दृष्टि के NCERT कोर्स के साथ करें UPSC की तैयारी और जानें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

भारतीय अर्थव्यवस्था

ऊर्जा सुरक्षा के लिये कोयला संक्रमण का मार्गदर्शन

प्रिलिम्स के लिये: भारतीय गुणवत्ता परिषद, खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957, अवसादी चट्टान, GST, कोयला गैसीकरण, कोकिंग कोल, फ्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन (FGD), बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणाली।

मेन्स के लिये: कोयला क्षेत्र के बारे में मुख्य तथ्य और भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका महत्त्व, भारत के कोयला क्षेत्र के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ और कमियाँ तथा आगे की राह। 

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों?

खान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957 की धारा 4 की उप-धारा (1) के दूसरे प्रावधान के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए, सरकार ने भारतीय गुणवत्ता परिषद (QCI) द्वारा विधिवत मान्यता प्राप्त निजी संस्थाओं को मान्यता प्राप्त पूर्वेक्षण एजेंसियों (APA) के रूप में कार्य करने की अनुमति दे दी है। 

  • इससे कोयले की उपलब्धता बढ़ेगी, ऊर्जा सुरक्षा मज़बूत होगी तथा अधिक पारदर्शी और कुशल खनिज अन्वेषण ढाँचे के माध्यम से भारत के आर्थिक विकास को समर्थन मिलेगा।

भारत की ऊर्जा सुरक्षा में कोयले की क्या भूमिका है?

  • ऊर्जा सुरक्षा का आधार: कोयला ऊर्जा सुरक्षा के लिये आवश्यक बना हुआ है, यह भारत के ऊर्जा मिश्रण में 55% का योगदान देता है तथा 74% से अधिक विद्युत उत्पादन को ईंधन प्रदान करता है।
    • आंतरायिक नवीकरणीय ऊर्जा के विपरीत, कोयला आधारित विद्युत संयंत्र स्थिर और विश्वसनीय विद्युत प्रदान करते हैं, जो ग्रिड स्थिरता और भारत की निरंतर विद्युत मांग को पूरा करने के लिये आवश्यक है।
  • अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण चालक: कोयला क्षेत्र रॉयल्टी, GST और लेवी के माध्यम से केंद्र और राज्य सरकारों के लिये सालाना 70,000 करोड़ रुपये से अधिक उत्पन्न करता है। 
    • भारतीय रेलवे के लिये कोयला परिवहन की जाने वाली सबसे बड़ी वस्तु है (जो माल ढुलाई से होने वाली कुल आय का 49% है)। इस राजस्व से यात्री किराये में भी सहायता मिलती है, जो कोयले को पूरे परिवहन पारिस्थितिकी तंत्र के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण बना देता है।
  • कोर उद्योगों के लिये मुख्य इनपुट: कोकिंग कोयला इस्पात उत्पादन के लिये आवश्यक है, जो इस्पात लागत का लगभग 42% है, जबकि कोयला सीमेंट भट्टों को भी ईंधन प्रदान करता है, जो इसे निर्माण और बुनियादी ढाँचे के लिये महत्त्वपूर्ण बनाता है।
  • रोज़गार का प्रमुख स्रोत: कोल इंडिया लिमिटेड (Coal India Limited) प्रत्यक्ष रूप से 2.39 लाख से अधिक लोगों को रोज़गार प्रदान करता है और लाखों लोग अप्रत्यक्ष रूप से ठेकेदारी, परिवहन, उपकरण निर्माण और संबंधित सेवाओं में कार्यरत हैं।
  • स्थायित्व की नींव: सरकार 8,500 करोड़ रुपये के प्रोत्साहन के माध्यम से कोयला गैसीकरण को बढ़ावा दे रही है, जिससे कोयले को स्वच्छ ईंधन के लिये सिंथेटिक गैस और मेथनॉल में परिवर्तित किया जा रहा है, जिससे इसके कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी। 
    • कोयले से प्राप्त राजस्व नवीकरणीय ऊर्जा के विस्तार में सहायक है, NTPC ने वर्ष 2032 तक 60 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता की योजना बनाई है, जो उसके कुल उत्पादन का लगभग 45% है।

