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डेली न्यूज़

  • 11 Sep, 2020
  • 53 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये: 

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश,  

मेन्स के लिये:

भारतीय रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में निजी कंपनियों और विदेशी निवेश की भूमिका 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने रक्षा क्षेत्र के लिये एक नई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति को मंज़ूरी दी है, इस नीति में ऑटोमैटिक रूट के तहत रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment- FDI) की सीमा को 49% से बढ़ाकर 74% कर दिया गया है।

प्रमुख बिंदु: 

  • नई नीति के तहत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को 74% करने के साथ इसमें ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की शर्त को भी जोड़ा गया है। 
  • इस शर्त के अनुसार, रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) के आधार पर जाँच के अधीन होगा साथ ही सरकार के पास रक्षा क्षेत्र में किसी भी ऐसे विदेशी निवेश की समीक्षा करने का अधिकार सुरक्षित होगा जो राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकता है।
    • गौरतलब है कि मौजूदा नीति में रक्षा क्षेत्र से जुड़े उद्योगों में ऑटोमैटिक रूट के तहत 49% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दी गई है, जबकि इससे अधिक के निवेश के लिये सरकार की अनुमति लेनी आवश्यक होती है। 
  • नई नीति के तहत ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की यह शर्त रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये पहले से मौजूद चार शर्तों (जिसमें सुरक्षा मंज़ूरी और रक्षा मंत्रालय के कुछ दिशा निर्देश शामिल हैं) से अलग होगी। 

उद्देश्य:

  • पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा रक्षा क्षेत्र में देश की स्थानीय विनिर्माण क्षमता को बढ़ावा देने के लिये कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गए हैं।
  • रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश की शर्तों में छूट देकर केंद्र सरकार का लक्ष्य विदेशी मूल उपकरण निर्माता कंपनियों को भारत में विनिर्माण इकाइयों की स्थापना के लिये प्रोत्साहित करना और निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देना है।
  • केंद्र सरकार द्वारा देश के रक्षा विनिर्माण क्षेत्र के लिये वर्ष 2025 तक 1.75 लाख करोड़ रुपए के कारोबार के साथ 35,000 करोड़ रुपए के निर्यात का लक्ष्य रखा गया है।

भारतीय रक्षा क्षेत्र: 

  • एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2019 तक एयरोस्पेस और जहाज़ निर्माण उद्योग के साथ रक्षा उद्योग का कारोबार लगभग 80,000 करोड़ रुपए का बताया गया था।  
  • हालाँकि इसमें लगभग 80% (63,000 करोड़ रुपए) हिस्सेदारी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (Public Sector Undertaking- PSU) की है।    

सरकार के प्रयास:

  • हाल ही में प्रधानमंत्री ने ‘रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत’ नामक एक ऑनलाइन सेमिनार को संबोधित करते हुए रक्षा क्षेत्र में उत्पादन को बढ़ाने, नवीन स्वदेशी तकनीकी विकसित करने और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को दोहराया था।
  • सरकार द्वारा रक्षा उत्पादों की खरीद के संदर्भ में एक नकारात्मक आयात सूची (Negative Imports List) जारी करने के साथ घरेलू उद्योग से पूंजी अधिग्रहण के लिये एक समर्पित बजट घोषणा की गई थी।
  • सरकार द्वारा अगस्त 2020 में जारी ‘रक्षा उत्पादन और निर्यात संवर्द्धन नीति (Defence Production & Export Promotion Policy- DPEPP) 2020’ का मसौदा जारी किया गया था।
    • इस मसौदे में विदेशी कंपनियों को रक्षा विनिर्माण क्षेत्र से जुड़ने के लिये प्रोत्साहित करने और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भारत की भूमिका को मज़बूत करने के लिये रक्षा क्षेत्र में FDI शर्तों को आसान बनाने की बात कही गई थी।

निष्कर्ष:

हाल के वर्षों में भारतीय रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति देखने को मिली है, परंतु आज भी देश के रक्षा क्षेत्र में सार्वजनिक कंपनियों का ही एकाधिकार रहा है। वर्तमान में वैश्विक बाज़ार में उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाने के लिये रक्षा क्षेत्र में उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ नवोन्मेष को बढ़ावा देना बहुत ही आवश्यक है। रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित कर इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता प्राप्त हो सकती है, हालाँकि वर्तमान में COVID-19 के कारण देश के आर्थिक क्षेत्र में आई गिरावट के बीच बड़े निवेश का लक्ष्य आसान नहीं होगा।

स्रोत:  द इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

ऋण अधिस्थगन के प्रभावों के आकलन हेतु विशेष समिति

प्रिलिम्स के लिये

कोरोना वायरस महामारी से निपटने से किये गए विभिन्न उपाय

मेन्स के लिये

ऋण स्थगन के प्रभाव और इसकी आवश्यकता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वित्त मंत्रालय ने कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के मद्देनज़र घोषित छह महीने की अधिस्थगन अवधि (Moratorium Period) के दौरान ऋण पर ब्याज और उपचित ब्याज (Interest Accrued) पर ब्याज में छूट देने के आर्थिक प्रभावों का आकलन करने के लिये तीन-सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया है।

  • उपचित ब्याज (Interest Accrued) ऋण से प्राप्त होने वाली ब्याज की वह राशि होती है, जिसे अभी तक एकत्र नहीं किया गया है। 

प्रमुख बिंदु

  • भारत के पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) राजीव महर्षि की अध्यक्षता में गठित यह तीन-सदस्यीय विशेषज्ञ समिति देश की अर्थव्यवस्था और वित्तीय स्थिरता पर ऋण अधिस्थगन अवधि के दौरान ब्याज़ पर छूट देने के आर्थिक प्रभावों की समीक्षा करेगी।
  • पूर्व CAG राजीव महर्षि के अलावा इस समिति में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की मौद्रिक नीति समिति के पूर्व सदस्य रविंद्र एच. ढोलकिया और भारतीय स्टेट बैंक (SBI) तथा आईडीबीआई बैंक (IDBI Bank) के पूर्व प्रबंध निदेशक बी. श्रीराम को भी शामिल किया गया है। 
  • वित्त मंत्रालय द्वारा गठित यह समिति बैंकों तथा अन्य हितधारकों से विचार-विमर्श कर एक सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी

समिति के विचारार्थ विषय

  • भारतीय अर्थव्यवस्था और देश की वित्तीय स्थिरता पर कोरोनावायरस (COVID-19) महामारी से संबंधित ऋण स्थगन के तहत दी गई छूट के प्रभावों का आकलन करना।
  • समाज के विभिन्न वर्गों पर वित्तीय दबाव को कम करने हेतु आवश्यक उपाय अपनाने का सुझाव देना।

पृष्ठभूमि 

  • ध्यातव्य है कि कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक चुनौतियों को देखते हुए 27 मार्च, 2020 को भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने बैंकों द्वारा दिये गए ऋण के भुगतान पर 90 दिनों (1 मार्च से 31 मई तक) के अस्थायी स्थगन की घोषणा की थी, इस अवधि को बाद में 31 अगस्त तक बढ़ा दिया था।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा घोषित इस कदम का प्राथमिक उद्देश्य महामारी के दौरान उधारकर्त्ताओं को राहत प्रदान करना था, जिसके लिये इसके तहत ब्याज की राशि और मूल राशि दोनों को कवर किया गया था। 
  • ऋण स्थगन को किसी भी प्रकार से ऋण माफी के रूप में नहीं देखा जा सकता है और न ही इसके तहत ब्याज भुगतान पर कोई स्थायी छूट दी जाती है, किंतु यह तनावग्रस्त ग्राहकों को अपने खातों को गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) में परिवर्तित हुए बिना या उनके क्रेडिट स्कोर को प्रभावित किये बिना ऋण और ब्याज चुकाने के लिये अतिरिक्त समय प्रदान करता है।

ऋण स्थगन का प्रभाव

  • उधारकर्त्ताओं के लिये: देश भर में लागू किये गए लॉकडाउन के कारण देश के अधिकांश उद्योगों और व्यवसायों की आय में भारी गिरावट देखी गई थी, जिसके कारण उनके लिये ऋण का पुनर्भुगतान करना काफी मुश्किल हो गया था। इस प्रकार भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा घोषित ऋण स्थगन अवधि के कारण न केवल उधारकर्त्ताओं को राहत मिली है, बल्कि इससे बैंकों के NPA में वृद्धि की संभावना को भी कम किया गया है।
  • बैंकों के लिये: रिज़र्व बैंक द्वारा घोषित ऋण स्थगन ने कारण बैंकों और ऋण संस्थानों के नकदी प्रवाह को प्रभावित किया है, कोई RBI की घोषणा के कारण बैंकों को तकरीबन छह माह तक किसी भी प्रकार का भुगतान प्राप्त नहीं हुआ है, हालाँकि रिज़र्व बैंक ने यह घोषणा करते हुए बैंकों के लिये नकद आरक्षित अनुपात (CRR) की आवश्यकता को कम कर दिया था, जिसके कारण बैंकों को अतिरिक्त तरलता प्राप्त हुई थी।
    • प्रत्येक बैंक को अपने कुल कैश रिज़र्व का एक निश्चित हिस्सा रिज़र्व बैंक के पास रखना होता है, जिसे नकद आरक्षित अनुपात (CRR) कहा जाता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

ऋण पुनर्गठन पर कामथ समिति के सुझाव

प्रिलिम्स के लिये: 

ऋण पुनर्गठन, गैर-निष्पादित संपत्तियाँ, के. वी. कामथ समिति

मेन्स के लिये: 

भारतीय अर्थव्यवस्था पर COVID-19 का प्रभाव, COVID-19 की चुनौती से निपटने हेतु सरकार के प्रयास  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में के. वी. कामथ की अध्यक्षता में बनी एक पांच सदस्यीय विशेषज्ञ समिति ने COVID-19 महामारी के कारण आर्थिक चुनौती का सामना कर रहे कॉरपोरेट ऋणधारकों  के ऋण के एकमुश्त पुनर्गठन हेतु आवश्यक मापदंडों पर अपने सुझाव प्रस्तुत किये हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • गौरतलब है कि अगस्त 2020 में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा COVID-19 महामारी के कारण हुई आर्थिक गिरावट के चलते कॉरपोरेट  ऋणधारकों के ऋण पुनर्गठन हेतु आवश्यक मापदंड निर्धारित करने के लिये इस समिति का गठन किया गया था।
  • इस समिति को 1,500 करोड़ रुपए या इससे अधिक के ऋण वाले ऋणधारकों के ऋण पुनर्गठन के लिये वित्तीय मापदंडों हेतु क्षेत्र विशेष के आधार पर बेंचमार्क का सुझाव देने का कार्य सौंपा गया था।
  • इस पहल के तहत सिर्फ उन्हीं कर्जदारों को ऋण पुनर्गठन की सुविधा दी जाएगी जो COVID-19 महामारी के कारण प्रभावित हुए हैं, COVID-19 से पहले के डिफाॅल्ट हुए लोन को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा। 
  • कामथ समिति के अनुसार, COVID-19 महामारी के कारण व्यावसायिक क्षेत्र का 15.52 लाख करोड़ रुपए  का ऋण जोखिम में आ गया है, जबकि 22.20 लाख करोड़ रुपए का व्यावसायिक ऋण इस महामारी से पहले ही जोखिम/खतरे की श्रेणी में था।
  • समिति के अनुसार, खुदरा व्यापार, थोक व्यापार, सड़क और वस्त्र उद्योग जैसे क्षेत्रों से संबंधित कंपनियों पर COVID-19 महामारी के कारण दबाव बढ़ा है।
  •  गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ (Non Banking Financial Company-NBFC), बिजली, इस्पात, रियल एस्टेट और निर्माण जैसे क्षेत्र COVID-19 महामारी से पहले ही दबाव में चल रहे थे।

