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डेली न्यूज़

  • 05 Apr, 2024
  • 37 min read
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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ग्लोबल साउथ के लिये भारतीय दृष्टिकोण का केंद्र अफ्रीका

प्रिलिम्स के लिये:

ग्लोबल साउथ, भारत-अफ्रीका संबंध, वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्, ब्रांट लाइन, ग्रुप-77, अफ्रीकी संघ, हॉर्न ऑफ अफ्रीका

मेन्स के लिये:

ग्लोबल साउथ के लिये भारत का दृष्टिकोण, ग्लोबल साउथ के दृष्टिकोण में अफ्रीका को प्राथमिकता देना।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

भारत ने अपनी विभिन्न राजकीय यात्राओं के दौरान अफ़्रीका के प्रति बढ़ते रुझान पर प्रकाश डाला है। यह बदलाव महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह एक प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में भारत के बढ़ते कद को प्रदर्शित करता है, जो ग्लोबल साउथ/वैश्विक दक्षिण के हितों का समर्थन करने का अवसर प्रदान करता है। 

ग्लोबल साउथ के लिये भारत का दृष्टिकोण क्या है?  

  • ग्लोबल साउथ को मौका देनाः भारत स्वयं को विकासशील देशों के प्रतिनिधि के रूप में देखता है, यह सुनिश्चित करता है कि उनके मुद्दों को G20 जैसे बड़े मंचों पर सुना जाए।
    • इसमें "वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट" जैसी पहल शामिल है, जिसका उद्देश्य विकासशील देशों के लिये आम चुनौतियों पर चर्चा करने हेतु एक मंच का निर्माण करना है।
  • समर्थन और सुधारः भारत विकासशील देशों के हितों को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करने के लिये वैश्विक संस्थानों में सुधारों का समर्थन करता है।
    • इसमें अंतर्राष्ट्रीय कराधान, जलवायु वित्त जैसे क्षेत्रों में परिवर्तन या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे संगठनों के भीतर विकासशील देशों को अत्यधिक निर्णय लेने की शक्ति देना शामिल हो सकता है।
  • दक्षिण-दक्षिण सहयोगः भारत सर्वोत्तम प्रथाओं, प्रौद्योगिकियों और संसाधनों को साझा करके विकासशील देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देता है।
    • वर्ष 2017 में शुरू किया गया भारत-संयुक्त राष्ट्र विकास साझेदारी कोष अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीप वाले विकासशील देशों को प्राथमिकता देते हुए दक्षिणी नेतृत्व वाली सतत् विकास परियोजनाओं में सहायता करता है।
  • जलवायु परिवर्तन शमनः वैश्विक दक्षिण के लिये भारत के दृष्टिकोण में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये सहयोगात्मक प्रयास शामिल हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) जैसी पहलों के माध्यम से भारत का उद्देश्य एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देना है, जो सतत् विकास एवं जलवायु लचीलापन में योगदान देता है।

ग्लोबल साउथ क्या है?

  •  परिचय: ग्लोबल साउथ से तात्पर्य उन देशों से है जिन्हें अक्सर विकासशील, कम विकसित अथवा अविकसित के रूप में जाना जाता है।
    • ग्लोबल साउथ, जिसे अमूमन पूर्णतः भौगोलिक अवधारणा के रूप में गलत समझा जाता है, भू-राजनीतिक, ऐतिहासिक तथा विकासात्मक कारकों पर आधारित विविध देशों को संदर्भित करता है।
    • "ग्लोबल नॉर्थ" अधिक समृद्ध राष्ट्र हैं जो ज़्यादातर उत्तरी अमेरिका और यूरोप में स्थित हैं, इनमें ओशिनिया तथा अन्य जगहों पर कुछ नए देश भी शामिल हैं।
    • ये राष्ट्र आमतौर पर अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, कैरेबियन क्षेत्र और एशिया (एशिया के जापान तथा दक्षिण कोरिया एवं ऑस्ट्रेलिया जैसे उच्च आय वाले देशों को छोड़कर) में स्थित हैं।

