ध्यान दें:



दृष्टि आईएएस ब्लॉग

वर्चुअल रियलिटी और ‘सत्य’ का भ्रम - क्या डिजिटल अनुभव भी वास्तविक हैं

  • 30 May, 2025

वर्चुअल रियलिटी (VR) एक ऐसी तकनीक है जो उपयोगकर्त्ताओं को एक डिजिटल एवं इमर्सिव अनुभव प्रदान करती है, जहाँ वे अपने आसपास की वास्तविकता से परे एक कंप्यूटर-निर्मित दुनिया में समाहित हो जाते हैं। VR तकनीक के माध्यम से व्यक्ति वास्तविकता से संबद्ध किसी आभासी या वर्चुअल दुनिया में प्रवेश करता है, जो उसकी मानसिक एवं शारीरिक प्रतिक्रियाओं को उसी प्रकार उत्तेजित करता है जैसा वास्तविक दुनिया में घटित होता है।

यह अनुभव व्यक्ति को पूर्णरूपेण ‘वास्तविक’ प्रतीत होता है, लेकिन क्या यह अनुभव सचमुच वास्तविक है? क्या हम तकनीकी रूप से उत्पन्न अनुभवों को सत्य और वास्तविकता के समकक्ष रख सकते हैं या हमें इन्हें एक भ्रम मानना चाहिये? ये प्रश्न न केवल तकनीकी बल्कि दार्शनिक दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये ‘सत्य’ और ‘वास्तविकता’ की अवधारणाओं पर विचार करने के लिये हमें प्रेरित करते हैं। 

वर्चुअल रियलिटी: तकनीकी और मनोवैज्ञानिक पहलू 

  • वर्चुअल रियलिटी का विकास और उपयोग
    • वर्चुअल रियलिटी (VR) का मूल उद्देश्य उपयोगकर्त्ता को ऐसी दुनिया में निमग्न करना है, जो भौतिक वास्तविकता से अलग हो, लेकिन इसके अनुभव ऐसे हों जैसे वह वास्तविक हो। VR का सबसे प्रमुख उपयोग आजकल गेमिंग, फ़िल्म उद्योग, चिकित्सा, शैक्षिक प्रशिक्षण और आर्किटेक्चर जैसे क्षेत्रों में हो रहा है। गेमिंग के मामले में उपयोगकर्त्ता  विभिन्न आभासी पात्रों और दुनिया के साथ संवाद करता है, जिससे उसे एक नया और निमग्नकारी या ‘इमर्सिव’ अनुभव प्राप्त होता है। चिकित्सा के क्षेत्र में VR का उपयोग शारीरिक और मानसिक पुनर्वास में किया जाता है। इसी प्रकार, प्रशिक्षण के क्षेत्र में (जैसे–पायलटों या सैनिकों के लिये) VR एक सुरक्षित और नियंत्रित वातावरण में अनुभव प्राप्त करने का एक अद्वितीय माध्यम प्रदान करता है।
  • संवेदनात्मक यथार्थ का निर्माण – दृश्य, श्रव्य और संवेदनात्मक प्रतिक्रिया 
    • वर्चुअल रियलिटी का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि यह उपयोगकर्त्ता की सभी इंद्रियों (दृष्टि, श्रवण और कभी-कभी स्पर्श) को उत्तेजित करने के लिये डिज़ाइन की जाती है। आभासी दुनिया में उपयोगकर्त्ता को पूरी तरह से इमर्सिव अनुभव मिलता है, जैसे कि वह उस दुनिया का अंग हो। दृश्य प्रभाव, ध्वनियाँ और कभी-कभी स्पर्श एवं गंध भी संवेदनाओं के रूप में उभरे हैं, जिससे अनुभव अधिक यथार्थवादी प्रतीत होता है। इन तकनीकों के द्वारा VR का अनुभव इस हद तक सजीव होता है कि उपयोगकर्त्ता यह भूल सकता है कि वह एक कंप्यूटर-निर्मित वातावरण में है।
  • इमर्सिव प्रौद्योगिकी का मस्तिष्क पर प्रभाव
    • इमर्सिव प्रौद्योगिकी का मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जब व्यक्ति VR अनुभव में प्रवेश करता है तो उसका मस्तिष्क उस आभासी दुनिया को वास्तविक मानने लगता है, हालाँकि यह डिजिटल डेटा भर होता है। मस्तिष्क का यह भ्रम ‘कंप्यूटर-निर्मित’ और ‘वास्तविक’ के बीच की सीमा को धुँधला कर देता है। मस्तिष्क इन संकेतों को असली अनुभवों की तरह संसाधित करता है और इससे उत्पन्न शारीरिक एवं मानसिक प्रतिक्रियाएँ (जैसे कि भय, आनंद या आश्चर्य) वास्तविक दुनिया सदृश हो सकती हैं।
  • उपयोगकर्त्ता की ‘उपस्थिति’ की अनुभूति – ‘Presence vs Reality’
    • वर्चुअल रियलिटी का सबसे दिलचस्प पहलू इसकी 'उपस्थिति' (Presence) की भावना है। जब उपयोगकर्त्ता VR में प्रवेश करता है तो वह आभासी दुनिया में पूरी तरह से समाहित हो जाता है और उसे अनुभव होता है कि वह इसी आभासी दुनिया का अंग है। ‘उपस्थिति’ का यह अनुभव, उस दुनिया को वास्तविक बनाने में मदद करता है। 
  • मनोवैज्ञानिक प्रभाव: अवास्तविक में वास्तविक जैसा व्यवहार
    • वर्चुअल रियलिटी के उपयोग से मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी उत्पन्न होते हैं, जैसे कि अवास्तविक जगत में वास्तविक व्यवहार। उदाहरण के लिये, यदि किसी गेम में कोई पात्र हिंसा करता है या किसी दूसरे का शोषण करता है तो उस अनुभव का मानसिक प्रभाव वास्तविक दुनिया में भी प्रकट हो सकता है। हालाँकि, कुछ अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि VR उपयोगकर्त्ता को सहानुभूति और संवेदनशीलता का अनुभव करा सकता है, विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य उपचार में।