प्रस्तावित सुझाव:

  • समिति ने कुल 26 क्षेत्रों में ऋण के पुनर्गठन के लिये 5 वित्तीय अनुपातों और क्षेत्र-विशिष्ट सीमाएँ निर्धारित की हैं।
  • ये 5 वित्तीय अनुपात निम्नलिखित हैं- 
    1. समायोजित मूर्त निवल मूल्य और कुल व्यक्तिगत देयता अनुपात
    2. कुल ऋण और EBIDTA अनुपात (To­tal debt to EBIDTA Ratio)
    3. ऋण सेवा कवरेज अनुपात (Debt Service Coverage Ratio- DSCR)
    4. चालू अनुपात (Cur­rent Ra­tio)
    5. औसत ऋण सेवा कवरेज अनुपात (Average Debt Service Coverage Ratio- ADSCR)
  • RBI द्वारा बड़े पैमाने पर समिति की सभी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया है।  
  • RBI द्वारा प्रत्येक वित्तीय अनुपात के लिये क्षेत्र- विशिष्ट सीमा का निर्धारण कर लिया गया है।
  • इन मापदंडों का निर्धारण क्षेत्र विशेष पर COVID-19 महामारी के प्रभाव की गंभीरता के आधार पर किया गया है। उदाहरण के लिये- इस महामारी से सबसे गंभीर रूप से प्रभावित रियल स्टेट क्षेत्र को ऋण पुनर्गठन के लिये सर्वोच्च  EBIDTA अनुपात (स्वीकृति योग्य) प्रदान किया गया है।

क्रियान्वयन: 

  • इस योजना के तहत उन्हीं ऋणों के पुनर्गठन की अनुमति दी गई है जिन्हें 1 मार्च, 2020 तक मानकों के अनुरूप सही पाया गया था। 
  • बैंक RBI के दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखते हुए अपने बोर्ड द्वारा अनुमोदित नीतियों को प्रस्तुत करेंगे, इसके साथ ही खुदरा ऋणों के पुनर्गठन के लिये भी व्यापक दिशा निर्देश निर्धारित किये जाएंगे।
  • ऐसे मामले जिनमें एक से अधिक ऋणदाता शामिल होंगे  उनमें ऋण पुनर्गठन से पहले ‘इंटर-क्रेडिटर एग्रीमेंट’ (Inter-Creditor Agreement- ICA) पर हस्ताक्षर करना अनिवार्य होगा।
  • इस रिज़ॉल्यूशन फ्रेमवर्क को 31 दिसंबर, 2020 से पहले शुरू किया जाएगा और इसे शुरू करने की तारीख से 180 दिनों से पहले लागू किया जाएगा।
  • ऋण का पुनर्गठन बची हुई अवधि को अधिकतम दो वर्षो (अधिस्थगन के साथ या बगैर) तक बढ़ाकर किया जा सकता है साथ ही इसमें ऋण को इक्विटी में बदलने का प्रावधान भी शामिल किया जा सकता है।

ऋण न चुकाने की स्थिति में: 

  • निगरानी अवधि के दौरान ऋणधारक द्वारा किसी भी ऋणदाता (ICA में शामिल) के साथ डिफाॅल्ट की स्थिति में 30 दिन की समीक्षा अवधि शुरू हो जाएगी।
  • यदि ऋणधारक इस अवधि के अंत तक डिफाॅल्ट बना रहता है तो उस स्थिति में ऋणदाताओं द्वारा उस संपत्ति को NPA घोषित कर दिया जाएगा

अन्य प्रयास:    

बैंको द्वारा खुदरा ऋणधारकों और छोटी इकाइयों के लिये भी अलग-अलग योजनाओं पर कार्य किया जा रहा है।

रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स (India Ratings) के अनुसार, बैकों द्वारा दिये गए लगभग 2.10 लाख करोड़ के गैर-व्यावसायिक ऋण (बैंकिंग ऋण का 1.9%) के भी पुनर्गठन की संभावना है, यदि इस ऋण का पुनर्गठन नहीं किया जाता है तो ये ऋण गैर-निष्पादित संपत्तियों (Non-Performing Assets- NPA) में बदल सकते हैं।   

विभिन्न क्षेत्रों पर COVID-19 महामारी का प्रभाव:  

  • फार्मा, टेलीकॉम, आईटी, ब्रोकरेज सर्विसेज, कृषि और खाद्य प्रसंस्करण, चीनी और उर्वरक आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर COVID-19 महामारी का प्रभाव सबसे कम देखने को मिला है।
  • जबकि पर्यटन, होटल, रेस्तरां, निर्माण, अचल संपत्ति, विमानन, शिपिंग, मीडिया और मनोरंजन आदि इस महामारी से सबसे गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। 
  • COVID-19 महामारी के कारण प्रभावित हुए 15.5 लाख करोड़ के बैंक ऋण में सबसे अधिक खुदरा और थोक व्यापार से संबंधित (कुल लगभग 5.42 लाख करोड़) हैं। 
  • इसके साथ ही सड़क क्षेत्र में 1.94 लाख करोड़ रुपए और कपड़ा उद्योग में 1.89 लाख करोड़ रुपए के ऋण  प्रभावित हुए हैं। 
  • इसके अतिरिक्त COVID-19 महामारी के कारण कुछ अन्य क्षेत्र भी प्रभावित हुए हैं जिन्हें बैंकों द्वारा बड़ी मात्रा में ऋण उपलब्ध कराया गया था, इनमें इंजीनियरिंग (1.18 लाख करोड़ रुपए), पेट्रोलियम और कोयला उत्पादन (73,000 करोड़ रुपए), बंदरगाह (64,000 करोड़ रुपए), सीमेंट (57,000 करोड़ रुपए), रसायन (54,000 करोड़ रुपए) और होटल और रेस्तरां (46,000 करोड़ रुपए) आदि शामिल हैं। 

