ घनिष्ठ संपर्क एवं समन्वय बनाए रखने की आवश्यकता होती है। यह WCCB के प्रक्रियात्मक पहलुओं में आसूचना और मार्गदर्शन प्रदान  करने में सहायता करता है।

WCCB ने वन्यजीव अपराध रोकथाम और जाँच में IFS अधिकारियों का प्रशिक्षण भी आरंभ किया है।

क्षेत्र में वन्यजीवों के अवैध आखेट और व्यापार से व्युत्पन्न संपत्ति के समपहरण के लिये उपर्युक्त WPA प्रावधानों के अतिरिक्त वन्यजीव स्टॉक घोषणा नियम, 1973; वन्यजीव लेन-देन एवं  टैक्सिडेरमी नियम, वर्ष 1973; वन्यजीव लाइसेंस नियम, 1983 तथा  वन्यजीव स्टॉक नियम, 2003 आदि विधिक नियमों का अनुपालन किया जाता है।

F. मानव-वन्यजीव संघर्ष से निपटना

बढ़ती मानव जनसंख्या और भौतिक रूप से उन्मुख आज की जीवनशैली के कारण वनों  पर मानवजनित दबाव और वन्यजीवों का अस्तित्त्व सवालों  में है, लेकिन WPA इन मुद्दों से निपटने के लिये सुझाव प्रदान करता है, जैसे:

  • अधिनियम की धारा 11 विनिर्दिष्ट करती है कि यदि राज्य का मुख्य वन्यजीव संरक्षक संतुष्ट है कि कोई वन्य प्राणी मानव जीवन के लिये खतरनाक हो गया है या निशक्त या रोगी है और ठीक नहीं हो सकता है, तो ऐसे प्राणी का आखेट करने या उसका आखेट करवाने की अनुज्ञा दी जा सकती है।
  • इसके अतिरिक्त आत्मरक्षा में किसी वन्य प्राणी की हत्या करना अपराध नहीं होगा; तिलक बहादुर प्रकरण (वर्ष 1979) में माननीय न्यायालय द्वारा भी इसे बरकरार रखा गया।
  • WPA की धारा 62 कुछ प्राणियों को पीड़क जंतु के रूप में घोषित करती है: एक विशिष्ट क्षेत्र हेतु एक विशिष्ट अवधि के लिये विशिष्ट प्रजातियों (अनुसूची 1 नहीं) के शिकार की अनुमति देती  है।

फील्ड अनुभव 

1. गिर और ग्रेटर गिर क्षेत्र में एक तेंदुए को शांत करना जो कि खतरनाक लगता है या मानवीय निवास क्षेत्र में नियमित रूप से प्रवेश करता है, इस क्षेत्र के लिये एक सामान्य घटना है। यदि यह मानव को चोट पहुँचाने या उसकी मृत्यु का कारण है तो इसकी जाँच स्कैट विश्लेषण के माध्यम से की जा सकती है और ऐसा पाए जाने  पर इसे पुनः वन में नहीं छोड़ा जाता है क्योंकि यह खतरनाक हो सकता है।

पूर्वी गिर फील्ड स्टाफ द्वारा तेंदुए के बचाव हेतु संचालित अभियान की झलक

2. जैसा कि तेंदुआ-मानव संघर्ष बढ़ रहा है, गिर-सासन में आबादी प्रबंधन के लिये तेंदुओं के लिंग-आधारित अलगाव की अवधारणा का पालन किया जा रहा है, जिसमें नर तेंदुओं को क्राल में रखा जाता है, जबकि मादा को एक खुली खाई में रखा जाता है- जो प्राकृतिक जंगल की नकल है। यह प्रजनन की जाँच करता है और क्रूरता का सहारा लिये बिना आगे की संतानों के प्रसार पर अंकुश लगाता है।

सासन-गिर से ली गई तस्वीर, जिसमें तेंदुओं के आवास के लिये ओपन मोट एन्क्लोज़र को प्रदर्शित किया गया है 