  • ऐतिहासिक संदर्भ: 
    • ऐसा प्रतीत होता है कि ग्लोबल साउथ शब्द का प्रयोग पहली बार 1969 में राजनीतिक कार्यकर्त्ता कार्ल ओग्लेस्बी द्वारा किया गया था।
    • ब्रांट लाइन (Brandt Line): यह रेखा 1980 के दशक में पूर्व जर्मन चांसलर विली ब्रांट द्वारा प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर उत्तर-दक्षिण विभाजन के दृश्य चित्रण के रूप में प्रस्तावित की गई थी।
    • G-77: वर्ष 1964 में 77 देशों का समूह (G-77) तब अस्तित्त्व में आया जब इन देशों ने जिनेवा में व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCTAD) के पहले सत्र के दौरान एक संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किये।

अपने ग्लोबल साउथ विजन में अफ्रीका को प्राथमिकता देने से भारत को कैसे फायदा हो सकता है? 

  • आर्थिक क्षमता: अफ्रीका भारत के लिये एक बड़े आर्थिक अवसर का प्रतिनिधित्व करता है। 2023 में अफ्रीका में भारतीय निवेश 98 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने और कुल 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर के व्यापार के साथ, यह महाद्वीप भारतीय व्यवसायों के लिये एक महत्त्वपूर्ण बाज़ार के रूप में कार्य करता है।
  • उन्नत रणनीतिक संबंध: वैश्विक मंचों पर अफ्रीका का प्रभाव बढ़ रहा है, जिससे यह भारत की वैश्विक आकांक्षाओं के लिये एक रणनीतिक भागीदार बन गया है।
    • G20 और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) जैसे मंचों पर अफ्रीकी प्रतिनिधित्व के लिये भारत की वकालत समावेशी वैश्विक शासन के लिये साझा दृष्टिकोण को दर्शाती है।
    • इस संबंध में भारत ने कई कूटनीतिक विजय प्राप्त की हैं, जैसे सितंबर 2023 में अफ्रीकी संघ (AU) को G20 में शामिल करना।
  • युवा जनसांख्यिकी का दोहन: अफ्रीका की 60% युवा आबादी 25 वर्ष से कम आयु की है, जो शिक्षा, प्रौद्योगिकी और नवाचार में सहयोग की अपार संभावनाएँ प्रस्तुत करती है।
    • अफ्रीकी युवाओं को सशक्त बनाने और सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये कौशल विकास तथा शिक्षण पहलों में भारत के अनुभव का लाभ उठाया जा सकता है।
  • संभावित संसाधन सहयोग: अफ्रीका में नवीकरणीय ऊर्जा और प्रौद्योगिकी जैसे उद्योगों के लिये आवश्यक महत्त्वपूर्ण खनिजों के समृद्ध भंडार सहयोग के लिये एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करते हैं।
    • नवीकरणीय ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में भारत की विशेषज्ञता को नवाचार तथा सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये अफ्रीका के संसाधनों के साथ जोड़ा जा सकता है।
  • मज़बूत भू-राजनीतिक प्रभाव: अफ्रीका के साथ एक मज़बूत भागीदारी वैश्विक मंच पर भारत की रणनीतिक स्थिति को बढ़ाती है। 
    • यह भारत को वैश्विक शासन को आकार देने और ग्लोबल साउथ के लिये महत्त्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने में अधिक प्रभावशाली भूमिका निभाने की अनुमति देता है।
    • अफ्रीका के साथ भारत के बढ़ते संबंध महाद्वीप (विशेष रूप से हॉर्न ऑफ अफ्रीका) पर चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने में सहायता कर सकते हैं।

