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भारतीय अर्थव्यवस्था

तिलहन क्षेत्र को पुनर्जीवित करना

  • 18 Feb 2023
  • 18 min read

यह एडिटोरियल 16/02/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “How to revitalise the oilseeds sector” लेख पर आधारित है। इसमें महंगे आयात पर अंकुश लगाने के लिये तिलहन के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु आवश्यक उपायों के बारे में चर्चा की गई है।

तेज़ी से बढ़ती आबादी और खाद्य तेलों की बढ़ती मांग के साथ भारत विश्व में वनस्पति तेलों के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक के रूप में उभरा है। लेकिन देश के घरेलू तिलहन उत्पादन का इस बढ़ती मांग के साथ तालमेल नहीं बन सका है, जिससे भारी आयात निर्भरता की स्थिति बनी है।

वर्तमान में भारत गंभीर घरेलू कमी को पूरा करने के लिये 14 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक मूल्य के वनस्पति तेल का आयात करता है, लेकिन यह घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने और घरेलू उत्पादन को बढ़ाकर आयात पर निर्भरता कम करने का इरादा भी रखता है।

निकट भविष्य में तिलहन के मामले में देश को आत्मनिर्भरता प्राप्त करना होगा है, लेकिन अभी आयात अपरिहार्य है। वर्तमान आयात रणनीति उपभोक्ताओं के लाभ को प्राथमिकता देती है और स्थानीय तिलहन किसानों के कल्याण की अवहेलना करती है।

तिलहन पर एक समग्र नीति को उपभोक्ताओं और उत्पादकों के हितों को विवेकपूर्ण ढंग से संतुलित करना होगा, तभी यह प्रभावी हो सकेगा। भूमि संबंधी बाधा, जल की कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे उभरते जोखिमों के कारण इस दिशा में व्यापक नीतिगत कार्रवाई की आवश्यकता है।

भारत तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर क्यों नहीं है?

  • भूमि विखंडन:
    • भारत में तिलहन उत्पादन की प्रमुख चुनौतियों में से एक है भूमि विखंडन या जोत का छोटा आकार
    • भारतीय किसान छोटी जोत रखते हैं, जिससे उनके लिये आधुनिक कृषि तकनीकों, मशीनरी और प्रौद्योगिकी को अपनाना कठिन हो जाता है।
  • निम्न उत्पादकता:
    • भारत में तिलहन की पैदावार अन्य देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम है। तिलहन की उत्पादकता गुणवत्ताहीन बीज, सिंचाई सुविधाओं की कमी, उर्वरकों के अपर्याप्त उपयोग और अपर्याप्त अनुसंधान एवं विकास प्रयासों से बाधित होती है।
  • जलवायु विविधता:
    • भारत में विविध जलवायु दशा पाई जाती है और फसल उत्पादकता जल, तापमान तथा अन्य पर्यावरणीय कारकों की उपलब्धता पर अत्यधिक निर्भर है।
    • भारत में वर्षा के पैटर्न में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है, जिसने तिलहन उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
  • भंडारण और वितरण अवसंरचना का अभाव:
    • भारत में भंडारण और वितरण अवसंरचना सीमित है, जिसके परिणामस्वरूप उल्लेखनीय उत्तर-फसल हानि (post-harvest losses) की स्थिति बनती है।
    • इसके परिणामस्वरूप किसान तिलहन उत्पादन के लिये हतोत्साहित होते हैं, क्योंकि उनके पास अपनी उपज के भंडारण एवं बिक्री के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचा मौज़ूद नहीं है।
  • आयात पर निर्भरता:
    • भारत खाद्य तेलों के लिये आयात पर बहुत अधिक निर्भरता रखता है जिससे घरेलू तिलहन उद्योग की प्रतिस्पर्द्धात्मकता प्रभावित हुई है।
    • निम्न आयात शुल्क और उच्च घरेलू करों ने भी आयातित तेल को घरेलू उत्पादित तेल से अधिक सस्ता बना दिया है।
  • सरकारी सहायता का अभाव:
    • भारत सरकार द्वारा अनुसंधान एवं विकास, विस्तार सेवाओं और वित्तीय सहायता के मामले में तिलहन क्षेत्र को पर्याप्त सहायता एवं समर्थन प्रदान नहीं किया गया है।
    • सरकार ने इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र के निवेश को भी प्रोत्साहित नहीं किया है।