3. हिमाचल प्रदेश में रीसस मकाक के अत्यधिक वृद्धि के खतरे के कारण अस्थायी आधार पर उनकी नसबंदी की अनुमति दी गई है।

4. जंगली सूअर और ब्लू बुल/नीलगाय जैसी कुछ प्रजातियों को पीड़क (पीड़क जंतु-कई राज्यों में फसल के नुकसान की प्रवृत्ति के कारण) के रूप में घोषित किया गया है।

G. वनवासियों के अधिकार, अनुसूचित जनजाति और समुदायों के प्रति जवाबदेही

WPA, वन्यजीव संरक्षण में समुदायों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को उल्लिखित करता है इसके प्रावधानों को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है:

  • सामुदायिक आरक्षिति  (WPA की धारा 36A) और संरक्षण आरक्षिति (WPA की धारा 36C): ये दोनों ही वन्यजीवों के संरक्षण और सुरक्षा में समुदायों की भूमिका की परिकल्पना करते हैं। पूर्व में भूमि का स्वामित्व समुदाय के पास होता था, जबकि वर्तमान में भूमि का स्वामित्व सरकार के पास है लेकिन वन्यजीवों के संरक्षण के लिये समुदायों को संयुक्त रूप से प्रबंधित किया जाता है।
  • राष्ट्रीय उद्यान के मामले में प्रभावित समुदाय के अधिकारों का समाधान अनिवार्य रूप से वन्यजीव अभयारण्य की घोषणा से पूर्व ही WPA की धारा 19 और 24 के अंतर्गत किया जाता है।
  • WPA वन अधिकार अधिनियम, 2006 के साथ समन्वय रखते हुए किसी समुदाय को एक नए स्थान पर स्थानांतरण से पूर्व राहत और पुनर्वास के लिये प्रावधान करता है- WPA की धारा 38V(4) तथा (5), वैकल्पिक आजीविका एवं ग्रामसभा की सूचित सहमति प्राप्त करने के संदर्भ में विस्तार से बात करती है। हालाँकि इसकी मूल भावना यही है कि जहाँ तक संभव हो मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व बना रहे- यानी कि बाघ अभयारण्य के गैर-कोर क्षेत्र में विशेष रूप से कोई स्थानांतरण न हो।
  • WPA की धारा 65 स्पष्ट रूप से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की जनजातियों के आखेट संबंधी अधिकारों को उनकी पारंपरिक संस्कृति के मद्देनज़र संरक्षित करती है जिससे उन्हें संभवतः वंचित नहीं किया जा सकता।
  • धारा 4(bb) एक अवैतनिक वन्यजीव संरक्षक का प्रावधान करती है जो कि एक सामुदायिक नेता के रूप में वन्यजीव संरक्षण के साथ-साथ वन विभाग औरसमुदायों के मध्य बेहतर संपर्क एवं समन्वय स्थापित करने में सहायता करेगा।

फील्ड अनुभव

संरक्षण के किंशासा मॉडल के अनुसार, समुदाय आधारित वन्यजीव संरक्षण वन्यजीव-मानव सह-अस्तित्व को बनाए रखने और मानव- वन्यजीव संघर्ष को समाप्त करने की कुंजी है।

1. गिर के मालधारी (चरवाहा समूह) शेरों के साथ एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिये जाने जाते हैं और मैंने वही देखा है- उनकी संस्कृति में शेर के प्रति श्रद्धा है। नेस गिर वन में ऐसे उपक्षेत्र है जहाँ मालधारी निवास करते हैं। गिर वन क्षेत्र में जोसलिन द्वारा किये गए अध्ययन के उपरांत वर्ष 1972 के बाद उन्हें गिर वन क्षेत्र के बाहर स्थानांतरित कर दिया गया था, लेकिन अच्छी उपजाऊ कृषि योग्य भूमि या घास के लिये उपयुक्त भूमि के अभाव के कारण वर्ष 1998 से कोई पुनर्वास नहीं किया गया था। रिकॉर्ड के अनुसार, गिर वन में लगभग 43 नेस क्षेत्र हैं। 

