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बहुविवाह-निषेधीकरण की दिशा में प्रयास

  • 01 Dec 2025
  • 90 min read

प्रिलिम्स के लिये: भारत में बहुविवाह, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955,  राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, भारतीय दंड संहिता, 1860, मुस्लिम स्वीय विधि अधिनियम, 1937 , बहुविवाह विरोधी विधेयक

मेन्स के लिये: भारत में धार्मिक समूहों में बहुविवाह।

स्रोत: TH

चर्चा में क्यों’?

असम के मुख्यमंत्री ने असम विधानसभा में असम बहुविवाह निषेध विधेयक, 2025 पेश किया, जिसका उद्देश्य समग्र राज्य में बहुविवाह को अपराध घोषित करना है तथा विधि का उल्लंघन करने वालों के लिये दंड निर्धारित करना है।

असम बहुविवाह निषेध विधेयक 2025 के प्रमुख प्रावधान

  • बहुविवाह का अपराधीकरण: विधेयक बहुविवाह को एक दांडिक अपराध बनाता है तथा पहले विवाह के वैध रहते हुए दूसरा विवाह करने या उसे छिपाने वाले व्यक्ति के लिये 7 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने का प्रावधान करता है।
  • छूट और अधिकार क्षेत्र: यह विधान असम के छठी अनुसूची क्षेत्रों को इससे अलग करता है, जहाँ प्रथागत विधान बहुविवाह की अनुमति देते हैं।
    • संविधान के अनुच्छेद 342 के अंतर्गत अनुसूचित जनजातियाँ इस विधान के अंतर्गत नहीं आती हैं।
    • यह विधान असम के निवासियों पर लागू होता है तथा इसका क्षेत्राधिकार राज्य के बाहर बहुविवाह करने वालों या असम की कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित होने वालों पर भी लागू होता है।
  • प्रमुख व्यक्तियों की जवाबदेही: बहुविवाह करने वाले व्यक्तियों के ग्राम प्रधान, काजी (मुस्लिम मौलवी), माता-पिता और विधिक अभिभावकों को जवाबदेही सुनिश्चित की गई है।
  • प्रभावित महिलाओं के लिये मुआवजा: बहुविवाह से प्रतिकूल रूप से प्रभावित महिलाओं के लिये मुआवजा तंत्र स्थापित किया जाएगा।
  • दोषियों पर प्रभाव: इस विधान के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति सरकारी नौकरियों, लाभों और सरकारी योजनाओं के लिये अयोग्य हो जाएँगे। ऐसे व्यक्तियों के लिये चुनाव लड़ने की पात्रता पर रोक लगा दी जाएगी।
  • पूर्ववर्ती वैवाहिक अवस्थाओं हेतु संरक्षण प्रावधान: विधान के लागू होने से पूर्व किये गए बहुविवाह पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक कि वे मौजूदा व्यक्तिगत या प्रथागत विधानों का अनुपालन करते हैं और उनके पास वैध प्रमाण हैं।

बहुविवाह क्या है?

  • परिचय:  यह एक ही समय में एक से अधिक जीवनसाथी रखने की प्रथा को संदर्भित करता है। इस संदर्भ में, बहुविवाह से तात्पर्य ऐसे विवाह से है जिसमें एक व्यक्ति एक ही समय में कई साथी रख सकता है। 
    • भारत में ऐतिहासिक रूप से बहुविवाह व्यापक रूप से प्रचलित था, विशेषकर पुरुषों में, किंतु 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम ने औपचारिक रूप से इसे प्रतिबंधित कर दिया।
      • परंपरागत रूप से, बहुविवाह विभिन्न संस्कृतियों में प्रचलित रहा है तथा बहुपत्नीत्व (एक पुरुष की कई पत्नियाँ होना) कई समाजों में प्रचलित है। 
    • विशेष विवाह अधिनियम, 1954, अंतर-धार्मिक विवाहों की अनुमति देता है, किंतु बहुविवाह पर भी स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाता है। कई मुस्लिम महिलाओं ने बहुविवाह प्रथाओं को रोकने या चुनौती देने के लिये इस अधिनियम का उपयोग किया है।

बहुविवाह के प्रकार:

विवाह प्रकार

विवरण

बहुपत्नीत्व

बहुविवाह का एक रूप जिसमें एक पुरुष की कई पत्नियाँ होती हैं। ऐतिहासिक रूप से यह अधिक प्रचलित था, प्राचीन शासकों और सम्राटों (जैसे, सिंधु घाटी में) ने इस प्रथा का पालन किया था।

बहुपतित्व

एक ऐसी प्रथा जिसमें एक महिला के एक से अधिक पति होते हैं। यह अपेक्षाकृत दुर्लभ है और आमतौर पर विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों (कुछ जनजातीय या सांस्कृतिक समुदायों में) में देखने को मिलती है।

द्विविवाह

यह तब होता है जब कोई व्यक्ति, जो पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति से विवाहित है, पहले विवाह के कानूनी रूप से वैध रहते हुए दूसरा विवाह कर लेता है। ऐसे व्यक्ति को द्विविवाही (बहुविवाही) कहा जाता है। भारत सहित कई देशों में इसे एक दांडिक अपराध माना जाता है।

भारत में बहुविवाह की स्थिति क्या है?