ग्लोबल साउथ में एक नेता के रूप में भारत के लिये चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • आंतरिक विकास के मुद्दे: आलोचकों का तर्क है कि भारत को दूसरों का नेतृत्व करने से पूर्व असमान धन वितरण, बेरोज़गारी तथा अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे जैसे अपने घरेलू विकास के मुद्दों को प्राथमिकता देनी चाहिये।
    • भारत की विशाल ग्रामीण जनसंख्या के पास गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल एवं शिक्षा तक पहुँच का अभाव है, जिससे अन्य विकासशील देशों में इसी तरह के मुद्दों को संबोधित करने की इसकी क्षमता पर प्रश्न उठ रहे हैं।
  • विविध आवश्यकताएँ एवं प्राथमिकताएँ: ग्लोबल साउथ एक समरूप समूह नहीं है। भिन्न-भिन्न देशों की ज़रूरतें और प्राथमिकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इन विविध मांगों को संतुलित करना कठिन हो सकता है।
    • अफ्रीकी देश ऋण राहत को प्राथमिकता दे सकते हैं, जबकि दक्षिण-पूर्व एशियाई देश प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
    • भारत को एकीकृत मोर्चे को बढ़ावा देते हुए इन विशिष्ट ज़रूरतों को पूरा करने के तरीके खोजने की आवश्यकता है।
  • वैश्विक भागीदारी को संतुलित करना: भारत के अमेरिका और जापान जैसे विकसित देशों के साथ मज़बूत आर्थिक संबंध हैं। इससे ग्लोबल साउथ की वकालत करने और साथ ही इन महत्त्वपूर्ण संबंधों को यथासंभव बनाए रखने के बीच संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।
    • भारत कठोर व्यापार नियमों पर ज़ोर देने से बचने का प्रयास कर सकता है जो संभावित रूप से विकसित देशों के निर्यात को हानि पहुँचा सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन पर विश्वसनीयता: प्रति व्यक्ति कम CO2 उत्सर्जन के बावजूद, भारत CO2 का विश्व में तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। ग्लोबल साउथ के अंर्तगत कठोर जलवायु कार्रवाई की वकालत करते समय यह इसकी स्थिति को और अधिक कमज़ोर करता है।

आगे की राह

  • मितव्ययी तकनीकी नवाचार: भारत ग्लोबल साउथ में आम चुनौतियों जैसे मोबाइल स्वास्थ्य निदान अथवा दूरस्थ शिक्षण प्लेटफॉर्मों के लिये कम लागत, स्केलेबल तकनीकी समाधान विकसित करने पर केंद्रित प्रयोगशालाओं की स्थापना करके मितव्ययी नवाचार में अपनी विशेषज्ञता का लाभ उठा सकता है।
  • घूर्णनशील नेतृत्व: ऐकिक नेतृत्व के स्थान पर भारत ग्लोबल साउथ के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व के साथ एक घूर्णनशील नेतृत्व परिषद का समर्थन करता है। यह अधिक सहयोगात्मक एवं समावेशी दृष्टिकोण को बढ़ावा देगा।
  • ग्लोबल साउथ सैटेलाइट नेटवर्क: भारत विकासशील देशों के संघ द्वारा प्रक्षेपित एवं संचालित कम लागत वाले उपग्रहों के नेटवर्क का विकास कर सकता है। यह नेटवर्क पारंपरिक बुनियादी ढाँचे तथा इंटरनेट सुविधाओं की कमी वाले क्षेत्रों के लिये आवश्यक डेटा तथा सेवाएँ प्रदान कर सकता है।
    • भारत ग्लोबल साउथ के अंर्तगत त्वरित आपदा प्रतिक्रिया नेटवर्क विकसित करने हेतु रिसैट (RISAT) जैसी उन्नत उपग्रह तकनीक का भी उपयोग कर सकता है।
  • दक्षिण-दक्षिण व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र: ग्लोबल साउथ में रणनीतिक स्थानों पर व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने के साथ ही स्थानीय आवश्यकताओं के लिये प्रासंगिक कौशल विकास कार्यक्रम प्रस्तुत करना।
    • यह व्यक्तियों को रोज़गार बाज़ार में आगे बढ़ने तथा उनकी अर्थव्यवस्थाओं में योगदान करने हेतु आवश्यक कौशल सृजित करता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: 

प्रश्न. ग्लोबल साउथ के नेता के रूप में भारत आम विकास चुनौतियों का समाधान करने, क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने और दक्षिण-दक्षिण साझेदारी बढ़ाने के लिये किन रणनीतियों एवं पहलों को प्राथमिकता दे सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: निम्नलिखित में से किस एक समूह में चारों देश G-20 के सदस्य हैं?

