भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत के निर्यात के संकुचित होते क्लस्टर
प्रिलिम्स के लिये: भारतीय रिज़र्व बैंक, क्रेडिट-डिपॉज़िट (CD) अनुपात, यूनिफाइड लॉजिस्टिक्स इंटरफेस प्लेटफाॅर्म, निर्यात प्रोत्साहन पूंजीगत वस्तुएँ (EPCG)
मेन्स के लिये: भारत में निर्यात-नेतृत्वित वृद्धि और संरचनात्मक रूपांतरण, भारतीय अर्थव्यवस्था में क्षेत्रीय असंतुलन एवं कोर-पेरीफेरी पैटर्न, निर्यात की रोज़गार लोच (Employment Elasticity) और पूंजी गहनता (Capital Deepening)।
चर्चा में क्यों?
भारतीय रिज़र्व बैंक की हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ओन इंडियन स्टेट्स 2024-25 से यह सामने आया है कि भारत की निर्यात वृद्धि कुछ चुनिंदा राज्यों में तेजी से संकेंद्रित होती जा रही है। इससे यह चिंता उत्पन्न हुई है कि निर्यात अब व्यापक और समावेशी विकास को गति देने के बजाय मौजूदा क्षेत्रीय लाभों को ही प्रतिबिंबित कर रहे हैं।
सारांश
- भारत के लगभग 70% निर्यात केवल पाँच राज्यों से आते हैं, जो कोर-पेरीफेरी पैटर्न को दर्शाता है, जहाँ तटीय क्षेत्र वैश्विक व्यापार से जुड़ रहे हैं, जबकि विशाल अंतर्देशीय (हिंटरलैंड) क्षेत्र इससे बाहर रह गए हैं।
- पूंजी-प्रधान निर्यात वृद्धि ने निर्यात-रोज़गार संबंध को अप्रभावी किया है, जिसके परिणामस्वरूप निर्यात मूल्यों में वृद्धि के बावजूद विनिर्माण क्षेत्र में रोज़गार का हिस्सा 11.6-12% पर ही स्थिर बना हुआ है।
RBI भारत की निर्यात संरचना के संबंध में क्या बताता है?
- कुछ ही राज्यों में संकेंद्रण: भारत के लगभग 70% निर्यात अब केवल पाँच राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश से आते हैं। पाँच वर्ष पूर्व यह हिस्सा लगभग 65% था, जो निर्यात संकेंद्रण में स्पष्ट वृद्धि को दर्शाता है।
- पाँच वर्ष पूर्व यह हिस्सा लगभग 65% था, जो निर्यात संकेंद्रण में स्पष्ट वृद्धि को दर्शाता है।
- कोर-पेरीफेरी पैटर्न: निर्यात का इंजन कुछ सीमित राज्यों के संकुचित क्लस्टर द्वारा संचालित हो रहा है, जिससे निर्यात भूगोल लगातार असंतुलित होता जा रहा है।
- दक्षिण और पश्चिमी तटीय पट्टियाँ वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में सघन रूप से एकीकृत हो रही हैं, जबकि उत्तर और पूर्व के जनांकिकीय केंद्र (हृदय-प्रदेश) भारत की व्यापारिक गति से प्रभावी रूप से ‘विच्छिन्न’ होते जा रहे हैं।
- बढ़ता बाज़ार संकेंद्रण: भारत के निर्यात के लिये हर्फिन्डाल-हिर्शमैन सूचकांक (HHI) में वृद्धि हो रही है, जो बाज़ार संकेंद्रण के बढ़ने और शीर्ष-प्रधान (Top-Heavy) निर्यात संरचना का संकेत देता है।
- पिछड़े क्षेत्र अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, जिससे यह विभाजन और गहराता जा रहा है।
भारत का निर्यात परिदृश्य
- भारत का निर्यात वर्ष 2024-25 में रिकॉर्ड 825.25 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया और अप्रैल-सितंबर 2025 की अवधि में यह 418.91 अरब अमेरिकी डॉलर रहा, जो अब तक का सर्वाधिक प्रथम-छमाही प्रदर्शन है। यह वृद्धि मुख्यतः सुदृढ़ सेवा निर्यात और नॉन-पेट्रोलियम वस्तु निर्यात की सुदृढ़ स्थिति से प्रेरित रही।
- इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग वस्तुएँ, औषधि (फार्मास्यूटिकल्स), समुद्री उत्पाद और चावल जैसे प्रमुख क्षेत्रों के साथ-साथ अमेरिका, UAE, चीन, स्पेन और हॉन्गकॉन्ग से सशक्त मांग ने इस गति को बनाए रखा। इसके माध्यम से भारत 2030 तक कुल 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निर्यात लक्ष्य की दिशा में अग्रसर है।
- समग्र रूप से, वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 2005 में 1.2% से बढ़कर 2023 में 2.4% हो गई है।
कुछ ही राज्यों में निर्यात के संकेंद्रण से उत्पन्न चुनौतियाँ क्या हैं?
