ध्यान दें:

स्टेट पी.सी.एस.

  • 30 Jun 2025
  • 1 min read
  • Switch Date:  
उत्तर प्रदेश Switch to English

सलखन जीवाश्म पार्क

चर्चा में क्यों?

उत्तर प्रदेश के सलखन जीवाश्म पार्क, जिसे सोनभद्र जीवाश्म पार्क के नाम से भी जाना जाता है, को यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की संभावित सूची में शामिल किया गया है।

मुख्य बिंदु

  • सलखन जीवाश्म पार्क के बारे में:
    • उत्तर प्रदेश के सोनभद्र ज़िले के सलखन गाँव में स्थित यह पार्क कैमूर वन्यजीव अभयारण्य से सटे सुंदर कैमूर रेंज के भीतर 25 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है।
    • यद्यपि इस स्थल में भूवैज्ञानिक रुचि 1930 के दशक से रही है, फिर भी इसे आधिकारिक रूप से वर्ष 2002 में जीवाश्म पार्क घोषित किया गया।
    • सलखन जीवाश्म पार्क में स्ट्रोमैटोलाइट्स को संरक्षित किया गया है, जो प्राचीन साइनोबैक्टीरिया (नीली-हरित शैवाल) द्वारा निर्मित दुर्लभ स्तरित अवसादी संरचनाएँ हैं।
      • लगभग 3.5 अरब वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए सायनोबैक्टीरिया संभवतः ऑक्सीजनिक प्रकाश संश्लेषण करने वाले प्रथम जीव थे, जिनके कारण महान ऑक्सीकरण घटना (लगभग 2.4 अरब वर्ष पूर्व) घटित हुई, जिसने पृथ्वी के वायुमंडल को ऑक्सीजन से समृद्ध किया जिससे जटिल जीवन संभव हो सका।
    • ये प्रकाश संश्लेषण करने वाले सूक्ष्मजीव मेसोप्रोटेरोज़ोइक युग (1.6–1.0 बिलियन वर्ष पूर्व) के हैं, जिससे इनके जीवाश्म 1.4 बिलियन वर्ष पुराने माने जाते हैं।
    • इस प्रकार की संरचनाएँ विश्व स्तर पर अत्यंत दुर्लभ हैं, जो सलखन को दुनिया के सबसे प्राचीन जीवाश्म स्थलों में से एक बनाती हैं, जो शार्क बे (ऑस्ट्रेलिया) तथा येलोस्टोन (अमेरिका) से भी पुराना है।
  • वैज्ञानिक मान्यताओं को चुनौती देना: 
    • सलखन में हुई खोजों ने प्रारंभिक जीवन की वैज्ञानिक समझ को बदल दिया है।
    • पहले वैज्ञानिकों का मानना था कि जीवन लगभग 570 मिलियन वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था, लेकिन यहाँ पाए गए प्राचीन स्ट्रोमेटोलाइट्स उस काल से भी पहले के हैं।
    • इस वैज्ञानिक अवलोकन में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति यूपी इको-पर्यटन विकास बोर्ड तथा बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान, लखनऊ के बीच हुए समझौता ज्ञापन (MoU) के माध्यम से हुई।
    • ये जीवाश्म पृथ्वी के प्रारंभिक जैवमंडल और महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र के विकास से संबंधित महत्त्वपूर्ण सुराग प्रदान करते हैं।

विश्व धरोहर स्थल (WHS)

