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डेली न्यूज़

  • 28 May, 2025
  • 38 min read
भूगोल

वर्ष 2025 में समय से पूर्व मानसून का आगमन

प्रिलिम्स के लिये:

भारत मौसम विज्ञान विभाग, दक्षिण-पश्चिम मानसून, पश्चिमी पवन, मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन, सोमाली जेट 

मेन्स के लिये:

भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून के आगमन को प्रभावित करने वाले कारक।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ने केरल में दक्षिण-पश्चिम मानसून के सामान्य समय से पूर्व आगमन की घोषणा की है। यह समय से पूर्व आगमन इसलिये महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मानसून भारत की वार्षिक वर्षा में 70% से अधिक योगदान देता है, जो कृषि और अर्थव्यवस्था के लिये महत्त्वपूर्ण है। वर्ष 2025 से पहले आखिरी बार समय से पूर्व मानसून आगमन वर्ष 2009 में हुआ था।

मानसून की शुरुआत की घोषणा के मानदंड क्या हैं?

  • आवश्यक मानदंड: IMD प्रमुख मानदंडों के आधार पर 10 मई के बाद किसी भी समय मानसून के आगमन की घोषणा करता है:
    • वर्षा मानदंड: 10 मई के बाद, यदि केरल और आसपास के क्षेत्रों (जैसे-तिरुवनंतपुरम, कोच्चि, मं गलोर) में 14 नामित मौसम स्टेशनों में से 60% लगातार दो दिनों तक ≥2.5 मिमी वर्षा रिकॉर्ड करते हैंतो दूसरे दिन वर्षा की शुरुआत पर विचार किया जा सकता है।
    • पवन क्षेत्र: पछुआ पवन उत्तरी और दक्षिणी दोनों गोलार्धों में 30 से 60 डिग्री अक्षांशों पर पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती है ।
      • शुरुआत के लिये, पश्चिमी पवन  की गहराई 600 हेक्टोपास्कल या hPa तक बनाए रखी जानी चाहिये, जो वायुमंडलीय दाब  को मापने की इकाई है और पवन की गति 925 hPa पर 15-20 समुद्री मील (27-37 किमी/घंटा) के बीच होनी चाहिये।
    • आउटगोइंग लॉन्गवेव रेडिएशन (OLR): INSAT-व्युत्पन्न OLR मान, जो पृथ्वी की सतह, महासागरों और वायुमंडल द्वारा अंतरिक्ष में उत्सर्जित ऊर्जा को मापता है, 5°N एवं 10°N अक्षांश व 70°E तथा 75°E देशांतर के बीच के क्षेत्र में 200 वाट प्रति वर्ग मीटर (W/m²) से कम होना चाहिये, जो वर्षा के लिये अनुकूल पर्याप्त वायुमंडलीय गर्मी का संकेत देता है।
  • जब लगातार दो दिनों तक ये स्थितियाँ पूरी हो जाती हैंतो IMD मानसून के आगमन की घोषणा कर देता है। 

वर्ष 2025 में मानसून के समय से पूर्व आगमन के क्या कारण होंगे?

