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भारत का गंभीर होता भूजल संकट

  • 20 Nov 2025
  • 133 min read

यह एडिटोरियल 20/11/2025 को द हिंदू में प्रकाशित Hidden cost of polluted groundwater पर आधारित है। यह लेख भारत में प्रच्छन्न भूजल संकट को दर्शाता है, जहाँ 440 ज़िलों में टेस्ट किये गए सैंपल में से पाँचवाँ हिस्सा दूषित है। 600 मिलियन लोग भू-जल पर निर्भर हैं, इस बढ़ते प्रदूषण और अधिक निष्कर्षण से स्वास्थ्य एवं कृषि को ऐसा नुकसान हो सकता है जिसे ठीक नहीं किया जा सकता।   

प्रिलिम्स के लिये: भूजल संदूषण, वार्षिक भूजल पुनर्भरण, डायनामिक ग्राउंडवाटर रिसोर्स असेसमेंट रिपोर्ट, धान और गन्ने के लिये MSP, NAQUIM प्रोजेक्ट, अटल भूजल योजना, छठी लघु सिंचाई गणना, जल शक्ति अभियान

मेन्स के लिये: भारत में भूजल के उपयोग की मौजूदा स्थिति, भूजल प्रबंधन से जुड़ी भारत सरकार की मुख्य पहलें, भारत में भूजल की कमी को बढ़ाने वाले मुख्य कारण।

भारत अपनी भूमि के नीचे एक छिपे हुए संकट से जूझ रहा है: भूजल संदूषण, जो 440 ज़िलों में जाँचे किये गये नमूनों में से लगभग पाँचवें हिस्से को प्रभावित करता है और जिसमें यूरेनियम, फ्लोराइड, नाइट्रेट तथा आर्सेनिक सुरक्षित मानकों से ऊपर पाये गये हैं। यह अदृश्य खतरा स्वास्थ्य पर व्यय, उत्पादकता में गिरावट और कृषि हानि के माध्यम से देश को प्रतिवर्ष लगभग 80 अरब डॉलर अर्थात लगभग 6% GDP की लागत का नुकसान पहुँचाता है। 60 करोड़ लोग पीने और सिंचाई के लिये भूजल पर निर्भर हैं इसलिये यह संकट उन गरीब वर्गों को सबसे अधिक प्रभावित करता है जो वैकल्पिक स्रोत वहन करने में असमर्थ हैं। कई राज्यों में, विशेषकर पंजाब में, अनियंत्रित भूजल दोहन संधारणीय सीमा से 1.5 गुना अधिक हो चुका है, जिसके कारण गहराई तक ड्रिलिंग की आवश्यकता पड़ती है तथा जल की गुणवत्ता और भी बिगड़ती है। जल की कमी की तुलना में भूजल संदूषण प्रायः ऐसा होता है जिसे ठीक नहीं किया जा सकता, इसलिये देश में जल-संकट को रोकने के लिये त्वरित कार्रवाई अनिवार्य हो जाती है। 

भारत में भूमिगत जल उपयोग की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • वार्षिक भूजल दोहन 245.64 BCM (डायनामिक ग्राउंड वॉटर रिसोर्सेज आकलन- 2024) है। इसके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर औसत दोहन दर लगभग 60.47% है, जो संकेत देती है कि समग्र रूप से दोहन अभी भी वार्षिक पुनर्भरण क्षमता के भीतर है।
    • कुल जल-बजट और जल-दोहन की दर: देश का कुल वार्षिक भूजल पुनर्भरण 446.90 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) आँका गया है, जो वर्ष 2017 से निरंतर बढ़ोतरी दर्शाता है। इसका मुख्य कारण सरकार और समुदाय के स्तर पर अवसंरचनाओं का निर्माण जैसे संरक्षण प्रयास हैं।
      • हालाँकि यह राष्ट्रीय औसत कई क्षेत्रों के गंभीर संकट को छिपा देता है।
  • क्षेत्रीय प्रभुत्व और भौगोलिक हॉटस्पॉट: कृषि क्षेत्र सर्वाधिक उपभोक्ता है और कुल वार्षिक भूजल उपयोग का लगभग 87% उपयोग करता है, इसलिये यह संकट का सबसे बड़ा कारक है।
    • भूमिगत जल संकट के हॉटस्पॉट उत्तर-पश्चिमी राज्यों जैसे: पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान में अत्यधिक केंद्रित हैं जहाँ अनेक ब्लॉकों में दोहन दर वार्षिक पुनर्भरण से 100% से अधिक है। इसका मुख्य कारण सब्सिडी पर दिये गये विद्युत के आधार पर जल-गहन फसलों की खेती है।
    • शहरी क्षेत्रों में वाणिज्यिक और घरेलू प्रयोग हेतु अनियंत्रित दोहन के कारण तेज़ी से स्थानीय स्तर पर भूजल ह्रास हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप महानगरों में भू-अवतलन जैसी समस्याएँ सामने आ रही हैं। 

