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डेली न्यूज़

  • 21 Sep, 2020
  • 43 min read
भारतीय राजनीति

राज्यसभा में ध्वनि मत और अविश्वास प्रस्ताव

प्रिलिम्स के लिये 

उपसभापति के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव, ध्वनि मत  

मेन्स के लिये 

ध्वनि मत का विरोध क्यों?

चर्चा में क्यों? 

कृषि क्षेत्र को उदार बनाने के उद्देश्य से लाये गए तीन कृषि संबंधी विधेयकों में से दो को राज्यसभा में 20 सितंबर को ध्वनि मत के साथ पारित कर दिया गया। राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह द्वारा प्रस्तावों पर मतदान कराने से मना करने के पश्चात् विपक्षी दलों ने ज़ोरदार हंगामा किया। 

प्रमुख बिंदु 

  • कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्द्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 और ‘मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता विधेयक, 2020 को पिछले सप्ताह लोकसभा द्वारा स्वीकृति दे दी गई थी।
  • एक अभूतपूर्व कदम के रूप में राज्यसभा के उपसभापति को हटाने हेतु अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिये 12 विपक्षी दल एक साथ आए। कृषि विधेयकों पर अगले दिन चर्चा जारी रखने वाले विपक्ष के प्रस्ताव को खारिज़ करने और सत्र को 1 बजे से आगे बढ़ाने के उपसभापति के निर्णय को लेकर सदन में हंगामा किया गया।
  • इसकी प्रतिक्रियास्वरुप आज राज्यसभा के सभापति द्वारा 8 विपक्षी सांसदों को नियम-256 के तहत निलंबित कर दिया गया है।

उपसभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव 

  • विपक्ष द्वारा उपसभापति के खिलाफ पेश किये गए अविश्वास प्रस्ताव में कहा गया है कि  उपसभापति ने कानून, संसदीय प्रक्रियाओं, परंपराओं और निष्पक्ष भूमिका के सभी नियमों का उल्लंघन किया है। उपसभापति ने कृषि विधेयकों का विरोध करने वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के राज्यसभा सदस्यों को अपने विचार अभिव्यक्त करने की अनुमति तक नहीं दी।  
  • विपक्षी दलों के सांसदों का कहना है कि उन्हें उपसभापति पर ‘कोई विश्वास नहीं है।’ इस अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों में कॉन्ग्रेस, ऑल इंडिया तृणमूल कॉन्ग्रेस, द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (CPI-M), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), राष्ट्रीय जनता दल (RJD), आम आदमी पार्टी (AAP), तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS), समाजवादी पार्टी, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग  (IUML) और केरल कॉन्ग्रेस (एम) थे।
  • नियमों के अनुसार, राज्य सभा के उपसभापति को राज्य सभा के कुल सदस्यों के बहुमत से प्रस्ताव पारित कर अपने पद से हटाया जा सकता है, लेकिन चौदह दिनों के पूर्व-नोटिस के पश्चात् ही इस प्रकार के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया जा सकता है।
  • प्रस्ताव में कहा गया है कि इस संबंध में कई उपयुक्त उदाहरण कई ग्रंथों, जैसे-  एम. एन. कौल और एस. एल. शकधर के ‘Practice and Procedure of Parliament’ के सातवें संस्करण और संविधान के अनुच्छेद-90 में शामिल है। अनुच्छेद-90 में उपसभापति के पद के रिक्त होने, पदत्‍याग और पद से हटाया जाने के बारे में उल्लेख किया गया है।  
  • विपक्ष द्वारा पुस्तक में उद्धृत कई पूर्व उदाहरणों को प्रस्तुत किया गया है, जैसे- वर्ष 1951 में प्रथम लोकसभा अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर, वर्ष 1966 में अध्यक्ष सरदार हुक्म सिंह और वर्ष 1987 में अध्यक्ष बलराम जाखड़ के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव आदि। इन तीनों प्रस्तावों को सदन द्वारा चर्चा के पश्चात् नकार दिया गया। 

ध्वनि मत (Voice vote)

  • राज्यसभा के कामकाज से संबंधित नियम- 252 से लेकर 254 तक में 'मत विभाजन' के चार अलग-अलग तरीकों का प्रावधान किया गया है। दो प्रक्रियाओं में सांसदों के मत दर्ज नहीं किये जाते, जबकि शेष दो तरीकों में सांसदों के मत राज्यसभा के रिकॉर्ड में स्थायी रूप से दर्ज किये जाते हैं। 
  • इन तरीकों में ध्वनि मत, काउंटिंग, ऑटोमैटिक वोट रिकॉर्डर के जरिये मत विभाजन और लॉबी में जाकर पक्ष/विपक्ष के समर्थन में खड़े होना सम्मिलित हैं।  
  • ध्वनि मत में सदन के अध्यक्ष/सभापति द्वारा सदन के समक्ष प्रश्न रखते हुए सदन के सदस्यों से ‘हाँ’ (Ayes) और ‘ना’ (Noes) के रूप में अपनी राय देने को कहा जाता है। 
  • ध्वनि के आधार पर बहुमत का निर्णय करते हुए अध्यक्ष/सभापति तय करते हैं कि प्रस्ताव पारित किया गया था या नहीं।

ध्वनि मत का विरोध क्यों?

