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जैव विविधता और पर्यावरण

संरक्षण प्रयासों हेतु सही नीति

  • 17 Nov 2018
  • 11 min read

संदर्भ

हाल ही में महाराष्ट्र के यवतमाल ज़िले में नरभक्षी बाघिन अवनि को मार दिया गया। माना जाता है कि इस बाघिन ने पिछले दो सालों में लगभग 13-14 लोगों की जान ली थी। इस बाघिन के नरभक्षी होने के बावजूद इसकी हत्या का विरोध भी किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि अवनि को अधिकारिक रूप से टी-1 के नाम से जाना जाता था। दरअसल, यह घटनाक्रम वन्यजीवों के संरक्षण हेतु प्रयासों की सच्ची तश्वीर पेश करता है। यह कोई अद्वितीय या नई घटना नहीं है, बल्कि मानव-वन्यजीव संघर्ष भारत में स्थानिक है। इसे आमतौर पर विकास गतिविधि की नकारात्मकता और प्राकृतिक आवासों में गिरावट के रूप में चित्रित किया जा सकता है।

मानव-वन्यजीव संघर्ष (man-animal conflict) के कारण

  • हालाँकि, इस तथ्य में कुछ सच्चाई है लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है, बल्कि यह अत्यधिक जटिल है। दरअसल, आर्थिक बदहाली और खराब डिज़ाइन नीति द्वारा निर्देशित संरक्षण प्रयासों के कारण मनुष्य अक्सर वन्यजीवों के प्रहारों से पीड़ित होते हैं।
  • पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2009 तक 300 मिलियन से अधिक लोग वन पारिस्थितिक तंत्र पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर थे।
  • इसमें देश की सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे कमज़ोर आबादी का एक बड़ा हिस्सा शामिल है, यानी 67.7 मिलियन जनजातीय आबादी।
  • उनकी निर्भरता जंगलों पर पशुधन चराई, ईंधन की लकड़ी तथा गैर-लकड़ी जैसे वन उत्पादों के कारण है।
  • इसके अतिरिक्त भारत के वनों और इसकी जैव विविधता की रक्षा करने हेतु समर्पित प्राथमिक माध्यम यानी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 अपने संरक्षण कार्यों में असफल रहा है।

वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 क्या है?

  • भारत सरकार ने देश के वन्य जीवन की रक्षा करने और प्रभावी ढंग से अवैध शिकार, तस्करी और वन्यजीव तथा उसके व्युत्पन्न के अवैध व्यापार को नियंत्रित करने के उद्देश्य से वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम [wildlife (protection) act], 1972 लागू किया।
  • इस अधिनियम को जनवरी 2003 में संशोधित किया गया था और कानून के तहत अपराधों के लिये सज़ा एवं जुर्माने और अधिक कठोर बना दिया गया।
  • मंत्रालय ने अधिनियम को मज़बूत बनाने के लिये कानून में संशोधन करके और अधिक कठोर उपायों को शुरू करने का प्रस्ताव किया है।
  • इसका उद्देश्य सूचीबद्ध लुप्तप्राय वनस्पतियों और जीव एवं पर्यावरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरक्षित क्षेत्रों को सुरक्षा प्रदान करना है।

चुनौतियाँ

  • दरअसल, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम द्वारा स्थापित संरक्षण का मॉडल दुर्लभ प्रजातियों की सुरक्षा के लिये मानव मुक्त क्षेत्रों को बनाने पर आधारित है।
  • निश्चित रूप से यह कुछ प्रजातियों की रक्षा करने में सफल रहा है लेकिन इस तरह से मानव मुक्त क्षेत्रों के निर्माण का दृष्टिकोण उन देशों के लिये बेहतर है जो कम घनी आबादी और अधिक विकसित गैर-ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाले देश हैं।
  • भारत में इस प्रकार के बफर ज़ोनों के आस-पास के क्षेत्रों में स्थानान्तरण से लोगों के आर्थिक अधिकारों के साथ समझौता करने में सक्षम बनाया है।
  • उल्लेखनीय है कि वर्तमान सरकार की वन्यजीव कार्य-योजना मसौदे के रूप में वर्ष 2017-2031 की अवधि में वन्यजीव संरक्षण को दिशा-निर्देश करने के लिये स्थानीय आबादी का समर्थन प्राप्त करना इसकी सफलता हेतु आवश्यक है।
  • हालाँकि, यह वन्यजीवों के संरक्षण हेतु मानव-मुक्त क्षेत्रों का निर्माण किये जाने के समर्थन की संभावना को कम करता है और समर्थन की अनुपस्थिति में स्थानीय आबादी राज्य के संरक्षण प्रयासों के मार्ग में बाधा खड़ी कर सकती है। उदाहरण के लिये, हाल ही में उत्तर प्रदेश के दुधवा टाइगर रिज़र्व क्षेत्र में ग्रामीणों ने एक स्थानीय व्यक्ति के गंभीर रूप से घायल होने के बाद एक ट्रैक्टर से एक बाघ को कुचल दिया।
  • इस घटनाक्रम ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत मानव-मुक्त क्षेत्र के निर्माण के दृष्टिकोण को आघात पहुँचाया है कि जो स्थानीय लोगों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से पहचानकर, उन्हें प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और संरक्षण करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