प्रभाव:  

  • पूर्व में सरकार द्वारा ऋण-पुनर्गठन की घोषणाओं (वित्तीय वर्ष 2008-11 और वित्तीय वर्ष 2013-19) के परिणामों के बाद पुनर्गठन तंत्र की प्रभावशीलता के संदर्भ में कुछ चिंताएँ व्यक्त की गई थी, क्योंकि ऋण पुनर्गठन के बाद भी इनमें से अधिकांश संपत्तियाँ NPA में बदल गई थी। 
    • गौरतलब है कि RBI द्वारा 1 अप्रैल, 2015 को ‘कॉर्पोरेट ऋण पुनर्गठन (Corporate Debt Restructuring- CDR) योजना’ को बंद कर दिया गया था, कई बड़े कॉर्पोरेट्स के प्रमोटर इसका लाभ लेकर बैंक फंड का दुरुपयोग कर रहे थे जिससे उनकी इकाइयों को नुकसान उठाना पड़ा।
    • इसके तहत कई कंपनियाँ बैंकों से एक से अधिक बार अपने ऋण का पुनर्गठन कराने में सफल रहीं थी, इनमें से कुछ वर्तमान में दिवालियापन की प्रक्रिया में हैं।
    • RBI द्वारा इसके बाद तीन अन्य ऋण पुनर्गठन योजनाओं की शुरुआत की गई परंतु इन योजनाओं को भी या तो सही से लागू नहीं किया गया या ऋणधारकों द्वारा इनका भी दुरुपयोग किया गया।   
  • हालाँकि RBI द्वारा इस बार ऋण के पुनर्गठन के लिये निर्धारित समय-सीमा और बाहरी पुनरीक्षण जैसे कई सुरक्षात्मक प्रावधान किये गए हैं परंतु इस योजना की सफलता बड़े पैमाने पर देश की अर्थव्यवस्था के सुधार पर निर्भर करेगी।
    • ध्यातव्य है कि वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में देश की अर्थव्यवस्था में लगभग 23% की गिरावट देखी गई थी।
  • रेटिंग इंडिया के अनुसार, इन ऋणों में से लगभग 53% के NPA में बदलने की संभावना अधिक है, बचे हुए 47% ऋण पर जोखिम कम है परंतु इसकी प्रगति भी COVID-19 महामारी और अर्थव्यवस्था की गति पर निर्भर करेगी।

निष्कर्ष: 

RBI द्वारा ऋण पुनर्गठन की सुविधा देने से COVID-19 के कारण आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही कंपनियों को बड़ी राहत मिलेगी। हालाँकि ऋण पुनर्गठन को एक अस्थायी समाधान के तौर पर देखा जाना चाहिये, साथ ही नियामकों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कंपनियों द्वारा ऋण पुनर्गठन के प्रावधानों का दुरुपयोग न किया जाए। 

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत-जापान लॉजिस्टिक्स समझौता

प्रिलिम्स के लिये

MLSA, LEMOA 

मेन्स के लिये

MLSAs की भारत के लिये महत्ता  

चर्चा में क्यों?

भारत और जापान ने भारत के सशस्‍त्र बलों तथा जापान के आत्‍मरक्षा बलों के मध्‍य आपूर्ति और सेवाओं के पारस्‍परिक प्रावधान (Mutual Logistics Support Arrangement- MLSA) के अनुबंध पर हस्‍ताक्षर किये हैं। इस अनुबंध पर भारत के रक्षा सचिव और जापान के राजदूत ने हस्‍ताक्षर किये।

समझौते के प्रमुख बिंदु 

  • द्विपक्षीय प्रशिक्षण गतिविधियों, संयुक्‍त राष्‍ट्र शांति स्‍थापना के ऑपरेशन, मानवतावादी अंतर्राष्‍ट्रीय राहत और पारस्‍परिक रूप से सहमत अन्‍य गतिविधियों में संलग्‍न रहते हुए आपूर्ति और सेवाओं के परस्‍पर प्रावधान से दोनों देशों के सशस्‍त्र बलों के बीच घनिष्‍ठ सहयोग के लिये एक सक्षम ढाँचे की स्‍थापना  की  जा सकेगी।
  • यह अनुबंध भारत और जापान के सशस्‍त्र बलों के बीच अंतःसक्रियता बढ़ाने के साथ-साथ दोनों देशों के मध्‍य विशेष रणनीतिक और वैश्विक भागीदारी के तहत द्विपक्षीय रक्षा गतिविधियों में वृद्धि करेगा। 
  • अनुबंध में सम्मिलित आपूर्ति और सेवाओं में भोजन, पानी, परिवहन (एयरलिफ्ट भी सम्मिलित), पेट्रोलियम, कपड़े, संचार, चिकित्सा सेवाएँ, सुविधाओं और घटकों का उपयोग एवं मरम्मत तथा रखरखाव सेवाएँ आदि सम्मिलित हैं।
  • यह समझौता 10 वर्ष तक लागू रहेगा। इसके पश्चात् 10 वर्ष की अवधि के लिये स्वचालित रूप से बढ़ा दिया जाएगा, अगर दोनों में से कोई पक्ष इसे समाप्त करने का निर्णय नहीं लेता है। 

भारत के अन्य देशों के साथ लॉजिस्टिक्स समझौते

  • भारत द्वारा अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्राँस, ओमान और सिंगापुर के साथ इसी तरह के आपूर्ति और सेवाओं के पारस्‍परिक प्रावधान के (MLSA) समझौते किये गए हैं।
  • भारत वर्ष 2016 में अमेरिका के साथ लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) में शामिल हुआ, जो भारत को जिबूती, डिएगो गार्सिया, गुआम और सुबिक की खाड़ी में पहुँच प्रदान करता है।
  • वर्ष 2018 में भारत ने फ्राँस के साथ भी इसी तरह का समझौता किया था। मेडागास्कर और जिबूती के निकट रीयूनियन द्वीप समूह में फ्रांसीसी नौसेना बेस  स्थिति के कारण यह भारतीय नौसेना को दक्षिण-पश्चिमी हिन्द महासागर क्षेत्र में पहुँच प्रदान करता है। 
  • ऑस्ट्रेलिया के साथ MLSA भारत को दक्षिणी हिंद महासागर क्षेत्र के साथ-साथ पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अपने युद्धपोतों की पहुँच बढ़ाने में मदद करेगा।