भारत में कोयला क्षेत्र के संबंध में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • कोयला: कोयला एक ज्वलनशील काला या भूरा-काला अवसादी चट्टान है जो अधिकांशतः कार्बन से बना होता है तथा इसे जीवाश्म ईंधन माना जाता है क्योंकि इसका निर्माण प्राचीन पौधों के अवशेषों के द्वारा होता है। 
    • लाखों सालों तक, ज़मीन के अंदर तलछट की परतों के भारी दबाव और गर्मी के कारण, मूल जैविक पदार्थ (पीट) से पानी और गैसें बाहर निकल गईं। इससे उसमें कार्बन की मात्रा बढ़ती गई, और वह धीरे-धीरे कोयले के अलग-अलग प्रकारों में बदल गया।
  • कोयले के ग्रेड: कोयले को इसकी कार्बन सामग्री, तापमान और ऊर्जा उत्पादन के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है, जिनमें मुख्य प्रकार हैं:
    • एन्थ्रेसाइट: इसमें 86%-97% कार्बन होता है और सभी प्रकार के कोयले में इसका तापन मान सबसे अधिक होता है। यह मुख्यतः जम्मू और कश्मीर में पाया जाता है।
    • बिटुमिनस: इसमें 45%-86% कार्बन होता है। यह मुख्यतः झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में पाया जाता है।
    • सब बिटुमिनस: इसमें आमतौर पर 35%-45% कार्बन होता है और इसका तापन मूल्य बिटुमिनस कोयले की तुलना में कम होता है।
    • लिग्नाइट (भूरा कोयला): इसमें 25%-35% कार्बन होता है। इसमें उच्च आर्द्रता (30-55%), उच्च वाष्पशील पदार्थ और कम राख होती है, जिससे यह उच्च श्रेणी के कोयले की तुलना में तापनमान और स्थिरता में कमज़ोर होता है। 
      • यह हल्का, छिद्रयुक्त और भुरभुरा होता है तथा स्वतः दहन के जोखिम के कारण इसे लंबी दूरी तक नहीं ले जाया जा सकता।
      • तमिलनाडु, पुदुचेरी, गुजरात, राजस्थान और जम्मू और कश्मीर में पाया जाता है।
  • भारत में कोयला भंडार: भारत में 5वाँ सबसे बड़ा कोयला भंडार है और यह विश्व स्तर पर दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है।
  • शीर्ष तीन राज्य - ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ - देश के कुल कोयला भंडार का लगभग 69% हिस्सा रखते हैं।
  • भारत का कोयला उत्पादन: वित्त वर्ष 2024-25 में कोयला उत्पादन 1,047 मिलियन टन (MT) तक पहुँच गया, जो पिछले वर्ष के 997 मीट्रिक टन से 4.99% की वृद्धि दर्शाता है।

कोयला आयात: अप्रैल-दिसंबर 2024 में कोयला आयात 8.4% घटकर 183 मीट्रिक टन रह गया, जिससे विदेशी मुद्रा में 5.43 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बचत हुई।

भारत के कोयला क्षेत्र के सामने मुख्य चुनौतियाँ क्या हैं?

  • पर्यावरणीय क्षति: कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्र (TPP) औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में असमान रूप से अधिक उत्सर्जन करते हैं, जो PM का 60%, SO₂ का 45%, NO₂ का 30% तथा पारा (Hg) का 80% योगदान करते हैं।
    • ग्रीनपीस के अनुसार, भारत में सभी विद्युत संयंत्र 251 मिलियन लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पर्याप्त जल का उपयोग करते हैं।
  • गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य परिणाम: द लैंसेट काउंटडाउन 2025 के अनुसार, वर्ष 2022 में भारत में जीवाश्म ईंधन वायु प्रदूषण के कारण 1.72 मिलियन मौतें हुईं और अस्थमा, श्वसन और हृदय संबंधी बीमारियों के लाखों मामले सामने आए।
  • उच्च श्रेणी के कोयले के लिये आयात पर निर्भरता: भारत उच्च श्रेणी के कोकिंग और थर्मल कोयले हेतु आयात पर निर्भर करता है, 85% कोकिंग कोयला आयात किया जाता है, जिससे अर्थव्यवस्था मूल्य अस्थिरता और विदेशी मुद्रा बहिर्वाह के संपर्क में आती है।
  • फँसी हुई परिसंपत्तियों का जोखिम: सौर और पवन ऊर्जा की लागत में गिरावट के साथ, नए कोयला संयंत्रों का निर्माण करना अलाभकारी होता जा रहा है तथा मौजूदा संयंत्र फँसी हुई परिसंपत्तियों के रूप में परिवर्तित हो जाएंगे। 
    • ग्रीनपीस के अनुसार, भारत की लगभग दो-तिहाई कोयला बिजली अब नवीकरणीय ऊर्जा से अधिक महँगी है, जिससे देश को प्रतिवर्ष अरबों का नुकसान हो रहा है।
  • दीर्घकालिक परिवर्तन चुनौती: कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना, इस क्षेत्र पर निर्भर लाखों श्रमिकों और समुदायों के लिये न्यायोचित परिवर्तन सुनिश्चित करने हेतु एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है, जिसके लिये पुनः कौशलीकरण और वैकल्पिक रोज़गार की आवश्यकता है।

भारत कोयले से नवीकरणीय ऊर्जा प्रधान भविष्य की ओर न्यायोचित परिवर्तन किस प्रकार कर सकता है?

