भारतीय राजव्यवस्था
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला
- 27 Apr 2020
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प्रीलिम्स के लिये:आधारभूत संरचना, आधारभूत संरचना की सूची, शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार मामला, सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार मामला, केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामला, आरसी कूपर बनाम भारतीय संघ मामला, मदनराव सिंधिया बनाम भारतीय संघ मामला मेन्स के लिये:भारतीय संविधान में आधारभूत संरचना का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने 47 वर्ष पूर्व 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' (24 अप्रैल, 1973) मामले में संविधान की ‘आधारभूत संरचना’ (Basic Structure) का ऐतिहासिक सिद्धांत दिया था।
मुख्य बिंदु:
- 13 न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने 7-6 के बहुमत से निर्णय किया कि संविधान की 'आधारभूत संरचना' अनुल्लंघनीय है और इसे संसद द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
- ‘आधारभूत संरचना’ को इस निर्णय के बाद से भारतीय संविधान में एक सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है।
संविधान की आधारभूत संरचना
(Basic Structure of the Constitution):
- संविधान की आधारभूत संरचना का तात्पर्य संविधान में निहित उन प्रावधानों से है, जो भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक आदर्शों को प्रस्तुत करते हैं। इन प्रावधानों को संविधान में संशोधन के द्वारा भी नहीं हटाया जा सकता है।
- वस्तुतः ये प्रावधान अपने आप में इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इनमें नकारात्मक बदलाव से संविधान का सार-तत्त्व, जो जनमानस के विकास के लिये आवश्यक है, नकारात्मक रूप से प्रभावित होगा।
‘आधारभूत संरचना’ सिद्धांत का विकास:
- संसद की संविधान संशोधन करने की शक्ति क्या हो सकती है? इस पर भारतीय संविधान को अपनाने के बाद से ही बहस छिड़ी हुई है।
- संसद को पूर्ण शक्ति:
- स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार मामला’ (1951) और ‘सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार मामला’ (1965) जैसे मामलों में निर्णय देते हुए संसद को संविधान में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति प्रदान की गई।
- इसका कारण यह माना जाता है कि स्वतंत्रता के बाद शुरुआती वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्त्व पर विश्वास जताया क्योंकि उस समय प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी संसद सदस्यों के रूप में सेवा कर रहे थे।
- मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं:
- जब सत्तारूढ़ सरकारों ने अपने राजनीतिक हितों के लिये संविधान में संशोधन करना चाहा तब ‘गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार’ (1967) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि "संसद अनुच्छेद 368 के अधीन मौलिक अधिकारों को समाप्त या सीमित करने की शक्ति नहीं रखती है। "
- संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव:
- 1970 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन सरकार द्वारा ‘आरसी. कूपर बनाम भारतीय संघ (1970), ‘मदनराव सिंधिया बनाम भारत संघ (1970) आदि मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णयों को बदलने के लिये संविधान (24, 25, 26 और 29 वें) में व्यापक संशोधन किये गए।
- यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ‘आरसी कूपर’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी सरकार के ‘बैंकों के राष्ट्रीयकरण’ करने के निर्णय को अवैध घोषित किया गया था। जबकि ‘माधवराव सिंधिया’ मामले में पूर्व शासकों को दी जाने वाली ‘प्रिवी पर्स’ को समाप्त करने संबंधी संशोधन को अवैध घोषित किया गया था।
- केशवानंद भारती मामला:
- 24, 25, 26 और 29 वें संविधान संशोधनों तथा गोलकनाथ मामले के निर्णय को केशवानंद भारती मामले में चुनौती दी गई।
- चूंकि गोलकनाथ मामले का निर्णय ग्यारह न्यायाधीशों द्वारा किया गया था, इसलिये इस मामले में सुनवाई के लिये एक बड़ी पीठ की आवश्यकता थी और इस प्रकार केशवानंद मामले में 13 न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया, जहाँ प्रख्यात कानूनविद नानी पालखीवाला, फली नरीमन, सोली सोराबजी आदि ने सरकार के खिलाफ मामला प्रस्तुत किया।
- आधारभूत संरचना का सिद्धांत:
- केशवानंद भारती की संवैधानिक पीठ में, सदस्यों के बीच गंभीर वैचारिक मतभेद देखने को मिले तथा पीठ ने 7-6 से निर्णय किया कि संसद को संविधान के 'आधारभूत संरचना' में बदलाव करने से रोका जाना चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368; जो संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्तियाँ प्रदान करता है, के तहत संविधान की आधारभूत संरचना में बदलाव नहीं किया जा सकता है।
‘आधारभूत संरचना’ की सूची:
- यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने 'आधारभूत संरचना' को परिभाषित नहीं किया परंतु संविधान की कुछ विशेताओं को ‘आधारभूत संरचना’ के रूप निर्धारित किया है, यथा- संघवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र आदि। तब से अदालत ने इस सूची का निरंतर विस्तार किया है।
- निम्नलिखित को सर्वोच्च न्यायालय ने आधारभूत संरचना के रूप में सूचीबद्ध किया गया है:
- संविधान की सर्वोच्चता
- कानून का शासन
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत
- संघवाद
- धर्मनिरपेक्षता
- संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य
- संसदीय प्रणाली
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव
- कल्याणकारी राज्य
आधारभूत संरचना का महत्त्व:
- किसी भी देश का संविधान उस देश के मौलिक नियमों का दस्तावेज़ होता है। इस दस्तावेज़ के आधार पर ही अन्य सभी कानून बनाए तथा लागू किये जाते हैं।
- संविधान के कुछ भागों को अन्य प्रावधानों की तुलना में विशेष दर्जा दिया जाता है तथा संविधान के ये भाग, व्यापक संविधान संशोधनों से संविधान की रक्षा करते हैं।
- आधरभूत संरचना के महत्त्व को ‘एस. आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार’ (1994) मामले से समझ सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद राष्ट्रपति द्वारा भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी को बरकरार रखा गया तथा सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन सरकारों की बर्खास्तगी धर्मनिरपेक्षता के लिये आवश्यक है।
आधारभूत संरचना की आलोचना:
- आलोचकों ने इस सिद्धांत को अलोकतांत्रिक कहा है क्योंकि न्यायाधीश जो चुने हुए प्रतिनिधि नहीं है, संसद द्वारा पारित किये गए संविधान संशोधन को अवैध घोषित करके न्यायिक अतिक्रमण करते हैं। जबकि समर्थकों ने इसे बहुलवाद और अधिनायकवाद के खिलाफ सुरक्षा के रूप में माना है।
आगे की राह:
- भारतीय संविधान आज़ादी के 70 वर्षों बाद भी एक जीवंत दस्तावेज़ की तरह अपना अस्तित्त्व बनाए हुए है। भारतीय न्यायपालिका और संवैधानिक व्याख्या की प्रक्रिया अनवरत विकास कर रही है। आवश्यक है कि संविधान के माध्यम से भारतीय न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही के मध्य संतुलन और न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने का प्रयास किया जाए।