MLSAs की भारत के लिये महत्ता  

  • अगस्त 2017 में जिबूती में अपना पहला विदेशी सैन्य अड्डा बनाने के पश्चात् से ही चीन हिंद महासागर क्षेत्र में तीव्र विस्तार की रणनीति अपना रहा है। चीन की इस विस्तारवाद की रणनीति की पृष्ठभूमि में भारत के लिये इस प्रकार के समझौते महत्त्वपूर्ण हैं।
  • चीन निश्चित रूप से अपनी पनडुब्बियों और युद्धपोतों के लिये पाकिस्तान में कराची और ग्वादर बंदरगाहों तक पहुँच रखता हैं। यह कंबोडिया, वानुअतु और अन्य देशों में सैन्य बेस बनाने के लिये भी प्रयास कर रहा है ताकि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को और अधिक मज़बूत किया जा सके।
  • भारत के करीब किसी भी समय हिन्द महासागर क्षेत्र में चीन के छह से आठ युद्धपोत तैनात हैं। अपने नौसैनिक बलों का आधुनिकीकरण करते हुए चीन ने लंबी दूरी की परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों और एंटी-शिप क्रूज़ मिसाइलों से लेकर पनडुब्बियों तथा विमानवाहक पोतों तक पिछले छह वर्षों में 80 से अधिक युद्धपोतों का संचालन किया है।

आगे की राह  

  • समुद्री क्षेत्र में सहयोग दोनों देशों के लिये फोकस का एक प्रमुख क्षेत्र रहा है। इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में मैरीटाइम डोमेन अवेयरनेस (MDA) को बढ़ाने के लिये दोनों देशों ने भारतीय नौसेना और जापान मैरीटाइम सेल्फ-डिफेंस फोर्स (JMSDF) के बीच गहन सहयोग के लिये कार्यान्वयन व्यवस्था पर हस्ताक्षर किये हैं।  
  • विदेशी नौसेनाओं के साथ अधिक बातचीत और अभ्यास करने के कारण लॉजिस्टिक्स  समझौतों का सर्वाधिक लाभ नौसेना को होता है। उच्च सागरों पर काम करते समय या मानवीय सहायता मिशन के दौरान ईंधन, भोजन और अन्य आवश्यकताओं का आदान-प्रदान किया जा सकता है।

स्रोत: पीआईबी, द हिंदु


शासन व्यवस्था

सिगरेट बट्स के निस्तारण हेतु दिशा निर्देशों की मांग

प्रिलिम्स के लिये:  

एम-सेसेशन, विश्व तंबाकू निषेध दिवस

मेन्स के लिये:

तंबाकू सेवन और स्वास्थ्य पर इसके दुष्प्रभाव, तंबाकू सेवन को नियंत्रित करने के लिये सरकार के प्रयास 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (National Green Tribunal - NGT) ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board- CPCB) को अगले तीन महीनों के अंदर बीड़ी और सिगरेट के बचे हुए टुकड़ों [ठूंठ या बट (Butt)] के निस्तारण हेतु दिशा निर्देश जारी करने का निर्देश दिया है। 

प्रमुख बिंदु:

  • NGT का यह निर्देश ‘डॉक्टर फॉर यू’ नामक एक गैर-सरकारी संगठन (Non-Governmental Organisation- NGO) द्वारा दाखिल याचिका की सुनवाई के बाद आया है। 
  • इस संगठन ने सार्वजनिक स्थानों पर तंबाकू के सेवन को प्रतिबंधित करने के साथ सिगरेट और बीड़ी के बचे हुए टुकड़ों के निस्तारण को विनियमित करने के लिये दिशा-निर्देशों के निर्धारण की मांग की थी।
  • इससे पहले ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ ने कहा था कि ‘सिगरेट बट’ खतरनाक वस्तु  के रूप में सूचीबद्ध नहीं हैं, हालाँकि ‘केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय’ का मानना है कि यह बायोडिग्रेडेबल (Biodegradable) नहीं हैं।

 केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट:

  • इस संदर्भ में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा 20 अगस्त, 2020 को प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, अध्ययन के आधार पर पता चलता है कि सिगरेट बट में उपस्थित रसायनों की सांद्रता मानव और पर्यावरण के लिये विषाक्त नहीं है।
  • गौरतलब है कि रैपिंग पेपर और रेयॉन के अतिरिक्त सलूलोज़ एसीटेट (Cellulose acetate) सिगरेट बट (95%) का एक प्रमुख घटक है।
  • आमतौर पर सलूलोज़ एसीटेट की विषाक्तता से जुड़े आँकड़े या डेटा उपलब्ध नहीं होते हैं परंतु इसके अवक्रमण के अध्ययनों से पता चलता है कि यह लंबी अवधि तक बना रह सकता है।
  • भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Toxicology Research- IITR) के एक अध्ययन के अनुसार, सिगरेट बट की सुरक्षा और विषाक्तता का सटीक अनुमान लगाने के लिये और शोध की आवश्यकता होगी, जिससे पर्यावरण और मनुष्यों के स्वास्थ्य पर इसके खतरों का पता लगाया जा सके।

सुझाव: 