संबंधित पहलें:

  • खाद्य तेल-पाम तेल पर राष्ट्रीय मिशन (NMEO-OP):
    • NMEO-OP एक नई केंद्र प्रायोजित योजना है। यह वर्ष 2025-26 तक पाम तेल की खेती के लिये अतिरिक्त 6.5 लाख हेक्टेयर भूमि का प्रस्ताव प्रदान करती है।
  • राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत पाम ऑइल क्षेत्र का विस्तार:
    • इसके अंतर्गत सरकार द्वारा तिलहन फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSPs) को बढ़ाने, तिलहन के लिये बफर स्टॉक के निर्माण, तिलहन फसलों के क्लस्टर प्रदर्शन आदि पर बल दिया गया है, ताकि घरेलू उत्पादन को बढ़ाया जा सके।
  • प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY):
    • PMFBY किसानों के लिये एक बीमा योजना है, जो प्राकृतिक आपदाओं, कीटों एवं रोगों के कारण फसल की हानि के लिये कवरेज़ प्रदान करती है। यह योजना सभी तिलहन फसलों को भी कवर करती है और फसल की हानि होने की स्थिति में किसानों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करती है।
  • तिलहन पर प्रौद्योगिकी मिशन:
    • तिलहन पर प्रौद्योगिकी मिशन (Technology Mission on Oilseeds) वर्ष 1986 में शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य उन्नत प्रौद्योगिकियों और वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग के माध्यम से तिलहन के उत्पादन में वृद्धि करना था।
  • परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY):
    • PKVY एक ऐसी योजना है जो देश में जैविक खेती को बढ़ावा देती है।
    • इस योजना के तहत किसानों को तिलहन सहित विभिन्न फसलों के लिये जैविक खेती के तरीकों को अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है।

भारत घरेलू उत्पादन कैसे बढ़ा सकता है?