  • भारत में बहुविवाह: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-2021) से ज्ञात होता है कि असम में 1.8 % हिंदू महिलाएँ और 3.6% मुस्लिम महिलाएँ बहुविवाह में जीवन व्यतीत कर रहीं हैं, जिसकी समग्र प्रचलन दर 2.4% है
    • उल्लेखनीय है कि मेघालय में बहुविवाह की दर भारत में सबसे अधिक 6.1% है
    • राष्ट्रीय स्तर पर, बहुविवाह की दर ईसाइयों में 2.1% , मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं और बौद्धों में 1.3% , सिखों में 0.5% और अन्य धर्मों या जातियों में 2.5% है

समुदायों में प्रचलन: 

  • हिंदुओं में बहुविवाह: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने बहुविवाह को समाप्त कर इसे अपराध घोषित किया तथा धारा 11 के तहत एकल विवाह को अनिवार्य बना दिया, जो बहुविवाह को अमान्य घोषित करता है।
  • पारसियों में बहुविवाह: पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 ने द्विविवाह को गैरकानूनी घोषित किया, जिससे पारसियों के लिये अपने जीवनसाथी के जीवनकाल में विधिक तलाक या पूर्व विवाह को अमान्य किये बिना पुनर्विवाह करना अवैध हो गया।

मुसलमानों में बहुविवाह: मुस्लिम विधान (मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम, 1937) बहुविवाह को निषिद्ध घोषित नहीं करते हैं, हालाँकि, यदि बहुविवाह को संविधान के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला पाया जाता है, तो इसे चुनौती दी जा सकती है और इसे रद्द किया जा सकता है।

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बहुविवाह पर न्यायिक निर्णय

  • परायणकंडियाल बनाम के. देवी एवं अन्य (1996 ): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एकल संबंध हिंदू समाज का मानक और विचारधारा है, जो दूसरे विवाह को निषेध करता है और उसकी निंदा करता है।
    • धर्म के प्रभाव के कारण बहुविवाह को हिंदू संस्कृति का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं दी गई।
  • बॉम्बे राज्य बनाम नरसु अप्पा माली (1951 ): बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि बॉम्बे (हिंदू द्विविवाह निवारण) अधिनियम, 1946 भेदभावपूर्ण नहीं था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य विधानमंडल को लोक कल्याण और सुधार के लिये उपाय लागू करने का अधिकार है, भले ही वह हिंदू धर्म या रीति-रिवाज का उल्लंघन करता हो।
  • जावेद एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2003): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता सामाजिक सद्भाव, सम्मान और कल्याण के अधीन है।

यद्यपि मुस्लिम विधि चार महिलाओं से विवाह की अनुमति देती है, किंतु यह अनिवार्य नहीं है तथा चार महिलाओं से विवाह न करने का निर्णय भी धार्मिक प्रथा का उल्लंघन नहीं है।

भारत में बहुविवाह के प्रभाव क्या हैं?

  • व्यक्तिगत कानून और मौलिक अधिकार: भारत की कानूनी प्रणाली में असंगतियाँ देखने को मिलती हैं, क्योंकि व्यक्तिगत कानून कुछ समुदायों (जैसे मुसलमानों) के लिये बहुविवाह की अनुमति देते हैं, जबकि अन्य (जैसे हिंदू, ईसाई) एकल विवाह को लागू करते हैं, जिससे संवैधानिक समानता पर प्रश्न उठते हैं।
  • लैंगिक न्याय के साथ संघर्ष: बहुविवाह प्राय: अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के सिद्धांतों के विपरीत होता है, विशेष रूप से महिलाओं की गरिमा, स्वायत्तता और मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में (जैसे, शायरा बानो बनाम भारत संघ, 2017) व्यक्तिगत कानूनों में लैंगिक अधिकारों को बनाए रखने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
  • सामाजिक और कानूनी जटिलताएँ: हिंदुओं के लिये बहुविवाह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत अवैध है, जबकि मुसलमानों के व्यक्तिगत कानून के तहत (कुछ शर्तों के साथ) अनुमति प्राप्त है।
    • यह असमान व्यवहार व्यक्तिगत कानूनों में समानता और अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 15 (भेदभाव निषेध) के तहत धार्मिक समानता पर बहस को बढ़ावा देता है।
  • बदलते मानक: लैंगिक समानता के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के चलते, बहुविवाह समाज में धीरे-धीरे अस्वीकार्य माना जाने लगा है। कई लोग इसे कानूनी रूप से प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे हैं, क्योंकि यह व्यक्तिगत अधिकारों और न्याय के आधुनिक सिद्धांतों के विपरीत है।

बहुविवाह के प्रभावों को संबोधित करने हेतु आवश्यक उपाय क्या हैं?