(a) अर्जेंटीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की
(b) ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मलेशिया और न्यूज़ीलैंड
(c) ब्राज़ील, ईरान, सऊदी अरब और वियतनाम
(d) इंडोनेशिया, जापान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया

उत्तर: (a)


मेन्स: 

प्रश्न. ‘उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था में भारत द्वारा प्राप्त नव-भूमिका के कारण उत्पीड़ित एवं उपेक्षित राष्ट्रों के मुखिया के रूप में दीर्घकाल से संपोषित भारत की पहचान लुप्त हो गई है’। विस्तार से समझाइये। (2019)


कृषि

भारत में फसल विविधीकरण में तेज़ी लाना

प्रिलिम्स के लिये:

फसल विविधीकरण, गेहूँ की खेती, व्हीट ब्लास्ट रोग, केले की खेती, भारत में हरित क्रांति, दलहनी फसलें, जैव ईंधन, न्यूनतम समर्थन मूल्य

मेन्स के लिये:

भारत में फसल विविधीकरण की आवश्यकताएँ, फसल विविधीकरण से संबंधित चिंताएँ।

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल, विशेष रूप से बांग्लादेश की सीमा से लगे ज़िलों में फसल विविधीकरण के माध्यम से कृषि परिदृश्य में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिला है।

  • यह बदलाव किसानों द्वारा पारंपरिक गेहूँ की खेती के विकल्पों के रूप में केले की खेती, दाल, मक्का जैसी अन्य फसलों की ओर बढ़ने की विशेषता को प्रदर्शित करता है।

गेहूँ उत्पादन में परिवर्तन के पीछे क्या कारण हैं? 

  • व्हीट ब्लास्ट रोग: वर्ष 2016 में बांग्लादेश में व्हीट ब्लास्ट रोग के फैलने के कारण पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और नादिया ज़िलों सहित सीमावर्ती क्षेत्रों में भी गेहूँ की खेती पर दो वर्ष का आधिकारिक प्रतिबंध लगा दिया गया, जिसने वहाँ के किसानों को वैकल्पिक फसलें उगाने के लिये प्रेरित किया।
    • व्हीट ब्लास्ट रोग एक फंगल संक्रमण है जो मैग्नापोर्थे ओराइज़े ट्रिटिकम (MoT) कवक के कारण होता है, जो मुख्य रूप से गेहूँ की फसलों को प्रभावित करता है।
      • यह गेहूँ की बालियों, पत्तियों और तनों पर बड़े घावों के रूप में दिखाई देता है, जिससे उपज को गंभीर नुकसान होता है।
  • आर्थिक व्यवहार्यता: किसानों ने केले जैसी वैकल्पिक फसलों की खेती के आर्थिक लाभों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।
    • व्यस्‍ततम अवधि (Peak Seasons) के दौरान केले जैसी फसलों की लाभप्रदता, गेहूँ की स्थिर कीमतों और जल की खपत से संबंधित चिंताओं ने फसलों के बदलाव में योगदान दिया है।
  • अधिक उत्पादन वाली फसलों की ओर बदलाव: क्षेत्र में मक्के की खेती में भी उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, जिसका उत्पादन वर्ष 2011 से 2023 तक लगभग आठ गुना बढ़ गया है।
    • जबकि मक्के की कीमतें गेहूँ की तुलना में प्रति क्विंटल कम हो सकती हैं, प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन, पोल्ट्री और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की मांग इसे एक आकर्षक विकल्प उपलब्ध कराती है।
    • इस क्षेत्र में दलहन और तिलहन उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

भारत को फसल विविधीकरण पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता क्यों है?