  • रिपोर्ट के अनुसार, जबतक सिगरेट बट के अवक्रमण और सुरक्षा से जुड़ा सटीक डेटा नहीं उपलब्ध होता है, तब तक सिगरेट बट्स या बचे हुए टुकड़ों को एकत्र कर सेलूलोज़ एसीटेट के पुनर्चक्रण को इस समस्या के तात्कालिक समाधान के रूप में अपनाया जा सकता है। 
  • NCT की पीठ ने कहा कि सार्वजनिक स्थलों पर तंबाकू उत्पादों के थूकने और बीड़ी तथा सिगरेट के फेंके गए टुकड़ों के दुष्प्रभाव के अध्ययन के लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक अंतर-मंत्रालयी या अंतर-विभागीय समिति का गठन किया जाना चाहिये।

तंबाकू सेवन पर नियंत्रण हेतु सरकार और अन्य संस्थाओं प्रयास:

  • गौरतलब है कि प्रत्येक वर्ष 31 मई को ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (World Health Organisation- WHO) और वैश्विक स्तर पर इसके अन्य सहयोगियों  द्वारा विश्व तंबाकू निषेध दिवस (World No Tobacco Day-WNTD) मनाया जाता है। 
    • इसका उद्देश्य लोगों को तंबाकू के दुष्प्रभावों के बारे में जागरूक करना और तंबाकू के सेवन में कमी लाना है।
    • वर्ष 2020 में विश्व तंबाकू निषेध दिवस का विषय ‘युवाओं को उद्योग के हेरफेर से बचाना और उन्हें तंबाकू और निकोटीन के उपयोग से रोकना’ था।
  • तंबाकू नियंत्रण पर विश्व स्वास्थ्य संगठन फ्रेमवर्क कन्वेंशन: भारत सरकार द्वारा वर्ष 2004 में तंबाकू नियंत्रण पर विश्व स्वास्थ्य संगठन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (World Health Organization Framework Convention on Tobacco Control - WHO FCTC) को अपनाया गया है।
  • भारत सरकार द्वारा वर्ष 2016 में डिजिटल इंडिया पहल के तहत एम-सेसेशन (mCessation) कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी। 
    • एम-सेसेशन, तंबाकू छोड़ने के लिये मोबाइल प्रौद्योगिकी पर आधारित एक पहल है।
    • इसमें यह तंबाकू सेवन को छोड़ने के इच्छुक व्यक्ति और कार्यक्रम से जुड़े विशेषज्ञों के बीच दो-तरफा मैसेजिंग का उपयोग किया जाता है, और लोगों को व्यापक सहयोग प्रदान किया जाता है। 
  • भारत सरकार द्वारा मई 2003 में राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कानून पारित किया गया था।
    • इसका पूरा नाम सिगरेट तथा अन्य तम्बाकू उत्पादों (विज्ञापनों का निषेध और व्यापार व वाणिज्य, उत्पादन, आपूर्ति और वितरण का विनियमन) अधिनियम, 2003 है।
  • राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम (National Tobacco Control Programme- NTCP):  
    • केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा वर्ष 2007-08 में राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी।
    • इसका उद्देश्य तंबाकू  के उपयोग के नुकसानदायक प्रभावों और तंबाकू नियंत्रण कानून के बारे में व्यापक जागरूकता उत्पन्न करना तथा तंबाकू नियंत्रण कानून को प्रभावी ढंग से लागू करना है।

स्रोत:  द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

राष्ट्रीय वन नीति, 1988 की समीक्षा

प्रिलिम्स के लिये

राष्ट्रीय वन नीति-1988, भारत वन स्थिति रिपोर्ट, भारतीय वन सर्वेक्षण

मेन्स के लिये

वर्तमान समय में राष्ट्रीय वन नीति, 1988 की प्रासंगिकता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वन महानिदेशक ने राष्ट्रीय वन नीति, 1988 (National Forest Policy, 1988) में संशोधन की सिफारिश की है।

प्रमुख बिंदु:  

  • ये सिफारिशें वर्ष 2016 में प्रकाशित ‘नेचुरल रिसोर्स फोरम’ (Natural Resources Forum) के एक शोध पत्र पर आधारित हैं।
    • ‘नेचुरल रिसोर्स फोरम’ एक संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास जर्नल (United Nations Sustainable Development Journal) है जो प्रमाणन के आधार पर सतत् वन प्रबंधन एवं पुनर्स्थापना, संरक्षण व उत्पादन की विशेषता वाली नीति का समर्थन करता है।
  • आँकड़ों की अनुपलब्धता: लकड़ी के बढ़ते स्टॉक, खपत एवं उत्पादन से संबंधित विश्वसनीय आँकड़ों की कमी है जो लकड़ी की आपूर्ति एवं मांग के अनुमानों को बाधित करता है।
  • वनों से बाहर के पेड़ों (Trees Outside Forests- TOFs) पर ध्यान देना:  वनों से बाहर के पेड़ों (TOFs) से लकड़ी उत्पादन की संभावना यानी पेड़ों को सरकारी रिकॉर्डेड फॉरेस्ट एरिया (Recorded Forest Areas- RFAs) के बाहर उगाया जाना चाहिये और उनका दोहन किया जाना चाहिये।
    • ‘रिकॉर्डेड फॉरेस्ट एरिया’ (RFA) सरकारी अभिलेख में वन के रूप में दर्ज सभी भौगोलिक क्षेत्रों को संदर्भित करता है। इसमें आरक्षित वन (Reserved Forests) और संरक्षित वन (Protected Forests) शामिल हैं जिन्हें भारतीय वन अधिनियम, 1927 के प्रावधानों के तहत गठित किया गया है।
    • वर्ष 2011 की ‘भारत वन स्थिति रिपोर्ट’ के अनुसार, सरकारी वनों से लकड़ी का उत्पादन 3.17 मिलियन घन मीटर और TOFs से संभावित लकड़ी उत्पादन 42.77 मिलियन घन मीटर है। 
  • गोडावर्मन केस, 1996 (Godavarman Case, 1996) में उच्चतम न्यायालय ने वन क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी जिससे लकड़ी के घरेलू उत्पादन में कमी आई है।
  • उत्पादन वानिकी द्वारा TOF एवं RFAs से वन उत्पादकता में सतत वृद्धि पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • RFA वाले राज्यों के माध्यम से लकड़ी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये कार्य योजनाओं को तैयार किया जाना चाहिये और वृक्षारोपण के लिये वनों के 10% क्षेत्र का सीमांकन करना चाहिये।
  • TOF के लिये एक संतुलित राष्ट्रव्यापी नीति विकसित की जानी चाहिये।