‘सत्य’ और ‘वास्तविकता’ की दार्शनिक अवधारणाएँ 

  • प्लेटो का गुफा रूपक – आभासी यथार्थ बनाम परम सत्य
    • प्लेटो के गुफा रूपक (Allegory of the Cave) के अनुसार, गुफा में बंद लोग केवल छायाएँ देख सकते हैं, जो कि वस्तुओं के वास्तविक रूपों की छाया होती हैं। वे इन छायाओं को ही वास्तविकता मानते हैं। इसी तरह, हम आभासी दुनिया को, जो डिजिटल रूप से निर्मित है, वास्तविकता मान सकते हैं। लेकिन जो हम देख रहे हैं, वह बस छाया है, असल सत्य कुछ और है। प्लेटो का यह सिद्धांत हमें समझाता है कि वर्चुअल रियलिटी केवल वास्तविकता की छाया हो सकती है, जबकि वास्तविकता स्वयं किसी दूसरे गहरे अस्तित्व में विद्यमान हो सकती है।
  • डेविड ह्यूम, इमैनुअल कांट – अनुभववाद और चेतना का महत्त्व
    • डेविड ह्यूम और इमैनुअल कांट ने यह सिद्ध किया कि वास्तविकता का अनुभव हमारे अपने संवेदी अनुभवों एवं चेतना के माध्यम से होता है। ह्यूम के अनुसार, वास्तविकता हमारे संवेदी अनुभवों पर निर्भर होती है, जबकि कांट मानते हैं कि अनुभव को समझने के लिये हमें तर्क की आवश्यकता होती है। वर्चुअल रियलिटी में हमारी संवेदी चेतना (दृष्टि, श्रवण) आभासी दुनिया से जुड़ी होती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह वास्तविक हो। इस प्रकार, आभासी अनुभवों को वास्तविक अनुभव समझ लेने का संदर्भ एक दार्शनिक प्रश्न बन जाता है।
  • हिंदू दर्शन (माया सिद्धांत) और बौद्ध धर्म में ‘शून्यता’ की अवधारणा
    • हिंदू दर्शन में माया का सिद्धांत बताता है कि हमारे अनुभव केवल बाहरी छवियाँ हैं और ये वास्तविकता से परे हैं। इसी तरह, बौद्ध धर्म में शून्यता का सिद्धांत है, जो बताता है कि संसार का अस्तित्व मात्र हमारे मन में उत्पन्न होने वाले विचारों का परिणाम है। यदि हम इन सिद्धांतों को वर्चुअल रियलिटी से संबद्ध करें तो यह कहा जा सकता है कि आभासी दुनिया हमारे मन का ही निर्माण है, जो हमें वास्तविकता का भ्रम देती है।
  • बौद्रियार का ‘सिमुलाक्रा एंड सिमुलेशन’
    • फ्राँसीसी दार्शनिक ज्याँ बौद्रियार (Jean Baudrillard) का ‘सिमुलाक्रा एंड सिमुलेशन’ (Simulacra and Simulation) यह प्रस्तावित करता है कि आधुनिक समाज में हम वास्तविकता से बहुत दूर चले गए हैं और केवल नकली या ‘सिमुलेटेड’ यथार्थ में जी रहे हैं। बौद्रियार के अनुसार, हम जिन चीज़ों को वास्तविक मानते हैं, वे केवल सांस्कृतिक प्रतीक और संकेत होते हैं, जिन्हें हम सच मान लेते हैं। यही बात वर्चुअल रियलिटी पर भी लागू होती है। वर्चुअल दुनिया में हम जो अनुभव करते हैं, वे वास्तविक नहीं होते, बल्कि वे तकनीकी रूप से निर्मित होते हैं। यह सिद्धांत यह सवाल उठाता है कि क्या हम कभी पूरी तरह से ‘वास्तविकता’ को समझ सकते हैं या हम हमेशा किसी रूप में सिमुलेटेड अनुभवों में जी रहे होते हैं?
  • क्या यथार्थ हमेशा वस्तुनिष्ठ होता है या अनुभव आधारित?
    • यह प्रश्न दार्शनिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह वर्चुअल रियलिटी के अनुभवों को वस्तुनिष्ठ सत्य से तुलना करने का आधार देता है। यदि यथार्थ अनुभव आधारित है तो वर्चुअल रियलिटी में उपयोगकर्त्ता का अनुभव भी वास्तविक हो सकता है। लेकिन यदि यथार्थ वस्तुनिष्ठ है तो वर्चुअल अनुभव केवल भ्रम ही होगा। इस दृष्टिकोण से हमें यह समझने की आवश्यकता है कि वर्चुअल रियलिटी का अनुभव हमारे मानसिक एवं भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के आधार पर वास्तविक महसूस हो सकता है, लेकिन इसका ‘वास्तविकता’ से कोई संबंध नहीं हो सकता।