  • मैडेन-जूलियन दोलन (MJO): MJO पवन, बादलों और दाब  के असंतुलन  की एक क्षणिक पूर्व की ओर बढ़ने वाली प्रणाली है, जो भूमध्य रेखा के चारों ओर यात्रा करती है। 
    • इसकी पहचान वर्ष 1971 में कोलोराडो स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च के वैज्ञानिक रोलाण्ड मैडेन और पॉल जूलियन द्वारा की गई थी।
    • MJO सामान्यतः 4-8 मीटर/सेकें ड की गति से पूर्व की ओर यात्रा करता है तथा 30-60 दिनों में एक वैश्विक चक्र पूरा करता है, हालाँकि कभी-कभी इसमें 90 दिन तक का समय लग जाता है।
    • यह उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, विशेषकर 30° उत्तर और 30° दक्षिण के बीच, जिसमें भारत भी शामिल है, के मौसम को प्रभावित करता है।
    • MJO के दो अलग-अलग चरण हैं: सक्रिय चरण, जो संवहन को बढ़ाता है और वर्षा में वृद्धि करता है तथा दबा हुआ चरण, जो संवहन को कम करता है एवं शुष्क स्थिति उत्पन्न करता है। 
    • यह चक्रवातों को उत्पन्न कर सकता है तथा शुष्क अवधि के दौरान भी अल्पावधि, किंतु  तीव्र वर्षा का कारण बन सकता है।
  • मैस्करीन हाई: IMD मैस्करीन हाई को मानसून अवधि के दौरान मैस्करीन द्वीप (दक्षिणी हिंद महासागर में) के आसपास पाए जाने वाले उच्च दबाव वाले क्षेत्र के रूप में वर्णित करता है।
    • उच्च दबाव की तीव्रता में परिवर्तन भारत के पश्चिमी तट पर भारी वर्षा के लिये ज़िम्मेदार है।
  • संवहन: संवहनीय गतिविधि में वृद्धि, अर्थात वायुमंडल में ऊष्मा और नमी का ऊर्ध्वाधर परिवहन भी वर्षा लाता है।
  • सोमाली जेट: यह मॉरीशस और उत्तरी मेडागास्कर के पास उत्पन्न होने वाली एक निम्न-स्तरीय, अंतर-गोलार्धीय क्रॉस-इक्वेटोरियल पवन बैंड है। 
    • मई के दौरान, अफ्रीका के पूर्वी तट को पार करने के बाद, यह अरब सागर और भारत के पश्चिमी तट तक पहुँचता है। एक शक्तिशाली सोमाली जेट मानसूनी पवनों के सशक्त होने से जुड़ा होता है।
  • हीट-लो: जब सूर्य उत्तर की ओर गतिशील होता है, तब अरब सागर और पाकिस्तान के ऊपर एक निम्न दाब क्षेत्र बनता है, जो मानसून गर्त (Monsoon Trough) के साथ आर्द्रता युक्त पवनों को अपनी ओर खींचने वाले सक्शन पंप की तरह कार्य करता है, जिससे मानसूनी वर्षा में वृद्धि होती है।
  • मानसून गर्त: यह एक लंबवत फैला हुआ निम्न दाब क्षेत्र होता है, जो निम्न ताप से लेकर उत्तर बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत रहता है। इस गर्त की उत्तर-दक्षिण दिशा में जारी रहने वाली गति जून से सितंबर के मध्य मुख्य मानसूनी क्षेत्र में वर्षा का कारण बनती है। 
  • चक्रवाती मानसून भँवर (Cyclonic Monsoon Vortex): इसे मानसून प्रारंभ भँवर (MOV) के नाम से भी जाना जाता है यह एक समन्वयात्मक स्तर का चक्रवाती परिसंचरण है ,जो भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान अरब सागर के ऊपर बनता है।
    • ये भँवर उष्णकटिबंधीय चक्रवातों में परिवर्तित हो सकती हैं और मानसून के आगमन एवं उसकी प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  • दाब प्रवणता (Pressure Gradients): यह किसी निर्दिष्ट दूरी पर दाब में होने वाले परिवर्तन की दर होती है। यह मानसून के प्रबल आगमन को भी समर्थन प्रदान करती है।

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मानसून को प्रभावित करने वाले अन्य कारक

  • मानसून-लो: यह एक प्रकार का निम्न दाब क्षेत्र (LPA) होता है, जिसके केंद्रीय भाग में दाब सबसे कम होता है तथा उत्तरी गोलार्द्ध में पवनें वामावर्त (घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में) प्रवाहित होती हैं।
    • यह वायुमंडलीय दाब को एकत्रित (संकेंद्रित) कर ऊपर उठने के लिये प्रेरित करता है, जिससे बादल बनते हैं और वर्षा होती है। मानसून ऋतु के दौरान, इन LPA को मानसून के निम्न दबाव के रूप में जाना जाता है और यह मानसून अवदाबों में बदल सकता है, जो भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून की मुख्य वर्षा-वाहक प्रणाली है। 
  • तिब्बती उच्च दाब क्षेत्र (Tibetan High): यह एक उष्ण प्रतिचक्रवात होता है, जो मानसून ऋतु के दौरान मध्य से ऊपरी क्षोभमंडल में तिब्बती पठार के ऊपर स्थित रहता है।
    • यह पूर्वी पवनों का बहिर्वाह उत्पन्न करता है, जो चेन्नई के निकट एक जेट स्ट्रीम का निर्माण करता है। इस पूर्वी जेट स्ट्रीम की स्थिति भारत में मानसूनी वर्षा की प्रकृति को प्रभावित करती है। 

वर्षा अलर्ट को कैसे वर्गीकृत किया जाता है?