  • कोयले पर निर्भरता में चरणबद्ध कमी: कोयला विद्युत को धीरे-धीरे समाप्त करना, अकुशल, उच्च प्रदूषणकारी संयंत्रों को बंद करना तथा संक्रमण के दौरान उत्सर्जन को कम करने के लिये चयनात्मक उत्प्रेरक न्यूनीकरण (SCR) और इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रीसिपिटेटर ESP) जैसी स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को अपनाना।
  • उन्नत प्रदूषण नियंत्रण प्रौद्योगिकियाँ: सभी ताप विद्युत संयंत्रों में फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) सिस्टम और अन्य उत्सर्जन-नियंत्रण तकनीकों को अनिवार्य रूप से स्थापित कर उनकी नियमित निगरानी सुनिश्चित करना। ये प्रणालियाँ फ्लू गैस से SO₂ को हटाकर वायु गुणवत्ता में सुधार लाती हैं और श्वसन संबंधी रोग उत्पन्न करने वाले प्रमुख प्रदूषकों को कम करती हैं।
  • नवीकरणीय-केंद्रित प्रणाली में तेज़ी लाना: भारत के प्राकृतिक लाभों का लाभ उठाते हुए, सौर और पवन ऊर्जा का तेज़ी से विस्तार करना। भारत का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म क्षमता हासिल करना तथा वर्ष 2025 के मध्य तक सौर, पवन, जलविद्युत और परमाणु ऊर्जा में 190 गीगावाट को पार कर चुका है।
  • मज़बूत ऊर्जा भंडारण का निर्माण करना: नवीकरणीय ऊर्जा संचारित करने के लिये हरित ऊर्जा गलियारे में निवेश कर और ग्रिड स्थिरता के लिये  बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणालियों (BESS) और पंप हाइड्रो का समर्थन करना।
    • BESS के विकास के लिये सरकार की व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण (VGF) योजना के तहत वर्ष 2030-31 तक 4,000 मेगावाट घंटा BESS की योजना बनाई गई है, जिसके लिये पूंजीगत लागत का 40% तक वित्तपोषण किया जाएगा।
  • ग्रिड स्थिरता के लिये कोयले का लाभ उठाना: कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों को रणनीतिक रूप से पुनः स्थापित करना ताकि वे फ्लेक्सिबल पीकिंग विद्युत स्रोतों के रूप में कार्य कर सकें, जिन्हें नवीकरणीय उत्पादन कम होने पर (जैसे, रात में या मानसून के दौरान) तेजी से बढ़ाया जा सके, जिससे ग्रिड स्थिरता और विश्वसनीय 24/7 विद्युत् आपूर्ति सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष

भारत का कोयला क्षेत्र ऊर्जा सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के लिये आज भी महत्त्वपूर्ण बना हुआ है, लेकिन यह अस्थिर पर्यावरणीय तथा आर्थिक लागतों का सामना कर रहा है। भविष्य इस द्वैध-रणनीति पर निर्भर करता है: कोयले का ज़िम्मेदार प्रबंधन करना ताकि यह संक्रमणकालीन एवं लचीले ऊर्जा स्रोत के रूप में उपयोग हो सके, साथ ही नवीकरणीय ऊर्जाऊर्जा भंडारण को तेज़ी से बढ़ाना ताकि एक सतत् और आत्मनिर्भर ऊर्जा भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. “कोयला भारत की ऊर्जा सुरक्षा का आधार है, लेकिन इसकी लंबे समय तक चलने वाली सस्टेनेबिलिटी पर प्रश्न है।" भारत के विकास और पर्यावरणीय लक्ष्यों के संदर्भ में इसका आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. भारत की ऊर्जा मिश्रण में कोयले का क्या महत्त्व है।
कोयला भारत की ऊर्जा मिश्रण में 55% का योगदान देता है और यह बिजली उत्पादन का 74% से अधिक हिस्सा जलाता है, जिससे स्थिर और भरोसेमंद बिजली मिलती है, जो ग्रिड की स्थिरता के लिये आवश्यक है।

2. भारत के किन राज्यों में सबसे अधिक कोयला भंडार है?
ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भारत के कुल कोयला भंडार का 69% हिस्सा है।

3. भारत सरकार कोयले के स्वच्छ उपयोग को कैसे बढ़ावा दे रही है।
कोयला गैसीकरण के लिये 8,500 करोड़ रुपये की विविधनीय अंतर निधि योजना जैसी पहलों के माध्यम से सरकार यह सुनिश्चित कर रही है कि कोयले को सिन्गैस (syngas) में परिवर्तित किया जा सके, जो स्वच्छ ईंधन और रसायनों के उत्पादन में उपयोग होता है और कोयले के प्रत्यक्ष कार्बन उत्सर्जन को कम करता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)

प्रीलिम्स

प्रश्न 1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. भारत सरकार द्वारा कोयला क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी के कार्यकाल में किया गया था।
  2. वर्तमान में, कोयला खंडों का आवंटन लॉटरी के आधार पर किया जाता है।
  3. भारत हाल के समय तक घरेलू आपूर्ति की कमी को पूरा करने के लिये कोयले का आयात करता था, किंतु अब भारत कोयला उत्पादन में आत्मनिर्भर है।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1

(b) केवल 2 और 3

(c) केवल 3

(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)


प्रश्न. 2. निम्नलिखित में से कौन-सा/से भारतीय कोयले का/के अभिलक्षण है/हैं? (2013)

  1. उच्च भस्म अंश 
  2. निम्न सल्फर अंश 
  3. निम्न भस्म संगलन तापमान

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2

(b) केवल 2

(c) केवल 1 और 3

(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)


मेन्स

प्रश्न. गोंडवानालैंड के देशों में से एक होने के बावजूद भारत के खनन उद्योग प्रतिशत में अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में बहुत कम प्रतिशत योगदान देते हैं। विवेचना कीजिये। (2021)

प्रश्न. "प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव के बावजूद कोयला खनन विकास के लिये अभी भी अपरिहार्य है"। विवेचना कीजिये। (2017)


शासन व्यवस्था

23 वाँ विधि आयोग और एक राष्ट्र एक चुनाव

प्रिलिम्स के लिये: 23 वाँ विधि आयोग, संयुक्त संसदीय समिति, आदर्श आचार संहिता, एक राष्ट्र एक चुनाव, भारतीय संविधान की मूल संरचना

मेन्स के लिये: मूल संरचना सिद्धांत और न्यायिक समीक्षा, भारत में चुनाव सुधार।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

23वें विधि आयोग ने संविधान (129 वाँ संशोधन) विधेयक, 2024 और संघ राज्यक्षेत्र विधि (संशोधन) विधेयक, 2024 का अन्वीक्षण कर रही संयुक्त संसदीय समिति के साथ अपने प्रारंभिक विचार साझा किये हैं। दोनों विधेयकों का उद्देश्य एक राष्ट्र एक चुनाव को संभव बनाना है।

23वें विधि आयोग के मुख्य बिंदु क्या हैं?

