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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    स्वतंत्रोत्तर भारत में लिगांनुपात में सुधार लाने हेतु अनेक आंदोलन चलाये गए इसके बावजूद लक्ष्य प्राप्ति से हम अभी भी बहुत दूर हैं। ऐसे में हमें उन उपायों को अपनाने की आवश्यकता है जो न केवल सूचनापरक हो बल्कि लोगों के व्यवहार को परिवर्तित करने में भी सहयोगी सिद्ध हो सके। चर्चा करें।

    17 Sep, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्याय

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण-

    • भारत में लिंगानुपात।

    • इस संबंध में चलाए गए अनेक जागरूकता अभियान 

    • समाधान के लिये कुछ नवाचारी उपाय

    • निष्कर्ष।

    लिंगानुपात से तात्पर्य प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या से है। भारत में यह अनुपात 940 है, जिसका मुख्य कारण देश में लैंगिक असमानता का होना है। लैंगिक असमानता का तात्पर्य लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है। परंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमज़ोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है। वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेद-भाव से पीड़ित होती हैं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है।

    वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर रहा। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैगिंक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी है।

    लैंगिक असमानता के कारक-

    • सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद वर्तमान भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता जटिल रूप में व्याप्त है। इसके कारण महिलाओं को आज भी एक ज़िम्मेदारी समझा जाता है। महिलाओं को सामाजिक और पारिवारिक रुढ़ियों के कारण विकास के कम अवसर मिलते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। सबरीमाला और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर सामाजिक मतभेद पितृसत्तात्मक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है।
    • भारत में आज भी व्यावहारिक स्तर (वैधानिक स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार संपत्ति पर महिलाओं का समान अधिकार है) पर पारिवारिक संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार प्रचलन में नहीं है इसलिये उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया जाता है।
    • राजनीतिक स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़कर उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है।
    • महिलाओं के रोज़गार की अंडर-रिपोर्टिंग की जाती है अर्थात् महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और उद्यमों पर कार्य करने को तथा घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्यों को सकल घरेलू उत्पाद में नहीं जोड़ा जाता है।
    • शैक्षिक कारक जैसे मानकों पर महिलाओं की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा कमज़ोर है। हालाँकि लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में पिछले दो दशकों में वृद्धि हुई है तथा माध्यमिक शिक्षा तक लैंगिक समानता की स्थिति प्राप्त हो रही है लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का नामांकन पुरुषों की तुलना में काफी कम है।

    देश में इस समस्या के समाधान हेतु सरकार द्वारा व्यापक स्तर पर अनेक जागरूकता अभियान चलाए गए हैं जिनमें ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ सुकन्या समृद्धि योजना तथा कन्या भ्रूण हत्या को ‘राष्ट्रीय शर्म’ घोषित करना जैसे अनेक कार्यक्रम शामिल हैं। लेकिन ये सारे अभियान केवल सूचना प्रदान करने तक ही सीमित रहे।

    लैंगिक असमानता को दूर करने के लिये कानूनी प्रावधानों के अलावा किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण तथा शिशु कल्याण के लिये जेंडर बजटिंग की शुरुआत की गई। भारतीय प्रधानमंत्री ने इस वर्ष राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर जब कन्या भ्रूण हत्या को ‘राष्ट्रीय शर्म’ घोषित किया था और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना को आगे बढ़ाने की बात कही थी तो ऐसी स्थिति में यह प्रतिबिंबित करना और जानना आवश्यक है कि पिछले 30 वर्षों में भारत में लैंगिक अनुपात को बढ़ावा देने के लिये जिन प्रभावी नीतियों को विकसित किया गया उनका कितना प्रभाव हुआ? क्या केवल सूचना अभियान से व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है?

    2011 के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में शिक्षित लोगों के अवैध रूप से लिंग आधारित गर्भपात में शामिल होने की अधिक संभावना है। नीति आयोग द्वारा इस वर्ष फरवरी माह में जारी स्वास्थ्य सूचकांक यह दर्शाता है कि हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सहित देश के 21 बड़े राज्यों में से 17 में लिंगानुपात में गिरावट आई है, केवल बिहार, पंजाब और उत्तर प्रदेश में लैंगिक अनुपात में सुधार हुआ है।

    उपर्युक्त आँकड़े दर्शाते हैं कि भले ही सरकार ने लोगों की मानसिकता को बदलने के लिये जागरूकता कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित किया है लेकिन यह मुद्दा इतना जटिल है कि मात्र सूचनाएँ देना परिवारों के व्यवहार को बदलने के लिये पर्याप्त नहीं है। लैंगिक समानता के उद्देश्य को हासिल करना जागरूकता कार्यक्रमों के आयोजन और कार्यालयों में कुछ पोस्टर चिपकाने तक ही सीमित नहीं है। यह मूल रूप से किसी भी समाज के दो सबसे मजबूत संस्थानों - परिवार और धर्म की मान्यताओं को बदलने से संबंधित है।

    इस संबंध में सूचना अभियानों के अतिरिक्त व्यवहार परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के लिये सरकारों द्वारा एक और आम दृष्टिकोण प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण को अपनाया गया है। इसके लिये पश्चिम बंगाल और हरियाणा सहित कई अन्य राज्य सरकारों ने परिवारों को लड़कियों की शिक्षा के प्रति प्रेरित करने के लिये और इसके माध्यम से लैंगिक समानता में सुधार करने के लिये कन्याश्री, लाडली और देवीरूपक जैसे सशर्त और बिना शर्त नकद हस्तांतरण योजनाएँ लागू की हैं। यद्यपि अनेक जागरूकता अभियानों के साथ नकद हस्तांतरण व्यवहार परिवर्तन के लिये उपयोगी माध्यम सिद्ध हो सकता है, लेकिन इन कार्यक्रमों के दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन करने के लिये कुछ अध्ययनों तथा कठोर प्रयासों की आवश्यकता है जिनका लक्ष्य लिंग अनुपात में गिरावट की समस्या को हल करना हो।

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