2. गिर के साथ-साथ ग्रेटर गिर क्षेत्र में सिंह मित्र की अवधारणा प्रचलित है, जिसके अंतर्गत शेरों के प्रति उचित भावना एवं स्नेह तथा संवेदीकरण के वाहक के रूप में सेवा करने के लिये समुदाय के लोगों को शामिल किया गया है। ये शेरों के संरक्षण कार्यों में भी सक्रिय रूप से शामिल हैं, जिसमें सफल होने के लिये व्यापक सामुदायिक समर्थन की आवश्यकता होती है।

3. इको-टूरिज़्म गाइड और जिप्सी चालकों के रूप में स्थानीय जनजातियों जैसे- सिद्दियों का प्रस्तरण- इस संदर्भ में सिद्दी महिलाओं को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। इसने इन समुदायों की शेरों पर सकारात्मक निर्भरता प्रदर्शित की और  इन समुदायों की  आजीविका के लिये शेरों के संरक्षण को महत्त्वपूर्ण बना दिया।

4. लद्दाख क्षेत्र में सरकार द्वारा होम-स्टे आधारित इको-टूरिज़्म को प्रोत्साहित करने के बाद हिम तेंदुए की सामुदायिक स्वीकार्यता स्थापित हुई है जिसने क्षेत्रीय स्तर पर आजीविका के सृजन  में मदद की है।

संक्षिप्त रूप से WPA के प्रमुख गुणों और सकारात्मकता के पहलुओं पर मेरी राय को इस प्रकार पुनः देखा जा सकता है:

कथित कमज़ोरियाँ और सुधार की गुंजाइश

हालाँकि WPA की कई विशेषताओं के साथ ही इसके सकारात्मक पहलू  भी हैं, लेकिन फिर भी इसे वन्यजीव संरक्षण के लिये 'सिल्वर बुलेट' नहीं कहा जा सकता है। कुछ कार्यान्वयन, प्रक्रियात्मक और व्यावहारिक मुद्दे इस अधिनियम के दोषरहित निष्पादन पर परदा डालते हैं। इस बिंदु को हाल ही में सामने आई वन्यजीव अपराधों की गतिशील प्रकृति से और मज़बूती मिली है। इस खंड के अंतर्गत मैं अपनी विनम्र राय में आगे की राह के साथ-साथ वर्तमान WPA कानून में कुछ कमज़ोरियों को उजागर करने का प्रयास भी करूँगा।

A. कार्यान्वयन की कमी

WPA किसी भी अन्य कानून की तरह उतना ही प्रभावी हो सकता है जितना कि इसका कार्यान्वयन।

हालाँकि कुल मिलाकर समग्र रूप से इसका कार्यान्वयन संतोषजनक है, किंतु फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि WPA में कुछ प्रावधान हैं जिन्हें उचित तरीके से लागू करने की आवश्यकता है।

उदाहरण के लिये:

  • WPA की धारा 25A, धारा 18 के तहत अभयारण्य की घोषणा की अधिसूचना की तिथि से 2 वर्ष में अधिग्रहण की कार्यवाही को पूरा करने की समय-सीमा निर्धारित करती है। ज़मीनी स्तर पर इसे बहुत कम अनुभव किया जाता है क्योंकि यह प्रक्रिया मानवाधिकारों, राजनीतिक और निहित स्वार्थों तथा दस्तावेज़ों की कमी या प्रभावित लोगों के दावे के लिये उपयुक्त भूमि की अनुपलब्धता जैसे तकनीकी पहलुओं की 'जटिलताओं में  फँस कर रह जाती है।

फील्ड अनुभव

भूमि का अधिग्रहण अभी भी एक जटिल प्रक्रिया है। वर्ष 1972 के बाद गिर (जिसे नेस-Ness के रूप में जाना जाता है) के मालधारी जनजाति अधिवासों को स्थानांतरित करने तथा उनकी भूमि का अधिग्रहण करने की मांग की गई थी लेकिन वर्ष 1998 तक भी सभी को गिर वन क्षेत्र से स्थानांतरित नहीं किया जा सका। परिणामस्वरूप उपयुक्त कृषि या चरागाह भूमि के अभाव में नेस का पुनर्वास संभव नहीं था। इसी तरह भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत परिभाषित सेटलमेंट विलेजेज़ को आज तक पूरी तरह से स्थानांतरित नहीं किया जा सका है।