  • भारत का 23वाँ विधि आयोग: भारत में विधि सुधार स्वतंत्रता के बाद से ही जारी है तथा प्रथम विधि आयोग वर्ष 1955 में स्थापित किया गया था। 
    • केंद्र सरकार ने 1 सितंबर, 2024 से 31 अगस्त, 2027 तक तीन वर्षीय कार्यकाल हेतु 23वें विधि आयोग का गठन किया है, जिसमें न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) दिनेश महेश्वरी को अध्यक्ष नियुक्त किया गया है।
    • आयोग में एक पूर्णकालिक अध्यक्ष, चार पूर्णकालिक सदस्य, विधि मामलों और विधायी विभागों के सचिव पदेन सदस्य तथा अधिकतम पाँच अंशकालिक सदस्य शामिल होते हैं।
    • इसका कार्य गतकालिक विधियों की समीक्षा और निरसन, विधिक भाषा और प्रक्रियाओं का सरलीकरण तथा वर्तमान आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप विधि निर्माण करना है।
    • आयोग विधिक मुद्दों पर सरकार को परामर्श भी देता है तथा सुभेद्य समूहों पर वैश्वीकरण के प्रभाव का अध्ययन भी करता है।
  • एक राष्ट्र एक चुनाव विधेयक के संबंध में 23वें विधि आयोग के विचार: आयोग ने कहा कि एक राष्ट्र एक चुनाव विधेयक संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करता है तथा यह भी कहा कि संघवाद और मतदाता के अधिकार पूर्णतः सुरक्षित हैं।
    • इसने स्पष्ट किया कि चुनावों को एक साथ करने से केवल मतदान की आवृत्ति और समय में परिवर्तन होता है तथा इससे किसी भी तरह से मतदान का लोकतांत्रिक अधिकार क्षरित नहीं होता है।
    • आयोग का मानना ​​है कि विधेयक को राज्यों द्वारा अनुसमर्थन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह अनुच्छेद 368(2) खंड (a) से (e) के तहत विषयों में संशोधन का प्रस्ताव नहीं करते हैं , जो राज्य अनुसमर्थन को अनिवार्य बनाते हैं।
    • एक साथ चुनाव कराने को सकारात्मक दृष्टि से देखा जा रहा है क्योंकि इससे समय और धन की बचत होगी।
  • आदर्श आचार संहिता (MCC): विधि आयोग ने MCC को विधिक दर्जा देने के विरुद्ध अनुशंसा की, यह तर्क देते हुए कि इसे संहिताबद्ध करने से चुनावों के दौरान निर्णय-प्रक्रिया धीमी हो जाएगी।
    • इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि वर्तमान नम्य, सर्वसम्मति आधारित आदर्श आचार संहिता बेहतर काम करती है, क्योंकि यह निर्वाचन आयोग को आवश्यकता पड़ने पर शीघ्र कार्रवाई करने की अनुमति देती है।

भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना का सिद्धांत क्या है?

  • भारतीय संविधान का आधारभूत ढाँचा सिद्धांत, एक न्यायिक समीक्षा सिद्धांत है जिसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक मामले में स्थापित किया था।
    • यह संवैधानिक सर्वोच्चता, विधि का शासन, शक्तियों का पृथक्करण और संघवाद जैसे आधारभूत संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करता है। यह भी माना गया है कि संसद, अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान की इन आवश्यक विशेषताओं में संशोधन या उन्हें नष्ट नहीं कर सकती है।
    • इसकी उत्पत्ति युद्धोत्तर जर्मन संविधान, 1949 से जुड़ी हुई है, जिसने नाजी युग के बाद आवश्यक सिद्धांतों की रक्षा की।
    • आधारभूत संरचना के सिद्धांत के तत्त्व: सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मूल विशेषताओं की सूची संपूर्ण नहीं है, न्यायालय आवश्यकता के आधार पर नए मामलों में इसकी पहचान करता है।
      • इसमें कई मुख्य तत्त्व शामिल हैं जैसे संविधान की सर्वोच्चता, एक संप्रभु, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक सरकार, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, विधि का शासन और शक्तियों का पृथक्करण। 
      • इसमें न्यायिक समीक्षा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, संसदीय शासन प्रणाली और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता  भी शामिल है।
      • अन्य आवश्यक विशेषताओं में मौलिक अधिकारों की प्रधानता, मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) के बीच सामंजस्य तथा अनुच्छेद 32, 136, 141 और 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ, साथ ही अनुच्छेद 226 और 227 के तहत उच्च न्यायालयों की शक्तियाँ शामिल हैं।
  • आधारभूत संरचना सिद्धांत का महत्त्व:
    • संवैधानिक पहचान की सुरक्षा: संसद को संविधान की मूल विशेषताओं को बदलने या समाप्त करने से रोकता है तथा निरंतरता और स्थिरता सुनिश्चित करता है।
    • बहुमत की शक्ति पर अंकुश: अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन करने की शक्ति पर सख्त सीमाएँ आरोपित करता है, जो अस्थायी राजनीतिक बहुमत पर अंकुश के रूप में कार्य करता है।
    • मौलिक अधिकारों की रक्षा: यह सुनिश्चित करता है कि समानता, स्वतंत्रता और विधि के शासन जैसे आवश्यक अधिकारों को संशोधनों के माध्यम से कमज़ोर नहीं किया जा सकता।
    • न्यायिक समीक्षा को मज़बूत करना: न्यायालयों को संवैधानिक अनिवार्यताओं को नुकसान पहुँचाने वाले संशोधनों को अमान्य करने का अधिकार देता है तथा जवाबदेहिता को मज़बूत करता है।
    • स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करता है: ऐसे संशोधनों पर रोक लगता है जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को विकृत कर सकते हैं या चुनावी अखंडता को कमज़ोर कर सकते हैं।
    • संविधान को एक 'जीवंत  दस्तावेज़' बनाए रखना: संविधान के आधारभूत दर्शन को नष्ट होने से बचाते हुए प्रगतिशील परिवर्तनों की अनुमति प्रदान करता है।