  • आमतौर पर ध्वनि मत में कोई समस्या नहीं होती है, यदि वह सर्वसम्मति से अपनाया गया हो  और उस पर पूर्व में ही निर्णय ले लिया गया हो। उदाहरण के लिये यदि किसी विधेयक के लिये  भारी मात्रा में समर्थन है तो अध्यक्ष/सभापति केवल ध्वनि मत का उपयोग करके विधेयक को पारित करने की अनुमति दे सकते हैं।
  • इन कृषि विधेयकों के संदर्भ में यह स्थिति शायद ही लागू होती है। यह एक विवादास्पद तथा अत्यंत प्रतिक्रियात्मक मुद्दा है। यह करोड़ों भारतीयों की आजीविका से संबंधित है। वास्तव में यह इतना विवादास्पद रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के अपने सहयोगी अकाली दल ने इस पर स्वयं को सरकार से पृथक् कर लिया है।
  • भारतीय जनता पार्टी के पास राज्यसभा की केवल एक तिहाई के लगभग सीटें हैं। इसके अतिरिक्त विपक्ष के साथ-साथ भाजपा के सहयोगी दलों ने भी विधेयकों को लेकर संदेह जताया है। ऐसे में उपसभापति द्वारा इतने महत्त्वपूर्ण मामले को ध्वनि मत का उपयोग करके पारित करवाना सही कदम नहीं कहा जा सकता।
  • विपक्षी सांसदों का दावा है कि इतने हंगामे के बीच उपसभापति द्वारा यह पता लगाना असंभव है कि किसका बहुमत था। वास्तव में यह सदन की बजाये केवल उपसभापति की राय का ही प्रतिनिधित्व करता है।

आगे की राह 

  • संसदीय प्रक्रिया के अनुसार सर्वसम्मति नहीं होने पर ध्वनि मत का उपयोग नहीं किया जाना चाहिये। यदि किसी सदस्य द्वारा ध्वनि मत को चुनौती दी जाती है, तो अध्यक्ष/सभापति मत विभाजन के उपाय को अपनाना चाहिये।

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू


भारतीय राजनीति

प्रवर एवं अन्य संसदीय समितियों की भूमिकाएँ एवं सीमाएँ

प्रिलिम्स के लिये 

प्रवर समिति, विभागीय स्थायी समिति, संयुक्त संसदीय समिति

मेन्स के लिये 

संसदीय समिति की भूमिका, संसदीय समितियों का वर्गीकरण, समिति द्वारा विधेयक का परीक्षण

चर्चा में क्यों? 

दो महत्त्वपूर्ण कृषि विधेयकों को राज्यसभा की एक प्रवर समिति को भेजने की विपक्ष की माँगों को अस्वीकार करते हुए सरकार ने राज्यसभा में इन दोनों विधेयकों को पारित किया है। विधेयकों की संसदीय समिति द्वारा जाँच नहीं किये जाने के कारण विपक्ष द्वारा इसका विरोध किया गया है।

संसदीय समितियों के बारे में 

  • संसद के कार्य अधिक विविध, जटिल एवं वृहद् हैं। संसद के पास पर्याप्त समय और विशेषज्ञता के अभाव के कारण संसदीय समितियाँ संसद के कर्तव्यों के निर्वहन में सहायता प्रदान करती हैं। 
  • भारत के संविधान में ऐसी समितियों का अलग-अलग स्थानों और संदर्भों में उल्लेख आता है, लेकिन इन समितियों के गठन, कार्यकाल तथा कार्यों आदि के संबंध में कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं किया गया है। इन सभी मामलों के बारे में संसद के दोनों सदनों के नियम ही प्रभावी होते हैं। 
  • एक संसदीय समिति वह समिति है: 
    1. जो सदन द्वारा नियुक्त/निर्वाचित होती है अथवा जिसे लोकसभा अध्यक्ष/सभापति नामित करते हैं। 
    2. जो लोकसभा अध्यक्ष/सभापति के निर्देशानुसार कार्य करती है। 
    3. जो अपनी रिपोर्ट सदन को अथवा लोकसभा अध्यक्ष/सभापति को सौंपती है। 
    4. जिसका एक सचिवालय होता है, जिसकी व्यवस्था लोकसभा/राज्यसभा सचिवालय करता है। 
  • संसदीय समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-स्थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ।

