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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    'संथारा एक प्रथा है जिसके तहत जैन समुदाय के कुछ लोग अपनी मृत्यु का वरण करते हैं।' संथारा आत्महत्या मानने या न मानने के संदर्भ में इसके नैतिक पक्षों तथा विपक्ष में दिए जाने वाले तर्कों को स्पष्ट करें।

    05 Sep, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण-

    • भूमिका

    • संथारा का संक्षिप्त परिचय

    • पक्ष

    • विपक्ष

    • निष्कर्ष

    संथारा एक प्रथा है जिसके तहत जैन समुदाय के कुछ लोग अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण करते हैं। इस प्रथा को कुछ ‘सल्लेखना’, ‘समाधि-मरण’, ‘इच्छा-मरण’ और ‘संन्यास-मरण’ जैसे नामों से भी जाना जाता है। संथारा साधु/साध्वी भी ले सकते हैं और सामान्य गृहस्थ भी। संथारा लेने की शर्त है कि व्यक्ति या तो किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो, या किसी गंभीर विकलांगता से जूझ रहा हो या उसकी मृत्यु निकट आ गई हो। गौरतलब है कि सामान्य व्यक्तियों को, विशेषतः बच्चों या युवाओं को किसी भी स्थिति में संथारा लेने की अनुमति नहीं है। जैन धर्म सैद्धांतिक तौर पर आत्महत्या का पुरज़ोर विरोध करता है।

    संथारा जैसी परंपराएँ कुछ अंतरों के साथ भारत के अन्य धर्मों में भी दिखाई पड़ती हैं। कई हिंदू साधुओं के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने ‘समाधि’ ली थी। यह समाधि भी एक तरह से अपनी मृत्यु का वरण करना ही है। हिंदू परंपरा में ‘संजीवन समाधि’ तथा ‘पर्योपवेश’ जैसी धारणाएँ भी विद्यमान रही हैं जो संथारा से मिलती-जुलती हैं। बौद्ध परंपरा में भी ऐसे उदाहरण खोजना असंभव नहीं है।

    क्या संथारा आत्महत्या है?

    पक्ष

    सामान्यतः आत्महत्या का अर्थ अपने जीवन को समाप्त करने के इरादे से किये गए सचेत प्रयास से होता है। गौरतलब है कि इसमें अपना जीवन समाप्त करने का इरादा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

    अगर इस सामान्य परिभाषा के आधार पर देखें तो प्रतीत होता है कि संथारा भी आत्महत्या के प्रयास जैसी ही कोशिश है। संथारा लेने वाले व्यक्ति को पता होता है कि उसके अन्न-जल छोड़ने से उसकी मृत्यु निश्चित है। उसका इरादा भी साफतौर पर अपनी मृत्यु को आमंत्रित करना ही होता है। इस आधार पर यह कहना उचित प्रतीत होता है कि संथारा एक धार्मिक प्रथा होते हुए भी तकनीकी तौर पर आत्महत्या के प्रयास से अलग नहीं है।

    संथारा और आत्महत्या में अंतर दिखाने के लिये जैन मतावलंबियों का तर्क है कि आत्महत्या हमेशा घोर निराशा या तनाव जैसी स्थितियों में की जाती है, जबकि संथारा का फैसला करने वाला व्यक्ति अत्यंत शांत क्षणों में यह निर्णय लेता है।

    आत्महत्या का प्रयास एक क्षणिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अचानक मृत्यु प्राप्त कर लेता है, जबकि संथारा की प्रक्रिया बेहद धीमी और लंबी होती है जिसमें व्यक्ति के पास हमेशा यह मौका होता है कि वह चाहे तो पीछे हट जाए।

    आत्महत्या को समाज में बुरी नज़र से देखा जाता है क्योंकि वह पलायनवादी मानसिकता से जुड़ी है जबकि संथारा लेने वाले व्यक्ति को समाज में अत्यधिक सम्मान के भाव से देखा जाता है क्योंकि वह उन सांसारिक प्रलोभनों तथा वासनाओं से मुक्ति की राह पर बढ़ता है जिस राह पर चलने की हिम्मत साधारण मनुष्य नहीं कर पाते।

    विपक्ष-

    इन तर्कों के विरोध में कहा जा सकता है कि संथारा भी हमेशा न तो स्वैच्छिक होती है और न ही लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया।

    ऐसी चर्चाएँ सुनने में आती हैं कि किसी बूढ़े पुरुष या महिला ने संथारा की घोषणा इस दबाव में कर दी कि उसके घर के लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं।

    यह भी सुनने में आता है कि संथारा की घोषणा करने के बाद कई लोग भूख-प्यास से परेशान होकर अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ना चाहते हैं पर परिवारजनों तथा धार्मिक व्यक्तियों का दबाव उन्हें ऐसा नहीं करने देता।

    व्यक्ति को जीवन में कई बार ऐसा लग सकता है कि अब उसकी मृत्यु निकट है किंतु स्थितियाँ बदल जाती हैं। इसी प्रकार, जिस रोग को असाध्य मानकर किसी ने संथारा का विकल्प चुना है, हो सकता है कि उसके सामान्य जीवन काल के पूरा होने से पहले ही उस रोग का इलाज विकसित हो जाता।

    अपने विश्वास के अनुसार जीवन जीने का अवसर व्यक्ति को ज़रूर मिलना चाहिये किंतु विश्वास के भरोसे जीवन को समाप्त करने की अनुमति देना शायद सही नहीं होगा क्योंकि मृत्यु होने के बाद इस स्थिति को पलटा नहीं जा सकता।

    निष्कर्षतः इस तर्क-वितर्क के आधार पर कहा जा सकता है कि कानूनी दृष्टि से संथारा को आत्महत्या के प्रयास से अलग करना अत्यंत कठिन है। यह सही है कि हमारी धार्मिक आस्थाएँ हमें अपनी प्रथाओं को एक विशेष नज़रिये से देखने को मज़बूर करती हैं किंतु धार्मिक मान्यताओं से तटस्थ होकर देखेंगे तो शायद निष्कर्ष यही निकलेगा।

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