  • क्रमिक सुधार: व्यक्तिगत कानूनों में ऐसे संशोधन किये जाने चाहिये जो समानता और गरिमा जैसे संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप हों। यह क्रमिक सुधार धार्मिक प्रथाओं का सम्मान तथा महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाएगा और अंततः लैंगिक न्याय की दिशा में कार्य करेगा।
  • समान नागरिक संहिता (UCC): व्यापक परामर्श के साथ UCC लागू करने से भेदभावपूर्ण व्यक्तिगत कानूनों के स्थान पर समान अधिकार सुनिश्चित किये जा सकते हैं। इससे विवाह संबंधी कानूनों में मानकीकरण होगा, कानूनी असमानताओं और विवादों में कमी आएगी, लेकिन इसे क्रमिक रूप से तथा सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ लागू करना चाहिये।
  • कानूनी प्रवर्तन: बहुविवाह प्रथाओं की सख्ती से निगरानी की जानी चाहिये और कानून के तहत दंडित किया जाना चाहिये। पीड़ितों के लिये सहायता ढाँचे को मज़बूत करना और सामाजिक समर्थन प्रदान करना महिलाओं को शोषण से बचाएगा, सुनिश्चित करेगा कि बहुविवाह से प्रभावित होने पर उन्हें न्याय तथा मुआवजा प्राप्त हो।
  • सार्वजनिक जागरूकता: कानूनी सुधारों के साथ सार्वजनिक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिये ताकि लैंगिक समानता और संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जा सके। NGO, शैक्षणिक संस्थान और समुदायिक नेता बहुविवाह के प्रति दृष्टिकोण बदलने तथा लैंगिक न्याय की सामाजिक स्वीकृति को प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
  • न्यायिक निगरानी: न्यायालयों को बहुविवाह से संबंधित भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देने के लिये पूर्वनिर्धारित न्यायिक निर्णयों का उपयोग करना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये प्रथाएँ संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप हों। सार्वजनिक हित याचिकाएँ महिलाओं एवं बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सहायता कर सकती हैं, क्योंकि ये असंवैधानिक रीति-रिवाजों और व्यक्तिगत कानूनों को चुनौती देती हैं।

निष्कर्ष

भारत में बहुविवाह से संबंधित मुद्दों का समाधान धार्मिक स्वतंत्रताओं को बनाए रखने और समानता तथा न्याय के संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करने के बीच एक सूक्ष्म संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता रखता है। एक बहुआयामी दृष्टिकोण जिसमें क्रमिक कानूनी सुधार, समान नागरिक संहिता का विचारशील कार्यान्वयन और मज़बूत न्यायिक हस्तक्षेप शामिल हो बहुविवाह प्रथाओं में निहित प्रणालीगत असमानताओं को दूर कर सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में बहुविवाह धार्मिक स्वतंत्रता, लैंगिक समानता और संवैधानिक अधिकारों से संबंधित जटिल मुद्दे उठाता है। इस पर टिप्पणी कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. क्या भारत में बहुविवाह कानूनी है?
बहुविवाह मुसलमानों के लिये व्यक्तिगत कानूनों के तहत कानूनी है, लेकिन हिंदू, सिख और ईसाई धर्मावलंबियों के लिये हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 द्वारा प्रतिबंधित है।

2. क्या बहुविवाह को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है?
हाँ, यदि बहुविवाह संवैधानिक अधिकारों, विशेषकर समानता और सम्मान का उल्लंघन करता है, तो इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

3. भारत में बहुविवाह महिलाओं के अधिकारों पर कैसे प्रभाव डालता है?
बहुविवाह प्राय: लैंगिक असमानता, भावनात्मक शोषण और महिलाओं के संसाधनों तक सीमित पहुँच जैसी समस्याओं को जन्म देता है।

4. बहुविवाह के संबंध में समान नागरिक संहिता (UCC) पर सरकार का दृष्टिकोण क्या है?
सरकार ने व्यक्तिगत कानूनों को बदलकर समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिये UCC पर बहस की है, लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर चिंताओं का सामना भी करना पड़ता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)

प्रिलिम्स 

प्रश्न: भारत के संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के किसी व्यक्ति के अधिकार को संरक्षण देता है?

(a) अनुच्छेद 19
(b) अनुच्छेद 21
(c) अनुच्छेद 25
(d) अनुच्छेद 29

उत्तर: (b) 

व्याख्या: 

  • विवाह का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक घटक है, जिसमें कहा गया है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा"।
  • लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत विवाह के अधिकार को जीवन के अधिकार के एक घटक के रूप में देखा।

अतः विकल्प (b) सही उत्तर है।


मेन्स

प्रश्न. रीति-रिवाजों एवं परंपराओं द्वारा तर्क को दबाने से प्रगतिविरोध उत्पन्न हुआ है। क्या आप इससे सहमत हैं? (2020)

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