  • क्षेत्र विस्तार को लागू करना:
    • पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे उच्च-आदान अनाज एकल खेती क्षेत्रों में प्रोत्साहन-प्राप्त फसल चक्र के माध्यम से क्षेत्र विस्तार को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
    • फसल चक्र को बढ़ावा देकर इन क्षेत्रों में किसान अधिक तिलहन उगा सकते हैं, जिससे उनकी पैदावार बढ़ सकती है।
  • विविध प्रौद्योगिकियों को अपनाना:
    • सूचना प्रौद्योगिकी, उपग्रह प्रौद्योगिकी, परमाणु कृषि -प्रौद्योगिकी और नैनो-टेक्नोलॉजी जैसी विभिन्न प्रौद्योगिकियों का उपयोग किया जाना चाहिये।
    • इन प्रौद्योगिकियों को अपनाकर किसान अपनी पैदावार बढ़ा सकते हैं, अपनी फसलों की गुणवत्ता में सुधार ला सकते हैं और भूमि एवं जल के उपयोग को अनुकूलित या इष्टतम कर सकते हैं।
  • बीज प्रौद्योगिकी में उन्नति की दिशा में कार्य करना:
    • बीज प्रौद्योगिकी में सुधार के लिये अनुसंधान एवं विकास में निवेश करने से अधिक उपज देने वाले और रोग प्रतिरोधी बीजों का निर्माण किया जा सकता है, जिससे तिलहन के उत्पादन को बढ़ावा मिल सकता है।
  • एक सुदृढ़ खरीद प्रणाली को लागू करना:
    • एक सुदृढ़ खरीद प्रणाली किसानों के लिये एक गारंटीकृत बाज़ार प्रदान कर सकती है, जिससे उन्हें अधिक तिलहन उगाने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • गैर-पारंपरिक तेल स्रोतों की क्षमता का दोहन:
    • बिनौला (cottonseed), चावल की भूसी (rice-bran) और वृक्षजनित तिलहन जैसे गैर-पारंपरिक तेल स्रोतों की विशाल क्षमता का दोहन किया जाना चाहिये। गैर-पारंपरिक तेल स्रोतों का उपयोग करके भारत अपने तिलहन उत्पादन में विविधता ला सकता है और पारंपरिक स्रोतों पर निर्भरता कम कर सकता है।
  • आयात का विनियमन और निगरानी:
    • वर्तमान मे नीतिगत हस्तक्षेप प्रायः प्रतिक्रियात्मक और त्वरित प्रकृति के होते हैं जहाँ सहायक डेटा की कमी होती है।
    • ‘आयात अनुबंध पंजीकरण’ (Import Contract Registration) की एक सरल प्रशासनिक प्रणाली और आयातित तिलहन की निगरानी इसके व्यापार में व्याप्त अस्पष्टता को दूर करेगी तथा भारत द्वारा डेटा-संचालित निर्णयन को सुविधाजनक बनाएगी।
  • क्रेडिट अवधि को घटाकर 45 दिन करना:
    • 90-120-150 दिनों की लंबी क्रेडिट अवधि ओवर-ट्रेडिंग और सट्टेबाजी को प्रोत्साहित करती है।
    • अनियंत्रित ओवर-ट्रेडिंग के कारण कुछ भारतीय आयातक पहले से ही एक गंभीर ‘आयात ऋण जाल’ (import debt trap) में फँसे हुए हैं। इसके साथ ही, आयातकों को प्रदत्त बैंक ऋण की गैर-निष्पादित संपत्तियों (NPAs) में रूपांतरित होने का जोखिम भी बना रहता है।
    • लघु क्रेडिट अवधि स्वतः आयात की गति को धीमा कर देगी और आयातक को अधिक ज़िम्मेदार एवं जवाबदेह बनाएगी।
  • खाद्य तेल को PDS के तहत लाना:
    • कल्याण कार्यक्रमों के तहत रियायती दरों पर खाद्य तेल की आपूर्ति के साथ उपभोक्ताओं के कमज़ोर वर्गों का समर्थन किया जाना चाहिये।
  • प्रसंस्करण उद्योग आधुनिकीकरण कोष (Processing Industry Modernisation Fund) का निर्माण करना:
    • 15,000 तिलहन पेराई इकाइयों और 800 विलायक निष्कर्षण संयंत्रों में से कई पैमाने, उपकरण, प्रौद्योगिकी एवं उत्पादकता के मामले में आंतरिक रूप से अक्षम हैं।
    • एक आधुनिक उद्योग अधिक मूल्य प्राप्त करेगा और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित कर सकने की अधिक क्षमता पैदा करेगा।

अभ्यास प्रश्न: तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में भारत की अक्षमता में योगदान करने वाले प्रमुख कारक कौन-से हैं? घरेलू उत्पादन बढ़ाने और आयात पर देश की निर्भरता को कम करने के लिये कौन-से कदम उठाये जा सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्षों के प्रश्न:  

प्रिलिम्स 

प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)

  1. आयातित खाद्य तेलों की मात्रा पिछले पाँच वर्षों में खाद्य तेलों के घरेलू उत्पादन से अधिक है।
  2. सरकार विशेष मामले के रूप में सभी आयातित खाद्य तेलों पर कोई सीमा शुल्क नहीं लगाती है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (a)


प्रश्न. कीटों के प्रतिरोध के अतिरिक्त वे कौन-सी संभावनाएँ हैं जिनके लिये आनुवंशिक रूप से रूपांतरित पादपों का निर्माण किया गया है? (2012)

  1. सूखा सहन करने के लिये उन्हें सक्षम बनाना 
  2. उत्पाद में पोषकीय मान बढ़ाना अंतरिक्ष यानों और स्टेशनों में उन्हें उगने और प्रकाश-संश्लेषण करने के लिये सक्षम बनाना 
  3. उनकी शेल्फ लाइफ बढ़ाना 

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2 
(b) केवल 3 और 4 
(c) केवल  1, 2 और 4 
(d) 1, 2, 3 और 4 

उत्तर: C

व्याख्या: 

  • आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें (जीएम फसलें या बायोटेक फसलें) कृषि में उपयोग किये जाने वाले पौधे हैं, जिनके डीएनए को आनुवंशिक इंजीनियरिंग विधियों का उपयोग करके संशोधित किया गया है। अधिकतर मामलों में इसका उद्देश्य पौधे में एक नया लक्षण पैदा करना है जो प्रजातियों में स्वाभाविक रूप से नहीं होता है। खाद्य फसलों में लक्षणों के उदाहरणों में कुछ कीटों, रोगों, पर्यावरणीय परिस्थितियों, खराब होने में कमी, रासायनिक उपचारों के प्रतिरोध (जैसे- जड़ी-बूटियों का प्रतिरोध) या फसल के पोषक तत्त्व प्रोफाइल में सुधार शामिल हैं।
  • जीएम फसल प्रौद्योगिकी के कुछ संभावित अनुप्रयोग हैं:
    • पोषण वृद्धि - उच्च विटामिन सामग्री; अधिक स्वस्थ फैटी एसिड प्रोफाइल। अत: कथन 2 सही है।
    • तनाव सहनशीलता - उच्च और निम्न तापमान, लवणता और सूखे के प्रति सहनशीलता। अत: कथन 1 सही है।
    • ऐसी कोई संभावना नहीं है जो जीएम फसलों को अंतरिक्ष यान और अंतरिक्ष स्टेशनों में बढ़ने एवं प्रकाश संश्लेषण करने में सक्षम बनाती हो। अत: कथन  3 सही नहीं है।
    • वैज्ञानिक कुछ आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें बनाने में सक्षम हैं जो सामान्य रूप से  एक महीने तक ताज़ा रहती हैं। अत: कथन 4 सही है। अतः विकल्प (c) सही उत्तर है।

प्रश्न. बोल्गार्ड I और बोल्गार्ड II प्रौद्योगिकियों का उल्लेख किसके संदर्भ में किया गया है?

(a) फसल पौधों का क्लोनल प्रवर्द्धन
(b) आनुवंशिक रूप से संशोधित फसली पौधों का विकास
(c) पादप वृद्धिकर पदार्थों का उत्पादन
(d) जैव उर्वरकों का उत्पादन

उत्तर: B

व्याख्या: 

  • बोल्गार्ड I बीटी कपास (एकल-जीन प्रौद्योगिकी) 2002 में भारत में व्यावसायीकरण के लिये अनुमोदित पहली बायोटेक फसल प्रौद्योगिकी है, इसके बाद वर्ष 2006 के मध्य में बोल्गार्ड II डबल-जीन प्रौद्योगिकी, जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति, बायोटेक के लिये भारतीय नियामक निकाय द्वारा अनुमोदित फसलें है।
  • बोल्गार्ड I कपास एक कीट-प्रतिरोधी ट्रांसजेनिक फसल है जिसे बोलवर्म से निपटने के लिये डिज़ाइन किया गया है। यह जीवाणु बैसिलस थुरिंगिनेसिस से एक माइक्रोबियल प्रोटीन को व्यक्त करने के लिये कपास जीनोम को आनुवंशिक रूप से बदलकर बनाया गया था।
  • बोल्गार्ड II तकनीक में एक बेहतर डबल-जीन तकनीक शामिल है - cry1ac और cry2ab, जो बोलवर्म तथा स्पोडोप्टेरा कैटरपिलर से सुरक्षा प्रदान करती है, जिससे बेहतर बोलवर्म प्रतिधारण, अधिकतम उपज, कम कीटनाशकों की लागत एवं कीट प्रतिरोध के खिलाफ सुरक्षा मिलती है।
  • बोल्गार्ड I और बोल्गार्ड II दोनों कीट-संरक्षित कपास दुनिया भर में व्यापक रूप से बोलवर्म को नियंत्रित करने के पर्यावरण के अनुकूल तरीके के रूप में अपनाए जाते हैं। अतः विकल्प (b) सही उत्तर है।

मेन्स:

प्रश्न. किसानों के जीवन स्तर को सुधारने में जैव प्रौद्योगिकी कैसे मदद कर सकती है? (2019)

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