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प्रश्न :
प्रश्न: सत्यनिष्ठा का सार प्रलोभन का प्रतिरोध करने में कम और उन परिस्थितियों को समाप्त करने में अधिक निहित है जो प्रलोभन उत्पन्न करती हैं। विवेचना कीजिये। (150 शब्द)
04 Dec, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- ‘सत्यनिष्ठा’ की संक्षिप्त व्याख्या के साथ उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- ‘प्रलोभन के प्रतिरोध करने’ की सीमाओं के संदर्भ में तर्क दीजिये।
- फिर ‘प्रलोभन की परिस्थितियों का उन्मूलन’ करने के पक्ष में महत्त्वपूर्ण तर्कों को रेखांकित कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
परंपरागत रूप से, सत्यनिष्ठा को व्यक्तिगत सद्गुण के रूप में देखा जाता है। यह मानव मूल्यों में चरित्र की ऐसी परीक्षा है जिसमें व्यक्ति लोभ के विरुद्ध आंतरिक संघर्ष करता है। हालाँकि यह कथन नैतिक वीरता की अपेक्षा प्रणालीगत सत्यनिष्ठा पर बल देता है।
- यह इंगित करता है कि भ्रष्टाचार का प्रतिरोध केवल व्यक्ति की इच्छाशक्ति पर छोड़ देना एक कमज़ोर रणनीति है। इसके विपरीत, शासन में वास्तविक सत्यनिष्ठा तब सुनिश्चित होती है जब ऐसी प्रणालियाँ स्थापित की जाती हैं जो भ्रष्टाचार के अवसर (प्रलोभन) को न्यूनतम कर दें और नैतिक आचरण को सबसे सहज मार्ग बना दें।
मुख्य भाग:
प्रलोभन का प्रतिरोध (व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा) की सीमाएँ:
यद्यपि व्यक्तिगत नैतिकता आवश्यक है, तथापि केवल ‘प्रतिरोध’ पर निर्भर रहने की कुछ अंतर्निहित कमियाँ हैं—
- सीमित इच्छाशक्ति: निरंतर आकर्षक अवसरों (जैसे: बड़े टेंडर, विवेकाधीन स्थानांतरण) के संपर्क में रहने से प्रायः ईमानदार अधिकारी भी नैतिक संवेदनहीनता का शिकार हो सकते हैं।
- व्यक्तिपरकता: स्पष्ट नियमों के अभाव में जिसे एक अधिकारी ‘उपहार’ समझता है, वही दूसरे के लिये ‘रिश्वत’ हो सकता है।
- व्यक्तित्व पर निर्भरता: सुशासन संयोगवश ‘अच्छे अधिकारी’ की उपलब्धता पर निर्भर नहीं रह सकता; उसे व्यक्तिनिरपेक्ष होना चाहिये तथा अच्छे अधिकारी की अनुपस्थिति में भी गलत निर्णय, भ्रष्टाचार या मनमानी को रोक सकने में सक्षम होना चाहिये।
प्रलोभन की परिस्थितियों का उन्मूलन– संरचनात्मक दृष्टिकोण:
संरचनात्मक दृष्टिकोण: यह दृष्टिकोण निवारक सतर्कता पर केंद्रित है। यह ‘फ्रॉड ट्रायंगल सिद्धांत’ के अनुरूप है, जिसके अनुसार भ्रष्टाचार तब होता है जब तीन तत्व एक साथ आते हैं: दबाव, तर्कसंगतता और अवसर। परिस्थिति (अवसर) को समाप्त कर देने से अधिकारी की इच्छाशक्ति की परीक्षा लिये बिना ही सत्यनिष्ठा सुरक्षित की जा सकती है।
- विवेकाधीन शक्तियों को कम करना:
- स्थिति: किसी कर अधिकारी के पास यह विवेकाधिकार होता है कि वह किस फाइल की जाँच करे, जिससे जबरन वसूली की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
- उन्मूलन: आयकर में फेसलेस असेसमेंट। कंप्यूटर द्वारा मामलों का यादृच्छिक आवंटन होता है; न अधिकारी करदाता को जानता है न करदाता अधिकारी को। इस प्रकार रिश्वतखोरी की संभावना संरचनात्मक रूप से समाप्त हो जाती है।
- मानव संपर्क को न्यूनतमकरण (डिजिटलीकरण) करना:
- स्थिति: किसी लाभार्थी को धनराशि जारी करवाने के लिये किसी लिपिक (क्लर्क) से व्यक्तिगत रूप से मिलना पड़ता है, जिससे एक ऐसा ‘जाँच-बिंदु’ (checkpoint) बन जाता है, जहाँ रिश्वत की माँग या लेन–देन की संभावना उत्पन्न हो जाती है।
- उन्मूलन: प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) के माध्यम से धन सीधे कोषागार से बैंक खाते में जाता है। ‘मध्यस्थता’ की स्थिति ही समाप्त हो जाती है।
- पारदर्शिता और सूचना विषमता का उन्मूलन:
- स्थिति यह है: किसी फाइल की स्थिति केवल विभाग को ही ज्ञात होती है, जिसके कारण नागरिक को जानकारी के लिये भुगतान करना पड़ता है।
- उन्मूलन: सूचना का अधिकार (RTI) और ई-ऑफिस प्रणालियाँ। जब फाइलों की गति ऑनलाइन दिखाई देती है तो पैसे के लिये फाइलों को दबाने/छिपाने का अवसर समाप्त हो जाता है।
- मानक संचालन प्रक्रियाएँ (SOP):
- अस्पष्टता प्रलोभन को जन्म देती है। यदि प्रक्रियाएँ स्पष्ट, लिखित और संहिताबद्ध (SOPs) हों (जैसे: भूमि आवंटन या निविदा प्रक्रिया में) तो अधिकारियों या निर्णयकर्त्ताओं के पास नियमों की मनमानी या स्वार्थपूर्ण व्याख्या करने की गुंजाइश नहीं बचती।
निष्कर्ष:
यह कथन मूलतः ‘व्यक्तियों का शासन’ से ‘विधि का शासन’ की ओर बढ़ने की अनुशंसा करता है। यद्यपि लोक सेवकों को नैतिक प्रशिक्षण देकर उनकी नैतिक क्षमता को सुदृढ़ करना आवश्यक है, ताकि वे प्रतिरोध कर सकें, पर राज्य का प्राथमिक ध्यान संस्थागत संरचना (भ्रष्टाचार को समाप्त करने की क्षमता) पर होना चाहिये, ताकि प्रलोभन की प्रवृत्ति ही समाप्त हो जाये। अंततः सर्वथा नैतिक प्रणाली वह नहीं है जिसमें संत लोग निवास करते हों, बल्कि वह है जहाँ एक आम आदमी के लिये भी भ्रष्ट होना कठिन हो।
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