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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    निम्नलिखित में उदाहरण के साथ अंतर स्पष्ट करें। (150 शब्द)

    (a) अभिवृत्ति तथा अभिरुचि

    (b) समानुभूति तथा सहानुभूति

    (c) नैतिक चिंता तथा नैतिक दुविधा

    20 Dec, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    (a) अभिवृत्ति तथा अभिरुचि: अभिवृत्ति का तात्पर्य है कि किसी मनोवैज्ञानिक विषय (व्यक्ति, वस्तु, विचार आदि) के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक भाव की उपस्थिति। यह प्राय: सीखी जाती है तथा आनुवंशिक कारकों का इस पर बेहद सीमित प्रभाव होता है। जैसे वर्तमान भारत में पाश्चात्य संस्कृति व आधुनिक ज्ञान के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति है तथा कट्टरता व रूढ़िवाद के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति।

    अभिरुचि किसी व्यक्ति की क्षेत्र-विशेष में कार्यकुशलता या योग्यता को व्यक्त करती है। सामान्यत: अभिरुचियाँ जन्मजात होती हैं। अभिरुचियों से ही यह पता चलता है कि किसी व्यक्ति में किसी क्षेत्र-विशेष में सफल होने के लिये आवश्यक योग्यताओं को सीखने की कितनी क्षमता है। जैसे किसी व्यक्ति की तार्किक क्षमता अच्छी है तो वह शतरंज के खेल में सफल हो सकता है।


    (b) समानुभूति तथा सहानुभूति: समानुभूति का तात्पर्य है किसी व्यक्ति में अन्य व्यक्तियाें, प्राणियों आदि की मन:स्थितियों को सटीक रूप में समझने की क्षमता। समानुभूति में ‘स्व’ व ‘पर’ का अंतर समाप्त हो जाता है, यह सहानुभूति का अगला स्तर है।

    Sahanubhuti

    सहानुभूति में व्यक्ति दूसरे की पीड़ा को देखकर दु:खी तो होता है साथ ही यह भी चाहता है कि दूसरे की पीड़ा दूर हो जाए। किंतु सहानुभूति में भावनात्म्क स्तर पर ‘स्व’ व ‘पर’ का द्वैत बना रहता है।

    जैसे यदि किसी व्यक्ति ने जातीय आधार पर निर्योग्यताओं (जैसे छुआछूत) का सामना किया है तो उसे उन व्यक्तियों के प्रति ‘समानुभूति’ होगी जो ऐसी जातीय निर्योग्यताओं का सामना करते हैं। किंतु इसी संदर्भ में अन्य संवेदनशील एवं सजग व्यक्ति जिसने प्रत्यक्षत: जातीय निर्योग्यताओं का सामना नहीं किया है उसमें इस तरह की निर्योग्यताओं से पीड़ित के प्रति ‘सहानुभूति’ तो होगी किंतु ‘समानुभूति’ की संभावना न्यूनतम होगी।


    (c) नैतिक चिंता तथा नैतिक दुविधा: नैतिक चिंता (Ethical Concern) उस समय उत्पन्न होती है जब हम नैतिकता की मूल भावना को समझते हुए भी निर्णयन के समय उसका व्यावहारिक प्रयोग नहीं कर पाते तथा द्वंद्व से घिर जाते हैं। ‘नैतिक चिंता में नैतिक पक्ष के उल्लंघन की संभावना होती है, लेकिन यहाँ नैतिकता की चिंता स्वयं निर्णयकर्त्ता के लिये नहीं होती, न ही निर्णयकर्त्ता के मन में दुविधा होती है और न ही निर्णय करने की अनिवार्यता होती है। ‘नैतिक चिंता’ के समय विकल्पों में भी जटिलता नहीं होती। वास्तव में, ‘नैतिक चिंता’ उस दूसरे पक्ष को लेकर होती है जो निर्णय से प्रभावित होता है। जैसे नैतिक विकल्प चुनने पर जब निजी हित की क्षति हो तो ‘नैतिक हित’ और ‘निजी हित’ के बीच नैतिक चिंता उत्पन्न हो सकती है, किंतु यह भी स्पष्ट है कि ‘नैतिक चिंता’ में नैतिक हित को वरीयता देनी है।

    Moral-Concern

    ‘नैतिक दुविधा’ नैतिक चिंता का एक विशिष्ट रूप है जहाँ निर्णयन से नैतिक पक्ष का उल्लंघन संभव है, निर्णयन आवश्यक भी होता है तथा विकल्पों की जटिलता भी होती है। इस प्रकार ‘नैतिक दुविधा’ के समय ‘नैतिक चिंता’ अपने चरम स्तर पर दिखती है। ‘नैतिक दुविधा’ की तुलना में नैतिक ‘चिंता’ व्यापक विचार है। जैसे सिविल सेवा के नैतिक मूल्यों-सत्यनिष्ठा एवं संवेदना में विरोधाभास होने पर ‘नैतिक दुविधा’ उत्पन्न हो सकती है। जैसे प्रशासकीय दायित्व होने के कारण पुटपाथ से ठेले वालों को हटाना है किंतु इसमें संवेदना की उपेक्षा होगी, क्योंकि उनकी आजीविका नष्ट होगी।

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