- निर्यात-रोज़गार संबंध का क्षरण: निर्यात में विस्तार अब व्यापक औद्योगिक रोज़गार सृजन में परिवर्तित नहीं हो पा रहा है।
- वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण (ASI) 2022–23 के आँकड़ों के अनुसार, स्थिर पूंजी निवेश में लगभग 10.6% की वृद्धि हुई, जबकि रोज़गार में केवल 7.4% की वृद्धि दर्ज की गई, जो पूंजी गहनता की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
- प्रति श्रमिक स्थिर पूंजी के 23.6 लाख रुपये तक बढ़ जाने से कारखाने अधिक पूंजी-गहन तथा कम श्रम-अवशोषक होते जा रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि निर्यात अब आनुपातिक रोज़गार सृजन किये बिना ही अधिक मूल्य उत्पन्न कर रहे हैं, जिससे संरचनात्मक परिवर्तन को आगे बढ़ाने में उनकी पारंपरिक भूमिका कमज़ोर पड़ रही है।
- रिकॉर्ड स्तर के निर्यात के बावजूद कुल रोज़गार में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 11.6–12% पर स्थिर बनी हुई है। यह दर्शाता है कि निर्यात वृद्धि मुख्यतः पूंजी-गहन केंद्रों में सिमट रही है, न कि श्रम-अधिशेष वाले आंतरिक राज्यों में व्यापक रोज़गार सृजन कर रही है।
- उच्च-वृद्धि निर्यात क्षेत्रों का स्थानिक लॉक-इन: PLI योजना के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात में वर्ष-दर-वर्ष 47% से अधिक की वृद्धि हुई है, किंतु यह अभी भी कांचीपुरम और नोएडा जैसे विशिष्ट ज़िलों तक ही केंद्रित है।
- इन आपूर्ति शृंखलाओं में अपेक्षित जटिलता और लॉजिस्टिक सटीकता कम-विकसित क्षेत्रों में इनके प्रसार को बाधित करती है, जिससे निर्यात का संकेंद्रण और अधिक सुदृढ़ होता जा रहा है।
- गरीब राज्यों से वित्तीय निर्वाह: ऋण–जमा (CD) अनुपात पर RBI के आँकड़े स्पष्ट विभाजन को दर्शाते हैं। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे निर्यात प्रमुख राज्यों में CD अनुपात 90% से अधिक है, जो स्थानीय बचत के स्थानीय उद्योग में पुनः निवेश की मज़बूती को इंगित करता है।
- इसके विपरीत, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में CD अनुपात 50% से कम है, जो दर्शाता है कि गरीब राज्यों में जुटाई गई बचत को औद्योगिक तटीय क्षेत्रों में उधार दिया जा रहा है, जिससे पूंजी का प्रतिकूल बहिर्वाह उत्पन्न होता है।
- अंतर्वर्ती क्षेत्रों की वृद्धि केंद्रों के साथ समेकन में असफलता कमज़ोर राज्य क्षमता और वित्तीय गहराई की कमी को दर्शाती है, जो क्षेत्रीय असमानता को और अधिक सुदृढ़ करती है।
- कमज़ोर राज्य और मानव पूंजी की कमी: कम-निर्यात वाले राज्यों को कौशल, स्वास्थ्य, अवसंरचना और संस्थागत क्षमता में लगातार कमियों से ग्रस्त होते हैं।