भारत में भूमिगत जल की कमी को बढ़ाने वाले मुख्य कारण क्या हैं?

  • कृषि के लिये सब्सिडी आधारित बिजली: कृषि के लिये सब्सिडी वाली या निशुल्क बिजली, अत्यधिक जल-उपयोग पर आर्थिक नियंत्रण समाप्त कर देती है, जिससे अनियंत्रित दोहन बढ़ता है। यह नीति-गत विकृति किसानों को कम मूल्य वाली फसलों के लिये भी असीमित भूजल पंप (निष्कर्षण) करने को प्रोत्साहित करती है।
    • अध्ययनों से संकेत मिलता है कि भूजल दोहन की मूल्य लोच लगभग –0.18 है जिसका अर्थ है कि सब्सिडी से पंपिंग में उल्लेखनीय वृद्धि होती है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि विद्युत लागत में 10 प्रतिशत की वृद्धि से भूजल दोहन लगभग 1.8 प्रतिशत तक कम हो सकता है जबकि भारी सब्सिडी का उलटा प्रभाव पड़ता है और वे अनियंत्रित पंपिंग को बढ़ावा देती हैं।
    • जल शक्ति मंत्रालय के अधीन जल संसाधन संबंधी स्थायी समिति द्वारा प्रस्तुत की गयी 'भूजल: एक मूल्यवान किंतु घटता संसाधन' रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी वाली बिजली से भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ है क्योंकि कृषकों ने भूजल निष्कर्षण हेतु पंपों को चलाने में इसका व्यापक उपयोग किया।
  • जल-गहन फसलों के लिये उच्च MSP: सरकारी खरीद निति, विशेषकर धान और गन्ने के लिये MSP, किसानों को सूखे इलाकों में भी अधिक जल-गहन फसलें उगाने के लिये बढ़ावा देती हैं।
    • यह नीति एक प्रतिकूल प्रोत्साहन बनकर भूजल क्षय को परोक्ष रूप से सब्सिडी देती है क्योंकि जल-गहन फसलों की खेती आर्थिक रूप से लाभकारी हो जाती है जबकि इन क्षेत्रों की प्राकृतिक पुनर्भरण क्षमता सीमित होती है।
    • पंजाब और हरियाणा में MSP-आधारित धान की कृषि प्रति किलोग्राम चावल पर लगभग 4,000–5,000 लीटर जल की खपत करती है।
    • हाल में जारी डायनामिक ग्राउंडवाटर रिसोर्स असेसमेंट रिपोर्ट के अनुसार 736 मूल्यांकन इकाइयाँ अतिदोहन की श्रेणी में हैं जिनमें अधिकांश सिंधु–गंगा घाटी में स्थित हैं।
  • तीव्र शहरीकरण और औद्योगिक मांग: अनियोजित शहरी विस्तार सड़कों और भवनों के द्वारा प्राकृतिक पुनर्भरण क्षेत्रों को अवरुद्ध कर देता है जिससे वर्षा जल की जल भूमिगत जलभृतों में समाहित होने की प्रक्रिया घट जाती है और जलभृतों में जल पुनर्भरण कम हो जाता है।
    • ‘कंकरीट जंगल’ निर्मित होने से सतही जल का प्राकृतिक पुनर्भरण नहीं हो पाता जिससे दीर्घकालिक जल चक्र बाधित होता है।
      • इसके अतिरिक्त बढ़ते शहरी जनसमूह तथा औद्योगिक केंद्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये आवश्यक सघन एवं उच्च-परिमाण वाले पंपिंग से भूमिगत जल स्तर में अस्थिर ‘अवनमन शंकु’ उत्पन्न होने लगते हैं, विशेषकर उप-शहरी (शहर-परिधीय) क्षेत्रों में।