गिर संरक्षित क्षेत्रों में मालधारी नेस और सेटलमेंट विलेजेज़ की वर्तमान स्थिति

  • WPA की धारा 28 अभयारण्य क्षेत्र में मुख्य वन्यजीव संरक्षक द्वारा पर्यटन की अनुमति देने का प्रावधान करती है, हालाँकि इसका उद्देश्य लोगों को वन और वन्यजीवों के प्रति संवेदनशील बनाना एवं ECO-टूरिज़्म के माध्यम से प्रकृति के बारे में  शिक्षा प्रदान करना है। ज़मीनी अवलोकन दर्शाता है कि लोग मनोरंजन के उद्देश्य से अभया रण्यों में प्रवेश करते हैं किंतु प्रकृति प्रदूषण और वन्यजीवों को परेशान करने के प्रति उनकी संवेदनशीलता प्रकृति को लेकर उनके व्यवहार में सुधार की आवश्यकता को दर्शाती है।

फील्ड अनुभव

ध्वनि प्रदूषण, गंदगी, बेलगाम और अनियंत्रित सैलानियों की संख्या तथा कभी असामाजिक तत्त्वों  द्वारा वन्यजीवों को परेशान करने के प्रयास को संरक्षित क्षेत्रों में भी नकारा नहीं जा सकता है। यह वन्यजीवों को परेशान करने एवं उनके शिकार, भोजन और यहाँ तक कि संभोग व्यवहार में नकारात्मक हस्तक्षेप करता है। यह वन्यजीव अधिवासों में बढ़ रहे मानव हस्तक्षेप की अनुभूति कराता है।

वन्यजीव आवासों में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ रहा है (छवि सौजन्य : इंटरनेट)

  • न केवल संरक्षित क्षेत्रों में बल्कि टाइगर रिज़र्व में भी धारा 38 के तहत अधिकारों की प्रदायिता को अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक निवासियों या वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रावधानों के साथ पढ़ा जाना चाहिये: मूल भावना में दोनों प्रावधान सही हैं क्योंकि इनका मूल उद्देश्य जनजातियों के अधिकारों को बनाए रखना है किंतु ज़मीनी स्तर पर उचित रूप से इन अधिकारों की प्रदायिता एक कठिन प्रशासनिक कार्य है।

फील्ड अनुभव

यह दोहरी बाधा की स्पष्ट संभावना को दर्शाता है क्योंकि एक ओर जो लोग वास्तव में लाभ के पात्र हैं उनके पास अक्सर अपने दावों को पूरा करने के लिये आवश्यक दस्तावेज़ नहीं होते हैं। वहीं दूसरी ओर जाली दस्तावेज़ों को बनाने की घटनाएँ देखी गई हैं और उन लोगों को लाभ पहुँचाया गया जो इसके योग्य नहीं थे।

साथ ही FRA के बाद अभयारण्य और वन क्षेत्रों में अतिक्रमणों के नियमितीकरण की कुछ घटनाओं को पुनः दोहराया गया है जिनमें असामाजिक तत्त्वों ने अपने संदिग्ध दावों को ठोस बनाने की कोशिश की है।

  • जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों की जीवनशैली में बदलाव: जनजाति समुदाय पारंपरिक रूप से धात्री प्रकृति के साथ सहजीवी संबंध के लिये जाने जाते हैं। यह अभी भी बड़े पैमाने पर सच है लेकिन हाल के समय में भौतिक आकांक्षाओं और जनजातियों की जीवनशैली में व्यापक बदलाव देखे गए हैं। इससे वनों पर मानवजनित दबाव में वृद्धि हुई है।

