भारतीय राजव्यवस्था
राष्ट्रीय न्यायिक नीति और NJAC की मांग
प्रिलिम्स के लिये: भारत के मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, कॉलेजियम प्रणाली
मेन्स के लिये: उच्च न्यायपालिका के लिये नियुक्ति प्रक्रिया: कॉलेजियम प्रणाली बनाम NJAC, न्यायिक नीति।
चर्चा में क्यों?
भारत के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने न्यायालयों में मतभेद को कम करने के लिये एक राष्ट्रीय न्यायिक नीति बनाने का आह्वान किया और यह भी कहा कि कॉलेजियम प्रणाली को चुनौती देने वाले और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को फिर से शुरू करने की मांग करने वाले एक याचिका पर विचार करेंगे।
राष्ट्रीय न्यायिक नीति की क्या आवश्यकता है?
- भिन्न निर्णयों का समाधान: विभिन्न उच्च न्यायालय और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय की पीठें भी अक्सर प्रमुख मुद्दों (जमानत, आरक्षण) पर परस्पर विरोधी निर्णय सुनाती हैं, जिससे कानूनी अनिश्चितता उत्पन्न होती है और फोरम शॉपिंग (अधिक अनुकूल परिणाम प्राप्त करने के लिये अनुकूल न्यायालय का चयन करना) को बढ़ावा मिलता है।
- एक एकीकृत नीति समान मानकों को सुनिश्चित करेगी, मिसालों के अधिक प्रभावी उपयोग को संभव बनाएगी तथा सुसंगत संवैधानिक व्याख्या के माध्यम से स्पष्टता और जनता का विश्वास दोनों बढ़ाएगी।
- न्याय तक पहुँच के अंतर को कम करना: लंबित मामलों की भारी संख्या (5 करोड़ से अधिक), सुनवाई में बहुत ज़्यादा समय लगना, मुकदमेबाज़ी की उच्च लागत, दूरी अधिक होने के कारण कोर्ट तक न पहुँच पाना और भाषा संबंधी बाधाएँ, विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले समूहों के लिये समय पर सुलभ और किफायती न्याय में बाधा डालती हैं।
- एक राष्ट्रीय न्यायिक नीति एकसमान मानकों को बढ़ावा देकर लागत, दूरी, सुनवाई में देरी तथा भाषाई बाधाओं से उत्पन्न बाधाओं को कम कर सकती है।
- संरचनात्मक अंतरालों को दूर करना: भारत न्याय रिपोर्ट 2025 से पता चलता है कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लगभग 33% पद रिक्त हैं, जिससे भारत में प्रत्येक 18.7 लाख लोगों पर केवल एक उच्च न्यायालय न्यायाधीश रह गया है, जिससे पहले से ही अत्यधिक दबाव में चल रही न्यायपालिका पर और अधिक बोझ पड़ रहा है।
- ज़िला न्यायालयों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे: अदालत कक्षों में अत्यधिक भीड़, खराब या अपर्याप्त आईटी सिस्टम, अग्नि सुरक्षा की कमी, पर्याप्त फर्नीचर का न होना और कर्मचारियों के लिये कुशल सुविधाओं का अभाव।
- एक राष्ट्रीय न्यायिक नीति न्यायपालिका के सभी स्तरों पर व्यवस्थित क्षमता निर्माण का मार्गदर्शन कर सकती है।
- प्रौद्योगिकी और केस प्रबंधन का मानकीकरण: ई-फाइलिंग, वर्चुअल सुनवाई और डिजिटल केस प्रबंधन को अपनाना न्यायालयों में व्यापक रूप से भिन्न होता है, जिससे असमान पहुँच और असंगत उपयोगकर्त्ता अनुभव होता है, एक सामान्य नीति सभी न्यायालयों में एक समान, नागरिक-अनुकूल अनुभव सुनिश्चित करती है।
- न्यायिक सद्भाव को बढ़ावा देना: एक एकीकृत ढाँचा सभी न्यायालयों को उनकी स्वतंत्रता संरक्षित करते हुए समान संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने में मदद करता है, जिससे न्याय प्रणाली में सामंजस्य स्थापित होता है।
राष्ट्रीय न्यायिक नीति से संबंधित चिंताएँ क्या हैं?
- राज्यों के बीच असमानताओं की चुनौती: न्यायपालिका में राज्यों के स्तर पर मामलों की संख्या, बुनियादी ढाँचे, डिजिटल तैयारी और मानव संसाधन में बड़े अंतर मौज़ूद हैं। ऐसे में एक समान राष्ट्रीय नियम या वन-साइज़-फिट्स-ऑल मॉडल इन विविध न्यायिक परिस्थितियों के लिये प्रभावी साबित नहीं हो सकता।
- कार्यपालिका के प्रभाव का जोखिम: यदि नीति प्रक्रिया में कार्यपालिका शामिल है तो इससे शक्तियों के पृथक्करण और न्यायिक स्वतंत्रता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
- कार्यान्वयन क्षमता अंतराल: कई न्यायालयों में कर्मचारियों, निधियों, डिजिटल उपकरणों और बुनियादी ढाँचे की कमी है, जिससे देश भर में एक समान मानकों को लागू करना मुश्किल हो जाता है।
- उच्च न्यायालयों का प्रतिरोध: अनुच्छेद 214-226 के तहत उच्च न्यायालय अपनी प्रक्रियाओं, रोस्टरों और प्रशासनिक प्रथाओं को स्वयं नियंत्रित करते हैं। एकरूपता को संस्थागत प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है।
- न्यायिक आँकड़ों की समस्या: कई राज्यों के न्यायालयों में वास्तविक समय (Real-time) के मामलों की संख्या (Case-flow), लंबित मामले और न्यायालयों के प्रदर्शन से संबंधित सटीक आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। डेटा की इसी कमी के कारण ठोस सबूतों पर आधारित कोई भी नीति बनाना मुश्किल हो जाता है।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) क्या है?
