शासन व्यवस्था
डार्क पैटर्न
- 26 Dec 2025
- 57 min read
उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय ई-कॉमर्स और डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर उभर रहे नवाचारी डार्क पैटर्न से संबंधित शिकायतों का सक्रिय रूप से समाधान कर रहा है।
सारांश:
- डार्क पैटर्न ऐप्स और वेबसाइट्स में प्रयुक्त भ्रामक डिज़ाइन युक्तियाँ हैं, जो उपभोक्ताओं को ऐसे विकल्प चुनने के लिये प्रेरित करती हैं, जिनके संबंध में पूर्ण जानकारी स्पष्ट रूप से उपभोक्ताओं को नही दी जाती जैसे- छिपे हुए शुल्क या सदस्यताओं को रद्द करना कठिन बनाना।
- ये उपभोक्ता की सहमति और विश्वास को क्षीण करते हैं, वित्तीय क्षति पहुँचाते हैं। भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम और केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA) के दिशानिर्देशों के माध्यम से इनके विनियमन के प्रयास किये जा रहे हैं।
डार्क पैटर्न क्या हैं?
- डार्क पैटर्न ऐसे भ्रामक यूज़र-इंटरफेस डिज़ाइन होते हैं, जो उपयोगकर्त्ताओं को ऐसे निर्णय लेने के लिये हेरफेर करते हैं, जिन्हें वे सामान्य परिस्थितियों में नहीं लेते (जैसे—अंत में छिपे शुल्क दिखाना, जटिल ऑप्ट-आउट विकल्प)।
- यह डिजिटल अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता संरक्षण से जुड़ी उभरती चुनौतियों और अनुचित प्रथाओं के विरुद्ध नियामक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता को दर्शाता है।
- डार्क पैटर्न के सामान्य प्रकार
- फॉल्स अर्जेंसी (False Urgency): ‘केवल 2 बचे हैं!’ या ‘ऑफर 5 मिनट में समाप्त’ जैसी कृत्रिम समय-सीमा बनाकर जल्दबाज़ी में निर्णय लेने के लिये मज़बूर करना।
- बास्केट स्नीकिंग (Basket Sneaking): उपयोगकर्त्ता की स्पष्ट सहमति के बिना कार्ट में अतिरिक्त वस्तुएँ या शुल्क जोड़ देना (जैसे—बीमा, सुविधा शुल्क)।
- कन्फर्म शेमिंग (Confirm Shaming): ‘नहीं, मुझे पैसे बचाने की परवाह नहीं है’ जैसी भाषा का प्रयोग कर उपयोगकर्त्ता को अपराधबोध महसूस कराते हुए निर्णय लेने के लिये दबाव डालना।
- फोर्स्ड एक्शन (Forced Action): सेवा का उपयोग जारी रखने के लिये अवांछित कार्य (जैसे—साइन-अप, ऐप डाउनलोड) करने के लिये बाध्य करना।
- सब्सक्रिप्शन ट्रैप (Subscription Trap): सदस्यता लेना आसान है लेकिन इसे रद्द करना कठिन है तथा रद्द करने के विकल्प छिपे हुए हैं या अत्यधिक जटिल हैं।
- ड्रिप प्राइसिंग (Drip Pricing): चेकआउट के अंतिम चरण में ही अतिरिक्त लागतों का खुलासा करना।
- बेट एंड स्विच (Bait and Switch): एक विकल्प का विज्ञापन करना, लेकिन क्लिक करने के बाद कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध कराना।
- नुक्ताचीनी/आलोचना(Nagging): उपयोगकर्त्ताओं पर किसी विशेष विकल्प को चुनने के लिये दबाव बनाने हेतु बार-बार पॉप-अप या संकेत (prompts) दिखाना।
- छिपे हुए विज्ञापन (Disguised Advertisements): ऐसे विज्ञापन जिन्हें वास्तविक सामग्री या सिस्टम नोटिफिकेशन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भारत में डार्क पैटर्न के लिये नियामक ढाँचा क्या है?
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019
- यह भारत में उपभोक्ता अधिकारों को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कानून है, जिसने 1986 के अधिनियम का स्थान लिया ताकि ई-कॉमर्स विवादों सहित आधुनिक उपभोक्ता मुद्दों से निपटा जा सके।
- यह डार्क पैटर्न जैसी अनुचित व्यापार प्रथाओं से निपटने के लिये कानूनी आधार प्रदान करता है और शिकायतों के समयबद्ध निपटान का प्रावधान करता है।
- केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA)
- यह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत गठित एक वैधानिक निकाय है, जिसे अनुचित व्यापार प्रथाओं की जाँच, प्रवर्तन और दंड लगाने का अधिकार प्राप्त है।
- यह डार्क पैटर्न जैसी भ्रामक प्रथाओं पर अंकुश लगाने और उपभोक्ता अधिकारों को लागू कराने वाली प्रमुख नियामक संस्था है।
- नवंबर 2023 में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA) ने ‘डार्क पैटर्न की रोकथाम और विनियमन हेतु दिशा-निर्देश, 2023’ जारी किये।
- e-Jagriti प्लेटफाॅर्म
- यह जनवरी 2025 में प्रारंभ की गई एक डिजिटल शिकायत निवारण प्रणाली है, जो उपभोक्ताओं को ऑनलाइन शिकायत दर्ज करने, वर्चुअल सुनवाई में भाग लेने तथा मामलों की रियल-समय में निगरानी करने की सुविधा प्रदान करती है।
- यह उपभोक्ता विवाद निवारण के क्षेत्र में डिजिटल न्याय और सुलभता को बढ़ावा देने की दिशा में सरकार के प्रयासों को दर्शाती है।
डार्क पैटर्न के नैतिक एवं आर्थिक निहितार्थ क्या हैं?