लाभ:

  • लकड़ी के उत्पादन में वृद्धि से कार्बन अधिग्रहण को भी समर्थन मिलेगा साथ ही जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में मदद मिलेगी।
  • TOF से इमारती लकड़ी का उत्पादन ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर सकता है।

आयात-निर्यात नीति की समीक्षा: चूँकि घरेलू लकड़ी के उत्पादन में गिरावट आई है और आयात कई गुना बढ़ गया है इसलिये निर्यात-आयात नीति की समीक्षा करने की आवश्यकता है।

  • बढ़ती आबादी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के कारण लकड़ी की घरेलू मांग बढ़ी है। आयात पर निर्भरता व्यवहार्य नहीं है क्योंकि दुनिया भर के निर्यातक एक संरक्षण-आधारित दृष्टिकोण का अनुसरण कर रहे हैं।
  • निर्यात-आयात नीति की समीक्षा बाज़ार में मूल्य निर्धारण को सुधारने के लिये की जानी चाहिये ताकि यह खेती हेतु वृक्षों को उगाने के लिये आर्थिक रूप से व्यवहार्य हो।
    • निर्यात-आयात नीति या एक्जिम पॉलिसी (Exim Policy) के रूप में बेहतर माल एवं वस्तुओं के आयात एवं निर्यात से संबंधित दिशा-निर्देशों का एक सेट है। भारत सरकार ने विदेशी व्यापार (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1992 के तहत पाँच वर्षों के लिये एक्जिम नीति को अधिसूचित किया है।

भारतीय वन नीति में संशोधन: 

  • इन सिफारिशों में कागज ने घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये भारतीय वन नीति को संशोधित करने पर ज़ोर दिया गया है। 
  • संरक्षण नीतियों द्वारा पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने पर तथा संरक्षित क्षेत्र प्रबंधन के माध्यम से जैव विविधता में सुधार पर ध्यान देना चाहिये।
  • पुनर्निमाणकारी नीतियों में पुनर्वितरण, पुनर्वास एवं निम्नीकृत परिदृश्य एवं बंजर भूमि के उत्थान को लक्षित किया जाना चाहिये।

पृष्ठभूमि:

  • वर्तमान में भारत में राष्ट्रीय वन नीति, 1988 लागू है। जिसके केंद्र में पर्यावरण संतुलन एवं आजीविका है।

इस नीति की मुख्य विशेषताएँ एवं लक्ष्य: 

  • पारिस्थितिकी संतुलन के संरक्षण एवं पुनर्निमाण के माध्यम से पर्यावरण स्थिरता का रखरखाव करना।
  • मौजूदा प्राकृतिक विरासत का संरक्षण करना।
  • नदियों, झीलों एवं जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्रों में मिट्टी के अपरदन एवं अनाच्छादन की जाँच करना।
  • राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों एवं तटीय इलाकों में रेत के टीलों के विस्तार की जाँच करना।
  • वनों की कटाई एवं सामाजिक वानिकी के माध्यम से वन/ वृक्ष क्षेत्र को लगातार बढ़ाना।
  • ईंधन, लकड़ी, चारा, लघु वन उत्पाद, मिट्टी एवं ग्रामीण व आदिवासी आबादी की लकड़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये कदम उठाना।
  • राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये वनों की उत्पादकता बढ़ाना।
  • वन उपज के कुशल उपयोग और लकड़ी के इष्टतम उपयोग को प्रोत्साहित करना।
  • रोज़गार के अवसर पैदा करना और महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना।

आलोचना: 

  • इस वन नीति को लंबे समय से अपडेट नहीं किया गया है जबकि वनों एवं जलवायु की स्थिति में काफी बदलाव आया है।
  • वनों एवं वन प्रबंधन के संबंध में प्रमुख नीतियाँ या तो है ही नहीं या विलंबित हैं या उनको पुराने तरीके पर ही छोड़ दिया गया हैं। उदाहरण के लिये वर्तमान में ‘वन’ की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया गया हो जबकि राज्यों को वनों की अपनी परिभाषा निर्धारित करने के लिये अधिकार दिया गया है।

गौरतलब है कि एक मसौदा राष्ट्रीय वन नीति 2018 में जारी की गई थी। इस मसौदे का मुख्य ज़ोर आदिवासियों एवं वन-आश्रित लोगों के हितों की सुरक्षा के साथ-साथ वनों का संरक्षण, सुरक्षा एवं प्रबंधन पर है।

भारतीय वनों से संबंधित अन्य विधान:

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

PEDA द्वारा पराली का प्रबंधन

प्रिलिम्स के लिये: 

बायोमास ऊर्जा, बायो-सीएनजी, बायो-एथेनॉल 

मेन्स के लिये: 

पराली अपशिष्ट प्रबंधन के विकल्प 

चर्चा में क्यों?