- NJAC: NJAC को 99वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली को प्रतिस्थापित करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
- NJAC प्रणाली के तहत, राष्ट्रपति को छह सदस्यीय आयोग द्वारा ‘अनुशंसित’ न्यायाधीशों की नियुक्ति करनी थी, जिसमें अध्यक्ष के रूप में मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल थे।
- इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता वाली एक समिति द्वारा किया जाना था।
- NJAC प्रणाली के तहत, राष्ट्रपति को छह सदस्यीय आयोग द्वारा ‘अनुशंसित’ न्यायाधीशों की नियुक्ति करनी थी, जिसमें अध्यक्ष के रूप में मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल थे।
- NJAC को रद्द किया गया: वर्ष 2015 में (चौथे न्यायाधीशों के मामले में), सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संशोधन और NJAC अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करते हुए रद्द कर दिया। न्यायालय ने तर्क दिया कि कार्यकारी (Executive) और गैर-न्यायिक सदस्यों को वीटो (निषेधाधिकार) शक्ति देने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता कमज़ोर होती है, जबकि यह स्वतंत्रता संविधान की मूल संरचना की एक विशेषता है।
- न्यायिक नियुक्तियों में ‘प्रतिष्ठित व्यक्तियों’ को चुनने के लिये मानदंड स्पष्ट नहीं हैं, जिससे कार्यकारी शाखा (सरकार) का हस्तक्षेप बहुत अधिक बढ़ जाने का खतरा है, क्योंकि सरकार ही न्यायालयों में सबसे बड़ी वादी होती है, इसलिये इन आपसी दायित्वों के कारण न्याय की निष्पक्षता खतरे में पड़ सकती है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली को बहाल कर दिया तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि नियुक्तियों में न्यायिक प्रधानता मूल संरचना के लिये आवश्यक है।
कॉलेजियम बनाम NJAC विवाद
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पहलू |
कॉलेजियम प्रणाली |
NJAC |
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प्रधानता |
नियुक्तियों में न्यायपालिका को पूर्ण प्राथमिकता प्राप्त है। |
न्यायिक प्रधानता को कम कर दिया गया तथा कार्यपालिका और प्रतिष्ठित व्यक्तियों को समान अधिकार प्रदान किये गए। |
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पारदर्शिता |
कॉलेजियम प्रणाली में नियुक्ति के कोई सार्वजनिक मापदंड या रिकॉर्ड नहीं रखे जाते हैं, जिससे यह पूरी प्रक्रिया अस्पष्ट बन जाती है। इससे यह चिंता पैदा होती है कि ‘न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति’ से पारदर्शिता और जाँच एवं संतुलन (Checks and Balances) की प्रक्रिया कमज़ोर होती है। |
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह न्यायिक नियुक्तियों में अधिक विविध आवाज़ों (केवल न्यायाधीशों के बजाय अन्य सदस्य भी शामिल) और अधिक पारदर्शी (खुली) प्रक्रियाओं को शामिल करने का प्रस्ताव करता था। |
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वीटो शक्ति |
कोई वीटो नहीं और निर्णय सर्वसम्मति एवं पुनरावृत्ति नियम पर आधारित। |
NJAC में कोई भी दो सदस्य (जिनमें न्यायिक और गैर-न्यायिक सदस्य दोनों शामिल थे) किसी भी उम्मीदवार की नियुक्ति को रोकने (वीटो) की शक्ति रखते थे। |
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जोखिम |
इस प्रणाली पर मुख्य रूप से भाई-भतीजावाद, जवाबदेही (उत्तरदायित्व) की कमी और गोपनीयता बरतने के आरोप लगते हैं। |
न्यायिक नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप का खतरा हमेशा बना रहता है और यदि ऐसा होता है तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये एक बड़ा खतरा बन जाता है। |
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न्यायिक स्वतंत्रता |
मूल ढॉंचे के हिस्से को बरकरार रखा गया (केशवानंद भारती मामला (1973)) |
सर्वोच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2015) मामले में यह माना कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता किया है (अर्थात् न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर किया है)। |
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क्षमता |
न्यायिक नियुक्तियों में देरी का मुख्य कारण सरकारी मंज़ूरी (Government Approval) मिलने में लगने वाला समय और अनौपचारिक प्रक्रियाओं का उपयोग है। |
एक संरचित आयोग होने से समय सीमा का पालन सुनिश्चित किया जा सकता था। |
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियों का आधार
- अनुच्छेद 124 (नियमित नियुक्ति): राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करके सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं।
- अनुच्छेद 217 (नियमित नियुक्ति): राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। इसके लिये वे मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल और उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेते हैं।
- अनुच्छेद 127 (तदर्थ न्यायाधीश - Ad-hoc Judges): यदि सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की पर्याप्त संख्या (कोरम) उपलब्ध नहीं है तो मुख्य न्यायाधीश (राष्ट्रपति की सहमति लेकर) किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को अस्थायी रूप से सर्वोच्च न्यायालय में काम करने के लिए बुला सकते हैं।
- अनुच्छेद 126 (कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश): यदि मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त है या वे अनुपस्थित हैं तो राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ उपलब्ध न्यायाधीश को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करते हैं।
- अनुच्छेद 128 (सेवानिवृत्त न्यायाधीश): राष्ट्रपति की सहमति से मुख्य न्यायाधीश किसी सेवानिवृत्त सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को एक निश्चित अवधि के लिये सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अनुरोध कर सकते हैं।
- नियुक्ति प्रक्रिया:
- मुख्य न्यायाधीश: निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश आमतौर पर वरिष्ठता के आधार पर उत्तराधिकारी की सिफारिश करते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश: मुख्य न्यायाधीश कॉलेजियम के सदस्यों और उम्मीदवार के उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश से परामर्श करके सिफारिश शुरू करते हैं, जिनकी राय लिखित रूप में दर्ज की जाती है।
- कॉलेजियम की सिफारिश कानून मंत्री को भेजी जाती है, फिर प्रधानमंत्री को तथा प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति की जाती है।
- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश/न्यायाधीश: उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाती है।
- अवर न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया समान है, सिवाय इसके कि संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श किया जाता है।
भारत में न्यायपालिका को मज़बूत बनाने के लिये कौन-से उपाय किये जा सकते हैं?