फील्ड अनुभव

  • गिर में मालधारी, निस्संदेह शेरों के साथ शांतिपूर्ण सहवास के लिये पूजनीय हैं किंतु कुछ नकारात्मक गतिविधियाँ जो मेरे रेंज चार्ज और सहायक वन संरक्षक के रूप में मेरे सेवाकाल के दौरान सामने आईं, वे थीं:
    • गृह निर्माण एवं चारे के लिये वृक्षों की कटाई एवं छंटाई:जो कि वनस्पति पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
    • खाद के रूप में बेचने के लिये नेस के चारों ओर ऊपरी मृदा और भैंस के गोबर को मिलाने की प्रथा: यह वन मृदा को पोषक तत्त्वों  के पुनर्चक्रण से वंचित करती है।    
    • कभी-कभी पीड़ित मालधारी द्वारा शेर को ज़हर देकर शव को कीटनाशकों से बाँधकर, प्रतिशोध लेना इन प्राणियों के प्रति अनुचित भावना को दर्शाता है।
    • मालधारियों द्वारा वार्षिक रूप से सर्दियों के आगमन के साथ-साथ अपने पशुओं के लिये घास की कमी के बहाने नेस का स्थानांतरण। यह "नेस का स्थानांतरण (शिफ्टिंग ऑफ नेस)" "स्थानांतरित कृषि" के अनुरूप है जिसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र को भारी नुकसान होता है। 
      • राजस्व और वन विभाग के भूमि रिकॉर्ड शायद ही कभी पूरी तरह से मेल खाते हों। ये विसंगतियाँ रिकॉर्ड के अनुचित रखरखाव या रिकॉर्ड  के संरक्षण के अनुचित तरीकों के साथ-साथ कभी-कभी निहित स्वार्थों की भूमिका के कारण भी बढ़ जाती हैं। विशेष रूप से वन्यजीव अभयारण्य क्षेत्र की घोषणा में धारा 18 (2) के तहत WPA में कहा गया है कि "अधिसूचना यथासंभव इस तरह के क्षेत्र की स्थिति और सीमाएँ निर्दिष्ट करेगी" तथा आगे स्पष्ट करेगी कि "क्षेत्र का वर्णन करने के लिये सड़कों, नदियों, पर्वत शृंखलाओं या अन्य बोधगम्य सीमाओं का उपयोग किया जाना चाहिये”। यह उल्लेखनीय है कि नदियाँ सूख सकती हैं या अपना मार्ग बदल सकती हैं, सड़कें और पगडंडियाँ चौड़ी हो सकती हैं या जीर्ण-शीर्ण हो सकती हैं। इसलिये यदि वन्यजीव अभयारण्य की सीमाओं को एक स्थिर या निश्चित संरचना जैसे सीमा स्तंभों द्वारा स्पष्ट रूप से सीमांकित नहीं किया जाता है, तो अभयारण्य की सटीक भौतिक सीमाओं को चिह्नित करना मुश्किल होता है। इसलिये दस्तावेज़ो में क्या है और ज़मीनी स्तर पर क्या है, के मध्य गंभीर विसंगतियों की संभावना रहती है।
      • लोकप्रिय और राजनीतिक दबावों द्वारा मानवीय मांगों को निःसंदेह उच्च स्तर पर बनाए रखा जाता है। जब वन्यप्राणी किसी व्यक्ति को घायल करता है, तो उस प्राणी को "आदमखोर" के रूप में संदर्भित करना मानक अभ्यास है, भले ही यह केवल एक संयोग से हुई मुठभेड़ ही क्यों न हो।