विधेयक को पारित करने में संसदीय समिति की भूमिका

  •  संसद में दो तरीकों से विधायी प्रस्तावों (विधेयकों) की जाँच की जाती है- 
    • पहला, दोनों सदनों के पटल पर चर्चा करके विधेयकों का परीक्षण किया जाता है। विधेयकों पर बहस करने में लगने वाला समय भिन्न हो सकता है। चूँकि संसद की बैठक वर्ष में केवल 70-80 दिनों के लिये ही होती है, इसलिये सदन के पटल पर प्रत्येक विधेयक पर विस्तार से चर्चा करने के लिये पर्याप्त समय उपलब्ध नहीं हो पाता है। 
    • दूसरा, विधेयक को एक संसदीय समिति के पास भेजा जाता है। वर्ष 1885 में अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से पहले वुडरो विल्सन ने कहा था कि “यह कहना गलत नहीं होगा कि जब कॉन्ग्रेस सत्र में होती है तो वह सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही होती है और जब वह समिति कक्ष में होती है तो वह काम कर रही होती है।” उल्लेखनीय है कि किसी विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजा जाना अनिवार्य नहीं है।

संसदीय समितियों का वर्गीकरण 

  • संसदीय समितियाँ कई प्रकार की होती हैं, जिन्हें उनके कार्य, सदस्यता और कार्यकाल की अवधि के आधार पर वर्गीकृत  किया जा सकता है। 
  • विधेयक, बजट और मंत्रालयों की नीतियों की जाँच करने वाली समितियों को विभागीय स्थायी समितियाँ कहा जाता है। संसद में इस प्रकार की 24 समितियाँ हैं। प्रत्येक समिति में 31 सदस्य (21 लोकसभा और 10 राज्यसभा) होते हैं।
  • विभागीय स्थायी समितियों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है, जिसके पश्चात् उनका पुनर्गठन किया जाता है। लोकसभा की अवधि के दौरान उनका कार्य जारी रहता है। कोई भी मंत्री इन समितियों का सदस्य नहीं बन सकता है। वित्त, रक्षा, गृह आदि से संबंधित प्रमुख समितियों की अध्यक्षता आमतौर पर विपक्षी सांसदों द्वारा की जाती है।
  • दोनों सदनों के सांसदों को सम्मिलित करके एक विशिष्ट उद्देश्य के लिये संयुक्त संसदीय समितियाँ गठित की जाती हैं। वर्ष 2011 में टेलीकॉम लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के मुद्दे पर कॉन्ग्रेस के सांसद पी.सी. चाको की अध्यक्षता में संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जाँच की गई थी। वर्ष 2016 में नागरिकता (संशोधन) विधेयक को भाजपा सांसद राजेंद्र अग्रवाल की अध्यक्षता में एक संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था।
  • किसी एक विशेष विधेयक की जाँच के लिये प्रवर समिति (Select Committee) का गठन किया जाता है। इसकी सदस्यता किसी एक सदन के सांसदों तक ही सीमित रहती है। पिछले वर्ष राज्यसभा ने सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2019 को सदन के विभिन्न दलों के 23 सांसदों की प्रवर समिति को संदर्भित किया था। इस समिति की अध्यक्षता भाजपा सांसद भूपेन्द्र यादव कर रहे थे। 
  • चूँकि संयुक्त संसदीय समितियों और प्रवर समितियों का गठन एक विशिष्ट उद्देश्य के लिये किया जाता है, इसलिये इनके द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात् इन्हें भंग कर दिया जाता है। इन दोनों प्रकार की समितियों की अध्यक्षता सत्तारूढ़ दल के सांसद करते हैं।