- लचीले संघीय डिज़ाइन के साथ न्यायिक नीति: राष्ट्रीय न्यायिक नीति को स्थिरता के लिये कुछ व्यापक राष्ट्रीय मानक निर्धारित करने चाहिये। साथ ही उच्च न्यायालयों को यह अनुमति देनी चाहिये कि वे अपनी क्षेत्रीय आवश्यकताओं, संसाधनों और मामलों की वास्तविक संख्या (केसलोड) के आधार पर प्रक्रियाओं को बदल सकें।
- मामला प्रबंधन और समयसीमा का संस्थागतकरण: सभी न्यायालयों में देरी कम करने के लिये, मामला दाखिल करने, सुनवाई के लिये सूचीबद्ध करने, स्थगन (Adjournment) और निपटान लक्ष्य (Disposal Targets) हेतु एक समान नियम अपनाए जाने चाहिये।
- पारदर्शी और समयबद्ध नियुक्तियाँ: चाहे कॉलेजियम में सुधार के माध्यम से या भविष्य में सहमति से नियुक्ति करने वाले निकाय के माध्यम से पूर्वानुमानित, मानदंड-आधारित और समय पर न्यायिक नियुक्तियाँ सुनिश्चित करना।
- न्याय तक पहुँच में विस्तार: न्याय की लागत और दूरी संबंधी बाधाओं को कम करने के लिये क्षेत्रीय न्यायालयों, स्थानीय भाषा सेवाओं, कानूनी सहायता, मोबाइल न्यायालयों और ADR तंत्र (विशेष रूप से मध्यस्थता) में निवेश करना चाहिये।
निष्कर्ष:
राष्ट्रीय न्यायिक नीति की मांग यह दर्शाती है कि न्यायालयों में आधुनिकता लाने, विचलन कम करने और न्याय को अधिक सुलभ, पारदर्शी और पूर्वानुमेय बनाने की तत्काल आवश्यकता है। NJAC और कॉलेजियम पर बहस के फिर से उभरने के बीच, आगे का मार्ग ऐसे सुधारों में निहित है जो संविधान के मूल ढाँचे की आधारशिला, न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए न्यायिक दक्षता को मज़बूत करें।
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दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को पुनर्जीवित करने के पक्ष और विपक्ष में तर्कों का परीक्षण कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. NJAC क्या था और इसका गठन किस प्रकार हुआ?
NJAC (99वें संविधान संशोधन, 2014 के माध्यम से निर्मित) छह सदस्यों वाला एक आयोग था, जिसका काम सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों की सिफारिश करना था। इस आयोग के सदस्य थे: मुख्य न्यायाधीश (CJI), सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, कानून मंत्री, दो 'प्रतिष्ठित व्यक्ति' (Eminent Persons)
2. सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में NJAC को क्यों रद्द कर दिया?
चौथे न्यायाधीश मामले (2015) में न्यायालय ने NJAC को असंवैधानिक ठहराया, यह पाते हुए कि कार्यकारी और गैर-न्यायिक वीटो शक्तियाँ न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर करती हैं, जो संविधान की मूल संरचना की एक विशेषता है।
3. कॉलेजियम प्रणाली क्या है?
कॉलेजियम एक न्यायिक रूप से विकसित प्रणाली है जिसमें मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठ न्यायाधीश उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों की सिफारिश करते हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
- भारत के संविधान के 44वें संशोधन द्वारा लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक पुनरावलोकन से परे कर दिया।
- भारत के संविधान के 99वें संशोधन को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विखंडित कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता था।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: (b)
मेन्स:
प्रश्न. भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)

आपदा प्रबंधन
भारत का आपदा जोखिम वित्तपोषण
प्रिलिम्स के लिये: संघवाद, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष, राष्ट्रीय और राज्य आपदा जोखिम प्रबंधन निधि
मेन्स के लिये: आपदा प्रबंधन, जलवायु अनुकूलन और आपदा जोखिम वित्तपोषण
चर्चा में क्यों?
केंद्र सरकार ने हाल ही में जुलाई 2024 के विनाशकारी वायनाड भूस्खलन के बाद केरल को आपदा राहत के रूप में केवल 260 करोड़ रुपए स्वीकृत किये, जबकि राज्य ने अपनी क्षति का अनुमान 2,200 करोड़ रुपए लगाया था।
- इस स्पष्ट असमानता ने भारत में सहकारी संघवाद के कमज़ोर पड़ने और आपदा-जोखिम वित्त के बढ़ते केंद्रीकरण को लेकर बहसों को एक बार फिर से प्रबल कर दिया है।
भारत की वर्तमान आपदा-वित्तीय व्यवस्था क्या है?