आगे की राह 

  • पर्यटन वन्यजीव अभयारण्य की वहन क्षमता के भीतर होना चाहिये।
  • जनजातियों या अन्य वनवासी समुदायों की अस्थिर या पारिस्थितिक रूप से अस्वस्थ प्रथाओं को हतोत्साहित किया जाना चाहिये और उनकी जाँच की जानी चाहिये।
  • अधिकारों की प्रदायिता एक तकनीकी अभ्यास के रूप में होनी चाहिये। इसे निहित अधिकारों से अलग किया जाना चाहिये- यह एक यूटोपियन कवायद लग सकती है लेकिन प्रयास यह होना चाहिये कि प्रक्रिया यथासंभव उद्देश्यपूर्ण और तथ्यों पर आधारित हो। इसके अलावा अधिकारों का पता लगाने के लिये स्पष्ट कार्यप्रणाली होनी चाहिये एवं जहाँ कहीं भी समय-सीमा दी गई है, उसका पालन बिना किसी पूर्वाग्रह के किया जाना चाहिये।
  • वन भूमि का डिजिटल भूमि रिकॉर्ड स्पष्टता का मार्ग प्रशस्त करेगा- जैसा कि ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि रिकॉर्ड के लिये स्वामित्व परियोजना में किया जा रहा है
  • वन्यजीव अभयारण्य के सीमांकन लिये सीमा स्तंभों को अनिवार्य रूप से स्थापित किया जाना चाहिये। साथ ही उनकी क्षति या परिवर्तन की जाँच के लिये नियमित निगरानी की जानी चाहिये। भारतीय वन अधिनियम में वनों की सीमा में परिवर्तन पर 2 वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है।
  • वन्यजीवों को 'आदमखोर' के रूप में लेबल किये जाने की आशंकाओं को दूर करने के लिये सामुदायिक संवाद आवश्यक है।

B. न्यूनतम दोषसिद्धि दर

वन्यजीव अभयारण्य और सामान्य रूप से वन न्यूनतम संचार और संयोजकता के क्षेत्र हैं। सामान्य अवलोकन यह है कि वन क्षेत्र के कर्मचारी कड़ी मेहनत करते हैंफिर भी दोषसिद्धि तथा अपराधों की रिपोर्टिंग कम है।

फील्ड अनुभव 

  • कर्मचारियों की कमी: कई अन्य सरकारी विभागों के एक सामान्य अवलोकन के रूप में स्वीकृत पदों के सापेक्ष वन विभाग में भी रिक्तियों की उच्च स्थिति है। वहीं, वन मंडलों में स्वीकृत संख्या के मुकाबले 50% से अधिक कर्मचारियों के पद खाली हैं। इस प्रकार गिर के वनों में ऐसे कई मामले सामने आते हैं जब एक बीट गार्ड (बीट वन में सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई ) 500 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र के प्रशासनिक देख-रेख का कार्य करता है- इतने बड़े क्षेत्र के लिये सिर्फ एक व्यक्ति।
  • चिड़ियाघर के वन्य प्राणियों के साथ किये जा रहे अपराधों के लिये बहुत कम लोगों की गिरफ्तारी: इस तथ्य के बावजूद कि WPA की धारा 38J में स्पष्ट रूप से कहा गया है: "कोई भी व्यक्ति किसी वन्यप्राणी के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा, उसे कष्ट नहीं देगा, घायल नहीं करेगा, खाद्य सामग्री नहीं खिलाएगा या शोर कर इन प्राणियों को परेशान नहीं करेगा और न ही चिड़ियाघर में अपशिष्ट फैलाएगा", इस प्रावधान के उल्लंघन के लिये स्पष्ट रूप से दंड निर्धारित है। परिणामस्वरूप चिड़ियाघर के वन्य प्राणियों के खिलाफ गलत कार्य करने वालों को दंडित करने की घटनाएँ अत्यधिक कम हैं।
  • संसाधनों की कमी: हालाँकि यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि अधिकांश राज्यों में वन विभाग को अपेक्षाकृत कम बजट आवंटन किया जाता है। परिणामस्वरूप वानिकी गतिविधियों और गश्ती संसाधनों दोनों के संबंध में आधारभूत संरचना में सुधार की आवश्यकता है। साथ ही यह भी एक सामान्य अवलोकन है कि खाकी धारण करने वाले वन कार्मिक अक्सर वन्यजीवों या अपराधियों के हमले के खिलाफ सुरक्षात्मक संसाधनों से सुसज्जित नहीं होते हैं। अधिकांश आक्रामक उपकरण/हथियार या तो कर्मचारियों के पास मौजूद नहीं हैं या यदि मौजूद हैं, तो निष्क्रिय पाए जाते हैं।
  • कानूनी पहलुओं में प्रशिक्षण का अभाव: कर्मचारियों को अधिकांशतः सेवाकालीन प्रशिक्षण या पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों में व्यावहारिक प्रशिक्षण का अनुभव बहुत कम होता है। प्रशिक्षण जो कि व्यावहारिक कौशल का प्रदर्शन और प्रतिपादन करता है, आवश्यक है किंतु अधिकतर मामलों में इसका अभाव पाया जाता है। परिणामस्वरूप प्रलेखन और साक्ष्य निर्माण एवं रिकॉर्डिंग के साथ-साथ अन्य कानूनी मुद्दों में सुधार की आवश्यकता है।

