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प्रश्न :
प्रश्न. “राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति की भूमिका द्विसदनीय प्रणाली की मूल भावना का संवाहक है।” संघीय संरचना में संतुलन स्थापित करने हेतु इस संवैधानिक पद की भूमिका का विश्लेषण कीजिये तथा इसके व्यावहारिक प्रभावों की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)
22 Jul, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- उपराष्ट्रपति से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी के साथ उत्तर दीजिये।
- राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति की भूमिका का संवैधानिक महत्त्व की व्याख्या कीजिये।
- द्विसदनीय प्रणाली और संघवाद को बनाए रखने में व्यावहारिक महत्त्व पर प्रकाश डालिये।
- उपराष्ट्रपति पद की भूमिका को बढ़ाने के लिये प्रमुख सीमाओं और उपायों पर प्रकाश डालिये।
- एक उद्धरण के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
भारत के संविधान के अनुच्छेद 63 में उपराष्ट्रपति का प्रावधान है, जो अनुच्छेद 64 के तहत राज्यसभा (राज्य परिषद) का पदेन सभापति होता है।
इस विशिष्ट द्वैध भूमिका में, उपराष्ट्रपति कार्यपालिका शाखा से संबंधित होते हुए भी, द्विसदनीय प्रणाली की भावना को मूर्त रूप देते हुए तथा संघवाद और संसदीय प्रक्रिया के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करते हुए संसद के उच्च सदन की अध्यक्षता करते हैं।
मुख्य भाग:
राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति की भूमिका का संवैधानिक महत्त्व
- राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी: अनुच्छेद 64 के तहत, उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में कार्य करते हैं, जो सदन की कार्यवाही को निष्पक्ष और व्यवस्थित तरीके से संचालित करने के लिये उत्तरदायी होते हैं।
- भारत के संघीय संरचना में राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले उच्च सदन में विधायी दक्षता और प्रक्रियात्मक अनुशासन सुनिश्चित करता है।
- संघीय संतुलन की रक्षा: राज्यसभा मुख्य रूप से संघ में राज्यों के हितों की रक्षा के लिये है।
- सभापति के रूप में, उपराष्ट्रपति राज्यों को प्रभावित करने वाले मुद्दों, जैसे राज्य के वित्त, संघीय योजनाओं और विधायी अतिक्रमणों पर सार्थक बहस को सुगम बनाते हैं।
- संसदीय परंपराओं का निर्वाह: यद्यपि उपराष्ट्रपति किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता है, फिर भी उसकी संवैधानिक भूमिका निष्पक्ष आचरण सुनिश्चित करती है, संसदीय गरिमा एवं संघीय तटस्थता को सुदृढ़ करती है।
- कार्यपालिका रिक्तियों के दौरान स्थिरता: अनुच्छेद 65 के तहत, उपराष्ट्रपति रिक्ति या अक्षमता की स्थिति में राष्ट्रपति के कार्यों का निर्वहन करता है, जिससे संवैधानिक शासन की निरंतरता सुनिश्चित होती है, जो सहकारी संघवाद का प्रतिबिंब है।
द्विसदनीय प्रणाली और संघवाद को बनाए रखने में व्यावहारिक महत्त्व
- विविध प्रतिनिधित्व को सुगम बनाना: राज्यसभा एक पुनर्विचार सदन है, जो राष्ट्रीय विधान पर राज्यों के दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
- सभापति यह सुनिश्चित करते हैं कि छोटे या क्षेत्रीय राज्यों के मुद्दे और समस्याएँ संसद में सुनी जायें तथा केवल बहुसंख्यक (जैसे: बड़े राज्यों) की इच्छाओं से नीति न बनाई जाये, जो लोकसभा में हो सकता है।