समिति द्वारा विधेयक की जाँच 

  • विधेयकों को स्वचालित रूप से संसदीय समितियों द्वारा परीक्षण के लिये नहीं भेजा जाता है। प्रमुख रूप से तीन रास्ते  हैं, जिनसे होकर कोई विधेयक एक समिति तक पहुँच सकता है।
  • पहला, जब मंत्री सदन में प्रस्ताव रखता है कि उसके विधेयक की सदन की प्रवर समिति या दोनों सदनों की संयुक्त समिति द्वारा जाँच की जाए। पिछले वर्ष इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना एवं संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकसभा में एक प्रस्ताव पारित कर पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल को एक संयुक्त समिति को संदर्भित किया था। 
  • दूसरा, यदि मंत्री उपर्युक्त प्रकार का कोई प्रस्ताव नहीं रखता है तो किसी विधेयक को विभागीय स्थायी समिति के पास भेजना सदन के पीठासीन अधिकारी पर निर्भर करता है। पिछली लोकसभा के कार्यकाल के दौरान राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने विभागीय स्थायी समितियों के पास कुल 8 विधेयक भेजे थे।
  • तीसरा और अंतिम, एक सदन द्वारा पारित विधेयक को दूसरे सदन द्वारा अपनी प्रवर समिति को भेजा जा सकता है। वर्ष 2011 में लोकसभा द्वारा पारित लोकपाल विधेयक को राज्य सभा ने अपनी प्रवर समिति को संदर्भित किया था। पिछली लोकसभा के कार्यकाल के दौरान कई विधेयकों को राज्यसभा की प्रवर समितियों को संदर्भित किया गया था। 
  • किसी भी  विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजने के दो परिणाम निकलकर सामने आते हैं-
    • पहला, समिति विधेयक का विस्तृत रुप से परीक्षण करती है। यह विशेषज्ञों, हितधारकों और नागरिकों से टिप्पणियों और सुझावों को आमंत्रित करती है। सरकार द्वारा भी अपना दृष्टिकोण समिति के सामने प्रस्तुत किया जाता है। यह विधेयक को मज़बूत बनाने के लिये सुझावों के रूप में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करती है। 
    • जब समिति किसी विधेयक पर विचार-विमर्श कर रही होती है तो सदन में विधेयक की प्रगति रूक जाती है। समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद ही यह संसद में प्रगति कर सकता है। आमतौर पर संसदीय समितियों को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी होती है, लेकिन कभी-कभी इसमें अधिक समय लग सकता है।

रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात् 

  • संसदीय समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट अनुशंसात्मक प्रकृति की होती है। सरकार समिति की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। अधिकतर मामलों में सरकार समितियों द्वारा दिये गए सुझावों को शामिल कर लेती है। 
  • प्रवर समितियों और संयुक्त संसदीय समितियों से एक अतिरिक्त लाभ भी है। रिपोर्ट में वे विधेयक के अपने संस्करण को भी शामिल कर सकते हैं, जिससे उस विधेयक के प्रभारी मंत्री समिति के संस्करण वाले विधेयक पर चर्चा कर उसे सदन में पारित करवा सकते हैं। 

आगे की राह 

  • वर्तमान लोकसभा में 17 विधेयकों को संसदीय समितियों को संदर्भित किया गया है। 16वीं लोकसभा (2014-19) के कार्यकाल के दौरान 25% विधेयक समितियों को संदर्भित किये गए थे, जो 15वीं और 14वीं लोकसभा के दौरान क्रमशः 71% और 60% से बहुत कम है।
  • प्रत्येक विधेयक को पारित करने से पूर्व विस्तृत और उचित विचार-विमर्श किया जाना चाहिये। संसद के पास कार्यों की अधिकता और सीमित समय की उपलब्धता के कारण संसदीय समितियों द्वारा विधेयकों की जाँच की जानी चाहिये। 

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

सिंगल मदर्स के बच्चों के लिये जाति प्रमाणपत्र

प्रिलिम्स के लिये

अनुसूचित जाति के लिये आरक्षण की व्यवस्था, जाति प्रमाणपत्र जारी करने संबंधी प्रावधान

मेन्स के लिये

उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय और उससे संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

अपने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि अनुसूचित जाति की सिंगल मदर्स (Single Mothers) के बच्चों, जिनके पिता ऊँची जाति के हैं, को तब तक जाति प्रमाणपत्र जारी नहीं किया जाएगा जब तक यह स्थापित न हो जाए कि उन्हें विशिष्ट समुदाय के कारण अभाव, अपमान और बाधाओं का सामना करना पड़ा हो।

प्रमुख बिंदु

  • न्यायालय का निर्णय
    • दो अलग-अलग जातियों और समुदायों के बीच अंतर-जातीय विवाह में आने वाले वंश की जाति का निर्धारण प्रत्येक मामले में शामिल तथ्यों के आधार पर तय किया चाहिये।
    • यहाँ यह तथ्य सिद्ध करना आवश्यक होगा कि पिता से अलग-अलग होने के कारण क्या बच्चों को किसी भी प्रकार से भेदभाव, अपमान अथवा बाधाओं का सामना करना पड़ा है अथवा नहीं।

