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प्रश्न :
प्रश्न. “विधायी उत्पादकता में गिरावट संसदीय लोकतंत्र और राष्ट्रीय सहमति में एक गहरे संकट को दर्शाती है।” भारत में हाल के संसदीय सत्रों के संदर्भ में परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)
29 Jul, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- विधायी उत्पादकता की अवधारणा की संक्षेप में विवेचना कीजिये।
- विधायी उत्पादकता में हालिया रुझानों पर चर्चा कीजिये।
- विधायिका की कम उत्पादकता के प्रमुख निहितार्थों पर प्रकाश डालिये।
- आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
विधायी उत्पादकता उस दक्षता और प्रभावशीलता को दर्शाती है जिसके साथ संसद एवं राज्य विधानमंडल अपने मुख्य कार्य—विधि निर्माण, कार्यपालिका की निगरानी, बजट अनुमोदन और सार्वजनिक मुद्दों पर बहस संपादित करते हैं। कार्य-निष्पादन में लगातार गिरावट न केवल प्रक्रियागत कमियों का संकेत देती है, बल्कि लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली के गहन संकट और राष्ट्रीय सहमति के क्षरण का भी संकेत देती है।
मुख्य भाग:
विधायी उत्पादकता में हालिया रुझान:
- बैठकों के दिनों की संख्या: पहले लोकसभा में प्रति वर्ष संसद की बैठकें लगभग 135 दिन हुआ करती थीं, जो 17वीं लोकसभा में घटकर लगभग 55 दिन प्रति वर्ष रह गये हैं।
- बैठक के कम दिनों के बावजूद, 17वीं लोकसभा ने 200 से अधिक विधेयक पारित किये, जो विधायी गतिविधियों की उच्च मात्रा को दर्शाता है।
- प्रत्येक बैठक की अवधि: गहन विधायी विचार-विमर्श के लिये लंबी बैठकें आवश्यक हैं।
- हालाँकि, वर्ष 2023 के बजट सत्र में, लोकसभा और राज्यसभा ने क्रमशः निर्धारित समय का केवल 33% और 24% ही कार्य किया, जिससे यह वर्ष 1952 के बाद से छठा सबसे छोटा बजट सत्र बन गया।
- उपस्थित सदस्यों की संख्या: सार्थक बहस और सूचित निर्णय लेने के लिये एक सुदृढ़ गणपूर्ति (कोरम) अत्यंत आवश्यक है।
- 17वीं लोकसभा (2019-2024) में, सांसदों की औसत उपस्थिति 79% थी, लेकिन बहस में भागीदारी कम रही, प्रत्येक सांसद ने औसतन केवल 45 बहसों में भाग लिया।
- व्यवधान का स्तर: बार-बार होने वाले व्यवधान, जैसे नारेबाजी और बहिर्गमन, बहस की अवधि को बहुत कम कर देते हैं।
- 15वीं लोकसभा (2009-14) ने अपने निर्धारित समय का 30% से अधिक व्यवधानों के कारण खो दिया, जिससे विधायी उत्पादकता गंभीर रूप से प्रभावित हुई।
- संसदीय समितियों द्वारा जाँच: 17वीं लोकसभा में, केवल 10% विधेयक समितियों को भेजे गए, जो 14वीं लोकसभा (60%), 15वीं (71%) और 16वीं (25%) की तुलना में भारी गिरावट है, जहाँ केवल 14 विधेयकों की समीक्षा की गई।
- वाद-विवाद का संचालन: प्रश्नकाल और शून्यकाल, जो कार्यपालिका की जवाबदेही के लिये आवश्यक साधन हैं, का कम उपयोग हुआ या वे अनुपस्थित रहे।
- 17वीं लोकसभा में, प्रश्नकाल लोकसभा में निर्धारित समय का केवल 19% और राज्यसभा में 9% ही चला।
लोकतंत्र पर प्रभाव
- संसद की निगरानी भूमिका को दरकिनार करके संस्थागत जाँच और संतुलन को कमज़ोर करता है।
- प्रतिनिधित्व के संकट को दर्शाता है, जहाँ जनता की चिंताओं पर पर्याप्त रूप से चर्चा नहीं की जाती है।
- लोकतांत्रिक संस्थाओं में पारदर्शिता और जनता के विश्वास को कम करता है।
- विधायी जाँच को दरकिनार करते हुए अध्यादेश मार्ग को तेज़ी से अपनाया जाता है (जैसे: वर्ष 2020 के तीन कृषि कानून पहले अध्यादेश के रूप में लाये गये थे)।
निष्कर्ष:
राजनीतिक सिद्धांतकार रजनी कोठारी ने कहा था, “लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं है, बल्कि यह परस्पर सहमति की प्रक्रिया है।”
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