- संतुलित विधायी विचार-विमर्श: उपराष्ट्रपति, सभापति के माध्यम से, रचनात्मक बहस को संभव बनाता है और शीघ्रता में बनाए जाने वाले विधानों पर अंकुश लगाता है, जिससे संघीय समझौते की रक्षा होती है।
- राजनीतिक विवादों में तटस्थ मध्यस्थ: राज्यसभा प्रायः केंद्र-राज्य के बीच तीखी बहस का मंच बन जाती है। सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति का निष्पक्ष आचरण विविध राजनीतिक इकाइयों के बीच मर्यादा और विश्वास बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण है।
- संस्थागत तालमेल को प्रोत्साहित करना: उपराष्ट्रपति अपनी विशिष्ट स्थिति के साथ कार्यपालिका और विधायिका के कामकाज़ में सामंजस्य स्थापित करने में सहायता करता है, जिससे केंद्र-राज्य समन्वय बेहतर होता है।
प्रमुख सीमाएँ:
- बराबरी की स्थिति को छोड़कर कोई मतदान शक्ति नहीं: अनुच्छेद 100(1) के अनुसार, उपराष्ट्रपति (राज्यसभा के सभापति के रूप में) बराबरी की स्थिति को छोड़कर विधेयकों या प्रस्तावों पर मतदान में भाग नहीं लेते हैं।
- यह उनके विधायी प्रभाव को सीमित करता है, विशेष रूप से प्रमुख संघीय कानूनों को आकार देने में।
- विधायी कार्य निर्माण में सीमित भूमिका: हालाँकि सभापति राज्यसभा की कार्य मंत्रणा समिति जैसी कुछ समितियों की अध्यक्षता करते हैं, लेकिन विधायी कार्यक्रम पर उनका प्रभाव लोकसभा अध्यक्ष की सक्रिय भूमिका की तुलना में अपेक्षाकृत सीमित होता है।
- यह प्राथमिकताएँ निर्धारित करने या राज्य-केंद्रित मुद्दों पर समय सुनिश्चित करने में उनकी भूमिका को कमज़ोर करता है।
- धन विधेयकों पर कोई नियंत्रण नहीं: अनुच्छेद 110 के अनुसार, धन विधेयकों को प्रस्तुत करने या पारित करने में राज्यसभा और उसके सभापति की कोई भूमिका नहीं होती है, जो केवल लोकसभा के लिये हैं।
- यह उच्च सदन की शक्ति को और इसके विस्तार से, वित्तीय संघवाद में उपराष्ट्रपति की भूमिका को, महत्त्वपूर्ण रूप से कमज़ोर करता है।
राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति की भूमिका के विस्तार के उपाय:
- अधिक प्रक्रियात्मक शक्तियों का संस्थागतकरण: राज्य-केंद्रित मुद्दों पर बहसों का अधिक प्रभावी ढंग से समय-निर्धारण करने के लिये, लोकसभा अध्यक्ष की तरह, कार्य मंत्रणा समिति के निर्णयों में सभापति को अधिक अधिकार प्रदान किया जाना चाहिये।
- सुधारों के माध्यम से निष्पक्षता को सुदृढ़ करना: संस्थागत तटस्थता और जनता के विश्वास की रक्षा के लिये, उपराष्ट्रपति का पद ग्रहण करने से पहले सक्रिय राजनीति से कुछ समय के लिये विराम लेने पर विचार किया जाना चाहिये।
- विशेष रूप से विवादास्पद विधायी बहसों के दौरान, निष्पक्षता को सुदृढ़ करने के लिये सभापति के लिये एक आचार संहिता बनाई जानी चाहिये।
- संवाद के माध्यम से सहकारी संघवाद को प्रोत्साहित करना: GST कार्यान्वयन, जल विवाद आदि जैसे मुद्दों पर विभिन्न राज्यों के राज्यसभा सदस्यों के बीच नियमित अनौपचारिक संवाद आयोजित करने के लिये उपराष्ट्रपति के कद का उपयोग किया जाना चाहिये।
- क्षेत्रीय चिंताओं को राष्ट्रीय सुर्खियों में लाने के लिये राज्यसभा में राज्य-विशिष्ट चर्चा दिवसों का आयोजन किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
"संघवाद का सार एकरूपता के बिना एकता में निहित है।"
इसी भावना से, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के सभापति के रूप में, भारत के संघीय संरचना के एक मौन किंतु अडिग प्रहरी के रूप में कार्य करते हैं। उनकी यह द्वैध भूमिका भारत के संवैधानिक ढाँचे में लचीलापन और संतुलन दोनों जोड़ती है।
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