- ये प्रतिबंध उनकी उच्च-जटिलता वाले वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में भागीदारी की क्षमता को सीमित करते हैं, जिससे उनके लिये निर्यात बास्केट को उन्नत करना या वैश्विक पूंजी आकर्षित करना कठिन हो जाता है और इस प्रकार क्षेत्रीय असमानता बनी रहती है।
- वैश्विक व्यापार मंदी के प्रति संवेदनशीलता: बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों द्वारा विश्व व्यापार में एकीकरण के लिये उपयोग किया जाने वाला निम्न-कौशल, श्रम-गहन औद्योगिकीकरण का वैश्विक अवसर तेज़ी से समाप्त हो रहा है।
- वैश्विक पूंजी अब केवल सस्ते श्रम (अंतर्वर्ती क्षेत्रों का लाभ) का पीछा नहीं कर रही है। अब यह ‘उच्च आर्थिक जटिलता’ की तलाश में है, जिसमें विश्व व्यापार संगठन (WTO) के आँकड़े दर्शाते हैं कि वस्त्र व्यापार की मात्रा वृद्धि 0.5–3% तक धीमी हो गई है और UN संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास (UNCTAD) 2023 के अनुसार शीर्ष 10 निर्यातक लगभग 55% विश्व व्यापार पर नियंत्रण रखते हैं।
- ऐसे परिप्रेक्ष्य में भारत का सीमित निर्यात राज्यों पर निर्भर होना क्षेत्र-विशिष्ट झटकों के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाता है।
भारत के निर्यात क्षेत्र में सतत परिवर्तन लाने के लिये कौन-से उपाय प्रभावी हो सकते हैं?
- पिछड़े राज्यों की क्षमता को सुदृढ़ करना: कम-निर्यात वाले राज्यों में सड़कों, रेलवे, बंदरगाहों और लॉजिस्टिक के समन्वित नियोजन के माध्यम से बुनियादी ढाँचे की खाई को पाटने के लिये प्रधानमंत्री गति शक्ति का उपयोग करें।
- औद्योगिक कॉरिडोर परियोजनाओं का विस्तार करना और सुनिश्चित करना कि ये तटीय राज्यों से परे आंतरिक क्षेत्रों तक फैले।
- सागरमाला के माध्यम से बंदरगाह-आधारित विकास और भारतमाला के माध्यम से अंतर्देशीय कनेक्टिविटी में सुधार करना। राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति और यूनिफाइड लॉजिस्टिक्स इंटरफेस प्लेटफॉर्म (ULIP) का उपयोग करके लेन-देन की लागत कम करना।
- रोज़गार के लिये निर्यात नीति का पुनर्संतुलन: निर्यात संवर्द्धन मिशन (EPM) के तहत उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं को रोज़गार-सघनता के लिये स्पष्ट भार प्रदान करने हेतु पुनर्निर्देशित करना, न कि केवल उत्पादन या निवेश पर आधारित।
- कपड़ा, खाद्य प्रसंस्करण, जूता उद्योग और MSME विनिर्माण जैसे श्रम-अवशोषक क्षेत्रों को उच्च-तकनीकी क्षेत्रों के साथ प्रोत्साहित करना।
- निर्यात आवश्यकताओं के अनुरूप मानव पूंजी का संरेखण: स्किल इंडिया मिशन, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY) और समर्थ (वस्त्र क्षेत्र हेतु) को निर्यातोन्मुख मूल्य शृंखलाओं के साथ संरेखित किया जाए।