  • परिचय: फसल विविधीकरण का तात्पर्य एक ही फसल पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय एक खेत में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाने की प्रथा से है।
    • अधिक उपज देने वाली चावल और गेहूँ की किस्मों की शुरुआत के माध्यम से भारत में हरित क्रांति के परिणामस्वरूप खाद्य उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई, जिससे भूख एवं कुपोषण में प्रभावी रूप से कमी आई है।
      • हालाँकि इन फसलों की मोनोकल्चर (एकल कृषि) से फसल की विविधता में कमी आई, जिससे पारंपरिक, क्षेत्र-विशिष्ट उपभेदों में गिरावट हुई और साथ ही आनुवंशिक विविधता की हानि भी हुई।
      • उदाहरण के लिये, हरित क्रांति के प्रभाव के कारण 1970 के दशक से वर्तमान तक भारत से चावल की 100,000 से अधिक पारंपरिक किस्में विलुप्त हो गईं
    • इसलिये सतत् कृषि को बढ़ावा देने के लिये फसल विविधीकरण की ओर बढ़ने की आवश्यकता है।
  • फसल विविधीकरण के लाभ:
    • जोखिम में कमी: सूखे की आशंका वाले क्षेत्रों में किसान सूखा-सहिष्णु फसलों (जैसे बाजरा या ज्वार) तथा जल-गहन फसलें (जैसे चावल या सब्ज़ियाँ) दोनों को उगाकर अपनी फसलों में विविधता ला सकते हैं।
      • यदि जल की कमी हो, तब भी  सूखा-सहिष्णु फसलें उगाई जा सकती हैं, जिससे प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद फसल उत्पादन सुनिश्चित हो सकता है।
    • मृदा स्वास्थ्य में सुधार: सोयाबीन या मूँगफली जैसी फलीदार फसलें उगाने से मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा स्थिर हो सकती है, जिससे मक्का या गेँहू जैसी बाद की फसलों को लाभ होगा, जिन्हें इष्टतम विकास के लिये नाइट्रोजन युक्त मृदा की आवश्यकता होती है।
    • विपणन में सहायता: फसलों में विविधता लाने से किसानों को विशिष्ट बाज़ारों या फसलों के नए रुझानों का लाभ उठाने में सहायता प्राप्त हो सकती है।
      • उदाहरण के लिये जैविक उपज की बढ़ती मांग किसानों के लिये जैविक खेती में विविधता लाने का अवसर प्रस्तुत करती है, जिसकी कीमतें बाज़ार में अक्सर पारंपरिक रूप से उगाई गई फसलों की तुलना में अधिक होती हैं।
    • कीट एवं रोग प्रबंधन: अंतर-फसल या मिश्रित फसल, फसल विविधीकरण का एक रूप, कीटों और रोगों के प्रबंधन में सहायता कर सकता है।
      • उदाहरण के लिये सब्ज़ियों की फसलों के साथ गेंदे के फूल लगाने से कीटों को रोका जा सकता है, रासायनिक कीटनाशकों की आवश्यकता कम हो सकती है और प्राकृतिक कीट नियंत्रण तंत्र को बढ़ावा भी मिल सकता है।
    • जैव ईंधन के स्रोत: जेट्रोफा (Jatropha) और पोंगामिया (Pongamia) जैसी फसलें जैव ईंधन उत्पादन के संभावित स्रोत हैं। इससे किसानों को अतिरिक्त आय के अवसर मिल सकते हैं और भारत की ऊर्जा सुरक्षा में योगदान मिल सकता है।
  • चिंताएँ: 
    • बाज़ार जोखिम और सीमित अवसरः प्रायः किसान चावल और गेहूँ जैसी स्थापित फसलों (जिनके लिये MSP के माध्यम से सरकारी सहायता का आश्वासन दिया गया है) से कम ज्ञात फसलों की ओर स्विच करने में संकोच करते हैं।
      • इन विकल्पों में बाज़ार की कीमतों में उतार-चढ़ाव या सीमित मांग हो सकती है, जिससे संभावित आय में हानि हो सकती है।  
    • वित्तीय बाधाएँ: फसलों में विविधता लाने के लिये बीजों, उपकरणों में अतिरिक्त निवेश और यहाँ तक कि कृषि प्रथाओं के बारे में नवीन ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है।
      • छोटे किसान, जो भारत के कृषि क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं, उनके पास इन परिवर्तनों को सरलता से अपनाने के लिये वित्तीय संसाधन नहीं हो सकते हैं।
      • इसके अतिरिक्त ज्वार, रागी तथा बाज़रा जैसे कदन्न अपने उच्च पोषण मूल्य एवं सीमांत भूमि में उगने की क्षमता के कारण किसानों द्वारा आकर्षण प्राप्त कर रहे हैं। 
        • हालाँकि, एक मज़बूत बाज़ार के निर्माण हेतु प्रसंस्करण सुविधाओं में निवेश की आवश्यकता होती है ताकि उन्हें खाने के लिये तैयार मिश्रण या नाश्ते के रूप में अनाज जैसे उपभोक्ता के अनुकूल उत्पादों में परिवर्तित किया जा सके।
    • बुनियादी ढाँचे और भंडारण की कमीः खराब होने वाली विविध फसलों के लिये प्रायः विशेष भंडारण एवं परिवहन सुविधाओं की आवश्यकता होती है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकती हैं।
      • उचित बुनियादी ढाँचे के बिना ये फसलें जल्दी खराब हो सकती हैं, जिससे उपज बर्बाद हो सकती है और आय में हानि हो सकती है।   
    • आहार संबंधी परंपराओं के साथ संघर्षः भारत में फसल विविधीकरण, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ चावल और गेहूँ की फसल को महत्त्वपूर्ण रूप से उगाया जाता है, इन क्षेत्रों में प्रचलित बाज़ार की गतिशीलता एवं खपत के पैटर्न को संभावित रूप से बाधित कर सकता है।