- 15वाँ वित्त आयोग (2021–26) जनसंख्या, कुल भौगोलिक क्षेत्र और पिछले वर्षों के व्यय-रुझानों को आधार बनाकर आपदा-प्रबंधन हेतु निधियाँ आवंटित करता है।
- आयोग ने शमन के लिये अलग निधियाँ बनाने की सिफारिश की, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आपदा जोखिम प्रबंधन कोष (NDRMF) और राज्य आपदा जोखिम प्रबंधन कोष (SDRMF) स्थापित किया गया। इससे राहत और शमन को एकीकृत करके एक व्यापक जोखिम-प्रबंधन ढाँचा तैयार हुआ।
- 15वाँ वित्त आयोग (2021-22 से 2025-26): भारत की आपदा-वित्त संरचना को पहले के केवल प्रतिक्रिया-आधारित निधियों, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (NDRF) और राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (SDRF) से आगे बढ़ाया गया, जो आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत बनाए गए थे।
- राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष: राज्यों के पास तत्काल राहत (खाद्य, आश्रय, चिकित्सीय सहायता, मुआवजा) के लिये उपलब्ध प्राथमिक कोष।
- सामान्य राज्यों के लिये 75:25 (केंद्र:राज्य) और पूर्वोत्तर एवं हिमालयी राज्यों के लिये 90:10 के अनुपात में वित्तपोषित।
- बाढ़, चक्रवात, भूकंप, भूस्खलन आदि जैसी अधिसूचित आपदाओं को शामिल करता है।
- राज्य अपने परिभाषित मानकों के अनुसार स्थानीय आपदाओं के लिये 10% तक राशि का उपयोग कर सकते हैं।
- वार्षिक केंद्रीय अंशदान, वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार, दो समान किस्तों में जारी किया जाता है।
- राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (NDRF): यह SDRF को तब पूरक करता है जब किसी आपदा को ‘गंभीर’ घोषित किया जाता है और SDRF अपर्याप्त होता है।
- NDRF पूरी तरह से केंद्रीय सरकार द्वारा वित्तपोषित होता है।
- राष्ट्रीय एवं राज्य आपदा जोखिम प्रबंधन कोष (NDRMF और SDRMF): 15वें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार केंद्र सरकार ने वर्ष 2021 में राष्ट्रीय आपदा शमन कोष (NDMF) की स्थापना की और सभी राज्य सरकारों को राज्य आपदा शमन कोष (SDMF) स्थापित करने की सलाह दी।
- अब तक तेलंगाना को छोड़कर सभी राज्यों ने SDMF की स्थापना की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
- केंद्र सरकार सामान्य राज्यों के लिये SDMF में 75% और उत्तर-पूर्वी एवं हिमालयी राज्यों के लिये 90% का योगदान देती है, जिससे संवेदनशील क्षेत्रों में दीर्घकालिक अनुकूलन मज़बूत होता है।
- ये कोष राज्यों को बाढ़ नियंत्रण, भूस्खलन रोकथाम और भूकंपीय सुरक्षा जैसी शमन परियोजनाओं को लागू करने में सहयोग प्रदान करते हैं।
भारत की आपदा-वित्तीय व्यवस्था से जुड़ी प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?
- केंद्र–राज्य राजकोषीय असमानता का बढ़ना: राज्यों को प्राय: उनकी बताई गई क्षति की तुलना में बहुत कम धनराशि मिलती है, जिसके कारण आकलित आवश्यकताओं और वास्तविक NDRF/SDRF वितरण के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है। यह सहकारी संघवाद को कमज़ोर करता है।
- पुरातन और अप्रासंगिक राहत मानदंड: मुआवज़े की राशि (जैसे, प्रति मृतक केवल 4 लाख रुपये और पूरी तरह क्षतिग्रस्त मकानों के लिये 1.2 लाख रुपये) बढ़ती लागतों के अनुरूप नहीं है। इससे प्रभावित परिवार पुनर्निर्माण करने में सक्षम नहीं हो पाते।
- अस्पष्ट ‘गंभीर आपदा’ वर्गीकरण: आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में ‘गंभीर आपदा’ की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है, जिसके कारण निर्णय प्रक्रिया में व्यापक विवेक की स्थिति बन जाती है और NDRF सहायता के चयनात्मक अनुमोदन की संभावना बढ़ जाती है।
- प्रक्रियागत देरी और असमान राहत आवंटन: निधि जारी करने के लिये कई स्तरों की स्वीकृति आवश्यक होती है (राज्य के ज्ञापन से लेकर केंद्रीय मूल्यांकन टीमों, गृह मंत्रालय और उच्च-स्तरीय स्वीकृतियों तक), जिसके परिणामस्वरूप राहत प्रक्रिया उस समय धीमी पड़ जाती है, जब त्वरित कार्रवाई सबसे अधिक आवश्यक होती है।
- केंद्र ने वायनाड भूस्खलन को ‘गंभीर आपदा’ के रूप में वर्गीकृत करने में देरी की, जिससे केरल को उच्च NDRF सहायता पाने में बाधा हुई। यह वास्तविक क्षति और केंद्रीय सहायता के बीच बढ़ते अंतर को दर्शाता है।
- विकृत आवंटन और गलत व्याख्या: जोखिम वित्तपोषण सही तरीके से संरेखित नहीं है क्योंकि वित्त आयोग जनसंख्या और क्षेत्र पर निर्भर करता है, न कि वैज्ञानिक खतरे के संपर्क पर।