वन अधिकार अधिनियम, 2006

  • इस अधिनियम में न केवल आजीविका के लिये  स्‍व–कृषि या निवास का अधिकार का प्रावधान है बल्कि यह वन संसाधनों पर उनका नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिये कई अन्‍य अधिकार भी देता है।
  • इनमें स्‍वामित्‍व का अधिकार, संग्रह तक पहुँच, लघु वन उपज का उपयोग व निपटान जैसे सामुदायिक अधिकार; आदिम जनजातीय समूहों के लिये निवास के अधिकार; ऐसे सामुदायिक वन संसाधन जिसकी वे ठोस उपयोग के लिये पारंपरिक रूप से उनकी सुरक्षा या संरक्षण करते रहे हैं, विरोध, पुनर्निर्माण या संरक्षण या प्रबंधन का अधिकार शामिल है। 
  • इस अधिनियम में ग्राम सभाओं की अनुशंसा के साथ विद्यालयों, चिकित्‍सालयों, उचित दर की दुकानों, बिजली तथा दूरसंचार लाइनों, पानी की टंकियों आदि जैसे सरकार द्वारा प्रबंधित जन उपयोग सुविधाओं के लिये वन जीवन के उपयोग का भी प्रावधान है।
  • अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वन क्षेत्र के निवासियों को (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम 2006 की धारा 3 (1)(H) के तहत वन्य गाँव, पुराने आबादी वाले क्षेत्रों, बिना सर्वेक्षण वाले गाँव तथा वन क्षेत्र के अन्य गाँव, भले ही वे राजस्व गाँव के रूप में अधिसूचित हों या नहीं, के स्थापन एवं परिवर्तन का अधिकार यहाँ प्राप्त है।

पर्यावरण बहस बनाम अधिक पारंपरिक विकास

  • यदि पर्यावरण बहस बनाम अधिक पारंपरिक विकास पर विचार करें तो विकासात्मक गतिविधियों के दौरान पर्यावरणीय अतिवादी किसी मज़बूत सुरक्षा उपायों को अपनाने पर बल देते हैं।
  • हालाँकि, भारत का वर्तमान पर्यावरण संरक्षण ढाँचा अपने संरक्षण प्रयासों से भटक चुका है और साथ ही पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया एक रबर स्टैंप से थोड़ा ही अधिक है।
  • यह देखते हुए वन अधिकार अधिनियम (FRA) गैर-वानिकी प्रयोजनों हेतु उन्हें वन भूमि से हटाने के लिये स्थानीय निवासियों और प्रभावित ग्राम सभा की सहमति बनाने में यह एक उपयोगी जाँच साबित हो सकती है।
  • उल्लेखनीय है कि कई संरक्षणविदों की राय में FRA वनवासियों को वन और वन्यजीव संरक्षण प्रयासों के आधार पर सशक्त बनाता है तो वहीं दूसरी तरफ, केंद्र और राज्य सरकारों को कई मामलों में इस अधिनियम ने परियोजनाओं के कार्यान्वयन की दृष्टि से से कमज़ोर कर दिया है क्योंकि परियोजनाओं को बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने के मामले में यह असुविधाजनक है।
  • दरअसल, पर्यावरणवादी विभिन्न विकासात्मक परियोजनाओं को FRA के आधार पर रोकने का प्रयास करते हैं।

आगे की राह

  • विकास की अवधारणा एक सापेक्षिक अवधारणा है। ज्ञातव्य है कि मानव जाति के जीवन स्तर में गुणात्मक परिवर्तन ही सही मायने में विकास है और मानव जाति, पर्यावरण के जैवमंडल का अटूट हिस्सा है अर्थात् दोनों सह-संबंधित हैं। किंतु हम समृद्धि के लिये अपना भविष्य प्रदूषित नहीं कर सकते हैं।
  • उल्लेखनीय है कि वर्ष 1991 के अपने केंद्रीय बजट भाषण में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि, "हम समृद्धि के लिये वनों का विनाश नहीं कर सकते हैं और हम समृद्धि के लिये अपना रास्ता प्रदूषित नहीं कर सकते हैं"।
  • उपर्युक्त वक्तव्य देश में विकास के नाम पर पर्यावरण की कुर्बानी की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता है लेकिन तीन दशकों के बाद भी भारत के पास सही नीति और नियामक नहीं है।
  • अतः आवश्यकता है कि सामूहिक प्रयासों के माध्यम से विकास और पर्यावरण संरक्षण गतिविधियों में ताल-मेल बिठाया जाए तथा पर्यावरण और वन्यजीवों के संरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे को किसी भी राजनैतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाए।
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