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प्रश्न :
प्रश्न. “संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से परिकल्पित जिस लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का वादा किया गया था, वह विभिन्न बाधाओं के कारण अब तक पूरी तरह साकार नहीं हो पाया है।” इस कथन की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)
15 Jul, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देने वाले संवैधानिक संशोधनों के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी के उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
- वर्ष 1992 के 73वें और 74वें संविधान संशोधन के प्रावधानों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- प्रभावी लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में बाधा डालने वाली प्रमुख बाधाओं की चर्चा कीजिये।
- लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को सुदृढ़ करने के उपायों का सुझाव दीजिये।
उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय
वर्ष 1992 के 73वें एवं 74वें संविधान संशोधनों के माध्यम से लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का वादा, ऐतिहासिक सुधार था जिसका उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं (PRI) और शहरी स्थानीय निकायों (ULB) को कानूनी मान्यता तथा शासन में विशिष्ट कार्य प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाना था।
- इन विधिक प्रगति के बावजूद, लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, जो स्थानीय निकायों को स्वशासन का प्रभावी साधन बनने से रोकती हैं।
मुख्य भाग:
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का वादा: संवैधानिक प्रावधान और संशोधन
73 वाँ संशोधन (पंचायतों के लिये) और 74वाँ संशोधन (नगरपालिकाओं के लिये) भारत में स्थानीय शासन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। इन संशोधनों के माध्यम से निम्नलिखित सुधार लाए गए:
- त्रिस्तरीय प्रणाली: ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम, मध्यवर्ती और ज़िला स्तर पर पंचायतों की व्यवस्था है, जबकि शहरी क्षेत्रों में नगर पालिकाओं एवं नगर निगमों द्वारा शासन सुनिश्चित किया जाता है।
- चुनाव और आरक्षण: इन संशोधनों ने स्थानीय निकायों के लिये प्रत्यक्ष चुनाव अनिवार्य कर दिये तथा महिलाओं और सीमांत समुदायों (SC/ST) के लिये एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दीं।
- राजस्व का विकेंद्रीकरण: स्थानीय निकायों को वित्तीय अंतरण की सिफारिश करने के लिये राज्य स्तर पर एक वित्त आयोग का प्रावधान।
- योजना और विकास: पंचायतों को कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा और ग्रामीण विकास सहित ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल विषयों पर आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय के लिये योजनाएँ तैयार करने का कार्य सौंपा गया।
इन प्रगतिशील उपायों के बावजूद, विकेंद्रीकरण का मूल वादा अब भी संरचनात्मक और कार्यात्मक बाधाओं के कारण बाधित बना हुआ है।
प्रभावी लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में बाधा डालने वाली प्रमुख बाधाएँ:
- राजकोषीय निर्भरता और राजस्व स्वायत्तता की कमी: RBI रिपोर्ट (2022-23) के अनुसार, पंचायतों ने करों के माध्यम से अपने राजस्व का केवल 1% उत्पन्न किया, जिसमें से 80% केंद्र सरकार के अनुदान से आया।
- स्थानीय निकायों को राजस्व स्वायत्तता की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता है, क्योंकि भूमि राजस्व और व्यावसायिक कर जैसे आय के महत्त्वपूर्ण स्रोतों पर उनका नियंत्रण नहीं होता है।
- राज्य वित्त आयोग (SFC), जिनसे वित्तीय अंतरण सुनिश्चित करने की अपेक्षा की जाती है, प्रायः अपनी सिफारिशों को लागू करने में विफल रहते हैं, जिससे स्थानीय सरकारों की वित्तीय क्षमता और अधिक सीमित हो जाती है।
- सीमित प्रतिनिधित्व और भागीदारी: यद्यपि 73वें और 74वें संशोधन में महिलाओं, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटें आरक्षित की गई थीं, लेकिन वास्तविक राजनीतिक शक्ति प्रायः प्रभावशाली समूहों के पास ही रहती है।
- जैसा कि वेबसीरीज़ पंचायत में दर्शाया गया है, महिला सरपंचों (ग्राम प्रधान) और पार्षदों को प्रायः प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व (प्रधान पति) का सामना करना पड़ता है, जहाँ परिवार के पुरुष सदस्य सत्ता का प्रयोग करते हैं।
- इससे महिलाओं और सीमांत समुदायों का प्रभावी सशक्तीकरण बुरी तरह प्रभावित होता है।
- इसके अलावा, क्षमता निर्माण कार्यक्रमों और संस्थागत समर्थन की कमी है, जिससे सीमांत समूहों के लिये शासन में सक्रिय भूमिका निभाना मुश्किल हो जाता है।
- राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप: स्थानीय निकायों को प्रायः राजनीतिक हस्तक्षेप का सामना करना पड़ता है जो उनकी निर्णय लेने की शक्ति को कमज़ोर करता है।
- अशोक मेहता समिति के अनुसार, स्थानीय शासन राज्य सरकारों द्वारा नियंत्रित रहता है, जो पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों की स्वायत्तता को सीमित करता है।
- 11वीं अनुसूची के अंतर्गत 29 विषयों का पंचायतों को हस्तांतरण असंगत बना हुआ है, क्योंकि राज्य कुछ विषयों पर नियंत्रण छोड़ने में हिचकिचाते हैं।