अलर्ट रंग

वर्षा श्रेणी (24 घंटे)

मौसम विवरण

सलाह/कार्रवाई

हरा

64 मिमी से कम

हल्की वर्षा

कोई सलाह नहीं: मौसम सामान्य रूप से सुरक्षित है; किसी कार्रवाई की आवश्यकता नहीं।

पीला

64.5 – 115.5 मिमी

मध्यम वर्षा

सतर्क रहें: हल्के व्यवधान संभव; सूचनाएँ प्राप्त करते रहें।

नारंगी

115.6 – 204.4 मिमी

भारी से बहुत भारी वर्षा

तैयार रहें: परिवहन, विद्युत आदि में व्यवधान की संभावना; आवश्यक सावधानियाँ बरतें।

लाल

204.5 मिमी और उससे अधिक

अत्यंत भारी वर्षा

कार्रवाई करें: जीवन और संपत्ति को गंभीर खतरा; आपातकालीन उपाय तुरंत अपनाएँ।

मानसून के शीघ्र आगमन का प्रभाव क्या होता है?

  • खरीफ फसलों की बुवाई को बढ़ावा: मानसून का समय से पूर्व आना प्रमुख खरीफ फसलों, जैसे- चावल, मक्का, कदन्न, तुअर और मूंग की समय पर बुवाई को संभव बनाता है, जिससे उत्पादकता बढ़ती है।
  • सब्जी एवं मशरूम की कृषि को लाभ: प्री-मानसून वर्षा टमाटर, भिंडी, बीन्स जैसी सब्जियों और मशरूम की कृषि के लिये शीत एवं आर्द्र वातावरण प्रदान करती है, जो इनके उत्पादन के लिये अनुकूल होता है।
  • जल संसाधन प्रबंधन में सुधार: प्रारंभिक वर्षा भूजल स्तर को पुनर्भरित करती है, जलाशयों को भरती है और सिंचाई की स्थिति में सुधार लाती है, जो कृषि एवं जलविद्युत उत्पादन, दोनों के लिये आवश्यक है।
  • खराब होने की दर में वृद्धि और महँगाई का दबाव: अनपेक्षित वर्षा के कारण खेतों में फसल खराब हो जाती है, जिससे मुंबई जैसे शहरों में सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं।
  • मौसम की चरम स्थिति और बाढ़ का खतरा: केरल, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में मूसलाधार वर्षा, तड़ित तथा तेज़ पवनों से स्थानीय बाढ़ और खड़ी फसलों को नुकसान होने की आशंका बढ़ जाती है।
  • निर्यात क्षमता में वृद्धि: फसल उत्पादन में वृद्धि से किसानों की आय बढ़ सकती है, कृषि निर्यात को बढ़ावा मिल सकता है और यह भारत की GDP वृद्धि में सहायक हो सकता है।

भारत में चक्रवात चरम मानसून महीनों के दौरान क्यों नहीं आते? 

  • चक्रवात निर्माण के लिये आवश्यक परिस्थितियाँ: उष्णकटिबंधीय चक्रवात निर्माण (ट्रॉपिकल साइक्लोजेनेसिस) के लिये निम्नलिखित पर्यावरणीय कारकों का संयोजन आवश्यक होता है:
    • कम-से-कम 26.5°C तापमान वाला गर्म समुद्री जल, जो 50 मीटर या उससे अधिक की गहराई तक फैला हो।
    • मध्य क्षोभमंडल (लगभग 5 किमी ऊँचाई) में उच्च आर्द्रता, जो बादल बनने में सहायक होती है।
    • निम्न ऊर्ध्वाधर विंड शियर, जिसका अर्थ है कि सतह और ऊपरी वायुमंडल के बीच वायु की गति और दिशा में न्यूनतम अंतर होना चाहिये, जिससे प्रणाली ऊर्ध्वाधर रूप से संरेखित रह सके।
    • चक्रवाती घूर्णन को प्रारंभ करने के लिये सतह के समीप पहले से विद्यमान निम्न-दाब क्षेत्र
  • मानसून के दौरान वायुमंडलीय परिस्थितियाँ: हालाँकि गर्म समुद्र और उच्च आर्द्रता (जो दोनों चक्रवात निर्माण के लिये महत्त्वपूर्ण हैं) मौजूद होते हैं, बावजूद इसके भारत जुलाई और अगस्त, जो कि मानसून के चरम महीने होते हैं, के दौरान शायद ही कभी चक्रवातों का अनुभव करता है।
    • यह मुख्यरूप से प्रतिकूल वायुमंडलीय परिस्थितियों के कारण होता है, विशेषकर मज़बूत लंबवत विंड शियर,जो चक्रवातों के विकास और स्थायित्व को रोकती है।
    • पश्चिमी पवनें प्रायद्वीपीय भारत में 900 से 800 hPa के बीच 20–25 नॉट की अधिकतम गति प्राप्त करती हैं, जबकि पूर्वी पवनें 150 से 100 hPa के बीच 60–80 नॉट तक पहुँचती हैं।
      • इससे उच्च लंबवत विंड शियर उत्पन्न होती है, जो चक्रवात के निर्माण को बाधित करती है और इन महीनों में उष्णकटिबंधीय चक्रवात निर्माण के लिये परिस्थितियों को प्रतिकूल बनाती है।