- केंद्र अक्सर पहले से स्वीकृत और चल रहे कार्यों के लिये निर्धारित SDRF राशि को ‘अव्ययित’ मान लेता है, जिससे अव्यवस्थित उपयोग का एक भ्रामक चित्र बनता है।
- स्थानीय स्तर की अपर्याप्त क्षमता: कई DDMA और शहरी निकायों में पर्याप्त स्टाफ, GIS क्षमता, डिजिटल उपकरण और योजना-निर्माण कौशल की कमी होती है, जिसके कारण निधि उपलब्ध होने के बावजूद योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन बाधित होता है।
- केंद्रीकरण की प्रवृत्ति: शर्तों पर आधारित अनुमोदनों और विवेकाधीन निधि जारी करने पर बढ़ती निर्भरता एक अधिक केंद्रीकृत आपदा वित्तपोषण मॉडल की ओर सहकारी संघवाद से एक बदलाव का संकेत देती है।
पूरे विश्व में आपदा जोखिम वित्तपोषण
- संयुक्त राज्य अमेरिका: यह उद्देश्यपूर्ण, डेटा-आधारित ट्रिगर का उपयोग करता है, जैसे प्रति-व्यक्ति नुकसान की सीमा, ताकि संघीय सहायता स्वतः जारी हो सके। इससे विवेकाधिकार कम होता है और राहत प्रक्रिया तीव्र होती है।
- मेक्सिको: वर्षा, पवन की गति या अन्य जोखिम सीमा पार होने पर निधियाँ स्वतः जारी कर दी जाती हैं। यह नियम-आधारित मॉडल त्वरित भुगतान सुनिश्चित करता है और राजनीतिक हस्तक्षेप को कम करता है।
- फिलिपींस: वर्षा और मृत्यु दर सूचकांक का उपयोग क्विक रिस्पॉन्स फंड्स को सक्रिय करने के लिये किया जाता है, जिससे स्थानीय सरकार के लिये तीव्र एवं पूर्वानुमान योग्य सहायता संभव होती है।
- अफ्रीकी और कैरिबियाई जोखिम बीमा पूल: सैटेलाइट डेटा द्वारा समर्थित पैरामीट्रिक बीमा का उपयोग करते हैं। जब पूर्वनिर्धारित जोखिम मापदंड पूरे होते हैं, तो भुगतान सक्रिय हो जाता है।
- ऑस्ट्रेलिया: संघीय आपदा सहायता को राज्य के राजस्व में राहत व्यय के हिस्से से जोड़ा जाता है, जिससे जवाबदेही और समय पर सहायता सुनिश्चित होती है।
भारत में प्रभावी और समान आपदा-वित्त पोषण प्रणाली के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?
- उद्देश्यपूर्ण, नियम-आधारित ट्रिगर बनाना: स्पष्ट संकेतकों जैसे वर्षा की तीव्रता, फसल नुकसान, मृत्यु दर और नुकसान-से-GSDP अनुपात का उपयोग करके स्वचालित निधि जारी करने की व्यवस्था अपनाएँ, जिसे वैज्ञानिक आपदा जोखिम सूचकांक द्वारा समर्थित किया जाए।
- भूस्खलन, क्लाउडबर्स्ट, हिमस्खलन और कीट हमले जैसे जोखिमों को शामिल करें तथा पैरामीट्रिक बीमा, बेहतर फसल एवं संपत्ति बीमा तथा क्षेत्रीय जोखिम पूल को बढ़ावा दें।
- राहत मानकों को अद्यतन करना: मृत्यु, मकान क्षति एवं आजीविका हानि के लिये मुआवज़े की राशि को वर्तमान लागत और मुद्रास्फीति के अनुसार अद्यतन करें तथा दशकों पुराने आँकड़ों को प्रतिस्थापित करें।
- संघीय संतुलन को मज़बूत करना: सुनिश्चित करें कि NDRF/SDRF का आवंटन समय पर पारदर्शी एवं पूर्वानुमान योग्य हो और ऐसी शर्तों या समझौतों पर आधारित निधि जारी करने से बचा जाए, जो सहकारी संघवाद को कमज़ोर करती हों।
- वित्त आयोग के मानदंडों में सुधार: जनसंख्या और क्षेत्र आधारित आवंटन को वैज्ञानिक बहु-जोखिम संवेदनशीलता सूचकांक से बदलें, जिसमें GIS जोखिम मानचित्र तथा जलवायु-प्रभाव डेटा शामिल हों।
- स्थानीय स्तर की क्षमता बढ़ाना: DDMA, शहरी स्थानीय निकाय तथा पंचायतों को प्रशिक्षित स्टाफ, GIS उपकरण, अग्नि सेवाएँ और आपातकालीन संचालन केंद्र प्रदान करके सशक्त बनाना।
- बाढ़ संरक्षण, ढलान स्थिरीकरण, चक्रवात आश्रय, पूर्व-चेतावनी प्रणाली और मज़बूत बुनियादी ढाँचे जैसी परियोजनाओं के लिये निधि का व्यापक उपयोग सुनिश्चित करना।
- आपदा मित्र जैसे कार्यक्रमों और स्थानीय स्वयंसेवी नेटवर्क को पहले उत्तरदाता तथा अंतिम स्तर आपदा शासन का समर्थन करने के लिये बढ़ाना।
निष्कर्ष
भारत की आपदा-वित्त पोषण प्रणाली दबाव में है, क्योंकि आकलित क्षति और वास्तविक केंद्रीय सहायता के बीच बढ़ते अंतर से सहकारी संघवाद कमज़ोर हो रहा है। जैसे-जैसे जलवायु संबंधित आपदाएँ बढ़ती हैं, राज्यों और नागरिकों की सुरक्षा के लिये पूर्वानुमान योग्य, नियम-आधारित तथा समान वित्तपोषण ढाँचा आवश्यक है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत के वर्तमान आपदा-वित्तीय व्यवस्था की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये। 15वें वित्त आयोग ने इसे कैसे पुनर्गठित किया और अभी भी कौन-सी कमियाँ बनी हुई हैं? |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. NDRF और SDRF क्या है?