- नैतिक निहितार्थ:
- उपभोक्ता स्वायत्तता का उल्लंघन: डार्क पैटर्न उपयोगकर्त्ताओं के विकल्पों में हेर-फेर करते हैं, जिससे सूचित और स्वतंत्र सहमति (Informed and Free Consent) अप्रभावी होती है।
- भ्रामकता और पारदर्शिता का अभाव: ये ईमानदार सूचना के बजाय भ्रामक डिज़ाइन पर आधारित होते हैं, जो नैतिक व्यावसायिक आचरण का उल्लंघन है।
- विश्वास का क्षरण: बार-बार संपर्क में आने से डिजिटल प्लेटफाॅर्म और संस्थानों के प्रति सार्वजनिक विश्वास में कमी आती है।
- संवेदनशील वर्गों का शोषण: बुज़ुर्ग, बच्चे और प्रथम-बार इंटरनेट उपयोग करने वाले लोग असमान रूप से अधिक प्रभावित होते हैं।
- उपभोक्ता स्वायत्तता का उल्लंघन: डार्क पैटर्न उपयोगकर्त्ताओं के विकल्पों में हेर-फेर करते हैं, जिससे सूचित और स्वतंत्र सहमति (Informed and Free Consent) अप्रभावी होती है।
- आर्थिक निहितार्थ:
- बाज़ार विकृति: हेर-फेरकारी (Manipulative) प्रथाएँ नैतिक उद्यमों की तुलना में भ्रामक कंपनियों को लाभ पहुँचाकर निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा को अप्रभावी करती हैं।
- उपभोक्ताओं पर छिपे वित्तीय बोझ: उपयोगकर्त्ताओं पर अनचाही सदस्यताओं, शुल्कों या खरीद के रूप में अतिरिक्त लागत आ सकती है, जिससे उपभोक्ता कल्याण में कमी आती है।
- दीर्घकालिक व्यावसायिक जोखिम: नियामक दंड और प्रतिष्ठा को होने वाला नुकसान फर्मों के अनुपालन और कानूनी लागत को बढ़ा देता है।
- डिजिटल बाज़ारों की कम प्रभावशीलता: जब विश्वास में कमी आती है तो उपयोगकर्त्ता की भागीदारी और डिजिटल अपनाने की प्रक्रिया धीमी हो सकती है।
आगे की राह
- 'कैविएट एम्प्टर' से 'कैविएट वेंडिटर' की ओर परिवर्तन: सूचना असममिति के कारण पारंपरिक ‘क्रेता सावधान’ दर्शन डिजिटल युग में अपर्याप्त है। भारत को ‘विक्रेता सावधान’ की ओर बढ़ना चाहिये, जहाँ यह सिद्ध करने का दायित्व प्लेटफॉर्म पर हो कि उनका UI डिज़ाइन पारदर्शी और गैर-भ्रामक है।
- ‘एथिक्स बाय डिज़ाइन’ का कार्यान्वयन: CCPA जैसे नियामक निकायों को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) के साथ मिलकर ‘एथिकल UI/UX’ फ्रेमवर्क को अनिवार्य बनाना चाहिये।
- कंपनियों को डिजिटल एथिक्स ऑडिट कराने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके एल्गोरिदम व्यवहार संबंधी मनोविज्ञान का शोषण न करें।
- एल्गोरिदमिक जवाबदेही को सुदृढ़ करना: जैसे-जैसे डार्क पैटर्न AI के माध्यम से स्वचालित होते जा रहे हैं, डिजिटल इंडिया बिल में एल्गोरिदमिक पारदर्शिता के प्रावधान शामिल होने चाहिये।
- नियामकों को तकनीकी उपकरणों की आवश्यकता है ताकि यह निरीक्षण किया जा सके कि कैसे विशिष्ट उपयोगकर्त्ता कमज़ोरियों (जैसे, ‘ड्रिप प्राइसिंग’ के साथ निम्न-आय समूहों को लक्षित करना) का शोषण करने के लिये ‘नज’ व्यक्तिगत बनाए जाते हैं।
- वैश्विक नियामक समन्वय: भारत को अपनी घरेलू दिशानिर्देशों को यूरोपीय संघ के डिजिटल सर्विसेज़ एक्ट (DSA) और UK के ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट जैसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ संरेखित करना चाहिये।
- ई-कॉमर्स के लिये एक ‘वैश्विक आचार संहिता’ ‘नियामक आर्बिट्रेज’ को रोक सकती है, जिसमें कंपनियाँ पश्चिमी देशों में नैतिक मानकों का पालन करती हैं, लेकिन भारत जैसे उभरते बाज़ारों में भ्रामक पैटर्न का उपयोग करती हैं।
- ‘डिजिटल नागरिक’ को सशक्त बनाना: जहाँ ई-जागृति प्लेटफॉर्म ‘डिजिटल न्याय’ की दिशा में एक कदम है, वहीं इसे बड़े पैमाने पर डिजिटल साक्षरता अभियानों के साथ पूरक बनाया जाना चाहिये।
- उपभोक्ताओं को ‘कन्फर्म शेमिंग’ या ‘सब्सक्रिप्शन ट्रैप’ जैसी चुनौतियों की पहचान करना सिखाया जाना चाहिये, ताकि वे निष्क्रिय उपयोगकर्त्ताओं से सक्रिय ‘डिजिटल नागरिक’ बन सकें।
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