  • विश्व धरोहर स्थल (WHS) वे स्थान हैं, जिन्हें मानवता के लिये उनके उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य के लिये मान्यता प्राप्त है और उन्हें भावी पीढ़ियों के लिये सुरक्षा और संरक्षण हेतु विश्व धरोहर सूची में अंकित किया गया है।
    • इन स्थलों की प्रकृति सांस्कृतिक, प्राकृतिक अथवा मिश्रित हो सकती है। WHS को विश्व धरोहर सम्मेलन, 1972 के तहत संरक्षित किया जाता है, जो UNESCO के सदस्य देशों द्वारा अपनाया गया एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। 
    • यह अभिसमय ऐसे स्थलों की पहचान, सुरक्षा और परिरक्षण में राष्ट्र पक्षकारों की ज़िम्मेदारियों को रेखांकित करता है।
    • विश्व धरोहर स्थलों की सूची का अनुरक्षण अंतर्राष्ट्रीय 'विश्व धरोहर कार्यक्रम' द्वारा किया जाता है, जिसका विनियमन UNESCO विश्व धरोहर समिति द्वारा किया जाता है।
    • भारत ने वर्ष 1977 में इस अभिसमय का अनुसमर्थन किया।
  • जून 2025 तक, भारत में 43 विश्व धरोहर स्थल (34 सांस्कृतिक, 7 प्राकृतिक और 2 मिश्रित) और 63 स्थल संभावित सूची में हैं।


झारखंड Switch to English

महुआ वृक्ष

चर्चा में क्यों?

मध्य भारत के जनजातीय समुदायों के जीवन से गहराई से जुड़ा महुआ वृक्ष (Madhuca longifolia) अपने सामाजिक-आर्थिक तथा पारिस्थितिकी महत्त्व के कारण पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेज़ीकरण और देशी वनस्पतियों के संरक्षण के प्रयासों के बीच ध्यान आकर्षित कर रहा है।

  • यह सामान्यतः पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उत्तर और मध्य भारत के कुछ हिस्सों तथा महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में पाया जाता है।

मुख्य बिंदु

  • महुआ के बारे में:
  • वानस्पतिक पहचान:
    • महुआ एक मध्यम आकार की पर्णपाती प्रजाति है, जो लगभग 16 से 20 मीटर ऊँचाई तक पहुँचती है।
    • यह मुख्यतः मध्य भारत के वन क्षेत्रों में होता है।
    • यह वृक्ष मार्च-अप्रैल के बीच खिलता है और इसमें क्रीमी-सफेद फूल आते हैं, जो सूर्योदय से पहले गिर जाते हैं।
    • इसके फल जून से अगस्त तक पकते हैं तथा मौसमी कटाई के लिये उपयुक्त होते हैं।
  • सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व:
    • आदिवासी समुदाय द्वारा महुआ को “जीवन का वृक्ष” के रूप में पूजनीय माना जाता है।
    • वे इसके प्रत्येक भाग- फूल, पत्तियाँ, फल, बीज तथा फल के छिलकों का उपयोग दैनिक रीति-रिवाजों और अंतिम संस्कार जैसे प्रमुख अनुष्ठानों में करते हैं।
  • पोषण संबंधी और आर्थिक महत्त्व:
    • आदिवासी लोग महुआ के फूलों को कच्चा या सुखाकर खाते हैं, क्योंकि वे पौष्टिक तत्त्वों से भरपूर होते हैं।.
    • इन फूलों को परंपरागत रूप से किण्वित कर एक स्थानीय मादक पेय तैयार किया जाता है, जो आजीविका का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  • वन पारिस्थितिकी तंत्र में भूमिका:
    • महुआ के रात में खिलने वाले, सुगंधित फूल चमगादड़ों को आकर्षित करते हैं, जिससे परागण और बीज प्रसार को बढ़ावा मिलता है।
    • स्लॉथ बियर तथा अन्य वन्यजीव इसके फूलों का उपभोग करते हैं, जिससे वन खाद्य शृंखला में इसकी भूमिका स्पष्ट होती है।
  • आदिवासी आजीविका और नवाचार में योगदान:
    • महुआ फूलों का संग्रह, सुखाना तथा प्रसंस्करण एक प्रमुख मौसमी व्यवसाय है, विशेषकर आदिवासी महिलाओं के लिये।
      • यह गतिविधि खाद्य सुरक्षा, आय सृजन तथा स्थानीय रोज़गार सुनिश्चित करती है।
    • भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ (TRIFED) ने फाउंडेशन फॉर इनोवेशन एंड टेक्नोलॉजी ट्रांसफर (FIIT) के सहयोग से महुआ उत्पादों के वाणिज्यिक मूल्य को बढ़ाने हेतु महुआ न्यूट्रा पेय विकसित किया है
      • इस पहल का उद्देश्य नवाचार के माध्यम से जनजातीय समुदायों की आय को बढ़ावा देना है।
    • यह महुआ से संबंधित भारत का पहला वैज्ञानिक नवाचार है, जिसकी शुरुआत झारखंड से हुई है तथा यह प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और नवाचार के माध्यम से लघु वन उपज (MFP) के मूल्य संवर्द्धन पर TRIFED की नीति को दर्शाता है।

भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ (ट्राइफेड)

  • भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास परिसंघ (TRIFED) की स्थापना वर्ष 1987 में हुई। यह राष्ट्रीय स्तर का एक शीर्ष संगठन है, जो जनजातीय कार्य मंत्रालय के प्रशासकीय नियंत्रण के अधीन कार्य करता है।
  • ट्राइफेड का प्रमुख उद्देश्य जनजातीय उत्पादों, जैसे- धातु कला, जनजातीय टेक्सटाइल, कुम्हारी, जनजातीय पेंटिंग, जिन पर जनजातीय लोग अपनी आय के एक बड़े भाग हेतु बहुत अधिक निर्भर हैं, के विपणन विकास द्वारा देश में जनजातीय लोगों का सामाजिक-आर्थिक विकास करना है।
  • ट्राइफेड जनजातियों को अपने उत्पाद बेचने में एक समन्वयक और सेवाप्रदाता के रूप में कार्य करता है।
  • यह जनजातीय लोगों को जानकारी, उपकरण और सूचनाओं के माध्यम से सशक्त करता है, ताकि वे अपने कार्यों को अधिक क्रमबद्ध और वैज्ञानिक तरीके से कर सकें।
  • इसमें जागरूकता, स्वयं सहायता समूहों की रचना और कोई खास कार्यकलाप करने के लिये प्रशिक्षण देकर जनजातीय लोगों का क्षमता निर्माण भी शामिल है।
  • ट्राइफेड का मुख्य कार्यालय नई दिल्ली में स्थित है और देश में विभिन्न स्थानों पर इसके 15 क्षेत्रीय कार्यालय हैं। 


उत्तर प्रदेश Switch to English

रक्षा सामग्री एवं भंडार अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान (DMSRDE)

चर्चा में क्यों?

रक्षा राज्य मंत्री ने उत्तर पदेश के कानपुर में स्थित रक्षा सामग्री एवं भंडार अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान (DMSRDE), जो DRDO की एक प्रमुख प्रयोगशाला है, का दौरा किया तथा स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकियों, विशेषकर ऑपरेशन सिंदूर के संदर्भ में इसकी भूमिका की सराहना की।

मुख्य बिंदु

  • स्वदेशी रक्षा नवाचारों को मान्यता:
    • DMSRDE को उन्नत रक्षा प्रणालियों और स्वदेशी उत्पादों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिये सराहना मिली। प्रमुख उपलब्धियों में शामिल हैं:
  • बुलेट प्रूफ जैकेट (लेवल-6)-देश की सबसे हल्की बुलेटप्रूफ जैकेट
    • ब्रह्मोस मिसाइल के लिये नेफथाइल ईंधन
    • भारतीय तटरक्षक पोतों के लिये उच्च दबाव पॉलिमर झिल्लियाँ
  • सिलिकॉन कार्बाइड फाइबर
  • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और उद्योग सहयोग में अग्रणी:
    • DMSRDE ने पिछले 2 वर्षों में सभी DRDO प्रयोगशालाओं में सबसे अधिक प्रौद्योगिकी हस्तांतरण किया है।
    • प्रयोगशाला ने वर्ष 2047 तक विकसित भारत के राष्ट्रीय दृष्टिकोण के अनुरूप, उद्योग तथा शिक्षा जगत के साथ सहयोग पर केंद्रित किया है।
  • व्यापक योगदान:
    • नैनो-सामग्री, तकनीकी वस्त्र, छलावरण प्रणाली, कोटिंग्स, रबर और स्नेहक क्षेत्रों में नवाचार प्रस्तुत किये गए।
    • यह अत्याधुनिक दोहरे उपयोग वाली प्रौद्योगिकियों के विकास हेतु DRDO की प्रतिबद्धता को प्रमाणित करता है।