    • एक हालिया अध्ययन ‘डूबते भारतीय महानगरों में भवन क्षति जोखिम का आकलन’ में बताया गया है कि दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता और बंगलुरु जैसे पाँच प्रमुख भारतीय शहरों में लगभग 878 वर्ग किलोमीटर भू-अवतलन की स्थिति का सामना कर रही है।
  • खंडित और दुर्बल विनियामक तंत्र: इस समस्या की जड़ भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 में निहित है जो भूजल अधिकारों को भूमि–स्वामित्व से जोड़ देता है।
    • यह पुराना कानून भूमिधारकों को अपने भूखण्ड के नीचे स्थित जल को निकालने का पूर्ण अधिकार प्रदान करता है तथा इसे एक साझा 'सामान्य संसाधन' के बजाय निजी संपत्ति की तरह मान्यता देता है।
    • केंद्रीय भूमि जल प्राधिकरण (CGWA) के दिशा-निर्देशों के बावजूद प्रवर्तन कमज़ोर है और प्रायः केवल आधिकारिक रूप से अधिसूचित ‘अधिक-शोषित’ क्षेत्रों तक ही सीमित रहता है।
    • देश के कुल सर्वाधिक भूजल दोहन वाले प्रखंडों में से केवल लगभग 14 प्रतिशत वर्तमान में अधिसूचित हैं।
    • राष्ट्रीय जलभृत मैपिंग एवं प्रबंधन कार्यक्रम (NAQUIM प्रोजेक्ट), मानचित्रण में प्रगति के बावजूद, जलभृत-स्तर के मूल्यांकों को स्थानीय स्तर पर लागू होने योग्य भूजल प्रबंधन योजनाओं में परिवर्तित करने में संघर्ष कर रहा है।
  • जलवायु परिवर्तन और अनिश्चित मानसून पैटर्न: जलवायु परिवर्तन से वर्षा–अस्थिरता बढ़ी है जिसमें तीव्र परंतु अल्प–अवधि की वर्षा होती है जिससे इनफिल्ट्रेशन कम एवं अपवाह (रन–ऑफ) अधिक होता है जिससे जलभृत पुनर्भरण घटता है।
    • दक्षिण-पश्चिम मानसून जो भारत में लगभग साठ प्रतिशत भूजल पुनर्भरण के लिये उत्तरदायी है वर्ष 2023 में  5.6 प्रतिशत वर्षा घाटे के साथ दर्ज किया गया।
    • कृषि समुदाय द्वारा ताप वृद्धि के अनुकूलन के रूप में अधिक दोहन किये जाने के कारण वर्ष 2080 तक भारत में भूजल क्षय की दर तीन गुना बढ़ने की आशंका है जिससे खाद्य एवं जल सुरक्षा पर गंभीर खतरा उत्पन्न होगा।  
  • सूक्ष्म, वास्तविक–समय निगरानी और डाटा एक्सेस का अभाव: भूजल दोहन का विशाल स्वरूप वर्तमान निगरानी प्रणाली द्वारा पर्याप्त रूप से दर्ज नहीं हो पाता क्योंकि अधिकांश निगरानी निरीक्षण–कूपों के माध्यम से होती है जिनमें से अनेक वास्तविक–काल आधारित नहीं हैं।
    • यह सूक्ष्म, सहज उपलब्ध और उच्च–आवृत्ति वाले आँकड़ों की अनुपस्थिति अत्यधिक दबाव वाले क्षेत्रों में समय पर साक्ष्य–आधारित स्थानीय हस्तक्षेप को रोकती है।
      • अधिकांश भूजल दोहन निजी नलकूपों से होता है जो मात्रा के अनुसार पूरी तरह अनियंत्रित हैं।
    • विशेष रूप से, छठी लघु सिंचाई गणना (वर्ष 2023) में 21.93 मिलियन से अधिक भू-जल अवसंरचनाएँ (खुले कूप, नलिका-कूप आदि) दर्ज की गयीं जिनमें 98.3 प्रतिशत निजी स्वामित्व में हैं और इसलिये उनकी जल–निकासी पर निगरानी नहीं होती।    

भूजल प्रबंधन से जुड़ी भारत सरकार की मुख्य पहलें क्या हैं?

