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प्रश्न :
प्रश्न. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के संदर्भ में, भारतीय न्यायपालिका की सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में भूमिका तथा इनकी व्याख्याओं ने समाज के वंचित वर्गों के लिये नीतियों को किस प्रकार आकार प्रदान किया है। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
10 Jun, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्यायउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- सामाजिक न्याय को परिभाषित कीजिये तथा इसमें न्यायपालिका की भूमिका को संक्षेप में समझाएँ।
- भारत में सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने वाले सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख निर्णयों तथा संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या ने वंचित वर्गों के लिये नीतियों में किस तरह योगदान दिया है, पर चर्चा कीजिये।
- सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में न्यायपालिका को मज़बूत करने के लिये चुनौतियों और उपायों पर प्रकाश डालिये।
- उपर्युक्त निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
न्यायपालिका, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय, आरक्षण, महिला अधिकारों और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा पर ऐतिहासिक फैसलों के माध्यम से वंचित समुदायों के लिये सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। न्यायिक समीक्षा, जनहित याचिकाओं और संविधान की प्रगतिशील व्याख्याओं के माध्यम से, इसने विशेष रूप से कोविड महामारी जैसी चुनौतियों के दौरान अधिक समानता और जवाबदेही सुनिश्चित की है, जिससे समावेशी समाज को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका मज़बूत हुई है।
मुख्य बिंदु:
सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में न्यायपालिका की भूमिका:
- संविधान का संरक्षक: सर्वोच्च न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि विधि और कार्यकारी कार्रवाई संविधान के अनुरूप हों, न्यायिक समीक्षा प्रक्रिया के माध्यम से इसने असंवैधानिक संशोधनों और कानूनों को रद्द कर दिया है।
- उदाहरण के लिये केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में आधारभूत संरचना की अवधारणा प्रस्तुत की गई, जिससे संविधान की लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय संबंधी विशेषताओं की रक्षा हुई।
- मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन: अनुच्छेद 32 और 226 नागरिकों को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये सीधे सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों से संपर्क करने का अधिकार देते हैं।
- उदाहरण के लिये मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में, न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की व्याख्या को व्यापक बनाते हुए यह सुनिश्चित किया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को केवल न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित प्रक्रियाओं के माध्यम से ही सीमित किया जा सकता है।
- इसने सम्मान के साथ जीने के अधिकार के विस्तार की नींव रखी, जिसका प्रभाव बाद में शिक्षा, पर्यावरण, स्वास्थ्य और गोपनीयता पर दिये गए निर्णयों पर पड़ा।
- लैंगिक और यौन अल्पसंख्यकों के लिये सामाजिक न्याय: न्यायपालिका ने LGBTQIA+ समुदायों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के समक्ष आने वाले मुद्दों को संबोधित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा सामाजिक भेदभाव को सीधे चुनौती दी है।
- नालसा बनाम भारत संघ (2014) में, सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता प्रदान की तथा संविधान के तहत समानता, सम्मान और सामाजिक न्याय के उनके अधिकारों की पुष्टि की।
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) में, धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करना LGBTQIA + समुदाय के लिये सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था।
- धारा 377 को पढ़कर न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंध अब अपराध नहीं माने जाएंगे तथा LGBTQIA+ समुदाय को कानून के तहत समान अधिकार और सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
- सकारात्मक कार्रवाई को बढ़ावा देना (अनुच्छेद 15 और 16): न्यायपालिका ने आरक्षण नीतियों को कायम रखने और परिष्कृत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- उदाहरण के लिये, इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) में, न्यायालय ने OBC आरक्षण को बरकरार रखा, लेकिन उसे 50% तक सीमित कर दिया तथा क्रीमी लेयर को इससे बाहर रखा, इस प्रकार सामाजिक न्याय और समानता के बीच संतुलन स्थापित किया गया।
- एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) ने SC/ST के लिये पदोन्नति में आरक्षण की पुष्टि की, लेकिन कमज़ोर वर्गों पर मात्रात्मक डेटा की आवश्यकता थी, जिससे मूलभूत समानता के सिद्धांत को बल मिला।
- हाल ही में पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य मामले में न्यायालय ने फैसला दिया कि अनुसूचित जातियों (SC) के भीतर उप-वर्गीकरण स्वीकार्य है, जिससे SC श्रेणी के भीतर अधिक पिछड़े समूहों को अलग से आरक्षण आवंटित करने की अनुमति है।