- कम निर्यात वाले राज्यों में वित्त तक पहुँच में सुधार: MUDRA और स्टैंड-अप इंडिया के माध्यम से निम्न क्रेडिट–डिपॉजिट अनुपात की समस्या का समाधान कर MSME क्षेत्र में ऋण प्रवाह को बेहतर बनाया जाए।
- पिछड़े क्षेत्रों में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिये विकास वित्त संस्थानों (DFIs) और क्रेडिट गारंटी का उपयोग किया जाए।
- ज़िलों को निर्यात हब के रूप में उपयोग (DEH) करके ज़िला-विशिष्ट निर्यात संभावनाओं की पहचान की जाए और अत्यधिक केंद्रीकरण को कम किया जाए। ‘एक ज़िला–एक उत्पाद’ (ODOP) को निर्यात सुविधा, ब्रांडिंग तथा वैश्विक बाज़ार तक पहुँच के साथ जोड़ा जाए।
- क्षेत्रीय अभिसरण के साथ व्यापार नीति का संरेखण: पिछड़े क्षेत्रों में इकाइयाँ स्थापित करने वाली फर्मों को प्रोत्साहित करने हेतु निर्यात संवर्द्धन पूंजीगत वस्तु (EPCG) और निर्यातित उत्पादों पर शुल्क व करों की छूट (RoDTEP) का उपयोग किया जाए।
- राज्यों को स्थानीय क्षमताओं के अनुरूप क्षेत्र-विशिष्ट निर्यात रणनीतियाँ विकसित करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए।
- समावेशी विकास को ट्रैक करने के लिये आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम के अंतर्गत परिणामों के साथ निर्यात आकलन को एकीकृत किया जाए।
निष्कर्ष
भारत की निर्यात वृद्धि अब समावेशी विकास को आगे बढ़ाने के बजाय मौजूदा क्षेत्रीय शक्तियों को ही प्रतिबिंबित करती है। बढ़ती एकाग्रता और पूंजी-प्रधान निर्यात ने रोज़गार सृजन और क्षेत्रीय अभिसरण को कमज़ोर किया है। सतत परिवर्तन के लिये रोज़गार-केंद्रित और क्षेत्रीय रूप से संतुलित निर्यात नीतियों की आवश्यकता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: “भारत की निर्यात वृद्धि समावेशी विकास को आगे बढ़ाने के बजाय बढ़ते हुए मौजूदा क्षेत्रीय शक्तियों को ही अधिक प्रतिबिंबित कर रही है।” समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. RBI की हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऑन इंडियन स्टेट्स 2024–25 की निर्यात से संबंधित प्रमुख खोज क्या है?
यह दर्शाता है कि भारत के लगभग 70% निर्यात केवल पाँच राज्यों से आते हैं, जो पाँच वर्ष पहले लगभग 65% थे। यह निर्यात में बढ़ती एकाग्रता को इंगित करता है।
2. कौन-से राज्य भारत की निर्यात टोकरी पर प्रभुत्व रखते हैं?
महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश मिलकर भारत के अधिकांश निर्यात का योगदान करते हैं।
3. भारत की निर्यात संरचना में बढ़ता हुआ हेर्फीडाल–हिर्शमैन सूचकांक (HHI) क्या दर्शाता है?
HHI में वृद्धि बढ़ती बाज़ार एकाग्रता और शीर्ष-प्रधान निर्यात भूगोल को दर्शाती है, जहाँ पिछड़े क्षेत्र आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
4. निर्यात वृद्धि रोज़गार सृजन में क्यों परिवर्तित नहीं हो पा रही है?