फसल विविधीकरण के संबंध में सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

  • फसल विविधीकरण कार्यक्रमः कृषि और किसान कल्याण विभाग (DA&FW) राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) के भाग के रूप में वर्ष 2013-14 से फसल विविधीकरण कार्यक्रम (CDP) को लागू कर रहा है, विशेषतः हरित क्रांति वाले राज्यों-हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लक्षित कर रहा है।
    • इस पहल का उद्देश्य जल-गहन धान की खेती से दलहन, तिलहन, मोटे अनाज, पोषक अनाज और कपास जैसी वैकल्पिक फसलों पर ध्यान केंद्रित करना है।
  • एकीकृत बागवानी विकास मिशन (MIDH): यह बागवानी क्षेत्र के समग्र विकास हेतु एक केंद्र प्रायोजित योजना है जिसमें फल, सब्ज़ियाँ, जड़ और कंद फसलें, मशरूम, मसाले, फूल, सुगंधित पौधे, नारियल, काजू, कोको तथा बाँस शामिल हैं।
  • खरीफ फसलों के लिये MSP में वृद्धिः आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCEA) ने विपणन सीज़न वर्ष 2023-24 के लिये सभी अनिवार्य खरीफ फसलों हेतु न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में वृद्धि को स्वीकृति प्रदान की है।
  • मेरा पानी-मेरी विरासत योजना (हरियाणा): यह धान की खेती से दलहन, तिलहन, बाज़रा और सब्ज़ियों जैसे जल-बचत विकल्पों की ओर बढ़ने वाले किसानों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है। 

आगे की राह

  • कृषि-पर्यटन तथा 'यू-पिक' फार्म: अनुभवात्मक पर्यटन लोकप्रियता प्राप्त कर रहा है। 'यू-पिक' फार्म बनाना जहाँ पर्यटक प्रत्यक्ष रूप से खेतों से अपने फल एवं सब्ज़ियों की उपज कर सकें, भारत के लिये यह लाभदायक हो सकता है।
    • यह किसानों को अतिरिक्त आय प्रदान करता है, और साथ ही यह उपभोक्ताओं एवं कृषि के बीच संबंध को बढ़ावा देता है तथा विविध फसलीकरण को बढ़ावा भी देता है।
  • जीन संपादन के माध्यम से बायोफोर्टिफिकेशन: CRISPR जैसी जीन संपादन तकनीकों का उपयोग उन्नत पोषण मूल्य वाली फसलें विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
    • इससे कुपोषण संबंधी चिंताओं को दूर किया जा सकता है और साथ ही बायोफोर्टिफाइड फसलों हेतु नए बाज़ार तैयार किये जा सकते हैं।
    • हालाँकि इससे  संबंधित नैतिक विचारों एवं कठोर नियमों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • सतत् विविधीकरण हेतु पुनर्योजी कृषि: अधिक सतत् एवं लचीली कृषि प्रणाली तैयार करने के लिये कवर क्रॉपिंग, कम्पोस्टिंग के साथ-साथ बिना जुताई वाली खेती जैसी पुनर्योजी कृषि प्रथाओं को विविध फसल चक्रों के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
    • इससे न केवल दीर्घकालिक फसल की उत्पादकता को लाभ होता है और साथ ही जलवायु परिवर्तन को कम करते हुए कार्बन को भी सोख लिया जाता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न. भारत को फसल विविधीकरण में तीव्रता लाने, सतत् कृषि, किसानों की आजीविका के साथ ही खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु किन प्रमुख नवीन रणनीतियों पर कार्य करने की आवश्यकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. जल इंजीनियरी और कृषि-विज्ञान के क्षेत्रों में क्रमशः सर एम. विश्वेश्वरैया और डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन के योगदानों से भारत को किस प्रकार लाभ पहुँचा था? (2019)

