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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न. 42वें संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में 'समाजवादी' एवं 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़े जाने की संवैधानिक वैधता तथा समकालीन प्रासंगिकता का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)

    05 Aug, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण: 

    • 42वें संशोधन (1976) और इसके द्वारा प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने की संक्षिप्त व्याख्या कीजिये।
    • प्रस्तावना में इन शब्दों को शामिल करने की संवैधानिक वैधता तथा समकालीन प्रासंगिकता पर चर्चा कीजिये।
    • इस संदर्भ में समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भारतीय संविधान की उद्देशिका इसका नैतिक दिशानिर्देश है, जो संविधान सभा के दृष्टिकोण को मूर्त रूप देती है।  ने कल्याण और धार्मिक तटस्थता के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता कीआपातकाल के दौरान पारित 42वें संविधान संशोधन (1976) स्पष्ट रूप से पुष्टि करने के लिये ‘समाजवादी’ एवं ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल किया। इससे संवैधानिक वैधता तथा समकालीन प्रासंगिकता, दोनों पर बहस छिड़ जाती है।

    मुख्य भाग: 

    संवैधानिक वैधता

    • स्वाभाविक रूप से पंथनिरपेक्ष और समाजवादी संविधान: 42वें संशोधन (1976) से पहले भी, पंथनिरपेक्षता और समाजवाद विभिन्न प्रावधानों में अंतर्निहित थे।
      • मूल अधिकार: अनुच्छेद 14, 15, 16, 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं और भेदभाव का निषेध करते हैं।
      • नीति निदेशक तत्त्व (भाग IV): धन के समान वितरण, सामाजिक न्याय और राज्य कल्याण जैसे समाजवादी लक्ष्यों को प्रतिबिंबित करते हैं।
    • न्यायिक समर्थन:
      • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) - पंथनिरपेक्षता और समाजवाद को मूल संरचना का हिस्सा माना गया, जो संसद की संशोधन शक्ति से परे है।   
      • एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) - पंथनिरपेक्षता को भारतीय लोकतंत्र की एक मूलभूत विशेषता के रूप में पुनः स्थापित किया गया।
      • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) - राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSP)में समाजवादी उद्देश्य संविधान के मूलभूत अंग हैं।
      • बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024) - सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज़ कर दिया और कहा कि ये शब्द संविधान के अनुरूप हैं तथा पूरी तरह वैध हैं।

    समकालीन प्रासंगिकता

    • समाजवादी: यह मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल के माध्यम से असमानता को कम करने और वितरणात्मक न्याय सुनिश्चित करने के लिये राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
    • यह असमानता को कम करने के राज्य के कर्त्तव्य पर आधारित है, जो MGNREGA, शिक्षा का अधिकार और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं में परिलक्षित होता है।
    • पंथनिरपेक्ष: इसने सभी धर्मों के लिये समान सम्मान के सिद्धांत की पुष्टि की, यह सुनिश्चित करते हुए कि राज्य किसी भी धर्म का समर्थन किये बिना धार्मिक मामलों में तटस्थता/निष्पक्षता बनाए रखे।  
      • भारतीय संविधान राज्य को भेदभाव को समाप्त करने और मूल अधिकारों को बनाए रखने के लिये धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है।
      • उदाहरणों में शामिल हैं:
        • अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता का उन्मूलन
        • समानता सुनिश्चित करने के लिये मंदिर प्रवेश और धार्मिक प्रथाओं में सुधार
        • मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 के माध्यम से तीन तलाक को अमान्य घोषित करना।

    आलोचनाएँ

    • 'समाजवाद' की अस्पष्टता: वर्ष 1991 के बाद से आर्थिक उदारीकरण और बाज़ार दक्षता पर बल शास्त्रीय समाजवादी लोकाचार को कमज़ोर करता है।
    • पश्चिमी अवधारणा: कुछ आलोचकों का मानना है कि ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ भारत की सांस्कृतिक विरासत से नहीं, बल्कि पश्चिम से आयातित विचार हैं।
    • प्रक्रियात्मक चिंता: उद्देशिका को संविधान की आत्मा माना गया था (26 नवंबर 1949)। बाद में संशोधन कर उसमें शब्द जोड़ना इसकी मूल भावना में परिवर्तन के रूप में देखा जाता है।
    • राजनीतिक दुरुपयोग: उद्देशिका के आदर्शों का प्रयोग कभी-कभी नीतिगत गहराई के बजाय राजनीतिक बयानबाज़ी के लिये किया जाता है।
      • व्यवहार में संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिये धर्म आधारित ध्रुवीकरण, पक्षपातपूर्ण कानून-प्रयोग और सांप्रदायिक हिंसा इन मूल्यों की अवहेलना करते हैं।

    निष्कर्ष:

    वर्ष 1976 में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों का समावेश संवैधानिक रूप से मान्य तथा नैतिक रूप से महत्त्वपूर्ण है, परंतु इन शब्दों की शक्ति केवल उद्देशिका में लिखे होने में नहीं, बल्कि उन्हें नीति और आचरण में उतारने में है। इसके लिये आवश्यक है कि समाजवादी लक्ष्यों की व्याख्या स्पष्ट हो, संस्थाएँ मज़बूत हों, धार्मिक सहिष्णुता और विविधता का सम्मान हो, न्यायपालिका संविधान के मूल मूल्यों की रक्षा करे। यही भारत के लोकतंत्र, एकता और सामाजिक न्याय की भावना को सशक्त बनाएगा।

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