Monsoon

भारतीय मानसून पर जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव है?

  • अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि: मानसून के दौरान, विशेष रूप से मध्य भारत में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता दोनों में वृद्धि हो रही है। इसका कारण प्राकृतिक परिवर्तनशीलता के साथ जलवायु परिवर्तन है।
    • अत्यधिक घटनाओं के साथ-साथ मध्य भारत में मानसून के दौरान मध्यम वर्षा की घटनाओं में कमी का रुझान भी देखा जा रहा है।
  • समग्र मानसूनी वर्षा में कमी: पिछले 50 वर्षों में भारत में ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (जून से सितंबर) लगभग 6% तक कम हुई है, जिसमें इंडो-गैंगेटिक मैदान और पश्चिमी घाट में विशेष रूप से उल्लेखनीय कमी देखी गई है।
  • अत्यधिक वर्षा की आवृत्ति में वृद्धि: मध्य भारत में दैनिक अत्यधिक वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति में लगभग 75% की वृद्धि हुई है, जिसे प्रतिदिन 150 मि.मी. से अधिक वर्षा के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  • वायुमंडल का गर्म होना और आर्द्रता क्षमता: मानवीय ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि से वायुमंडल की आर्द्रता धारित करने की क्षमता बढ़ जाती है।
    • क्लॉसियस-क्लैपेरॉन संबंध सिद्धांत के अनुसार, वायु की आर्द्रता धारित करने की क्षमता तापमान में प्रत्येक 1°C वृद्धि पर लगभग 7% बढ़ जाती है।
    • जैसे-जैसे वायुमंडल में अधिक आर्द्रता संचित होती है, बदलती जलवायु परिस्थितियों में भारी वर्षा की घटनाएँ अधिक बार और तीव्र होने की संभावना बढ़ जाती है।

मानसून का निवर्तन 

  • मानसून के निवर्तन को भारत के विभिन्न भागों से दक्षिण-पश्चिम (SW) मानसून के धीरे-धीरे निवर्तन के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह वर्षा ऋतु के अंत को इंगित करता है और इसके लक्षण निम्नलिखित हैं:
    • लगातार कम-से-कम 5 दिनों तक वर्षा का न होना।
    • पवन प्रवाह में परिवर्तन, विशेषकर दक्षिण-पश्चिमी दिशा से उत्तर-पूर्वी दिशा की ओर बदलाव।
    • उपग्रह जल-वाष्प चित्रों और टेफिग्राम्स में वायुमंडलीय आर्द्रता में कमी।
    • निचले क्षोभमंडल (850 hPa और उससे नीचे) में प्रतिचक्रवाती परिसंचरण का बनना।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न: दक्षिण-पश्चिम मानसून की समय से पूर्व शुरुआत के लिये ज़िम्मेदार वायुमंडलीय और महासागरीय कारकों की चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स: 

प्रश्न. भारतीय मानसून का पूर्वानुमान करते समय कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित 'इंडियन ओशन डाइपोल (IOD)' के सन्दर्भ में, निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)

  1. IOD परिघटना, उष्णकटिबंधीय पश्चिमी हिंद महासागर एवं उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत महासागर के बीच सागर-पृष्ठ तापमान के अंतर से विशेषित होती है।
  2. IOD परिघटना मानसून पर एल-नीनो के असर को प्रभावित कर सकती है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1, न ही 2

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. आप कहाँ तक सहमत हैं कि मानवीकारी दृश्यभूमियों के कारण भारतीय मानसून के आचरण में परिवर्तन होता रहा है? चर्चा कीजिये। (2015)