SDRF तत्काल राहत कार्यों (भोजन, आश्रय, चिकित्सा सहायता, मुआवज़ा) के लिये मुख्य राज्य कोष है। केंद्र और राज्य का योगदान सामान्य राज्यों के लिये 75:25 और विशेष श्रेणी के राज्यों के लिये 90:10 होता है। NDRF एक केंद्रीय कोष है जो ‘गंभीर’ घोषित आपदाओं में SDRF को पूरक करता है और पूरी तरह से संघीय सरकार द्वारा वित्त पोषित है।
2. आपदा वित्त पोषण के लिये 15वें वित्त आयोग ने कौन-सा प्रमुख बदलाव सुझाया?
आयोग ने प्रतिक्रिया कोषों के साथ-साथ जोखिम-निवारण कोषों की स्थापना की सिफारिश की, जिसके तहत राष्ट्रीय आपदा जोखिम प्रबंधन कोष (NDRMF) और राज्य आपदा जोखिम प्रबंधन कोष (SDRMF) बनाए गए।
3. वर्तमान आपदा-वित्त पोषण प्रणाली की आलोचना क्यों होती है?
मुख्य आलोचनाओं में प्रक्रियात्मक देरी, अस्पष्ट ‘गंभीर आपदा’ वर्गीकरण, पुरानी मुआवजा मानक, आबादी/क्षेत्र आधारित जोखिम असंगत आवंटन और सहकारी संघवाद को कमज़ोर करने वाली केंद्रीयकरण की धारणा शामिल हैं।
सारांश
- वायनाड भूस्खलन के बाद केरल की राहत स्वीकृति कम होने से यह चिंता बढ़ गई है कि भारत का आपदा-वित्त पोषण अधिक केंद्रीकृत और कम सहकारी होता जा रहा है।
- वर्तमान प्रणाली में SDRF/NDRF राहत के लिये और SDRMF/NDRMF जोखिम-निवारण हेतु शामिल हैं, लेकिन निधि आवंटन अभी भी खतरे के आधार के बजाय आबादी तथा क्षेत्रफल पर निर्भर है।
- राज्यों को देरी, पुराने मुआवज़े मानक, अस्पष्ट ‘गंभीर आपदा’ मानदंड और वास्तविक नुकसान की तुलना में असंगत सहायता जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
- वैश्विक मॉडल दिखाते हैं कि स्वचालित, नियम-आधारित ट्रिगर तीव्र और पारदर्शी आपदा वित्त पोषण सुनिश्चित करते हैं।
- भारत को उद्देश्यपूर्ण ट्रिगर, अद्यतन राहत मानक, खतरे-आधारित आवंटन, मज़बूत स्थानीय क्षमता और जोखिम-निवारण एवं अनुकूलन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रिलिम्स:
प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सी एक भारतीय संघराज्य पद्धति की विशेषता नहीं है? (2017)
(a) भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका है।
(b) केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है।
(c) संघबद्ध होने वाली इकाइयों को राज्य सभा में असमान प्रतिनिधित्व दिया गया है।
(d) यह संघबद्ध होने वाली इकाइयों के बीच एक सहमति का परिणाम है।
उत्तर: (d)
मेन्स:
प्रश्न. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एन.डी.एम.ए.) के सुझावों के संदर्भ में, उत्तराखंड के अनेकों स्थानों पर हाल ही में बादल फटने की घटनाओं के संघात को कम करने के लिये अपनाए जाने वाले उपायों पर चर्चा कीजिये। (2016)

भारतीय राजव्यवस्था
भारत में राज्यपाल के पद में सुधार
प्रिलिम्स के लिये: राज्यपाल, मुख्यमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, त्रिशंकु विधानसभा, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सरकारिया आयोग (1988), पूंछी आयोग (2010)।
मेन्स के लिये: राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच विभिन्न तनाव के क्षेत्र, तनाव को कम करने के लिये समितियों की सिफारिशें और न्यायिक निर्णय, राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच स्वस्थ संबंध बनाए रखने के लिए आगे किये जाने वाले उपाय
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने केरल राज्यपाल की आलोचना की क्योंकि उन्होंने कुलपतियों (VC) की नियुक्ति पर अदालत द्वारा नियुक्त समिति की सिफारिशों की अवहेलना की, जिससे राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच तनाव उजागर हुआ।
- अगस्त 2025 में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति धूलिया की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया ताकि उम्मीदवारों की शॉर्टलिस्टिंग की जा सके, जिससे राज्यपाल के कुलाधिपति पद में तनाव और संघर्ष उजागर हुआ।
भारत में राज्यपाल की भूमिका से संबंधित प्रमुख विवाद क्या हैं?
- राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में भूमिका: अधिकांश मामलों में राज्यपाल स्वतःस्फूर्त (ex-officio) रूप से राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में कार्य करते हैं। कुलपति की नियुक्ति या विश्वविद्यालय प्रशासन के मामलों में जब राज्यपाल राज्य सरकार की सलाह के विपरीत कार्य करते हैं तब विवाद उत्पन्न होते हैं।
- इससे संस्थानिक स्वायत्तता, राज्यपाल की वैकल्पिक शक्तियों की सीमा और केंद्र सरकार (जो राज्यपाल की नियुक्ति करती है) तथा राज्य सरकारों के बीच नियंत्रण को लेकर संघर्ष जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- विधेयकों को अनुमोदन देने में विलंब: प्रमुख विवाद तीन राज्यपाल शक्तियों से जुड़ा है:
- अनुमोदन रोकना – राज्य के कानूनों को रोकने के लिये अनुमोदन न देना।
- विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजना – कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के निर्णय के लिये सुरक्षित रखना।
- लंबे समय तक निष्क्रिय रहना – विधेयकों को लंबे समय तक लंबित छोड़ देना।
- राज्यपाल की नियुक्ति और कार्यकाल: राज्यपाल अक्सर राजनीतिक नियुक्ति माने जाते हैं, आमतौर पर वे सेवानिवृत्त राजनेता या केंद्रीय सत्ताधारी पार्टी के नजदीकी नौकरशाह होते हैं, जिससे उस राज्य में किसी अन्य पार्टी के शासन के दौरान पक्षपाती होने की धारणा उत्पन्न होती है।
- उनका कार्यकाल “राष्ट्रपति की इच्छा” पर निर्भर करता है, जिससे केंद्र सरकार उन्हें कभी भी हटा सकती है, खासकर सरकार बदलने के बाद और इससे इस पद की स्वतंत्रता और गरिमा कमज़ोर हो जाती है।
- राज्यपाल का विधायी हस्तक्षेप: विवाद तब उत्पन्न होते हैं जब राज्यपाल विधानसभा बुलाने में देरी करते हैं या बहुमत संकट के दौरान मुख्यमंत्री की सलाह को अनदेखा करके विधानसभा भंग करने के बजाय प्रतिद्वंद्वी को सरकार बनाने का निमंत्रण देते हैं।
- राज्यपाल कभी-कभी लोकसभा अध्यक्ष को अनदेखा करके विपक्ष के दावों के आधार पर फ्लोर टेस्ट का आदेश देते हैं और कभी ऐसी प्रक्रियाएँ (जैसे, वॉयस वोट बनाम फिजिकल डिवीजन) तय करते हैं जो सत्तारूढ़ पार्टी के लिये असुविधाजनक होती हैं।
- मुख्यमंत्री की नियुक्ति: किसी अधूरी बहुमत वाली विधानसभा (Post-Hung Assembly) में, राज्यपाल की वैकल्पिक शक्ति विवाद का कारण बनती है, जब उन्हें सबसे बड़ी पार्टी को दरकिनार करके या ऐसे गठबंधन को सरकार बनाने का आमंत्रण देने के लिये देखा जाता है, जिसका बहुमत स्पष्ट रूप से साबित नहीं होता।
- इसके अलावा किसी मुख्यमंत्री की मृत्यु या त्यागपत्र के बाद, राज्यपाल द्वारा उत्तराधिकारी के चयन को लेकर विवाद हो सकता है, खासकर जब सत्तारूढ़ पार्टी आंतरिक रूप से विभाजित हो, जिससे पक्षपाती हस्तक्षेप के आरोप लगते हैं।
राज्यपाल के कार्यालय और आचरण में सुधार से संबंधित विभिन्न समितियाँ/आयोग क्या हैं?
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समितियाँ |
सिफारिशें |
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सरकारिया आयोग (1988) |
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वेंकटचलैया आयोग (2002) |
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पुंछी आयोग (2010) |
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राज्य और राज्यपाल के बीच तनाव को हल करने के लिये प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ क्या हैं?
- नबाम रेबिया मामला 2016 : सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विधानसभा को बुलाने या स्थगित करने की राज्यपाल की शक्ति विवेकाधीन नहीं है और इसका प्रयोग केवल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर ही किया जाना चाहिये ।
- शिवराज सिंह चौहान मामला, 2020 : सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि स्पीकर और राज्यपाल दोनों फ्लोर टेस्ट का आदेश दे सकते हैं - स्पीकर, यदि सरकार के बहुमत खोने की संभावना है, और राज्यपाल, यदि विश्वसनीय जानकारी बताती है कि बहुमत संदेह में है।
- तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामला, 2023 : न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्यपालों को पुनः पारित विधेयकों को स्वीकृति देनी होगी, जब तक कि उनमें कोई महत्त्वपूर्ण अंतर न हो, तथा इसके लिये कठोर समय-सीमा निर्धारित की गई, अर्थात स्वीकृति रोकने के लिये एक माह , कैबिनेट की सलाह के विरुद्ध कार्रवाई के लिये तीन माह, तथा पुनर्विचारित विधेयकों के लिये एक माह।
- 2025 राज्यपाल की शक्तियों पर राष्ट्रपति का संदर्भ (अनुच्छेद 143 के अंतर्गत) : सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय अनुच्छेद 200 या 201 के अंतर्गत विधेयकों पर कार्रवाई के लिये राज्यपाल (या राष्ट्रपति) पर कोई कठोर समय-सीमा नहीं थोप सकते। इसने "मान्य स्वीकृति" के विचार को खारिज कर दिया। लेकिन न्यायालय ने दोहराया कि लंबे समय तक, बिना किसी कारण के की गई देरी सीमित न्यायिक समीक्षा को आकर्षित कर सकती है ।
राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच बार-बार होने वाले तनाव को कौन-से उपाय हल कर सकते हैं?