- न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिकाएँ: जनहित याचिकाएँ समाज के गरीब और हाशिये पर पड़े वर्ग के लिये न्याय सुलभ बनाने में सहायक रही हैं।
- उदाहरण के लिये, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) में न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने, विधायी शून्यता को भरने और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिये दिशा-निर्देश जारी किये।
- बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ (1984) मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अर्थ का विस्तार करते हुए बंधुआ मजदूरों के अधिकारों को बरकरार रखा।
वंचित समुदायों पर प्रभाव:
- समानता और सम्मान: न्यायपालिका ने समानता की अवधारणा का लगातार विस्तार किया है, यह सुनिश्चित करते हुए कि वंचित वर्गों के साथ सम्मान के साथ व्यवहार और उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए।
- अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 के माध्यम से न्यायालय ने SC, SC और OBC जैसे समुदायों को लाभ पहुँचाने वाली सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को बरकरार रखा है।
- अधिकारों का संरक्षण: अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या की गई है, जिसमें स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और सम्मानजनक जीवन के अधिकार शामिल हैं, जिससे बुनियादी ज़रूरतों तक पहुँच सुनिश्चित करके हाशिये पर पड़े समूहों या वंचित वर्गों को लाभ मिलता है।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) इस व्याख्या के महत्त्वपूर्ण परिणाम हैं।
- शिक्षा और रोज़गार के माध्यम से सशक्तीकरण: न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित किया है कि सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, जिससे हाशिए पर पड़े समुदायों को बेहतर शिक्षा और रोज़गार के अवसर प्राप्त हो सकें।
सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में न्यायपालिका के समक्ष आने वाली चुनौतियाँ:
- लंबित मामले और न्याय में देरी: भारत की न्यायपालिका पर लंबित मामलों का बोझ बहुत ज़्यादा है, विभिन्न अदालतों में 3.5 करोड़ से ज़्यादा मामले लंबित हैं। मामलों के समाधान में देरी से हाशिये पर रहने वाले समुदायों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से जाति-आधारित भेदभाव, लैंगिक हिंसा, भूमि विवाद और श्रम अधिकारों के मामलों में न्याय की मांग करने वाले लोगों पर।
- संसाधन की कमी: भारतीय न्यायपालिका को संसाधनों की गंभीर कमी का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें अपर्याप्त न्यायाधीश, भीड़भाड़ वाले न्यायालय और पुराना बुनियादी ढाँचा शामिल है। न्यायिक कर्मियों की कमी के कारण मामलों के लिये लंबा इंतज़ार करना पड़ता है, खासकर आदिवासी और ग्रामीण समुदायों को प्रभावित करने वाले क्षेत्रों में।
- न्यायिक स्वतंत्रता बनाम जवाबदेही: न्यायिक नियुक्तियों के लिये कॉलेजियम प्रणाली को पारदर्शिता की कमी, न्यायपालिका के भीतर विविधता और वंचित वर्गों के प्रतिनिधित्व को सीमित करने हेतु आलोचना का सामना करना पड़ा है।
- इसके अलावा, न्यायिक आचरण के संबंध में मज़बूत जवाबदेही तंत्र की अनुपस्थिति ने न्यायिक प्रणाली की अखंडता और दक्षता पर चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में न्यायपालिका को मज़बूत करने के उपाय:
- न्याय प्रदान करने में तेजी लाना: ई-कोर्ट, वर्चुअल सुनवाई और फास्ट-ट्रैक अदालतों का उपयोग करने से लंबित मामलों में काफी कमी आ सकती है, साथ ही ये तकनीकी नवाचार ग्रामीण और दूरदराज के समुदायों के लिये अदालतों को अधिक सुलभ बना देंगे।
- न्यायिक बुनियादी ढाँचे में वृद्धि: न्यायाधीशों की कमी और अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे को दूर करने के लिये, न्यायिक भर्ती और अदालत के बुनियादी ढाँचे में निवेश में व्यवस्थित वृद्धि होनी चाहिये, विशेष रूप से कम सेवा वाले क्षेत्रों में।
- जनजातीय, दलित और महिला-केंद्रित न्यायालयों के लिये लक्षित संसाधन यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वंचित वर्गों कुशल न्याय प्राप्त हो।
- समावेशिता और पारदर्शिता सुनिश्चित करना: कॉलेजियम प्रणाली की समीक्षा करना तथा यह सुनिश्चित करना कि न्यायिक नियुक्तियों में लिंग, जाति और क्षेत्रीय विविधता का पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व हो। जवाबदेही के लिये स्पष्ट मानदंड और प्रक्रियाएँ भी न्यायिक प्रणाली में जनता का भरोसा और विश्वास बढ़ाएँगी।
- कानूनी सहायता सेवाओं को मज़बूत करना: कानूनी सहायता संबंधी सेवाओं का विस्तार करना और यह सुनिश्चित करना कि वे हाशिये पर पड़े समूहों के लिये सुलभ और महत्त्वपूर्ण हो। सरकार द्वारा समर्थित निःशुल्क कानूनी सेवाएँ और कानूनी अधिकार के बारे में जागरूकता अभियान चलाना।
निष्कर्ष: सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करके सामाजिक न्याय के दायरे का लगातार विस्तार किया है कि नीतियाँ और कानून समावेशी, न्यायसंगत तथा हाशिये पर पड़े वर्गों की ज़रूरतों के अनुरूप हों। इन समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने में इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण बनी हुई है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि भारत सभी के लिये न्याय और समानता के मार्ग पर आगे बढ़ता रहे।
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