ASI 2022–23 के अनुसार, स्थिर पूंजी में लगभग 10.6% की वृद्धि हुई, जबकि रोज़गार में केवल लगभग 7.4% की बढ़ोतरी हुई। यह पूंजी सघनता और श्रम अवशोषण में कमी को दर्शाता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रश्न. निरपेक्ष तथा प्रति व्यक्ति वास्तविक GNP में वृद्धि आर्थिक विकास के ऊँची स्तर का संकेत नहीं करती, यदि: (2018)
(a) औद्योगिक उत्पादन कृषि उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(b) कृषि उत्पादन औद्योगिक उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(c) निर्धनता और बेरोज़गारी में वृद्धि होती है।
(d) निर्यात की अपेक्षा आयात तेज़ी से बढ़ता है।
उत्तर: (c)
प्रश्न. फरवरी 2006 से प्रभावी हुआ SEZ एक्ट, 2005 के कुछ उद्देश्य हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2010)
अवसंरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) सुविधाओं का विकास
विदेशी स्रोतों से निवेश को प्रोत्साहन
केवल सेवा क्षेत्र में निर्यात को प्रोत्साहन
उपर्युक्त में से कौन-सा/से एक्ट का/के उद्देश्य है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (a)
प्रश्न. ‘बंद अर्थव्यवस्था’ वह अर्थव्यवस्था है जिसमें: (2011)
(a) मुद्रा पूर्णतः नियंत्रित होती है
(b) घाटे की वित्त व्यवस्था होती है
(c) केवल निर्यात होता है
(d) न तो निर्यात होता है, न ही आयात होता है
उत्तर: (d)

शासन व्यवस्था
डार्क पैटर्न
उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय ई-कॉमर्स और डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर उभर रहे नवाचारी डार्क पैटर्न से संबंधित शिकायतों का सक्रिय रूप से समाधान कर रहा है।
सारांश:
- डार्क पैटर्न ऐप्स और वेबसाइट्स में प्रयुक्त भ्रामक डिज़ाइन युक्तियाँ हैं, जो उपभोक्ताओं को ऐसे विकल्प चुनने के लिये प्रेरित करती हैं, जिनके संबंध में पूर्ण जानकारी स्पष्ट रूप से उपभोक्ताओं को नही दी जाती जैसे- छिपे हुए शुल्क या सदस्यताओं को रद्द करना कठिन बनाना।
- ये उपभोक्ता की सहमति और विश्वास को क्षीण करते हैं, वित्तीय क्षति पहुँचाते हैं। भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम और केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA) के दिशानिर्देशों के माध्यम से इनके विनियमन के प्रयास किये जा रहे हैं।
डार्क पैटर्न क्या हैं?
- डार्क पैटर्न ऐसे भ्रामक यूज़र-इंटरफेस डिज़ाइन होते हैं, जो उपयोगकर्त्ताओं को ऐसे निर्णय लेने के लिये हेरफेर करते हैं, जिन्हें वे सामान्य परिस्थितियों में नहीं लेते (जैसे—अंत में छिपे शुल्क दिखाना, जटिल ऑप्ट-आउट विकल्प)।
- यह डिजिटल अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता संरक्षण से जुड़ी उभरती चुनौतियों और अनुचित प्रथाओं के विरुद्ध नियामक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता को दर्शाता है।
- डार्क पैटर्न के सामान्य प्रकार
- फॉल्स अर्जेंसी (False Urgency): ‘केवल 2 बचे हैं!’ या ‘ऑफर 5 मिनट में समाप्त’ जैसी कृत्रिम समय-सीमा बनाकर जल्दबाज़ी में निर्णय लेने के लिये मज़बूर करना।
- बास्केट स्नीकिंग (Basket Sneaking): उपयोगकर्त्ता की स्पष्ट सहमति के बिना कार्ट में अतिरिक्त वस्तुएँ या शुल्क जोड़ देना (जैसे—बीमा, सुविधा शुल्क)।
- कन्फर्म शेमिंग (Confirm Shaming): ‘नहीं, मुझे पैसे बचाने की परवाह नहीं है’ जैसी भाषा का प्रयोग कर उपयोगकर्त्ता को अपराधबोध महसूस कराते हुए निर्णय लेने के लिये दबाव डालना।
- फोर्स्ड एक्शन (Forced Action): सेवा का उपयोग जारी रखने के लिये अवांछित कार्य (जैसे—साइन-अप, ऐप डाउनलोड) करने के लिये बाध्य करना।
- सब्सक्रिप्शन ट्रैप (Subscription Trap): सदस्यता लेना आसान है लेकिन इसे रद्द करना कठिन है तथा रद्द करने के विकल्प छिपे हुए हैं या अत्यधिक जटिल हैं।
- ड्रिप प्राइसिंग (Drip Pricing): चेकआउट के अंतिम चरण में ही अतिरिक्त लागतों का खुलासा करना।
- बेट एंड स्विच (Bait and Switch): एक विकल्प का विज्ञापन करना, लेकिन क्लिक करने के बाद कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध कराना।
- नुक्ताचीनी/आलोचना(Nagging): उपयोगकर्त्ताओं पर किसी विशेष विकल्प को चुनने के लिये दबाव बनाने हेतु बार-बार पॉप-अप या संकेत (prompts) दिखाना।
- छिपे हुए विज्ञापन (Disguised Advertisements): ऐसे विज्ञापन जिन्हें वास्तविक सामग्री या सिस्टम नोटिफिकेशन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भारत में डार्क पैटर्न के लिये नियामक ढाँचा क्या है?
