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ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    समय-समय पर राज्यसभा के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न उठते रहे हैं। राज्यसभा की भूमिका पर उठने वाले सवालों के कारणों की चर्चा करते हुए इसकी प्रासंगिकता को रेखांकित कीजिये।

    22 Oct, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • राज्यसभा का संक्षिप्त परिचय दें।
    • राज्यसभा के उद्देश्यों की संक्षिप्त में चर्चा करें।
    • उसके पश्चात् इसकी भूमिका पर सवाल उठने के कारणों का उल्लेख करें।
    • वर्तमान संदर्भ में राज्यसभा की प्रासंगिकता को स्पष्ट करें।
    • निष्कर्ष लिखें।

    भारत में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है। भारत की संसद के तीन अंग हैं- राष्ट्रपति, लोकसभा व राज्यसभा।

    राज्यसभा उच्च सदन है जिसका कभी विघटन नहीं होता है। संविधान के अनुच्छेद-80 के अनुसार इसका गठन 250 सदस्यों द्वारा होगा, जिनमें 238 सदस्य राज्यों के और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं तथा 12 राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित होते हैं। ध्यातव्य है कि समय-समय पर विभिन्न कारणों से उठे विवाद के चलते राज्यसभा की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं।

    उद्देश्य-

    • राज्यसभा के गठन के पीछे संविधान सभा का मूल उद्देश्य यह था कि इसके माध्यम से सभी राज्य संसद में अपना प्रतिनिधित्व सही तरीके से कर पाएंगे।
    • इसके अतिरिक्त, इस सदन के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों की लब्धप्रतिष्ठ प्रतिभाओं, जैसे- अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं आदि की योग्यता एवं अनुभव से राष्ट्र को उचित लाभ व मार्गदर्शन प्राप्त हो सके।
    • साथ ही, लोकसभा द्वारा जल्दबाज़ी एवं भावावेश में पारित किये गए विधेयकों को सभी राज्यों के परिप्रेक्ष्य में एवं विशिष्ट क्षेत्रों के विशेषज्ञों- कला, साहित्य एवं विज्ञान आदि के दृष्टिकोण से भी परखा जा सके।

    भूमिका पर सवाल उठने के कारण-

    • सर्वप्रथम, अप्रैल 1954 में कुछ वामपंथी एवं कॉन्ग्रेसी सदस्यों ने राज्यसभा को प्रतिक्रियावादी तत्त्वों का गढ़ बताते हुए लोकसभा में निजी प्रस्ताव लाकर इसकी समाप्ति की मांग की थी।
    • इसके पश्चात् 30 मार्च, 1973 को विभूति मिश्र ने राज्यसभा को अप्रासंगिक एवं भ्रष्टाचारियों का केंद्र बताते हुए इसकी समाप्ति की मांग की थी, परंतु इसको स्वीकार नहीं किया जा सका।
    • जनप्रतिनिधित्व (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 2003 में किया गया संशोधन भी इसकी भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
    • इसके माध्यम से राज्यसभा का प्रत्याशी होने के लिये उस राज्य का निवासी होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई, जबकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि राज्यसभा के प्रत्याशी का नाम अनिवार्यत: उस राज्य की मतदाता सूची में होना चाहिये, जहाँ से वह चुनाव लड़ना चाहता है।
    • इसके अतिरिक्त, राज्यसभा पर सामान्यत: यह आरोप लगता रहा है कि यह अवसरवादियों, चुनाव में हारे हुए नेताओं, सत्तापक्ष के पिछलग्गुओं और व्यवसायियों आदि की शरणस्थली बनती जा रही है।
    • राज्यसभा में विपक्ष के बड़े संख्या बल के कारण कई महत्त्वपूर्ण विधेयक के पास होने में अवरोध उत्पन्न होना भी महत्त्वपूर्ण कारक है। तीन तलाक बिल का मुद्दा इसका ज्वलंत उदाहरण है।

    प्रासंगिकता-

    • राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसका विघटन नहीं होता, किंतु इसके एक-तिहाई सदस्य हर दूसरे वर्ष सेवानिवृत्त होते हैं।
    • कहने का तात्पर्य है कि लोकसभा का विघटन होने के बाद भी राज्यसभा अपना कार्य करती रहती है। 1977 में जब तमिलनाडु तथा नागालैंड में राष्ट्रपति शासन लगाया गया था और लोकसभा का विघटन पहले ही हो गया था तो निर्धारित अवधि के भीतर राज्यसभा में ही इस पर संस्तुति दी गई थी।
    • अनुच्छेद-249 के अनुसार अगर राष्ट्रहित में राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाना आवश्यक है तो राज्यसभा विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित करके सदन को उस विषय पर कानून बनाने के लिये प्राधिकृत कर सकती है। पंजाब में आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिये 1986 में इसी का प्रयोग करते हुए कानून बनाने में समर्थ हुई।
    • अनुच्छेद-312 के अंतर्गत राज्यसभा को शक्ति दी गई है कि वह उपस्थित और मतदान करने वाले दो-तिहाई सदस्यों के समर्थन से कोई नई अखिल भारतीय सेवा या सेवाएँ स्थापित करने का अधिकार संसद को दे सकती है।

    निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि राज्यसभा संसदीय व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यद्यपि धन विधेयक, वित्त-विधेयक एवं संयुक्त बैठक आदि के मामलों में इसकी शक्तियाँ लोकसभा के मुकाबले थोड़ी कम ज़रूर हैं परंतु संसदीय व्यवस्था संचालन के मामले में इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

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