आगे की राह 

  • कर्मचारियों को सुरक्षात्मक और आक्रामक उपकरणों से लैस करना अनिवार्य है। साथ ही कर्मचारियों को हथियारों का प्रशिक्षण एवं उपकरणों का नियमित रखरखाव भी अनिवार्य है।
  • कार्मिकों की कमी को नीतिगत स्तर पर संबोधित किया जाना चाहिये, इससे देश में रोज़गार की बेहतर संभावनाओं को भी बढ़ावा मिलेगा।
  • प्रशिक्षण न केवल नियमित होना चाहिये बल्कि उसकी क्षेत्र और व्यावहारिक अभिविन्यास पर भी प्रत्यक्ष उपयोगिता होनी चाहिये।
  • वन्यजीवों के साथ दुर्व्यवहार की स्थिति में दंडात्मक कानूनों का सख्ती से क्रियान्वयन किया जाए।

C. संभावित अस्पष्ट व्याख्या

WPA की अपनी सभी शक्तियों के बावजूद कुछ निश्चित परिभाषाएँ हैं जो इसकी व्याख्या के आधार पर व्यापक या अस्पष्ट हो सकती हैं। इसे निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है:

  • धारा 2(16) शिकार को बहुत व्यापक अर्थ के साथ परिभाषित करती है- यदि वन्यजीवों के साथ किसी व्यक्ति की एक अनुपघातक या आकस्मिक मुठभेड़ होती है, तो उसे शिकार की परिभाषा में शामिल किया जा सकता है।

फील्ड अनुभव 

गिर वन क्षेत्र में शेर के वीडियो रिकॉर्ड करने और उन्हें सोशल मीडिया पर साझा करने की घटनाएँ कई बार देखी गई हैं, यह जाँच अधिकारी की समझ और वरीयता पर पर निर्भर करता  है कि उसे इस अपराध का कैसे समाधान करना है। आमतौर पर शेरों की स्थिति को खतरे में न डालने के इरादे से सोशल मीडिया पर एक अनुपघातक या अनजाने में साझा की गई सामग्री के लिये चेतावनी और लिखित माफी से ही मामला सुलझा दिया जाता है। हालाँकि क्षेत्र में एक एसओपी (सिस्टमैटिक ऑपरेटिंग प्रोसीजर-SOP) ज़रूरी है।

  • हालाँकि धारा 2(2) प्राणी-वस्तु को परिभाषित करती है लेकिन यह कपीड़क/वर्मिन प्रजातियों को इस परिभाषा से बाहर रखती है। एक प्रजाति को केवल एक विशिष्ट समय के लिये कपीड़क (पीड़क जंतु) घोषित किया जाना चाहिये, इसलिये यह संभव है कि एक प्राणी-वस्तु उस समय प्राप्त किया गया हो जब इसे कपीड़क घोषित नहीं किया गया था। यह उस विशिष्ट प्रजाति के खिलाफ वन्यजीव अपराध को वैध घोषित कर सकता है।

फील्ड अनुभव

कुछ राज्यों में जहाँ कुछ प्रजातियों को कपीड़क घोषित किया गया था, लोगों को लगा कि उनके शिकार के लिये लगभग मुफ्त लाइसेंस दे दिया गया है। फसल के नुकसान के खिलाफ सुरक्षा की आड़ में अंधाधुंध शिकार होने लगे उनमे से ज़्यादातर प्रतिशोध की वजह से हुए थे।