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

भारत का AMR संकट

प्रिलिम्स के लिये:

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR), नैफिथ्रोमाइसिन, सुपरबग्स, WHO, ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक्स, AMR पर राष्ट्रीय कार्य योजना, राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (NCDC), रेड लाइन अभियान, फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन (FDC), अनुसूची H1 ड्रग्स, वैश्विक रोगाणुरोधी प्रतिरोध निगरानी प्रणाली (GLASS)

मेन्स के लिये:

रोगाणुरोधी प्रतिरोध, उनके निहितार्थ, AMR को रोकने के लिये उठाए गए कदम और आवश्यक अतिरिक्त उपाय।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

भारत में 30 वर्षों में पहली बार स्वदेशी रूप से विकसित एंटीबायोटिक नैफिथ्रोमाइसिन (मिक्नाफ) को लॉन्च करना रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) से निपटने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। हालाँकि AMR संकट का पैमाना और तात्कालिकता कहीं अधिक व्यापक एवं निरंतर प्रयासों की मांग करती हैं।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) क्या है?

  • परिचय: AMR तब होता है, जब सूक्ष्मजीव (जैसे बैक्टीरिया, वायरस, कवक, परजीवी) दवाओं जैसे एंटीबायोटिक्स एवं एंटीवायरल के प्रति अनुकूलन कर लेते हैं तथा उनका प्रतिरोध करने लगते हैं, जिससे संक्रमण का इलाज करना कठिन हो जाता है और वे अधिक आसानी से फैलते हैं।
    • इन्हें प्रायः "सुपरबग्स" कहा जाता है, ये दवा प्रतिरोधी सूक्ष्मजीव एक प्रमुख वैश्विक खतरा हैं तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इन्हें शीर्ष 10 स्वास्थ्य जोखिमों में शामिल किया गया है।
  • खतरा: इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME) की वर्ष 2019 की रिपोर्ट से पता चला है कि AMR के कारण भारत में 2,97,000 और विश्व स्तर पर 1.27 मिलियन मृत्यु हुईं।
    • यदि इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो द लैंसेट का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक AMR से 1.91 मिलियन प्रत्यक्ष मृत्यु और 8.22 मिलियन संबंधित मृत्यु हो सकती हैं।

भारत में AMR में वृद्धि के प्रमुख कारण क्या हैं?  

  • एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक प्रयोग: इन्फ्लूएंज़ा जैसे वायरल संक्रमणों के लिये भी एंटीबायोटिक दवाओं का अनुचित और अत्यधिक प्रयोग से प्रतिरोध बढ़ता है।
    • यद्यपि मनुष्यों में केवल 30% एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जाता है, फिर भी वर्ष 2022 में भारत की 59% एंटीबायोटिक खपत "वॉच" समूह की दवाओं से हुई थी।
      • "वॉच" समूह एंटीबायोटिक की एक श्रेणी है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा वर्गीकृत किया गया है, जिसका उपयोग केवल गंभीर संक्रमणों के उपचार के लिये किया जाना चाहिये।
  • अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा अवसंरचना: निदान उपकरणों की कमी के कारण डॉक्टर अनुभवजन्य रूप से ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक्स लिखते हैं। भीड़भाड़ वाले अस्वच्छ अस्पताल एवं खराब संक्रमण नियंत्रण से प्रतिरोधी बैक्टीरियाअस्पताल से होने वाले संक्रमण को बढ़ावा देते हैं।
    • भारतीय तृतीयक देखभाल केंद्रों में बार-बार होने वाले AMR प्रकोप, रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) को बढ़ावा देने वाली प्रणालीगत कमियों को उजागर करते हैं।
  • नए एंटीबायोटिक्स की कमी: नेफिथ्रोमाइसिन (वर्ष 2024) के आने से पहले 30 वर्ष तक कोई नया एंटीबायोटिक नहीं बना, क्योंकि दवा कंपनियाँ एंटीबायोटिक रिसर्च से ज्यादा मुनाफे वाली लंबी बीमारियों की दवाओं पर ध्यान देती हैं।
  • कृषि और पशुपालन में अनियमित उपयोग: भारत पशुधन में शीर्ष एंटीबायोटिक उपभोक्ताओं में से एक है, जहाँ 70% का उपयोग पशुधन, कृषि और जलीय कृषि में विकास को बढ़ावा देने के लिये किया जाता है। 
    • ये एंटीबायोटिक्स खाद्य शृंखला एवं पर्यावरण में प्रवेश कर प्रतिरोध फैलाते हैं। जलीय कृषि में एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध उपयोग से समस्या और भी बदतर हो जाती है।
  • पर्यावरणीय कारक: दवा कारखाने उचित उपचार के बिना एंटीबायोटिक अवशेषों को जल निकायों में छोड़ देते हैं, जिससे नदियाँ और मिट्टी दूषित हो जाती हैं तथा प्रतिरोध हॉटस्पॉट बनते हैं। 
    • भारत में अपर्याप्त सीवेज और अपशिष्ट प्रबंधन के कारण प्रतिरोधी रोगाणुओं को पर्यावरण में अनियंत्रित रूप से फैलने का अवसर मिल रहा है।