एक राष्ट्र, एक चुनाव क्या है?

  • परिचय: एक साथ चुनाव या ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’, एक ही समय में  लोकसभा, राज्य विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव कराने को संदर्भित करता है।
    • पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्च स्तरीय समिति ने दो संवैधानिक संशोधन विधेयकों- संविधान (129वाँ संशोधन) विधेयक, 2024 और केंद्रशासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक, 2024 के माध्यम से एक राष्ट्र, एक चुनाव को सक्षम करने की सिफारिश की है।
  • ऐतिहासिक संदर्भ: भारत में वर्ष 1951 से 1967 तक समकालिक चुनाव हुए, जिसके दौरान लोकसभा और अधिकांश राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए।
    • हालाँकि, राजनीतिक कारणों और विधानसभाओं के समय से पहले विघटन के कारण यह प्रथा समाप्त हो गई। 1960 के दशक में राजनीतिक अस्थिरता और दलबदल के कारण चुनाव चक्र और भी अलग हो गए।
  • एक साथ चुनाव कराए जाने के पक्ष में तर्क:
    • शासन में निरंतरता को बढ़ावा मिलता है, क्योंकि बार-बार होने वाले चुनावों के कारण सरकार और नेताओं का ध्यान विकास एवं कल्याणकारी कार्यों से भ्रमित नहीं होता है।
    • नीतिगत पक्षाघात की स्थिति कम होती है, क्योंकि आदर्श आचार संहिता बार-बार लागू नहीं करनी पड़ती, जिससे योजनाओं और निर्णयों का निर्बाध क्रियान्वयन संभव होता है।
    • प्रशासनिक संसाधनों का दुरुपयोग कम होता है, क्योंकि एक साथ चुनाव होने पर बार-बार चुनावी ड्यूटी के लिये कर्मियों की तैनाती की आवश्यकता नहीं पड़ती।
    • क्षेत्रीय दलों का महत्त्व इसलिये कायम रहता है क्योंकि वे राज्य-स्तरीय चिंताओं को वह प्रमुखता देते हैं, जो अक्सर राष्ट्रीय चुनाव अभियानों में गौण हो जाती हैं।
    • शासन पर ध्यान केंद्रित करना आसान हो जाता है, क्योंकि चुनावों की संख्या घटने से राजनीतिक व्यवधान कम होते हैं, चुनावी आक्रामकता में कमी आती है और जन-आवश्यकताओं पर अधिक फोकस दिया जा सकता है।
    • वित्तीय बोझ कम होता है, क्योंकि अलग-अलग चुनाव चक्रों में मानव-बल, सुरक्षा, लॉजिस्टिक्स और उपकरणों पर होने वाला व्यय कम हो जाता है।

निष्कर्ष

एक साथ चुनावों (Simultaneous elections) का उद्देश्य भारत की चुनावी प्रक्रिया को सरल बनाना, शासन को मज़बूत करना और प्रशासनिक व वित्तीय बोझ को कम करना है। 23वें विधि आयोग द्वारा इसकी संवैधानिक वैधता की पुष्टि के बाद, अब बहस का केंद्र इसकी व्यावहारिक व्यवहार्यता और राजनीतिक सहमति पर आ गया है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. एक देश, एक चुनाव को सक्षम बनाने के लिये संवैधानिक संशोधनों की सिफारिश किस समिति ने की?
पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च-स्तरीय समिति ने इन परिवर्तनों की सिफारिश की।

2. एक देश, एक चुनाव से संबंधित विधेयकों की संवैधानिकता पर 23वें विधि आयोग का क्या मत है?
23वें विधि आयोग ने कहा कि ये विधेयक संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करते।

3. क्या चुनावों को एक साथ कराने (सिंक्रोनाइज़्ड इलेक्शंस) के लिये अनुच्छेद 368 के तहत राज्यों की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है?
नहीं। आयोग ने स्पष्ट किया कि ये विधेयक अनुच्छेद 368(2)(a)–(e) के तहत उन प्रावधानों में संशोधन नहीं करते, जिनके लिये राज्यों का अनुमोदन आवश्यक है।

4. आचार संहिता (MCC) को वैधानिक दर्जा देने पर विधि आयोग का क्या दृष्टिकोण है?
आयोग ने MCC को क़ानूनी दर्जा देने के खिलाफ सलाह दी, यह कहते हुए कि इससे चुनावों के दौरान प्रशासनिक निर्णय-प्रक्रिया धीमी हो जाएगी।

5. कौन-सा सर्वोच्च न्यायालय मामला मूल संरचना सिद्धांत की स्थापना के लिये जाना जाता है?
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)