  • अटल भूजल योजना: यह एक केंद्रीय क्षेत्र योजना है जिसे वर्ष 2019 में आरंभ किया गया (मार्च 2026 तक विस्तारित) जो विश्व बैंक की वित्तीय सहायता से संचालित है। इसका लक्ष्य सात राज्यों के 8,203 जल-संकटग्रस्त ग्राम पंचायतों में भूजल प्रबंधन को सुदृढ़ बनाना है।
  • जल शक्ति अभियान (JSA)- कैच द रेन (CTR: वर्षा जल संचयन): वर्ष 2019 में आरंभ होने वाला यह अभियान प्रतिवर्ष संचालित किया जाता है। यह एक समयबद्ध, मिशन-प्रवृत्ति वाला अभियान है जिसका नारा है “Catch the Rain, Where it Falls, When it Falls” अर्थात् “जहाँ वर्षा हो वहीं संचित करें, जब वर्षा हो तभी संचित करें।”
    • इसका उद्देश्य जल-संरक्षण के लिये एक बड़े जन आंदोलन की दिशा में सभी को एक साथ लाना है।
  • राष्ट्रीय जलभृत मैपिंग एवं प्रबंधन कार्यक्रम (NAQUIM प्रोजेक्ट): यह केंद्रीय भू-जल बोर्ड (CGWB) द्वारा कार्यान्वित एक योजना है जिसका मुख्य उद्देश्य देशभर में सूक्ष्म स्तर पर एक्वीफरों/जलभृतों का वैज्ञानिक सीमांकन और मैपिंग करना है।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): यह सिंचाई योजना होते हुए भी भू-जल मांग प्रबंधन में प्रत्यक्ष भूमिका निभाती है और इसका ध्येय वाक्य है “More Crop Per Drop” अर्थात् हर बूंद से अधिक फसल। 
  • AMRUT 2.0 (अटल मिशन फॉर रिजुविनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन): यह एक मिशन है जो वर्ष 2021 में प्रारंभ किया गया और जिसका उद्देश्य शहरों को ‘जल-सुरक्षित’ तथा ‘आत्मनिर्भर’ बनाना है ताकि सार्वभौमिक जलापूर्ति एवं बेहतर सीवरेज प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके।

भारत सतत् तथा प्रभावी भूजल प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिये कौन-से कदम उठा सकता है?