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बढ़ते रोगाणुरोधी प्रतिरोध के परिणाम क्या हैं?

  • स्वास्थ्य आपदा: AMR संक्रमणों के उपचार को कठिन बनाता है, जिससे मृत्यु दर और रुग्णता बढ़ती है। टी.बी (तपेदिक), निमोनिया और मूत्र पथ के संक्रमण जैसे सामान्य रोग जीवन के लिये खतरा बन सकते हैं। 
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2017 में बहु-दवा प्रतिरोधी या प्रतिरोधी टी.बी के कारण 230,000 मौतें हुईं, जिनमें से अधिकतर भारत और चीन में हुईं थीं
    • सर्जरी, कीमोथेरेपी और प्रत्यारोपण प्रभावी एंटीबायोटिक दवाओं पर निर्भर करते हैं; उनके बिना नियमित प्रक्रियाएँ उच्च जोखिम वाली हो जाती हैं।
  • आर्थिक लागत: विश्व बैंक का अनुमान है कि AMR के कारण वर्ष 2050 तक स्वास्थ्य देखभाल लागत में 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की वृद्धि हो सकती है तथा वर्ष 2030 तक वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 1-3.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की हानि हो सकती है।
    • लम्बी अवधि तक बीमार रहने और मृत्यु से कार्यबल की कार्यक्षमता कम हो जाती है, जबकि पशुधन की हानि से खाद्य शृंखलाएँ बाधित होती हैं।
  • खाद्य सुरक्षा संकट: कृषि में 70% एंटीबायोटिक्स का उपयोग होने के कारण, AMR खाद्य उपलब्धता, गुणवत्ता और सुरक्षा के लिये खतरा उत्पन्न करता है तथा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिये जोखिम पैदा  करता है। 
    • उदाहरण के लिये पोल्ट्री में प्रतिरोधी E. कोली (E. coli) मनुष्यों को संक्रमित कर सकता है तथा एंटीफंगल प्रतिरोधी ब्लाइट्स गेहूँ, चावल और केले जैसी फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं।
  • पर्यावरणीय प्रसार: दवा अपशिष्ट, अस्पताल सीवेज और खेत अपवाह प्रतिरोधी जीन को तथा प्रवासी पक्षी एवं समुद्री जीव विश्व भर में प्रतिरोधी बैक्टीरिया को फैलाते हैं। 
    • उदाहरण के लिये गंगा नदी में सुपरबग जीवाणु जीन मौजूद हैं, जो उपयोगकर्त्ताओं को एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी संक्रमणों के प्रति संवेदनशील बनाते हैं।
  • सामाजिक निहितार्थ: गरीब समुदायों और सीमित स्वास्थ्य देखभाल वाले देशों में निदान एवं दवाओं की कमी के कारण AMR से होने वाली मौतों की संख्या अधिक होती है, जिससे उपचार में जनता का विश्वास कम होने का खतरा होता है।

भारत में रोगाणुरोधी प्रतिरोध से निपटने के लिये क्या उपाय किये जा रहे हैं?