प्रिलिम्स 

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)

  1. भारत का निर्वाचन आयोग पाँच-सदस्यीय निकाय है।
  2.  संघ का गृह मंत्रालय, आम चुनाव और उप-चुनावों दोनों के लिये चुनाव कार्यक्रम तय करता है।
  3.  निर्वाचन आयोग मान्यता-प्राप्त राजनीतिक दलों के विभाजन/विलय से संबंधित विवाद निपटाता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं ?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: (d)


प्रश्न. भारत के संविधान के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. किसी भी केंद्रीय विधि को सांविधानिक रूप से अवैध घोषित करने की किसी भी उच्च न्यायालय की अधिकारिता नहीं होगी।
  2. भारत के संविधान के किसी भी संशोधन पर भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1

(b) केवल 2

(c) 1 और 2 दोनों

(d) न तो 1, न ही 2

उत्तर: (d)


मेन्स 

प्रश्न. आदर्श आचार-संहिता के उद्भव के आलोक में, भारत के निर्वाचन आयोग की भूमिका का विवेचन कीजिये। (2022)

प्रश्न. "संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे आत्यंतिक शक्ति के रूप में विस्तृत नहीं किया जा सकता है।" इस कथन के आलोक में व्याख्या कीजिये कि क्या संसद संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत अपनी संशोधन की शक्ति का विशदीकरण करके संविधान के मूल ढाँचे को नष्ट कर सकती है ? (2019)


सामाजिक न्याय

बहुविवाह-निषेधीकरण की दिशा में प्रयास

प्रिलिम्स के लिये: भारत में बहुविवाह, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955,  राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, भारतीय दंड संहिता, 1860, मुस्लिम स्वीय विधि अधिनियम, 1937 , बहुविवाह विरोधी विधेयक

मेन्स के लिये: भारत में धार्मिक समूहों में बहुविवाह।

स्रोत: TH

चर्चा में क्यों’?

असम के मुख्यमंत्री ने असम विधानसभा में असम बहुविवाह निषेध विधेयक, 2025 पेश किया, जिसका उद्देश्य समग्र राज्य में बहुविवाह को अपराध घोषित करना है तथा विधि का उल्लंघन करने वालों के लिये दंड निर्धारित करना है।

असम बहुविवाह निषेध विधेयक 2025 के प्रमुख प्रावधान

  • बहुविवाह का अपराधीकरण: विधेयक बहुविवाह को एक दांडिक अपराध बनाता है तथा पहले विवाह के वैध रहते हुए दूसरा विवाह करने या उसे छिपाने वाले व्यक्ति के लिये 7 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने का प्रावधान करता है।
  • छूट और अधिकार क्षेत्र: यह विधान असम के छठी अनुसूची क्षेत्रों को इससे अलग करता है, जहाँ प्रथागत विधान बहुविवाह की अनुमति देते हैं।
    • संविधान के अनुच्छेद 342 के अंतर्गत अनुसूचित जनजातियाँ इस विधान के अंतर्गत नहीं आती हैं।
    • यह विधान असम के निवासियों पर लागू होता है तथा इसका क्षेत्राधिकार राज्य के बाहर बहुविवाह करने वालों या असम की कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित होने वालों पर भी लागू होता है।
  • प्रमुख व्यक्तियों की जवाबदेही: बहुविवाह करने वाले व्यक्तियों के ग्राम प्रधान, काजी (मुस्लिम मौलवी), माता-पिता और विधिक अभिभावकों को जवाबदेही सुनिश्चित की गई है।
  • प्रभावित महिलाओं के लिये मुआवजा: बहुविवाह से प्रतिकूल रूप से प्रभावित महिलाओं के लिये मुआवजा तंत्र स्थापित किया जाएगा।
  • दोषियों पर प्रभाव: इस विधान के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति सरकारी नौकरियों, लाभों और सरकारी योजनाओं के लिये अयोग्य हो जाएँगे। ऐसे व्यक्तियों के लिये चुनाव लड़ने की पात्रता पर रोक लगा दी जाएगी।
  • पूर्ववर्ती वैवाहिक अवस्थाओं हेतु संरक्षण प्रावधान: विधान के लागू होने से पूर्व किये गए बहुविवाह पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक कि वे मौजूदा व्यक्तिगत या प्रथागत विधानों का अनुपालन करते हैं और उनके पास वैध प्रमाण हैं।

बहुविवाह क्या है?

  • परिचय:  यह एक ही समय में एक से अधिक जीवनसाथी रखने की प्रथा को संदर्भित करता है। इस संदर्भ में, बहुविवाह से तात्पर्य ऐसे विवाह से है जिसमें एक व्यक्ति एक ही समय में कई साथी रख सकता है। 
    • भारत में ऐतिहासिक रूप से बहुविवाह व्यापक रूप से प्रचलित था, विशेषकर पुरुषों में, किंतु 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम ने औपचारिक रूप से इसे प्रतिबंधित कर दिया।
      • परंपरागत रूप से, बहुविवाह विभिन्न संस्कृतियों में प्रचलित रहा है तथा बहुपत्नीत्व (एक पुरुष की कई पत्नियाँ होना) कई समाजों में प्रचलित है। 
    • विशेष विवाह अधिनियम, 1954, अंतर-धार्मिक विवाहों की अनुमति देता है, किंतु बहुविवाह पर भी स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाता है। कई मुस्लिम महिलाओं ने बहुविवाह प्रथाओं को रोकने या चुनौती देने के लिये इस अधिनियम का उपयोग किया है।