प्रश्न. भारत में स्वतंत्रता के बाद कृषि में आई विभिन्न प्रकारों की क्रांतियों को स्पष्ट कीजिये। इन क्रांतियों ने भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार सहायता प्रदान की है? (2017)


भूगोल

बंगाल की खाड़ी में मैग्नेटिक फॉसिल्स

प्रिलिम्स के लिये:

मैग्नेटिक फॉसिल्स, मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया, पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र, पेलियोसीन-इओसीन थर्मल मैक्सिमम, मध्य इओसीन जलवायु मैक्सिमम, बंगाल की खाड़ी, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी 

मेन्स के लिये:

मैग्नेटो फॉसिल्स के अध्ययन का महत्त्व।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वैज्ञानिकों ने 50,000 वर्ष पुरानी तलछट (पानी या और किसी द्रव पदार्थ के नीचे बैठी हुई मैल) का पता लगाया है, जो कि बंगाल की खाड़ी में पाया जाने वाला एक विशाल मैग्नेटोफॉसिल्स है, यह अपनी तरह की सबसे दुर्लभ खोजों में से एक है।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • मानसून में उतार-चढ़ाव: तलछट के नमूनों का विश्लेषण करने पर पिछले हिमनद-होलोसीन अवधि के दौरान मानसून में उतार-चढ़ाव का संकेत मिला, जिससे मौसम के उत्सादन एवं अवसादन पर प्रभाव पड़ा।
  • मैग्नेटिक फॉसिल्स विकास हेतु इष्टतम स्थितियाँ: अध्ययन से पता चलता है कि विशाल मैग्नेटोफॉसिल्स निर्माण के लिये जलवायु परिवर्तन की घटनाएँ आवश्यक नहीं हैं; इसके स्थान पर लौह, कार्बनिक कार्बन एवं सबऑक्सिक स्थितियों का संतुलन आवश्यक है।
  • मैग्नेटोफॉसिल्स द्वारा प्राप्त की गई जानकारी: मैग्नेटोफॉसिल्स प्राचीन जलीय वातावरण में पोषक तत्त्वों की उपलब्धता, ऑक्सीजन के स्तर और जल स्तरीकरण सहित पिछली पर्यावरणीय स्थितियों के बारे में जानकारी को प्राप्त करता है।
    • बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली गोदावरी, महानदी, गंगा-ब्रह्मपुत्र, कावेरी और पेन्नर जैसी नदियों ने पोषक तत्त्वों से भरपूर तलछट एवं प्रतिक्रियाशील लौह तत्त्व प्रदान करके मैग्नेटो जीवाश्म निर्माण में योगदान दिया।

मैग्नेटोफॉसिल्स क्या हैं?