वर्चुअल रियलिटी और 'सत्य' का भ्रम: क्या डिजिटल अनुभव भी वास्तविक हैं?

  • वर्चुअल रियलिटी के प्रभावों का विश्लेषण
    • वर्चुअल रियलिटी (VR) ने हमारी अनुभूति और 'सत्य' की पारंपरिक समझ को चुनौती दी है। इसमें हम ऐसे वातावरण और परिस्थितियों का अनुभव करते हैं, जो तकनीकी रूप से निर्मित होते हैं, लेकिन फिर भी हमारी मानसिक एवं भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ उन्हें वास्तविक मानने लगती हैं। इन अनुभवों का कोई भौतिक आधार नहीं होता, लेकिन मस्तिष्क उन्हें यथार्थ जैसा ग्रहण करता है। यही वह बिंदु है जहाँ 'सत्य' और 'भ्रम' के बीच की रेखा  धुँधली होने लगती है—यानी हम जो अनुभव करते हैं, वह वास्तव में 'सच' है या केवल अनुभव का आभास?
  • मानसिक प्रतिक्रियाएँ और अनुभव का यथार्थ से संबंध
    • VR का सबसे प्रभावशाली पहलू यह है कि यह हमारी शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रियाओं को वास्तविकता के समान ही सक्रिय करता है। उदाहरणस्वरूप, जब हम किसी आभासी खतरे का सामना करते हैं तो हृदयगति बढ़ने, तनाव और भय जैसी प्रतिक्रियाएँ उसी प्रकार उत्पन्न होती हैं, जैसे वास्तविक जीवन में। यह संकेत देता है कि हमारी अनुभूति की प्रणाली उस 'वास्तविकता' को बाह्य नहीं, बल्कि भीतर से परिभाषित करती है—मस्तिष्क को जो महसूस होता है, वही उसकी दृष्टि में 'वास्तविक' बन जाता है।
  • क्या आभासी अनुभवों का 'सत्य' वस्तुतः सत्य होता है?
    • यदि 'सत्य' को केवल भौतिक अस्तित्व के रूप में समझा जाए तो VR का कोई अनुभव वास्तविक नहीं कहा जा सकता। लेकिन यदि हम 'सत्य' को मानसिक, भावनात्मक और संवेदनात्मक स्तर पर परिभाषित करें तो आभासी अनुभव भी अपनी तरह के सत्य हो सकते हैं—एक प्रकार का भावनात्मक यथार्थ। हम VR में जिस अनुभव को पाते हैं, वह हमारी स्मृति और भावना में स्थान ग्रहण कर लेता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई भौतिक अनुभव।
  • आभासी दुनिया की सीमाएँ और वास्तविकता से उसका संबंध
    • VR अनुभव तकनीकी कल्पना पर आधारित होते हैं और प्रायः पूर्व-निर्धारित या नियंत्रित होते हैं, जबकि भौतिक संसार की विविधता और अनिश्चितता उन्हें अति जटिल बनाती है। यही सीमाएँ आभासी दुनिया को एक नियंत्रित यथार्थ में बदल देती हैं—एक ऐसा यथार्थ जो यथार्थ जैसा लगता तो है, परंतु पूरी तरह यथार्थ होता नहीं। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह मूल्यहीन है, बल्कि यह कि उसका सत्य संदर्भित और आंशिक होता है।
  • तात्कालिक अनुभव बनाम दीर्घकालिक प्रभाव
    • VR अनुभव तात्कालिक रूप से अत्यंत प्रभावी हो सकते हैं (भय, खुशी या उत्तेजना प्रेरित करने के रूप में), लेकिन क्या वे दीर्घकाल में हमारे सोचने, समझने और व्यवहार करने के तरीकों को भी प्रभावित करते हैं? यह एक खुला प्रश्न है और इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि हम सत्य को केवल तात्कालिक संवेदना के रूप में मानते हैं या उसके दीर्घकालिक सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों से जोड़ते हैं।