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019
- यह भारत में उपभोक्ता अधिकारों को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कानून है, जिसने 1986 के अधिनियम का स्थान लिया ताकि ई-कॉमर्स विवादों सहित आधुनिक उपभोक्ता मुद्दों से निपटा जा सके।
- यह डार्क पैटर्न जैसी अनुचित व्यापार प्रथाओं से निपटने के लिये कानूनी आधार प्रदान करता है और शिकायतों के समयबद्ध निपटान का प्रावधान करता है।
- केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA)
- यह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत गठित एक वैधानिक निकाय है, जिसे अनुचित व्यापार प्रथाओं की जाँच, प्रवर्तन और दंड लगाने का अधिकार प्राप्त है।
- यह डार्क पैटर्न जैसी भ्रामक प्रथाओं पर अंकुश लगाने और उपभोक्ता अधिकारों को लागू कराने वाली प्रमुख नियामक संस्था है।
- नवंबर 2023 में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA) ने ‘डार्क पैटर्न की रोकथाम और विनियमन हेतु दिशा-निर्देश, 2023’ जारी किये।
- e-Jagriti प्लेटफाॅर्म
- यह जनवरी 2025 में प्रारंभ की गई एक डिजिटल शिकायत निवारण प्रणाली है, जो उपभोक्ताओं को ऑनलाइन शिकायत दर्ज करने, वर्चुअल सुनवाई में भाग लेने तथा मामलों की रियल-समय में निगरानी करने की सुविधा प्रदान करती है।
- यह उपभोक्ता विवाद निवारण के क्षेत्र में डिजिटल न्याय और सुलभता को बढ़ावा देने की दिशा में सरकार के प्रयासों को दर्शाती है।
डार्क पैटर्न के नैतिक एवं आर्थिक निहितार्थ क्या हैं?
- नैतिक निहितार्थ:
- उपभोक्ता स्वायत्तता का उल्लंघन: डार्क पैटर्न उपयोगकर्त्ताओं के विकल्पों में हेर-फेर करते हैं, जिससे सूचित और स्वतंत्र सहमति (Informed and Free Consent) अप्रभावी होती है।
- भ्रामकता और पारदर्शिता का अभाव: ये ईमानदार सूचना के बजाय भ्रामक डिज़ाइन पर आधारित होते हैं, जो नैतिक व्यावसायिक आचरण का उल्लंघन है।
- विश्वास का क्षरण: बार-बार संपर्क में आने से डिजिटल प्लेटफाॅर्म और संस्थानों के प्रति सार्वजनिक विश्वास में कमी आती है।
- संवेदनशील वर्गों का शोषण: बुज़ुर्ग, बच्चे और प्रथम-बार इंटरनेट उपयोग करने वाले लोग असमान रूप से अधिक प्रभावित होते हैं।
- उपभोक्ता स्वायत्तता का उल्लंघन: डार्क पैटर्न उपयोगकर्त्ताओं के विकल्पों में हेर-फेर करते हैं, जिससे सूचित और स्वतंत्र सहमति (Informed and Free Consent) अप्रभावी होती है।
- आर्थिक निहितार्थ:
- बाज़ार विकृति: हेर-फेरकारी (Manipulative) प्रथाएँ नैतिक उद्यमों की तुलना में भ्रामक कंपनियों को लाभ पहुँचाकर निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा को अप्रभावी करती हैं।