  • पृष्ठभूमि
    • ध्यातव्य है कि सर्वप्रथम अनुसूचित जाति की एक महिला ने न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने अपने बच्चों के लिये प्रमाणपत्र जारी करने की मांग की थी।
    • दरअसल वह महिला असम की एक वरिष्ठ रैंकिंग की वायु सेना अधिकारी हैं, जिसने वायु सेना के ही अपने एक सहयोगी से विवाह किया था।
    • वर्ष 2009 में उनके तलाक के बाद उनके दो बच्चे अपनी माँ के साथ रह रहे थे, उस महिला के मुताबिक उनके बच्चे अपने पिता के साथ कभी बड़े नहीं हुए हैं और इसलिये वे अपने पिता के समुदाय का हिस्सा नहीं हैं।
  • महिला के पक्ष में तर्क 
    • महिला ने तर्क दिया है यदि कोई पिता अनुसूचित जाति समुदाय से संबंधित है और अकेले बच्चों की परवरिश कर रहा है, तो उसके बच्चों को जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिये सक्षम माना जाता है।
    • वहीं दूसरी ओर यदि कोई महिला अनुसूचित जाति से संबंधित है और अकेले बच्चों की परवरिश कर रही है, तो उसके बच्चों को जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाता है। 
    • इस प्रकार ऐसी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है और उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।
  • न्यायालय का निर्णय
    • न्यायालय ने रेखांकित किया है कि माता-पिता के अलग होने के बाद भी होने के बाद भी बच्चे अपने पिता का उपनाम प्रयोग कर रहे हैं, जो कि दर्शाता है कि बच्चे अभी भी अपने पिता के समुदाय से जुड़े हुए हैं।
    • न्यायलय ने स्पष्ट किया कि यदि वायु सेना में कार्यरत वरिष्ठ महिला अधिकारी के बच्चों को जाति प्रमाणपत्र जारी किया जाता है तो इससे उच्च शिक्षा और सार्वजनिक सेवा में आरक्षित अनुसूचित जाति की सीटों की सीमित संख्या के लिये पात्रता का दावा करने के लिये योग्य लोगों इससे वंचित हो जाएंगे।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक, 2020

प्रिलिम्स के लिये

औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा कार्य स्थिति संहिता 2020

मेन्स के लिये

भारतीय श्रम कानून और श्रम कानूनों का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

केंद्र सरकार ने हाल ही में लोकसभा में औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक, 2020 प्रस्तुत किया है। इस विधेयक के प्रावधानों के श्रमिक अधिकारियों पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंता ज़ाहिर की जा रही है। 

प्रमुख बिंदु

  • इस विधेयक के अलावा श्रम एवं रोज़गार मंत्री ने दो अन्य श्रम संहिता विधेयक भी प्रस्तुत किये हैं, जिसमें सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा कार्य स्थिति संहिता, 2020 शामिल है। 

औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक- प्रमुख प्रावधान

  • औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक, 2020 में सरकार ने हड़ताल करने के लिये श्रमिकों के अधिकारों को सीमित करने वाले कुछ प्रावधान प्रस्तुत किये हैं, इसके अलावा इस विधेयक में अब कम-से-कम 300 श्रमिकों वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों को कामबंदी, छंटनी और उपक्रम बंद करने से पहले केंद्र या राज्य सरकार की पूर्व अनुमति लेनी होगी, जबकि अभी तक यह सीमा 100 श्रमिकों तक थी। 
    • ध्यातव्य है कि इस नए नियम से श्रमिकों को काम पर रखने और उनकी छंटनी करने को लेकर नियोक्ताओं को अधिक छूट मिलेगा और वे किसी भी समय श्रमिकों की छंटनी कर सकेंगे, जिससे श्रमिकों के समक्ष रोज़गार असुरक्षा की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। 
  • औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक के मुताबिक 300 से कम श्रमिकों वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों को स्थायी आदेश तैयार करने की आवश्यकता नहीं है, जबकि पहले यह छूट 100 से कम श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों को प्राप्त थी। 
    • स्थायी आदेश का अर्थ है औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्यरत श्रमिकों की आचार नियमावली से होता है, स्थायी आदेश में नियोक्ता औपचारिक रूप से अपने प्रतिष्ठान में कार्य स्थिति को परिभाषित करते हैं। 
    • जानकारों का मानना है कि इस नियम के माध्यम से औद्योगिक प्रतिष्ठान श्रमिकों के लिये मनमानी सेवा शर्तों को पेश करने में सक्षम हो जाएंगे।