  • AMR पर राष्ट्रीय कार्य योजना (वर्ष 2017): AMR पर राष्ट्रीय कार्य योजना उन्हीं  प्रयासों के अनुरूप है, जो निगरानी, तर्कसंगत एंटीबायोटिक उपयोग और सार्वजनिक जागरूकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं
  • AMR सर्विलांस नेटवर्क: राष्ट्रीय एंटीमाइक्रोबियल सर्विलांस नेटवर्क (NARS-Net) के माध्यम से, भारत नौ प्राथमिक बैक्टीरियल रोगजनकों की निगरानी करता है, जिनमें एस्चेरिचिया कोलाई (Escherichia coli) शामिल है। 
  • एंटीबायोटिक विनियमन: अगस्त 2024 में, सरकार ने 156 फिक्स्ड-डोज़ कॉम्बिनेशन (FDC) दवाओं पर प्रतिबंध लगाया, जिनमें लोकप्रिय दवाएँ जैसे चेस्टन कोल्ड और फोरेसेट शामिल हैं।
    • अस्पताल रोगाणुरोधी स्टीवर्डशिप प्रोग्राम (AMSP) रोगी देखभाल को बेहतर बनाते हैं और रोगाणुरोधी प्रतिरोध से लड़ने में सहायता करते हैं।
    • अनुसूची H1 दवाओं (अंतिम विकल्प एंटीबायोटिक्स, जैसे कार्बापेनेम) की बिक्री से पहले रसायन विक्रेताओं के लिये पर्ची की प्रतियाँ संधारित करना आवश्यक है।
    • जनवरी 2024 में, केरल भारत का पहला राज्य बना जिसने बिना पर्ची के एंटीबायोटिक्स की काउंटर बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया, एक ऐसा उदाहरण स्थापित किया जिसे अन्य राज्य भी एंटीबायोटिक दुरुपयोग कम करने के लिये अपना सकते हैं।
  • अनुसंधान एवं नवाचार: सेलुलर और आणविक प्लेटफार्म केंद्र (C-CAMP) का इंडिया AMR चैलेंज उन स्टार्टअप्स, कंपनियों और नवाचारकर्त्ताओं की पहचान करता है और उन्हें समर्थन देता है जो रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) से निपटने के लिये तकनीक विकसित कर रहे हैं।
    • वॉकहार्ट, ऑर्किड फार्मा और बगवर्क्स जैसी कंपनियाँ भारत में एंटीबायोटिक विकास पर केंद्रित कुछ चुनिंदा कंपनियों में शामिल हैं।
  • सार्वजनिक जागरूकता: रेड लाइन अभियान, एंटीबायोटिक्स सहित लाल रेखा से चिह्नित दवाओं को बिना डॉक्टर के पर्चे के उपयोग करने के खिलाफ चेतावनी देता है।
  • वैश्विक सहयोग: भारत WHO के GLASS (ग्लोबल एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस सर्विलांस सिस्टम) में भाग लेता है, जो देशों में AMR से संबंधित डेटा के संग्रह, विश्लेषण और साझा करने को मानकीकृत और सुदृढ़ करता है।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध से निपटने के लिए और क्या उपाय अपनाए जाने चाहिये?