- उपभोक्ताओं पर छिपे वित्तीय बोझ: उपयोगकर्त्ताओं पर अनचाही सदस्यताओं, शुल्कों या खरीद के रूप में अतिरिक्त लागत आ सकती है, जिससे उपभोक्ता कल्याण में कमी आती है।
- दीर्घकालिक व्यावसायिक जोखिम: नियामक दंड और प्रतिष्ठा को होने वाला नुकसान फर्मों के अनुपालन और कानूनी लागत को बढ़ा देता है।
- डिजिटल बाज़ारों की कम प्रभावशीलता: जब विश्वास में कमी आती है तो उपयोगकर्त्ता की भागीदारी और डिजिटल अपनाने की प्रक्रिया धीमी हो सकती है।
आगे की राह
- 'कैविएट एम्प्टर' से 'कैविएट वेंडिटर' की ओर परिवर्तन: सूचना असममिति के कारण पारंपरिक ‘क्रेता सावधान’ दर्शन डिजिटल युग में अपर्याप्त है। भारत को ‘विक्रेता सावधान’ की ओर बढ़ना चाहिये, जहाँ यह सिद्ध करने का दायित्व प्लेटफॉर्म पर हो कि उनका UI डिज़ाइन पारदर्शी और गैर-भ्रामक है।
- ‘एथिक्स बाय डिज़ाइन’ का कार्यान्वयन: CCPA जैसे नियामक निकायों को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) के साथ मिलकर ‘एथिकल UI/UX’ फ्रेमवर्क को अनिवार्य बनाना चाहिये।
- कंपनियों को डिजिटल एथिक्स ऑडिट कराने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके एल्गोरिदम व्यवहार संबंधी मनोविज्ञान का शोषण न करें।
- एल्गोरिदमिक जवाबदेही को सुदृढ़ करना: जैसे-जैसे डार्क पैटर्न AI के माध्यम से स्वचालित होते जा रहे हैं, डिजिटल इंडिया बिल में एल्गोरिदमिक पारदर्शिता के प्रावधान शामिल होने चाहिये।
- नियामकों को तकनीकी उपकरणों की आवश्यकता है ताकि यह निरीक्षण किया जा सके कि कैसे विशिष्ट उपयोगकर्त्ता कमज़ोरियों (जैसे, ‘ड्रिप प्राइसिंग’ के साथ निम्न-आय समूहों को लक्षित करना) का शोषण करने के लिये ‘नज’ व्यक्तिगत बनाए जाते हैं।
- वैश्विक नियामक समन्वय: भारत को अपनी घरेलू दिशानिर्देशों को यूरोपीय संघ के डिजिटल सर्विसेज़ एक्ट (DSA) और UK के ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट जैसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ संरेखित करना चाहिये।
- ई-कॉमर्स के लिये एक ‘वैश्विक आचार संहिता’ ‘नियामक आर्बिट्रेज’ को रोक सकती है, जिसमें कंपनियाँ पश्चिमी देशों में नैतिक मानकों का पालन करती हैं, लेकिन भारत जैसे उभरते बाज़ारों में भ्रामक पैटर्न का उपयोग करती हैं।
- ‘डिजिटल नागरिक’ को सशक्त बनाना: जहाँ ई-जागृति प्लेटफॉर्म ‘डिजिटल न्याय’ की दिशा में एक कदम है, वहीं इसे बड़े पैमाने पर डिजिटल साक्षरता अभियानों के साथ पूरक बनाया जाना चाहिये।
- उपभोक्ताओं को ‘कन्फर्म शेमिंग’ या ‘सब्सक्रिप्शन ट्रैप’ जैसी चुनौतियों की पहचान करना सिखाया जाना चाहिये, ताकि वे निष्क्रिय उपयोगकर्त्ताओं से सक्रिय ‘डिजिटल नागरिक’ बन सकें।
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और पढ़ें: उपभोक्ता संरक्षण नियम, 2021 |
