मध्य प्रदेश Switch to English
CO₂ खनिजीकरण हेतु ड्रिलिंग अभियान
चर्चा में क्यों?
भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान, भोपाल (IISER) ने वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (CSIR-NGRI) के सहयोग से DeCarbFaroe कार्यक्रम के तहत CO₂ खनिजकरण के लिये कुएँ की ड्रिलिंग परियोजना शुरू की है।
मुख्य बिंदु
- कार्यक्रम के बारे में:
- यह कार्यक्रम कार्बन भंडारण उद्देश्यों के लिये बेसाल्ट में CO₂ खनिजीकरण की खोज पर केंद्रित है, जो जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के उद्देश्य से कार्बन कैप्चर और भंडारण (CCS) प्रौद्योगिकी का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।
- इस परियोजना में एशिया और यूरोप के 9 देशों की भागीदारी है, जिससे वैज्ञानिक सहयोग और ज्ञान विनिमय को बढ़ावा मिलता है। भारत इस अंतर्राष्ट्रीय प्रयास में केंद्रीय भूमिका निभा रहा है।
- सहयोग और अंतर्राष्ट्रीय अंतर्दृष्टि:
- यह परियोजना PERBAS कार्यक्रम से जुड़ी है, जिसका उद्देश्य प्रवाहित बेसाल्ट में CO₂ भंडारण की सुरक्षा का मूल्यांकन करना है।
- PERBAS ने आइसलैंड और अमेरिका में सफल CO₂ खनिजकरण परीक्षणों से प्राप्त अनुभवों को शामिल किया है, जहाँ 2 वर्षों के भीतर बेसाल्ट में CO₂ का सफल खनिजकरण किया गया।
- वित्तीय सहायता:
- भारत सरकार का विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, PERBAS और DeCarbFaroe दोनों पहलों के लिये वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है।
- बेसाल्ट संरचनाओं में CO₂ का संग्रहण और भंडारण:
- CCS तकनीक के अंतर्गत औद्योगिक उत्सर्जन से CO₂ को ग्रहण करके इसे दीर्घकालिक भंडारण के लिये भू-गर्भीय संरचनाओं में गहराई में इंजेक्ट किया जाता है।
- एकत्र CO₂ को जल के साथ मिश्रित कर भूवैज्ञानिक संरचनाओं में प्रविष्ट किया जाता है, जैसे खारे जलभृत या डेक्कन ट्रैप बेसाल्ट चट्टानें।
- बेसाल्ट संरचनाएँ (डेक्कन ट्रैप) तीव्र CO₂ खनिजीकरण को सुगम बनाती हैं, यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें CO₂ बेसाल्ट के साथ प्रतिक्रिया करके कुछ वर्षों के भीतर स्थिर कार्बोनेट खनिज बनाती है।
- यह खनिजीकरण CO₂ रिसाव के न्यूनतम जोखिम के साथ दीर्घकालिक कार्बन भंडारण सुनिश्चित करता है, जिससे यह दीर्घकालिक पृथक्करण के लिये एक सुरक्षित विकल्प बन जाता है।
- महत्त्व:
- चूँकि भारत वैश्विक स्तर पर तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश बनकर उभर रहा है और कोयले पर उसकी निर्भरता बहुत ज़्यादा है, इसलिये कार्बन कैप्चर और भंडारण (CCS) तकनीक ज़रूरी हो जाती है।
- यह तकनीक कोयले का उपयोग जारी रखते हुए पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने में सक्षम बनाती है।
- ऊर्जा सूचना प्रशासन (2009) के अनुमानों से पता चलता है कि विकासशील देश वर्ष 2030 तक वैश्विक ऊर्जा वृद्धि में 59% और कोयला उपयोग में 94% की वृद्धि का योगदान देंगे, जिससे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि होगी।