पराली जलाने की समस्या पंजाब सरकार को लंबे समय से परेशान कर रही है। पंजाब सरकार की ‘पंजाब एनर्जी डवलपमेंट एजेंसी’ (PEDA) विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के साथ मिलकर पराली उपयोग के लिये विकल्पों की तलाश कर इस समस्या को हल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। 

प्रमुख बिंदु:

बायोमास बिजली संयंत्रों की स्थापना 

  • विगत तीन दशकों से नवीकरणीय ऊर्जा के संवर्द्धन और विकास की दिशा में राज्य नोडल एजेंसी के रूप में PEDA ने 11 बायोमास बिजली संयंत्र स्थापित किये हैं, जिनके माध्यम से  97.50 मेगावाट (MW) बिजली उत्पन्न की जा रही है।
  • इन संयंत्रों में 8.80 लाख मीट्रिक टन धान की पराली (पंजाब में उत्पन्न कुल 20 मिलियन टन धान की पराली का 5 प्रतिशत से भी कम) का उपयोग वार्षिक रूप से बिजली उत्पन्न करने में किया जाता है। इनमें से अधिकांश संयंत्र 4-18 मेगावाट के हैं, जो वार्षिक रूप से 36,000 से 1,62,000 मीट्रिक टन अपशिष्ट का उपयोग कर रहे हैं।
  • 14 मेगावाट क्षमता वाली दो बायोमास विद्युत परियोजनाएँ जून 2021 से क्रियान्वित किये जाने की प्रक्रिया में है। इन्हें प्रतिवर्ष 1.26 लाख मीट्रिक टन धान की पराली की आवश्यकता होगी। 
  • अपेक्षाकृत कम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधन को प्रतिस्थापित करने के कारण ये परियोजनाएँ पर्यावरण के अनुकूल हैं।

बायोमास बिजली संयत्रों  के अलावा अन्य प्रयास

  • बायोमास परियोजनाओं के अलावा, जैव-सीएनजी (BIO-CNG) की आठ परियोजनाएँ राज्य में क्रियान्वित किये जाने की प्रक्रिया में हैं। इन परियोजनाओं में से अधिकांश वर्ष 2021-22 में शुरू की जाएंगी। इनको वार्षिक रूप से लगभग 3 लाख मीट्रिक टन धान की पराली की आवश्यकता होगी।
  • स्टार्ट-अप की अवधारणा के तहत पंजाब में धान की पराली का उपयोग करने की बहुत संभावनाएँ है। PEDA भारत की सबसे बड़ी सीएनजी परियोजना स्थापित करने जा रही है, जो प्रतिदिन 8,000 मीटर क्यूब बायोगैस (33.23 टन जैव-सीएनजी के बराबर) का उत्पादन करेगी। संगरूर ज़िले  की लेहरगागा तहसील में परियोजना का काम चल रहा है। मार्च 2021 तक इस परियोजना के शुरू होने के पश्चात् परियोजना के लिये प्रति वर्ष 1.10 लाख मीट्रिक टन धान की पराली की आवश्यकता होगी।
  • बठिंडा के तलवंडी साबो में स्थित 100 KL (किलो लीटर) की एक बायो-एथेनॉल परियोजना के लिये वार्षिक रूप से 2 लाख मीट्रिक टन धान की पराली की आवश्यकता होगी। वर्तमान में इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (ICT), मुंबई के साथ तकनीकी मुद्दों की वजह से HPCL द्वारा इसे रोका गया है।
  • इन सभी परियोजनाओं के शुरू होने के पश्चात् पंजाब 1.5 मिलियन टन पराली (कुल पराली उत्पादन का लगभग 7 प्रतिशत) का उपयोग करने में सक्षम होगा। डीज़ल और पेट्रोल के सम्मिश्रण के पश्चात् वाहनों में इथेनॉल का उपयोग किया जा सकता है।
  • प्लाई और पेंट उद्योग में भी पराली के उपयोग की बहुत संभावनाएँ है। पराली को जलाने की बजाय उद्योगों में बेचने से किसानों को बहुत लाभ हो सकता है। मृदा की उपजाऊ परत को संरक्षित करने और पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं के लिये रोज़गार के अवसर सृजित करना आदि इसके अन्य लाभ हैं।

बायोमास ऊर्जा

  • बायोमास ऊर्जा जीवित या मृतजीवों/वनस्पतियों से उत्पन्न ऊर्जा है। ऊर्जा के लिये  उपयोग की जाने वाली सबसे आम बायोमास सामग्री पौधे हैं। 
  • बायोमास को जलाकर या बिजली में परिवर्तित कर ऊष्मा/ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

जैव-सीएनजी 

  • जैव-सीएनजी में लगभग 92-98% मीथेन और केवल 2-8% कार्बन डाइऑक्साइड होती है। जैव-सीएनजी का कैलोरी मान बायोगैस की तुलना में 167% अधिक है। 
  • कम उत्सर्जन के कारण अधिक पर्यावरण अनुकूल होने से ऑटोमोबाइल और बिजली उत्पादन के लिये सीएनजी एक आदर्श ईंधन है। 
  • देश में बायोमास की प्रचुरता को देखते हुए आगामी वर्षों में ऑटोमोटिव, औद्योगिक और वाणिज्यिक उपयोगों में जैव-सीएनजी को बायोगैस से प्रतिस्थापित किया जा सकता  है। 

बायो-एथेनॉल

  • यह बायोमास से उत्पन्न इथेनॉल है जिसे सामान्यतः बायो-एथेनॉल के रूप में जाना जाता है। बायो-एथेनॉल रासायनिक रूप से व्युत्पन्न एथेनॉल के समान है।
  • बायो-एथेनॉल के सामान्य फीडस्टॉक्स में मक्का , स्विचग्रास, गन्ना, शैवाल और अन्य बायोमास शामिल हैं।
  • इसे नवीकरणीय और पर्यावरण अनुकूल ईंधन के  रूप में परिवहन में उपयोग किया जा सकता है।

आगे की राह:

  • इन संयंत्रों में पराली का वर्तमान उपयोग पराली के कुल उत्पादन की तुलना में बहुत कम है। इसमें वृद्धि करने के लिये राज्य को पराली आधारित उद्योग स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिये बड़े व्यापारियों, NRIs, युवा इंजीनियरों और विज्ञान प्रौद्योगिकी में स्नातकों को स्टार्ट-अप्स की स्थापना के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। इसके लिये सरकार ऋण और बाज़ार प्रदान कर मदद कर सकती है। 
  • पंजाब में लगभग 13,000 गाँव और लगभग 150 ब्लॉक हैं। किसी ब्लॉक के अपशिष्ट प्रबंधन के लिये ब्लॉक-स्तर पर पराली आधारित परियोजनाएँ स्थापित की जा सकती हैं। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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