- इसके परिणामस्वरूप संरचनात्मक विरोधाभास उत्पन्न होता है, जहाँ स्थानीय निकाय सेवा प्रदान करने के लिये जिम्मेदार होते हैं, लेकिन निर्णयों को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने की शक्ति का अभाव होता है।
- भ्रष्टाचार और चुनावी अनिच्छा: भ्रष्टाचार और चुनावी गणनाएँ भी प्रभावी शासन में बाधा उत्पन्न करती हैं।
- निर्वाचित प्रतिनिधि प्रायः संपत्ति कर जैसे कर लगाने से बचते हैं, क्योंकि उन्हें भय होता है कि इससे उनके चुनावी अवसरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
- कर एकत्र न करने की यह अनिच्छा स्थानीय राजस्व को अपर्याप्त बना देती है, जिससे स्थानीय निकाय बाह्य अनुदानों पर अत्यधिक निर्भर हो जाते हैं।
- साथ ही, कुछ क्षेत्रों में ‘फ्रीबी संस्कृति’ ने कर अनुपालन को हतोत्साहित किया है, क्योंकि स्थानीय सरकारें राजनीतिक समर्थन खोने के भय से कर लागू करने से बचती हैं।
- निगरानी हेतु संस्थागत क्षमता की कमी: एक प्रमुख मुद्दा प्रमुख प्रावधानों का असंगत कार्यान्वयन है, जैसे कि ज़िला योजना समितियाँ (DPC), जो कई राज्यों में गैर-कार्यात्मक बनी हुई हैं।
- वर्ष 2020 की एक रिपोर्ट ने संकेत दिया कि कई DPC 15 राज्यों में समेकित योजना तैयार करने में विफल रहे और शहरी क्षेत्रों में, नगर निगमों में स्टाफ की रिक्तियाँ लगभग 30% पाई गईं।
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को मज़बूत करने के लिये प्रस्तावित उपाय:
- राजकोषीय स्वायत्तता बढ़ाना: राज्यों को SFC की सिफारिशों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित करना चाहिये और स्थानीय निकायों को स्वयं के स्रोत से राजस्व (OSR) उत्पन्न करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2nd ARC) ने स्थानीय निकायों के राजस्व आधार को बढ़ाने और पारदर्शी राजकोषीय अंतरण तंत्र शुरू करने की सिफारिश की।
- इसके अतिरिक्त, राजस्व स्रोतों में विविधता लाने के लिये म्यूनिसिपल बॉण्ड और पूल्ड फाइनेंसिंग तंत्र (इंदौर मॉडल की तरह) को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- स्थानीय निकायों को प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान करना: स्थानीय सरकारों को पूर्ण प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिये, जिसमें कार्मिकों की भर्ती करने, सेवा शर्तों को विनियमित करने तथा स्वतंत्र रूप से बजट की योजना बनाने और उसे क्रियान्वित करने की शक्ति शामिल हो।
- राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय बजट को मंजूरी देने की प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिये, जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों को अपने वित्तीय निर्णयों पर पूर्ण नियंत्रण रखने में सक्षम बनाया जा सके।
- इसके अतिरिक्त, पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों को प्रशासनिक कार्यों के प्रभावी ढंग से संचालन के लिये समर्पित सचिवालयों एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों से सुसज्जित किया जाना चाहिये।
- सहभागी शासन के माध्यम से जवाबदेही में सुधार: ग्राम सभाओं और वार्ड समितियों के माध्यम से निर्णय लेने में नागरिकों को शामिल करने से समावेशी शासन को बढ़ावा मिल सकता है।
- बलवंत राय मेहता समिति ने शासन में समुदाय की भागीदारी को महत्त्वपूर्ण बताया था, जिसे उत्तरदायित्व और प्रत्युत्तरशीलता बढ़ाने हेतु अनिवार्य बनाया जाना चाहिये।
- क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण: स्थानीय सरकारों को जी.वी.के. राव समिति की सिफारिशों के आधार पर इन उपायों को लागू करने के लिये तकनीकी विशेषज्ञता से लैस किया जाना चाहिये।
- प्रत्येक राज्य में स्थानीय शासन प्रशिक्षण संस्थानों (LGTI) की स्थापना से निर्वाचित अधिकारियों और कर्मचारियों के लिये निरंतर प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रदान करके इस अंतर को कम करने में सहायता मिल सकती है।
- इसके अलावा, स्थानीय शासन में दक्षता, पारदर्शिता और सेवा वितरण में सुधार के लिये ई-गवर्नेंस टूल्स को एकीकृत किया जाना चाहिये।
- शहरी शासन को सुदृढ़ बनाना: द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा प्रस्तावित ‘मेयर-इन-काउंसिल’ प्रणाली, प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित मेयर को कार्यकारी शक्तियाँ प्रदान कर शासन प्रक्रिया को सरल और सुव्यवस्थित बना सकती है।
- इसके अतिरिक्त, शहरी स्थानीय निकायों को राज्य आवंटन से स्वतंत्र रूप से राजस्व उत्पन्न करने के लिये भूमि बैंकों और नगरपालिका बॉण्डों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- राज्य हस्तांतरण पर निर्भरता कम करने के लिये बुनियादी अवसंरचना के विकास के लिये PPP मॉडल को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
वास्तविक लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को प्राप्त करने के लिये, भारत को तीन 'F' पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है: वित्तीय स्वतंत्रता के लिये वित्तीय स्वायत्तता (Fiscal Autonomy), निर्णय लेने की शक्तियों के लिये कार्यात्मक स्वायत्तता (Functional Autonomy) और समावेशी शासन एवं सक्रिय नागरिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये निष्पक्ष प्रतिनिधित्व (Fair Representation)। तभी ग्राम स्वराज और शहरी स्वशासन की परिकल्पना भारत के लोकतांत्रिक संरचना में सही मायने में साकार हो सकेगी।
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