  • MSP और बिजली सब्सिडी को जल के प्रयोग से अलग करना: बिजली सब्सिडी के लिये एक प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) योजना लागू की जानी चाहिये, जो सीधे किसानों के बैंक अकाउंट में जमा हो, साथ ही स्मार्ट मीटर लगाना अनिवार्य किया जाना चाहिये या जल की निशुल्क आपूर्ति के घंटे सीमित किये जाने चाहिये ताकि बिजली की सही मात्रा तय हो सके।
    • इसके साथ एक संशोधित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) कार्यढाँचा तैयार किया जाना चाहिये, जो जल-संकटग्रस्त क्षेत्रों में किसानों को मोटे अनाज (कदन्न), दलहन और तिलहन जैसी फसलों की ओर विविधीकरण हेतु प्रोत्साहित करे जिससे जल-गहन फसलें आर्थिक रूप से कम आकर्षक हो जाएँ।
    • यह संरचनात्मक परिवर्तन कृषि उत्पादन के जल-गहन मॉडल से आर्थिक जल-दक्षता पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • मूल्य-आधारित सब्सिडी (MSP) की बजाय आय-आधारित सहायता (PM-KISAN जैसे संस्करणों) पर विचार किया जाना चाहिये जिसे जल-बचत प्रथाओं के अंगीकरण की शर्त से जोड़ा जा सके।
  • भूजल-स्तर आधारित शासन का संस्थागत बनाना: भूमि स्वामित्व और भूजल अधिकार के बीच कानूनी संबंध को औपचारिक रूप से समाप्त किया जाना चाहिये तथा राज्य को इस साझा संसाधन का सार्वजनिक ट्रस्टी घोषित किया जाना चाहिये जिसमें प्रबंधन अधिकार पंचायत/ग्रामसभा-स्तरीय जल उपयोगकर्त्ता संघ (WUA) को सौंपे जायें।
    • ये WUA, राष्ट्रीय जलभृत मैपिंग (NAQUIM) के आँकड़ों द्वारा मार्गदर्शित होने चाहिये और उन्हें जलभृत प्रबंधन योजनाएँ बनाने तथा कूपों के बीच दूरी एवं निष्कर्षण की मात्रात्मक सीमाएँ निर्धारित करने हेतु कानूनी अधिकार दिये जाने चाहिये।
    • इससे प्रबंधन भू–वैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ और सामाजिक रूप से वैध बनता है।
  • रीयल-टाइम IoT मॉनिटरिंग और AI एनालिटिक्स की तैनाती: सभी अधिसूचित खंडों में IoT-सक्षम पायज़ोमीटर और डिजिटल फ्लो मीटरों का उच्च घनत्व वाला नेटवर्क स्थापित किया जाना चाहिये, जो वर्ष 2024 में आरंभ किये गये एकीकृत ‘भू-नीर’ डिजिटल प्लेटफॉर्म को भूजल स्तर और निष्कर्षण से संबंधित वास्तविक काल के आँकड़े भेज सके।
    • कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग (ML) मॉडलों का उपयोग कर जलभृत तनाव का पूर्वानुमान लगाया जाना चाहिये, अवैध निकासी पैटर्न की पहचान की जानी चाहिये और किसानों के लिये स्वचालित, अत्यंत स्थानीयकृत परामर्श बुलेटिन बनाए जाने चाहिये।
    • इससे मॉनिटरिंग प्रणाली प्रतिक्रियात्मक आकलन से पूर्वानुमान आधारित, डेटा-आधारित शासन में परिवर्तित हो जाती है।
  • समन्वित शहरी जल प्रबंधन (IUWM) को अनिवार्य बनाना: मॉडल बिल्डिंग बाई-लॉज (MBBL) का सख्ती से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये जिसमें प्रत्येक नए शहरी विकास के लिये विकेंद्रित वर्षा जल संचयन (RWH) तथा कृत्रिम पुनर्भरण अवसंरचनाएँ (ARS) अनिवार्य हों तथा पारंपरिक शहरी जलाशयों (तालाब, झीलें) का पुनर्जीवन किया जाना चाहिये।
    • महत्त्वपूर्ण रूप से भारत को ऐसा कानून पारित करना चाहिये जो औद्योगिक, निर्माण तथा सार्वजनिक उपयोग क्षेत्रों में सभी गैर-पेय आवश्यकताओं के लिये संसाधित अपशिष्ट जल का उपयोग अनिवार्य बना दे जिससे शहरों में चक्रीय जल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिले।
    • आर्सेनिक/फ्लोराइड प्रभावित क्षेत्रों में सामुदायिक जल शोधन संयंत्रों (CWPP) की स्थापना तथा सतही जल को भूजल के साथ मिलाकर विषाक्तता को कम करने (संयुक्त उपयोग) की दिशा में कदम उठाये जाने चाहिये।
  • भूजल पुनर्भरण को सार्वजनिक हित वित्तपोषण से जोड़ना: औद्योगिक तथा वाणिज्यिक उच्च-निष्कर्षण वाले उपभोक्ताओं पर भूजल सुरक्षा अधिभार या शुल्क लगाया जाना चाहिये और इसे सीधे ज़िला-स्तरीय ‘जलभृत पुनर्भरण कोष’ से जोड़ा जाना चाहिये।
    • यह कोष ग्राम पंचायतों एवं किसानों को प्रभावी जल संरक्षण संरचनाओं (WCS) के निर्माण और रख-रखाव तथा सूखा–सहिष्णु फसल प्रणालियों को अपनाने पर प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहन प्रदान कर सकता है, जिससे एक सतत् स्थानीय वित्तीय चक्र स्थापित हो।
  • दाबयुक्त सूक्ष्म सिंचाई और परिशुद्ध कृषि को बढ़ावा देना: एक विशेष मिशन-आधारित योजना चलाकर सभी जल-शोषित और गंभीर खंडों में परिभाषित समय सीमा के भीतर ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई का 100% अपनाना सुनिश्चित किया जाना चाहिये, जिसे कृषि बिजली लाभों की निरंतरता से जोड़ा जा सकता है।
    • इसके साथ मृदा आर्द्रता सेंसर और रिमोट सेंसिंग जैसी परिशुद्ध कृषि तकनीकों को जोड़ा जाना चाहिये ताकि संदर्भित जल-निर्धारण संभव हो, प्रति बूंद फसल उत्पादकता बढ़े तथा निष्कर्षण की मात्रा में भारी कमी आये।
  • जलभूगर्भीय साक्षरता हेतु क्षमता निर्माण: ग्राम पंचायत अधिकारियों, स्थानीय इंजीनियरों व किसानों के लिये सहभागी जलभूगर्भ विज्ञान और जल बजट निर्धारण के सिद्धांतों में उच्च स्तरीय प्रशिक्षण एवं कौशल-वृद्धि में निवेश किया जाना चाहिये, जिसमें NAQUIM और IoT नेटवर्क के उच्च-स्तरीय डेटा का उपयोग हो।
    • सरल, स्थानीय भाषाओं में जलभृत सूचना प्रणालियाँ विकसित की जानी चाहिये, जो पुनर्भरण/निकासी की स्थिति को स्पष्ट रूप से समझायें ताकि स्थानीय हितधारक साक्ष्य-आधारित निर्णय ले सकें तथा साझा जल संसाधन के प्रति सामूहिक संरक्षण की भावना विकसित हो सके।