  • क्षेत्राधिकार का मुद्दा: वन विभाग किसी भी स्थान पर किये गए किसी भी वन्यजीव अपराध का संज्ञान लेने के लिये उचित स्थिति में है, जबकि वन्यजीव अपराधियों के एक बड़े समूह को सफलतापूर्वक पकड़ने के लिये अधिकतर अंतर-विभागीय समन्वय आवश्यक होता है।

उदाहरण के लिये राज्यक्षेत्रीय सागर खंड पर किये गए किसी भी वन्यजीव अपराध (वन्यजीव वस्तुओं की तस्करी के संभावित मार्ग के रूप में समुद्री मार्ग एक सामान्य ज्ञात तथ्य है) के लिये भारतीय तटरक्षक, समुद्री पुलिस या यहाँ तक कि नौसेना के साथ सक्रिय सहयोग की आवश्यकता हो सकती है- WPA की धारा 2(30A) द्वारा राज्यक्षेत्रीय सागर खंड को समान रूप से परिभाषित किया गया है।

फील्ड अनुभव 

हाल ही में भारतीय तटरक्षक (Indian Coast Guard-ICG) के सक्रिय सहयोग के बाद ही जामनगर के पास डॉल्फिन के शिकार  का एक मामला वन विभाग के संज्ञान में आया था, यह मामला शायद ध्यान में नहीं आया होता, अगर ICG ने स्वत: संज्ञान लेकर रिपोर्ट नहीं की होती।

  • सामुदायिक आरक्षिति मामला: धारा 36C (3) स्पष्ट रूप से भूमि प्रयोग पैटर्न परिवर्तन को एक कठिन कार्य बनाती है क्योंकि इसके लिये राज्य सरकार के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।

बदलती जीवनशैली और भौतिक आकांक्षाओं के साथ-साथ आजीविका के साधनों में बदलाव, भूमि प्रयोग पैटर्न परिवर्तन की मांग आम है लेकिन भूमि प्रयोग पैटर्न परिवर्तन का अर्थ अक्सर 'पर्याप्त' परिवर्तन जैसे शब्दों से अस्पष्ट हो जाता है।

  • इसी तरह ग्रामसभा की 'सूचित' सहमति जैसे शब्द अस्पष्ट हैं और व्याख्या को लचीला बनाते हैं जो निहित स्वार्थों के अनुकूल हो सकती है।

आगे की राह 

  • ऐसे शब्दों जैसे- 'पर्याप्त' या 'सूचित' की स्पष्ट व्याख्या की जानी चाहिये जो अस्पष्ट हो सकते हैं या व्याख्या को लचीला बनाते हैं। इसके अलावा इनकी मात्रा के संदर्भ में स्पष्टता बनाए रखनी चाहिये, उदाहरण के लिये ग्रामसभा के सदस्यों का एक कोरम जो एक 'सूचित' समूह का गठन करेगा, निर्धारित किया जा सकता है। इसी तरह 'पर्याप्त' भूमि परिवर्तन को प्रतिशत क्षेत्र या हेक्टेयर या वर्ग किलोमीटर आदि के रूप में निर्धारित किया जा सकता है।
  • वन्यजीव अपराध के समाधान हेतु अंतर-विभागीय कार्रवाई में भी क्षेत्राधिकार और ज़िम्मेदारियों का स्पष्ट परिसीमन, ज़िम्मेदारियों के विभाजन के कारण मामले के प्रसार को रोक सकता है।
  • SOP में विभिन्न श्रेणियों के अपराधों के लिये दंड निर्धारित किया जा सकता है। इनमें सोशल मीडिया के मामले भी शामिल होने चाहिये।

इसलिये WPA विधान में सुधार की गुंजाइश है और इसे वर्तमान स्थिति से बेहतर बनाया जा सकता है तथा यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि सुधार जल्द से जल्द लागू हो।

सारांश में:

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