DRDO के बारे में

  • DRDO की स्थापना वर्ष 1958 में भारतीय सेना के तकनीकी विकास प्रतिष्ठान (TDE), तकनीकी विकास और उत्पादन निदेशालय (DTDP) और रक्षा विज्ञान संगठन (DSO) का संयोजन करके की गई थी।
    • DRDO भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय का अनुसंधान एवं विकास विंग है।
    • आरंभ में DRDO के पास 10 प्रयोगशालाएँ थीं, वर्तमान में यह 41 प्रयोगशालाओं और 5 DRDO युवा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं (DYSL) का संचालन करता है।
  • सिद्धांत: DRDO का मार्गदर्शक सिद्धांत "बलस्य मूलं विज्ञानम् " (शक्ति विज्ञान में निहित है) है, जो राष्ट्र को शांति और युद्ध दोनों ही स्थिति में मार्गदर्शित करता है।
  • मिशन: इसका मिशन तीनों सेनाओं की आवश्यकताओं के अनुसार भारतीय सशस्त्र बलों को अत्याधुनिक हथियार प्रणालियों और उपकरणों से लैस करते हुए महत्त्वपूर्ण रक्षा प्रौद्योगिकियों तथा प्रणालियों में आत्मनिर्भर होना है।

ब्रह्मोस मिसाइल:

  • भारत-रूस संयुक्त उद्यम, ब्रह्मोस मिसाइल की मारक क्षमता 290 किमी. है और यह मैक 2.8 (ध्वनि की गति से लगभग तीन गुना) की उच्च गति के साथ विश्व की सबसे तेज़ क्रूज़ मिसाइल है।
  • यह दो चरणों वाली (पहले चरण में ठोस प्रणोदक इंजन और दूसरे में तरल रैमजेट) मिसाइल है।
  • यह एक मल्टीप्लेटफॉर्म मिसाइल है जिसे स्थल, वायु एवं समुद्र में बहुक्षमता वाली मिसाइल से सटीकता के साथ लॉन्च किया जा सकता है जो खराब मौसम के बावजूद दिन और रात में काम कर सकती है।
  • यह 'दागो और भूल जाओ' (Fire and Forget) सिद्धांत पर काम करती है यानी लॉन्च के बाद इसे मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं होती।

ऑपरेशन सिंदूर 

  •  यह पहलगाम आतंकी हमले के प्रत्युत्तर में 7 मई, 2025 को भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा लॉन्च किया गया एक समन्वित स्ट्राइक ऑपरेशन था। 
    • इसे भारतीय भू-भाग से सेना, नौसेना और वायु सेना के समन्वित प्रयासों द्वारा कार्यान्वित किया गया।
    • पिछले अभियानों के आक्रामक और शक्ति प्रदर्शन पर केंद्रित नामों के विपरीत, इस अभियान का नाम पीड़ितों, विशेषकर पहलगाम हमले की विधवाओं, के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धांजलि स्वरूप चुना गया था। 
  • लक्ष्य: 'ऑपरेशन सिंदूर' के तहत भारतीय सशस्त्र बलों ने पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoJK) में स्थित जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल मुजाहिदीन से संबद्ध आतंकी ठिकानों को लक्षित किया।
    • इन हमलों का उद्देश्य भारत के खिलाफ हमलों की योजना बनाने में इस्तेमाल किये गए आतंकवादी ठिकानों को नष्ट करना था।


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2