निष्कर्ष:

भारत का भूजल संकट केवल एक पर्यावरणीय चुनौती नहीं है बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि संधारणीयता और दीर्घकालिक आर्थिक सुरक्षा के लिये प्रत्यक्ष खतरा है जो SDG 6 (स्वच्छ जल और साफ़-सफाई) के मूल उद्देश्यों को विफल करता है। इसका समाधान वैज्ञानिक शासन, जल के कुशल उपयोग और समुदाय-आधारित संरक्षण की माँग करता है जो SDG 12 (उत्तरदायित्वपूर्ण खपत और उत्पादन) और SDG 13 (जलवायु-परिवर्तन कार्रवाई) के अनुरूप हो। प्रौद्योगिकी के एकीकरण, प्रोत्साहनों के सुधार तथा प्राकृतिक पुनर्भरण प्रणालियों की पुनर्स्थापना के माध्यम से भारत इस चिंताजनक ह्रास को नियंत्रित कर सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

भारत का भूजल संकट अब केवल कमी की समस्या भर नहीं रहा बल्कि प्रदूषण, अति-दोहन, कमज़ोर शासन तथा जलवायु परिवर्तन की संयोजित समस्या बन चुका है। इस संकट के प्रमुख प्रेरक तत्त्वों पर चर्चा कीजिये तथा वर्तमान नीतिगत प्रतिक्रियाओं की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये। भारत किस प्रकार भूजल प्रबंधन को सतत् एवं समतापूर्ण दिशा में आगे बढ़ा सकता है?

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-से भारत के कुछ भागों में पीने के जल में प्रदूषक के रूप में पाए जाते हैं? (2013)

  1. आर्सेनिक
  2. सारबिटॉल
  3. फ्लुओराइड
  4. फार्मेल्डिहाइड
  5. यूरेनियम

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2, 4 और 5
(c) केवल 1, 3 और 5
(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (c)


प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राचीन नगर अपने उन्नत जल संचयन और प्रबंधन प्रणाली के लिये सुप्रसिद्ध है, जहाँ बाँधों की शृंखला का निर्माण किया गया था और संबद्ध जलाशयों में नहर के माध्यम से जल को प्रवाहित किया जाता था?   (2021)

(a) धौलावीरा
(b) कालीबंगा
(c) राखीगढ़ी
(d) रोपड़

उत्तर: (a)


प्रश्न 3. 'वॉटरक्रेडिट' के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:   (2021)

  1. यह जल एवं स्वच्छता क्षेत्र में कार्य के लिये सूक्ष्म वित्त साधनों (माइक्रोफाइनेंस टूल्स) को लागू करता है।
  2. यह एक वैश्विक पहल है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक के तत्त्वावधान में प्रारंभ किया गया है।
  3. इसका उद्देश्य निर्धन व्यक्तियों को सहायिकी के बिना अपनी जल-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये समर्थ बनाना है। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न 1. जल संरक्षण एवं जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020)

प्रश्न 2. रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइये। (2020)

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