- राज्यपाल के 'विवेकाधिकार' को संहिताबद्ध करना: सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार को अनुच्छेद 163 के अस्पष्ट प्रावधान से आगे बढ़कर, उन विशिष्ट परिस्थितियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित और विस्तृत रूप से सूचीबद्ध करना चाहिये, जिनके तहत राज्यपाल अपने विवेक से कार्य कर सकते हैं। इससे मनमानी व्याख्याएँ कम होंगी।
- प्रक्रियात्मक सुधार: बहुमत साबित करने के लिये ‘फ्लोर टेस्ट’ ही एकमात्र कानूनी रूप से स्वीकार्य तंत्र होना चाहिये। राज्यपाल को केवल सबसे अधिक समर्थन वाले दावेदार को ही शपथ दिलानी चाहिये, जिसे 48 घंटों के भीतर सदन में बहुमत साबित करना होगा।
- नियुक्ति प्रक्रिया को संस्थागत बनाना: राज्यपालों के चयन के लिये एक स्वतंत्र कॉलेजियम या समिति (जैसे, प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित मुख्यमंत्री की सदस्यता वाली) की स्थापना करना। इससे नियुक्तियों का राजनीतिकरण नहीं होगा और निष्पक्षता सुनिश्चित होगी।
- स्थापित परंपराओं का पालन करना: राज्यपालों को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना चाहिये तथा टकराव के बजाय सहयोग सुनिश्चित करने के लिये मुख्यमंत्री के साथ पारदर्शी, नियमित संवाद बनाए रखना चाहिये।
- आयोग की सिफारिशों का कार्यान्वयन: सरकारिया आयोग (1988) और पुंछी आयोग (2010) द्वारा प्रस्तावित प्रमुख सुधार - जिनमें राज्यपाल की नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्री से परामर्श करना और राज्य के बाहर से प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन करना शामिल है - को गंभीरता से लागू किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच बार-बार उत्पन्न होने वाले तनाव का मुख्य कारण उनके विवेकाधिकार संबंधी शक्तियों की अस्पष्टता और राजनीतिक आधार पर होने वाली नियुक्तियाँ हैं।
एक स्थायी समाधान के लिये आवश्यक है कि प्रमुख समितियों की सुझाव को लागू किया जाए, राज्यपाल के विवेकाधिकार को स्पष्ट रूप से संहिताबद्ध किया जाए और निर्वाचित सरकार की सलाह और सहायता पर कार्य करने की संवैधानिक भावना का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाए।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: राज्यपाल का पद अक्सर केंद्र-राज्य संबंधों में एक 'आधार स्तंभ' (linchpin) के रूप में वर्णित किया जाता है, फिर भी यह बार-बार 'टकराव का केंद्र' (flashpoint) बन जाता है। इस विरोधाभास के कारणों का विश्लेषण कीजिए और उपचारात्मक उपाय सुझाइए। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को कौन-सा संवैधानिक प्रावधान नियंत्रित करता है?
अनुच्छेद 163 विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करता है, लेकिन राज्यपाल को सामान्यतः मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना चाहिये।
2. राज्यपालों के संबंध में सरकारिया आयोग की प्रमुख सिफारिशें क्या हैं?
असंबद्ध वैधानिक शक्तियों को सीमित करना, पाँच वर्ष के कार्यकाल का सम्मान करना तथा हटाने या नियुक्ति से पहले परामर्श सुनिश्चित करना।
3. अनुच्छेद 143 के अंतर्गत 2025 के राष्ट्रपति संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का रुख क्या था?
यद्यपि न्यायालय ने विधेयकों पर स्वीकृति के लिये कठोर समय-सीमा लागू करने से इनकार कर दिया, परंतु उसने यह भी कहा कि राज्यपाल द्वारा की गई लंबी और अस्पष्ट देरी न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:
प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
- किसी राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में कोई आपराधिक कार्यवाही संस्थापित नहीं की जाएगी।
- किसी राज्य के राज्यपाल की परिलब्धियां और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किये जाएँगे।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: (C)
प्रश्न. प्निम्नलिखित में से कौन-सी किसी राज्य के राज्यपाल को दी गई विवेकाधीन शक्तियाँ हैं? (2014)
- भारत के राष्ट्रपति को राष्ट्रपति शासन अधिरोपित करने के लिये रिपोर्ट भेजना।
- मंत्रियों की नियुक्ति करना। राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कतिपय विधेयकों को भारत के राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित करना।
- राज्य सरकार के कार्य संचालन के लिये नियम बनाना।
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1 और 3
(c) केवल 2, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (b)
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा सही है? (2013)
(a) भारत में एक ही व्यक्ति को एक समय में दो या अधिक राज्यों में राज्यपाल नियुक्त नहीं किया जा सकता।
(b) भारत में राज्यों के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राज्य के राज्यपाल द्वारा नियुक्त किये जातें हैं, ठीक वैसे ही जैसे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जातें हैं।
(c) भारत के संविधान में राज्यपाल को उसके पद से हटाने हेतु कोई भी प्रक्रिया अधिकथित नहीं है।
(d) विधायी व्यवस्था वाले संघ राज्यक्षेत्र में मुख्यमंत्री की नियुक्ति उपराज्यपाल द्वारा बहुमत समर्थन के आधार पर की जाती है।
उत्तर: (c)
मेन्स:
प्रश्न. राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग के लिये आवश्यक शर्तों की चर्चा कीजिये। राज्यपाल द्वारा अध्यादेशों को विधायिका के समक्ष रखे बिना पुन: प्रख्यापित करने की वैधता पर चर्चा कीजिये। (2022)
Q. यद्यपि परिसंघीय सिद्धांत हमारे संविधान में प्रबल है और वह सिद्धांत संविधान के आधारिक अभिलक्षणों में से एक है, परंतु यह भी इतना ही सत्य है कि भारतीय संविधान के अधीन परिसंघवाद (फैडरलिज्म) सशक्त केंद्र के पक्ष में झुका हुआ है। यह एक ऐसा लक्षण है जो प्रबल परिसंघवाद की संकल्पना के विरोध में है। चर्चा कीजिये।
(2014)