बहुविवाह के प्रकार:

विवाह प्रकार

विवरण

बहुपत्नीत्व

बहुविवाह का एक रूप जिसमें एक पुरुष की कई पत्नियाँ होती हैं। ऐतिहासिक रूप से यह अधिक प्रचलित था, प्राचीन शासकों और सम्राटों (जैसे, सिंधु घाटी में) ने इस प्रथा का पालन किया था।

बहुपतित्व

एक ऐसी प्रथा जिसमें एक महिला के एक से अधिक पति होते हैं। यह अपेक्षाकृत दुर्लभ है और आमतौर पर विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों (कुछ जनजातीय या सांस्कृतिक समुदायों में) में देखने को मिलती है।

द्विविवाह

यह तब होता है जब कोई व्यक्ति, जो पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति से विवाहित है, पहले विवाह के कानूनी रूप से वैध रहते हुए दूसरा विवाह कर लेता है। ऐसे व्यक्ति को द्विविवाही (बहुविवाही) कहा जाता है। भारत सहित कई देशों में इसे एक दांडिक अपराध माना जाता है।

भारत में बहुविवाह की स्थिति क्या है?

  • भारत में बहुविवाह: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-2021) से ज्ञात होता है कि असम में 1.8 % हिंदू महिलाएँ और 3.6% मुस्लिम महिलाएँ बहुविवाह में जीवन व्यतीत कर रहीं हैं, जिसकी समग्र प्रचलन दर 2.4% है
    • उल्लेखनीय है कि मेघालय में बहुविवाह की दर भारत में सबसे अधिक 6.1% है
    • राष्ट्रीय स्तर पर, बहुविवाह की दर ईसाइयों में 2.1% , मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं और बौद्धों में 1.3% , सिखों में 0.5% और अन्य धर्मों या जातियों में 2.5% है

समुदायों में प्रचलन: 

  • हिंदुओं में बहुविवाह: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने बहुविवाह को समाप्त कर इसे अपराध घोषित किया तथा धारा 11 के तहत एकल विवाह को अनिवार्य बना दिया, जो बहुविवाह को अमान्य घोषित करता है।
  • पारसियों में बहुविवाह: पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 ने द्विविवाह को गैरकानूनी घोषित किया, जिससे पारसियों के लिये अपने जीवनसाथी के जीवनकाल में विधिक तलाक या पूर्व विवाह को अमान्य किये बिना पुनर्विवाह करना अवैध हो गया।

मुसलमानों में बहुविवाह: मुस्लिम विधान (मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम, 1937) बहुविवाह को निषिद्ध घोषित नहीं करते हैं, हालाँकि, यदि बहुविवाह को संविधान के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला पाया जाता है, तो इसे चुनौती दी जा सकती है और इसे रद्द किया जा सकता है।

POLYGAMY IN INDIA

बहुविवाह पर न्यायिक निर्णय

  • परायणकंडियाल बनाम के. देवी एवं अन्य (1996 ): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एकल संबंध हिंदू समाज का मानक और विचारधारा है, जो दूसरे विवाह को निषेध करता है और उसकी निंदा करता है।
    • धर्म के प्रभाव के कारण बहुविवाह को हिंदू संस्कृति का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं दी गई।
  • बॉम्बे राज्य बनाम नरसु अप्पा माली (1951 ): बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि बॉम्बे (हिंदू द्विविवाह निवारण) अधिनियम, 1946 भेदभावपूर्ण नहीं था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य विधानमंडल को लोक कल्याण और सुधार के लिये उपाय लागू करने का अधिकार है, भले ही वह हिंदू धर्म या रीति-रिवाज का उल्लंघन करता हो।
  • जावेद एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2003): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता सामाजिक सद्भाव, सम्मान और कल्याण के अधीन है।

यद्यपि मुस्लिम विधि चार महिलाओं से विवाह की अनुमति देती है, किंतु यह अनिवार्य नहीं है तथा चार महिलाओं से विवाह न करने का निर्णय भी धार्मिक प्रथा का उल्लंघन नहीं है।

भारत में बहुविवाह के प्रभाव क्या हैं?

  • व्यक्तिगत कानून और मौलिक अधिकार: भारत की कानूनी प्रणाली में असंगतियाँ देखने को मिलती हैं, क्योंकि व्यक्तिगत कानून कुछ समुदायों (जैसे मुसलमानों) के लिये बहुविवाह की अनुमति देते हैं, जबकि अन्य (जैसे हिंदू, ईसाई) एकल विवाह को लागू करते हैं, जिससे संवैधानिक समानता पर प्रश्न उठते हैं।
  • लैंगिक न्याय के साथ संघर्ष: बहुविवाह प्राय: अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के सिद्धांतों के विपरीत होता है, विशेष रूप से महिलाओं की गरिमा, स्वायत्तता और मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में (जैसे, शायरा बानो बनाम भारत संघ, 2017) व्यक्तिगत कानूनों में लैंगिक अधिकारों को बनाए रखने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
  • सामाजिक और कानूनी जटिलताएँ: हिंदुओं के लिये बहुविवाह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत अवैध है, जबकि मुसलमानों के व्यक्तिगत कानून के तहत (कुछ शर्तों के साथ) अनुमति प्राप्त है।
    • यह असमान व्यवहार व्यक्तिगत कानूनों में समानता और अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 15 (भेदभाव निषेध) के तहत धार्मिक समानता पर बहस को बढ़ावा देता है।
  • बदलते मानक: लैंगिक समानता के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के चलते, बहुविवाह समाज में धीरे-धीरे अस्वीकार्य माना जाने लगा है। कई लोग इसे कानूनी रूप से प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे हैं, क्योंकि यह व्यक्तिगत अधिकारों और न्याय के आधुनिक सिद्धांतों के विपरीत है।

बहुविवाह के प्रभावों को संबोधित करने हेतु आवश्यक उपाय क्या हैं?