आलोचनात्मक मूल्यांकन 

  • क्या वर्चुअल रियलिटी का अनुभव वास्तविकता के समान है?
    • यह सवाल सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वर्चुअल रियलिटी के अनुभव में उपयोगकर्त्ता को आभासी दुनिया में पूरी तरह से डूब जाने का अवसर मिलता है, लेकिन यह अनुभव वास्तविकता से अलग है, क्योंकि इसमें भौतिक अस्तित्व नहीं होता। हम अपनी मानसिक एवं शारीरिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर आभासी दुनिया को 'वास्तविक' मान सकते हैं, लेकिन यह तकनीकी रूप से वास्तविक नहीं होता। 
  • क्या 'सत्य' का नया रूप वर्चुअल रियलिटी से उत्पन्न हो सकता है?
    • वर्चुअल रियलिटी यह चुनौती पेश करती है कि 'सत्य' को केवल बाहरी भौतिक वास्तविकता से संबद्ध किया जाए या इसे मानसिक एवं आभासी अनुभवों से भी समझा जा सकता है। यदि हम केवल भौतिक वास्तविकता पर आधारित सत्य को स्वीकार करते हैं तो VR अनुभवों को वास्तविक नहीं माना जा सकता, लेकिन यदि हम सत्य को मानसिक स्थिति, अनुभव और प्रतिक्रियाओं के आधार पर परिभाषित करते हैं तो वर्चुअल रियलिटी भी सत्य का अंग हो सकती है। 
  • तकनीकी विकास और सत्य के बीच संबंध
    • VR तकनीकी रूप से इतनी उन्नत हो चुकी है कि यह वास्तविकता का लगभग सही रूप प्रस्तुत कर सकती है। लेकिन क्या यह तकनीकी प्रगति हमारे सत्य के अनुभव को भी बदल रही है? क्या हम एक दिन आभासी दुनिया में इतना अधिक डूब जाएँगे कि वास्तविक और आभासी के बीच के अंतर को भूल जाएंगे? यह विचार हमें समझने में मदद करता है कि तकनीकी विकास का सत्य के अनुभव पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।
  • सामाजिक और मानसिक प्रभाव
    • आभासी अनुभवों का मानसिक और सामाजिक प्रभाव भी महत्त्वपूर्ण है। VR का उपयोग मानसिक स्वास्थ्य के उपचार, शिक्षा और मनोरंजन में किया जा सकता है, लेकिन क्या इसके दीर्घकालिक प्रभाव हमारे वास्तविक जीवन पर असर डाल सकते हैं? क्या हम आभासी अनुभवों के आधार पर अपने वास्तविक जीवन में निर्णय लेने में सक्षम होंगे? इन प्रश्नों के उत्तर अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि तकनीकी रूप से निर्मित अनुभव हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को प्रभावित कर सकते हैं।
  • क्या वर्चुअल रियलिटी के अनुभव को सत्य मानना चाहिये?
    • हमारे मानसिक और शारीरिक अनुभव VR के माध्यम से वास्तविक रूप में प्रकट हो सकते हैं, लेकिन क्या हम इसे पूरी तरह से सत्य मान सकते हैं? यह दार्शनिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हम सत्य को केवल भौतिक अस्तित्व से नहीं, बल्कि अपने  मानसिक और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से भी जोड़कर देख सकते हैं। लेकिन क्या आभासी दुनिया की तकनीकी सीमाएँ इसे वास्तविक सत्य से परे अस्तित्व प्रदान करती हैं? यह सवाल हमारे विचारों और दर्शन के लिये चुनौतीपूर्ण है।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2