  • परिचय: 
    • "मैग्नेटोफॉसिल्स" मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया (Magnetotactic Bacteria) के जीवाश्म अवशेषों को संदर्भित करता है जिनमें चुंबकीय खनिज होते हैं।
    • मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया भूवैज्ञानिक रिकॉर्ड में जीवाश्म युक्त चुंबकीय कण उत्सर्जित करते हैं।
  • मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया:
    • मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया ज़्यादातर प्रोकैरियोटिक जीव होते हैं जो स्वयं को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के साथ व्यवस्थित करते हैं। इसकी खोज वर्ष 1963 में साल्वाटोर बेलिनी ने की थी।
    • ये जीव उन स्थानों तक पहुँचने के लिये चुंबकीय क्षेत्र का अनुसरण करते हैं जहाँ इष्टतम ऑक्सीजन सांद्रता होती है। यह प्रक्रिया उनकी कोशिकाओं के भीतर लौह-समृद्ध क्रिस्टल की उपस्थिति से सुगम होती है।
      • मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया जल निकायों में बदलते ऑक्सीजन स्तर और तलछट संतृप्ति को नेविगेट करने के लिये अपनी कोशिकाओं के भीतर मैग्नेटाइट या ग्रेगाइट के छोटे क्रिस्टल बनाते हैं।
      • मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया के भीतर क्रिस्टल मैग्नेटोटैक्सिस के माध्यम से एक शृंखला विन्यास में व्यवस्थित होते हैं।
    • दुर्लभ विशाल मैग्नेटो जीवाश्म पारंपरिक चुंबकीय जीवाश्मों की तुलना में इतने आम नहीं हैं, ये संभवतः बैक्टीरिया के बजाय यूकेरियोट्स द्वारा निर्मित होते हैं।
  • मैग्नेटोफॉसिल्स की उत्पत्ति:
    • अधिकांश विशाल मैग्नेटोफोसिल्स दो भूवैज्ञानिक समय अवधि पेलियोसीन-इओसीन थर्मल मैक्सिमम (लगभग 56,000 मिलियन वर्ष पहले) और मिडिल इओसीन क्लाइमैटिक ऑप्टिमम (लगभग 40 मिलियन वर्ष पहले) के तलछट में पाए गए हैं, जो दोनों समयों पर वैश्विक तापमान में वृद्धि के लिये जाने जाते थे।
      • इसने सुझाव दिया कि मैग्नेटोफॉसिल्स का निर्माण केवल ग्रीष्मकालीन अवधि के दौरान हुआ।
    • बंगाल की खाड़ी से विशाल मैग्नेटो जीवाश्मों की खोज लगभग 50,000 साल पहले, अंतिम क्वार्टनरी काल (late Quaternary Period) से हुई थी, जिससे वे अब तक खोजे गए सबसे कम उम्र के विशाल मैग्नेटो जीवाश्म बन गए।
      • वर्तमान अध्ययन इस धारणा को चुनौती देता है कि मैग्नेटोफॉसिल्स का निर्माण ग्रीष्मकालीन अवधि के दौरान हुआ था।

प्रोकैरियोट्स

यूकेरियोट्स

  • प्रोकैरियोट्स ऐसे जीव हैं जिनमें नाभिक और झिल्लीयुक्त अंगों की कमी होती है।
    • उनके आनुवंशिक पदार्थ, गोलाकार डी.एन.ए. अणु, एक परमाणु झिल्ली के भीतर संलग्न हुए बिना कोशिका द्रव्य में मौजूद होते हैं।
  • प्रोकैरियोट्स में बैक्टीरिया और आर्किया शामिल हैं।
  • मुख्य विशेषताओं में नाभिक या अंग के बिना छोटी, सरल कोशिकाएँ शामिल हैं।
  • यूकेरियोट्स ऐसे जीव होते हैं जिनमें एक झिल्ली के भीतर नाभिक युक्त कोशिकाएँ होती हैं।
    • यूकेरियोटिक कोशिकाओं में विभिन्न प्रकार के झिल्ली-बद्ध अंगक होते हैं जैसे कि माइटोकॉन्ड्रिया, एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम, गोल्गी एपरेटस और आंतरिक झिल्ली का एक जटिल नेटवर्क।
  • यूकेरियोट्स में सभी प्रकार के जानवर, पौधे और कवक शामिल हैं।
  • मुख्य विशेषताओं में केंद्रक युक्त वृहद जटिल कोशिकाएँ और विभिन्न अंगक शामिल हैं।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. शब्द ‘डेनिसोवन (Denisovan)’ कभी-कभी समाचार माध्यमों में किस संदर्भ में आता है? (2019) 

(a) एक प्रकार के डायनासोर का जीवाश्म 
(b) एक आदिमानव जाति (स्पीशीज़) 
(c) पूर्वोत्तर भारत में प्राप्त एक गुफा तंत्र 
(d) भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक भूवैज्ञानिक कल्प

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. मैगेंटोफॉसिल्स और उनके निर्माण में मैग्नेटोटैक्टिक बैक्टीरिया की भूमिका पर चर्चा कीजिये


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