  • विनियमनों को सुदृढ़ करना: अनुसूची H1 को लागू कर बिना पर्ची एंटीबायोटिक्स की काउंटर बिक्री पर प्रतिबंध लगाना एवं पर्ची की प्रतियाँ संधारित करना, पोल्ट्री उद्योग में वृद्धि प्रमोटर कोलिस्टिन सहित पशुपालन में गैर-चिकित्सीय एंटीबायोटिक्स पर प्रतिबंध का विस्तार करना, और जल स्रोतों में औषधीय एंटीबायोटिक निकासी को नियंत्रित करना।
    • भारत को अनधिकृत एंटीबायोटिक बिक्री पर दंड लगाने और पर्ची लेखा परीक्षाओं को लागू करने के लिये औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम को सुदृढ़ करना चाहिये।
  • घरेलू एंटीबायोटिक विकास: सरकार को फार्मा उद्योग को कर छूट और अनुदान (जैसे BIRAC का नैफिथ्रोमाइसिन के लिये समर्थन) के माध्यम से प्रोत्साहित करना चाहिये और स्टार्टअप्स (जैसे बगवर्क्स) का समर्थन करने के लिये C-CAMP AMR चैलेंज जैसी पहलों का विस्तार करना चाहिये।
  • एंटीबायोटिक स्टीवर्डशिप कार्यक्रमों को सशक्त बनाना: अस्पतालों और क्लीनिक्स को एंटीबायोटिक स्टीवर्डशिप कार्यक्रम लागू करने चाहिये ताकि पर्ची और उपयोग को अनुकूलित किया जा सके, जिसके लिये तर्कसंगत उपयोग पर प्रशिक्षण और नियमित पर्ची लेखा परीक्षा द्वारा समर्थन किया जाए।
    • चिकित्सीय शिक्षा और व्यावसायिक विकास में स्टीवर्डशिप को शामिल करना स्थायी बदलाव सुनिश्चित करता है।
    • AMR की रियल टाइम ट्रैकिंग के लिए मशीन लर्निंग का उपयोग करना चाहिये तथा इसके प्रकोप को रोकने के क्रम में AMR रोगियों को पृथक करना चाहिये।
  • निदान सुविधाओं का विस्तार तथा उन्नयन: किफायती, त्वरित निदान परीक्षणों तक बेहतर पहुँच से एंटीबायोटिक्स का निर्धारण करने से पूर्व जीवाणु संक्रमण की पुष्टि करने में मदद मिलती है, जिससे एंटीबायोटिक्स के अनावश्यक उपयोग को रोका जा सकता है। 
    • ग्रामीण एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में निवेश करने से लक्षित चिकित्सा को समर्थन मिलता है।
  • जन जागरूकता: पशुधन और कृषि में AMR जोखिमों को शामिल करते हुए रेड लाइन जागरूकता का विस्तार करने के साथ आशा कार्यकर्त्ताओं द्वारा ग्रामीण समुदायों को शिक्षित करना चाहिये एवं किसानों को मुर्गीपालन तथा जलीय कृषि में एंटीबायोटिक उपयोग को कम करने से संबंधित कार्यशालाओं में भाग लेने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये। 
  • वन हेल्थ एप्रोच को बढ़ावा देना: स्वास्थ्य, पशु चिकित्सा, कृषि तथा पर्यावरण क्षेत्रों में बहुक्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देना चाहिये तथा इससे संबंधित दुरुपयोग और संदूषण को कम करने के क्रम में पशुधन एवं कृषि में एंटीबायोटिक उपयोग संबंधी सख्त नियम लागू करने चाहिये। 

निष्कर्ष

नैफिथ्रोमाइसिन की शुरुआत एक मील का पत्थर है लेकिन रोगाणुरोधी प्रतिरोध को रोकने और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा की रक्षा करने के क्रम में बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस क्रम में विनियमन को मज़बूत करना, वन हेल्थ संबंधी सहयोग को बढ़ावा देना, घरेलू एंटीबायोटिक नवाचार को बढ़ावा देना, तीव्र निदान और अस्पताल प्रबंधन को बेहतर करना तथा लोक जागरूकता का विस्तार करना महत्वपूर्ण है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

Q. भारत में रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) के कारणों पर चर्चा कीजिये और इससे निपटने हेतु एक व्यापक रणनीति बताइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से भारत में सूक्ष्मजीवी रोगजनकों में बहु-दवा प्रतिरोध की घटना के कारण हैं? (2019)

  1. कुछ लोगों की आनुवंशिक प्रवृत्ति 
  2.   बीमारियों को ठीक करने के लिये एंटीबायोटिक दवाओं की गलत खुराक लेना
  3.   पशुपालन में एंटीबायोटिक का प्रयोग 
  4.   कुछ लोगों में कई पुरानी बीमारियाँ 

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) केवल 2, 3 और 4

उत्तर: (b) 


प्रश्न: भारत में न्यूमोकोकल संयुग्मी वैक्सीन (Pneumococcal Conjugate Vaccine) के उपयोग का क्या महत्त्व है?

  1. ये वैक्सीन न्यूमोनिया और साथ ही तानिकाशोथ और सेप्सिस के विरुद्ध प्रभावी हैं।
  2.  उन प्रतिजैविकियों पर निर्भरता कम की जा सकती है जो औषध-प्रतिरोधी जीवाणु के विरुद्ध प्रभावी नहीं हैं।
  3.  इन वैक्सीन के कोई गौण प्रभाव (Side Effects) नहीं हैं और न ही ये वैक्सीन कोई प्रत्यूर्जता संबंधी अभिक्रियाएँ (Allergic Reactions) करती हैं।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये-

(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b) 


मेन्स:

प्रश्न: क्या डॉक्टर के निर्देश के बिना एंटीबायोटिक दवाओं का अति प्रयोग और मुफ्त उपलब्धता भारत में दवा प्रतिरोधी रोगों के उद्भव में योगदान कर सकते हैं? निगरानी एवं नियंत्रण के लिये उपलब्ध तंत्र क्या हैं? इसमें शामिल विभिन्न मुद्दों पर आलोचनात्मक चर्चा कीजिये। (2014)


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