  • क्रमिक सुधार: व्यक्तिगत कानूनों में ऐसे संशोधन किये जाने चाहिये जो समानता और गरिमा जैसे संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप हों। यह क्रमिक सुधार धार्मिक प्रथाओं का सम्मान तथा महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाएगा और अंततः लैंगिक न्याय की दिशा में कार्य करेगा।
  • समान नागरिक संहिता (UCC): व्यापक परामर्श के साथ UCC लागू करने से भेदभावपूर्ण व्यक्तिगत कानूनों के स्थान पर समान अधिकार सुनिश्चित किये जा सकते हैं। इससे विवाह संबंधी कानूनों में मानकीकरण होगा, कानूनी असमानताओं और विवादों में कमी आएगी, लेकिन इसे क्रमिक रूप से तथा सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ लागू करना चाहिये।
  • कानूनी प्रवर्तन: बहुविवाह प्रथाओं की सख्ती से निगरानी की जानी चाहिये और कानून के तहत दंडित किया जाना चाहिये। पीड़ितों के लिये सहायता ढाँचे को मज़बूत करना और सामाजिक समर्थन प्रदान करना महिलाओं को शोषण से बचाएगा, सुनिश्चित करेगा कि बहुविवाह से प्रभावित होने पर उन्हें न्याय तथा मुआवजा प्राप्त हो।
  • सार्वजनिक जागरूकता: कानूनी सुधारों के साथ सार्वजनिक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिये ताकि लैंगिक समानता और संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जा सके। NGO, शैक्षणिक संस्थान और समुदायिक नेता बहुविवाह के प्रति दृष्टिकोण बदलने तथा लैंगिक न्याय की सामाजिक स्वीकृति को प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
  • न्यायिक निगरानी: न्यायालयों को बहुविवाह से संबंधित भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देने के लिये पूर्वनिर्धारित न्यायिक निर्णयों का उपयोग करना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये प्रथाएँ संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप हों। सार्वजनिक हित याचिकाएँ महिलाओं एवं बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सहायता कर सकती हैं, क्योंकि ये असंवैधानिक रीति-रिवाजों और व्यक्तिगत कानूनों को चुनौती देती हैं।

निष्कर्ष

भारत में बहुविवाह से संबंधित मुद्दों का समाधान धार्मिक स्वतंत्रताओं को बनाए रखने और समानता तथा न्याय के संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करने के बीच एक सूक्ष्म संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता रखता है। एक बहुआयामी दृष्टिकोण जिसमें क्रमिक कानूनी सुधार, समान नागरिक संहिता का विचारशील कार्यान्वयन और मज़बूत न्यायिक हस्तक्षेप शामिल हो बहुविवाह प्रथाओं में निहित प्रणालीगत असमानताओं को दूर कर सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में बहुविवाह धार्मिक स्वतंत्रता, लैंगिक समानता और संवैधानिक अधिकारों से संबंधित जटिल मुद्दे उठाता है। इस पर टिप्पणी कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. क्या भारत में बहुविवाह कानूनी है?
बहुविवाह मुसलमानों के लिये व्यक्तिगत कानूनों के तहत कानूनी है, लेकिन हिंदू, सिख और ईसाई धर्मावलंबियों के लिये हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 द्वारा प्रतिबंधित है।

2. क्या बहुविवाह को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है?
हाँ, यदि बहुविवाह संवैधानिक अधिकारों, विशेषकर समानता और सम्मान का उल्लंघन करता है, तो इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

3. भारत में बहुविवाह महिलाओं के अधिकारों पर कैसे प्रभाव डालता है?
बहुविवाह प्राय: लैंगिक असमानता, भावनात्मक शोषण और महिलाओं के संसाधनों तक सीमित पहुँच जैसी समस्याओं को जन्म देता है।

4. बहुविवाह के संबंध में समान नागरिक संहिता (UCC) पर सरकार का दृष्टिकोण क्या है?
सरकार ने व्यक्तिगत कानूनों को बदलकर समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिये UCC पर बहस की है, लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर चिंताओं का सामना भी करना पड़ता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)

प्रिलिम्स 

प्रश्न: भारत के संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के किसी व्यक्ति के अधिकार को संरक्षण देता है?

(a) अनुच्छेद 19
(b) अनुच्छेद 21
(c) अनुच्छेद 25
(d) अनुच्छेद 29

उत्तर: (b) 

व्याख्या: 

  • विवाह का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक घटक है, जिसमें कहा गया है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा"।
  • लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत विवाह के अधिकार को जीवन के अधिकार के एक घटक के रूप में देखा।

अतः विकल्प (b) सही उत्तर है।


मेन्स

प्रश्न. रीति-रिवाजों एवं परंपराओं द्वारा तर्क को दबाने से प्रगतिविरोध उत्पन्न हुआ है। क्या आप इससे सहमत हैं? (2020)


close
Share Page
images-2
images-2