संबंधित चिंताएँ

  • ‘स्थायी आदेशों’ (Standing Order) प्रस्तुत करने से संबंधित सीमा में परिवर्तन करने से  300 से कम श्रमिकों वाले छोटे प्रतिष्ठानों में कार्यरत लोगों के श्रम अधिकारों पर काफी प्रभाव पड़ेगा।
  • जानकारों के मुताबिक इस प्रकार की सीमा को बढ़ाने का आदेश पूर्णतः अनावश्यक है और यह दर्शाता है कि सरकार नियोक्ताओं और बड़ी कंपनियों को लोगों को काम पर रखने और उनकी छंटनी करने के संबंध में काफी अधिक लचीलापन प्रदान करने की कोशिश कर रही है, जिसका स्पष्ट प्रभाव श्रमिक अधिकारों पर देखने को मिलेगा।
  • औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक में कानूनी तौर पर हड़ताल का आयोजन करने के लिये भी नए प्रावधान प्रस्तुत किये हैं, विधेयक के अनुसार, औद्योगिक प्रतिष्ठान में कार्यरत कोई भी व्यक्ति 60 दिनों के नोटिस के बिना कानूनी तौर पर हड़ताल का आयोजन नहीं कर सकता है, इसके अलावा राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण अथवा किसी अन्य न्यायाधिकरण के समक्ष कानूनी कार्यवाही के दौरान और इस प्रकार की कार्यवाही के समापन के बाद 60 दिनों की अवधि तक किसी भी हड़ताल का आयोजन नही किया जा सकता है।
    • इस प्रकार हड़ताल का आयोजन करने से पूर्व कानूनी रूप से अनुमेय समय सीमा को बढ़ाना श्रमिकों के लिये हड़ताल का आयोजन करना काफी हद तक असंभव बना देगा।
  • इस विधेयक को भेदभावपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि इसमें औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्यरत महिला श्रमिकों के लिये कोई भी विशिष्ट प्रावधान नहीं किया गया है।

पृष्ठभूमि

  • औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक 2019 को बीते वर्ष लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था और बाद में इसे श्रम पर संसदीय स्थायी समिति के समक्ष समीक्षा के लिये भेज दिया गया था।
  • श्रम मंत्रालय द्वारा इस संहिता के पहले मसौदे में भी 300 से कम श्रमिकों वाली कंपनियों को सरकार से अनुमति लिये बिना लोगों को काम पर रखने और उन्हें हटाने की अनुमति देने की बात की गई थी, किंतु श्रमिक संघों और विपक्षी दलों के विरोध के बीच सरकार ने औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक 2019 में इस प्रावधान को शामिल नहीं किया था। 
  •  अब औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक 2019 को केंद्र सरकार ने सदन से वापस ले लिया है और इसके स्थान पर औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक 2020 प्रस्तुत किया है। 

अन्य दो प्रस्तावित विधेयक

  • अन्य दो श्रम संहिता विधेयकों में सामाजिक सुरक्षा के विस्तार और श्रमिकों की परिभाषा में अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिकों को शामिल करने का भी प्रस्ताव किया गया है।
  • सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020 में एक राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड प्रस्तावित किया गया है, जो कि असंगठित श्रमिकों, गिग श्रमिकों और प्लेटफॉर्म श्रमिकों के विभिन्न वर्गों के कल्याण के लिये आवश्यक योजना तैयार करने हेतु केंद्र सरकार को सिफारिश करेगा।
    • प्लेटफॉर्म श्रमिक वे श्रमिक होते हैं जो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का उपयोग करके अन्य संगठनों या व्यक्तियों को विशिष्ट सेवाएँ प्रदान करते हैं।
  • व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा कार्य स्थिति संहिता 2020 में अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक को ऐसे श्रमिक के रूप में परिभाषित किया गया है, जो आय के नए स्रोत की तलाश में किसी एक राज्य से दूसरे राज्य आए हैं और कम-से-कम 18000 रुपए प्रतिमाह आय प्राप्त कर रहे हैं।
  • इस संहिता में प्रस्तावित परिभाषा में संविदात्मक रोज़गार की वर्तमान परिभाषा में एक अंतर पैदा किया गया है।
    • इस संहिता में एक यात्रा भत्ता प्रस्तावित किया गया है, जो कि नियोक्ताओं द्वारा उनके श्रमिकों को दिया जाएगा।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

विश्व बैंक ऋण के लिये सार्वभौमिक पात्रता

प्रिलिम्स के लिये

विश्व बैंक समूह, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना

मेन्स के लिये

विश्व बैंक ऋण के लिये सार्वभौमिक पात्रता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विश्व बैंक ने स्पष्ट किया है कि COVID-19 से निपटने के लिये भारत द्वारा मई, 2020 में लिया गया 1 बिलियन डॉलर का ऋण खरीद (Procurements) में सार्वभौमिक पात्रता की शर्त के अंतर्गत आता है।

प्रमुख बिंदु:

  • विश्व बैंक के पास खरीद दस्तावेज़ों की समीक्षा करने, परियोजना से संबंधित सभी खातों, रिकॉर्ड एवं अन्य फाइलों का निरीक्षण करने का अधिकार होता है। 
    • विश्व बैंक द्वारा जारी की जाने वाली फंडिंग के लिये इन शर्तों का अनुपालन अनिवार्य कर दिया गया है।
  • विश्व बैंक के स्पष्टीकरण के बाद भारत सरकार ने अपनी सभी उत्पादन इकाइयों और अन्य प्रमुख प्रतिष्ठानों को निविदाओं में अधिमान्य संदर्भों को हटाने के लिये और यह सुनिश्चित करने के लिये कहा है कि ठेकेदार, विश्व बैंक के दिशा-निर्देशों के प्रासंगिक प्रावधानों का पालन करने के लिये स्पष्ट रूप से सहमत हों।

प्रभाव: 

  • इसका अर्थ यह होगा कि सभी अधिमान्य बाज़ार पहुँच नीतियाँ, राष्ट्रीय परियोजना को लागू करते समय की गई खरीद पर लागू नहीं होंगी।
    • अधिमान्य बाज़ार पहुँच नीतियों में पब्लिक प्रोक्योरमेंट ऑर्डर, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (MSME) नीति, स्टार्ट-अप्स को कुछ लाभ शामिल हैं। 
  • विश्व बैंक का यह स्पष्टीकरण मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत पहल के लिये एक झटका होगा।

पृष्ठभूमि:

  • विश्व बैंक ने COVID-19 के खतरे को रोकने, पता लगाने एवं प्रतिक्रिया देने और राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने के लिये मई, 2020 में एक ऋण की घोषणा की थी। 
  • यह ऋण प्रवासियों, असंगठित श्रमिकों, अनौपचारिक क्षेत्र से संबंधित था और इसके माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जन धन, आधार एवं मोबाइल (जैम ट्रिनिटी) जैसे सुरक्षा जाल के मौजूदा बुनियादी ढाँचे के एकीकरण का निर्माण करना था।
  • यह ऋण दो चरणों में वित्त पोषित और संचालित होगा:
  • प्रथम चरण: वित्तीय वर्ष 2020 के लिये $750 मिलियन का तत्काल आवंटन।
    • इसे कमज़ोर समूहों विशेष रूप से प्रवासियों एवं अनौपचारिक श्रमिकों को लाभान्वित करने के लिये प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (Pradhan Mantri Garib Kalyan Yojana- PMGKY) के माध्यम से देश भर में लागू किया जाएगा।
  • द्वितीय चरण: $250 मिलियन की दूसरी किस्त वित्तीय वर्ष 2021 के लिये उपलब्ध कराई जाएगी।
    • यह सामाजिक सुरक्षा पैकेज को और सुदृढ़ करेगा, जिससे राज्य सरकारों एवं पोर्टेबल सामाजिक सुरक्षा वितरण प्रणालियों के माध्यम से स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर अतिरिक्त नकदी एवं अन्य लाभों को प्रदान किया जाएगा।  

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों की संख्या में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये

जल जीवन मिशन, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, राष्ट्रीय जल गुणवत्ता उप-मिशन 

मेन्स के लिये

भारत के जल स्रोतों में बढ़ता आर्सेनिक एवं फ्लोराइड का स्तर 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संसद में साझा किये गए आँकड़ों के अनुसार, पिछले पाँच वर्षों (2015-20) में भारत में आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों की संख्या में 145% की वृद्धि हुई है।

प्रमुख बिंदु:

  • वर्ष 2015 में भारत में 1800 आर्सेनिक-प्रभावित बस्तियाँ थीं। जिनकी संख्या सितंबर, 2020 तक बढ़कर 4421 हो गई।
    • बस्तियाँ या वास स्थान (Habitations), एक गाँव में सामुदायिक स्तर पर परिवारों का समूह होती हैं। इसे सेटेलमेंट (Settlements) का सबसे छोटा स्तर कहा जाता है जिसमें घरों की संख्या 10-100 के बीच हो सकती है।  
  • प्रभावित क्षेत्र: आर्सेनिक से प्रभावित अधिकांश बस्तियाँ गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदी के जलोढ़ मैदानों में अवस्थित हैं। अर्थात् असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में।
    • प्रभावित वास स्थानों के मामले में असम (1853) पहले स्थान पर, जबकि पश्चिम बंगाल (1383) दूसरे स्थान पर है।
    • झारखंड, जहाँ वर्ष 2015 में ऐसा कोई वास स्थान नहीं था वहाँ वर्तमान में आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों की संख्या 2 है।       
    • हालाँकि, कर्नाटक में वर्ष 2015 में आर्सेनिक प्रभावित वास स्थानों की संख्या 9 थीं, वहाँ वर्ष 2020 में कोई भी ऐसा वास स्थान नहीं है।
  • फ्लोराइड प्रभावित वासस्थानों की संख्या में कमी: 
    • फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों की संख्या वर्ष 2015 में 12727 से घटकर सितंबर, 2020 तक 5485 हो गई है।
      • फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों की संख्या के मामले में राजस्थान (2956) पहले स्थान पर जबकि बिहार (861) दूसरे स्थान पर था।   
  • जब तक कि नल कनेक्शन के माध्यम से पेयजल की आपूर्ति नहीं की जाती है तब तक जल जीवन मिशन (Jal Jeevan Mission- JJM) के तहत, पेयजल एवं खाना पकाने की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये सामुदायिक जल शोधन संयंत्रों (Community Water Purification Plants- CWPP) के माध्यम से ऐसी गुणवत्ता (आर्सेनिक एवं फ्लोराइड) प्रभावित बस्तियों को प्राथमिकता दी गई है।
    • जल जीवन मिशन (JJM) को वर्ष 2019 में वर्ष 2024 तक प्रत्येक घर में पाइप के द्वारा जलापूर्ति करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।
    • जल जीवन मिशन (JJM) के तहत, राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों को आवंटन राशि का 2% तक का उपयोग जल गुणवत्ता जाँच एवं निगरानी (Water Quality Monitoring & Surveillance- WQM & S) गतिविधियों के लिये किया जा सकता है। 
  • केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम (NRDWP) के तहत एक नया उप कार्यक्रम राष्ट्रीय जल गुणवत्ता उप-मिशन (National Water Quality Sub-Mission- NWQSM) वर्ष 2017 में शुरू किया गया था ताकि लगभग 28000 आर्सेनिक एवं फ्लोराइड प्रभावित वास स्थानों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की तत्काल आवश्यकता को पूरा किया जा सके।
    • NWQSM का लक्ष्य मार्च 2021 तक स्थायी आधार पर स्वच्छ पेयजल के साथ आर्सेनिक/फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों में सभी ग्रामीण आबादी को कवर करना है।
      • NWQSM को 25000 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ लॉन्च किया गया था। 
    • NRDWP को वर्ष 2009 में शुरू किया गया था जहाँ जल की उपलब्धता को स्थिरता, पर्याप्तता, सुविधा, सामर्थ्य एवं इक्विटी के संदर्भ में सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया था।
      • NRDWP एक केंद्र प्रायोजित योजना है जिसमें केंद्र एवं राज्यों के बीच राशि का वितरण 50:50 के आधार पर निर्धारित किया गया है।

आर्सेनिक विषाक्तता:

  • आर्सेनिक प्राकृतिक रूप से कई देशों की भू-सतह एवं भू-जल में उच्च स्तर पर मौज़ूद है। यह अकार्बनिक रूप में अत्यधिक विषाक्त होता है।
  • पीने, भोजन तैयार करने एवं खाद्य फसलों की सिंचाई के लिये उपयोग किये जाने वाले दूषित जल में आर्सेनिक स्तर सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये सबसे बड़ा खतरा है।
  • पेयजल एवं भोजन के उपयोग में लाये जाने वाले जल में लंबे समय तक आर्सेनिक की मौजूदगी से कैंसर, त्वचा रोग, हृदय रोग एवं मधुमेह हो सकता है।
  • पीने के पानी की गुणवत्ता के लिये वर्ष 2011 के विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के दिशा-निर्देशों के अनुसार, भू-जल में आर्सेनिक की वैध सीमा 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर है।
    • हालाँकि, भारत में पेयजल की वैध सीमा को हाल ही में 0.05 मिलीग्राम प्रति लीटर से 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर तक संशोधित किया गया है।

फ्लोराइड विषाक्तता:

  • अत्यधिक फ्लोराइड का उपभोग स्वाभाविक रूप से समृद्ध भूजल की अत्यधिक खपत के कारण होता है विशेष रूप से गर्म जलवायु में जहाँ जल की खपत अधिक होती है या जहाँ उच्च फ्लोराइडयुक्त जल का उपयोग भोजन की तैयारी या फसलों की सिंचाई में किया जाता है।
  • अत्यधिक फ्लोराइड के उपभोग से डेंटल फ्लोरोसिस (दाँतों की सड़न) या क्रिपलिंग स्कल्टन फ्लोरोसिस (Crippling Skeletal Fluorosis) हो सकता है जो अस्थि विकृति से संबंधित है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


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