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शहरी भारतीय मतदाताओं के बीच बढ़ती पर्यावरणीय चेतना - सतत् शासन और नीतिगत सुधारों की ओर एक नया दृष्टिकोण

  • 29 May, 2025

21वीं सदी का भारत शहरीकरण की तीव्र गति का साक्षी बन रहा है। महानगरों और उभरते शहरी केंद्रों में जनसंख्या, वाहनों, औद्योगिक गतिविधियों एवं उपभोग के स्तर में बेतहाशा वृद्धि ने पर्यावरणीय संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। जलवायु परिवर्तन, वायु एवं जल प्रदूषण, हरित क्षेत्रों की अवनति और अपशिष्ट संकट जैसी समस्याएँ अब केवल नीति-निर्माताओं की चुनौती नहीं रह गई हैं बल्कि आम नागरिकों, विशेष रूप से शहरी नागरिकों की दैनिक चिंता का अंग बन चुकी हैं। हाल के वर्षों में यह भी देखा गया है कि शिक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया की बढ़ती पहुँच ने भारत के शहरी मतदाताओं को अधिक जागरूक एवं उत्तरदायी बनाया है। पहले जहाँ विकास का तात्पर्य केवल सड़क, बिजली और बुनियादी सेवाओं से था, अब हरित जीवनशैली, स्वस्थ पर्यावरण और सतत् विकास भी प्राथमिक चुनावी मुद्दे बनते जा रहे हैं।

शहरी मतदाताओं में पर्यावरणीय चेतना का उदय

भारत के शहरी क्षेत्र न केवल आर्थिक गतिविधियों के केंद्र हैं, बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक विमर्श के नए केंद्र भी बनते जा रहे हैं। पिछले एक दशक में शहरी नागरिकों, विशेष रूप से मध्यम वर्ग, छात्रों, पेशेवरों और उद्यमियों के बीच पर्यावरण को लेकर एक नई जागरूकता का प्रसार हुआ है। यह चेतना महज वैचारिक या नैतिक स्तर पर सीमित नहीं है, बल्कि चुनावी प्राथमिकताओं में भी झलकने लगी है।

पर्यावरणीय चेतना को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक:

  • मीडिया और सोशल मीडिया: 
    • डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, वृक्षों की कटाई, जल संकट जैसे विषयों पर भावनात्मक कंटेंट का प्रसार बढ़ा है, जिससे शहरी नागरिकों की संवेदनशीलता की वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिये, दिल्ली-एनसीआर में स्मॉग से जुड़ी ख़बरें हर साल जनचर्चा और राजनीतिक बहस का विषय बनती हैं।
  • स्थानीय समस्याओं का प्रत्यक्ष अनुभव: 
    • बेंगलुरु में झीलों का सूखना एवं अगलगी, चेन्नई का जल संकट, मुंबई एवं गुरुग्राम में बाढ़ जैसी विभिन्न घटनाएँ शहरी नागरिकों से प्रत्यक्षतः संबद्ध हैं, जिससे वे पर्यावरणीय मुद्दों को ‘भविष्य की चिंता’ न मानकर ‘वर्तमान की आवश्यकता’ समझने लगे हैं और समाधान चाहते हैं।
  • शहरी युवाओं की भागीदारी: 
    • छात्रों द्वारा आयोजित ‘Fridays for Future’ प्रदर्शन, प्लॉगिंग रन और स्वैच्छिक वृक्षारोपण अभियानों में बड़ी भागीदारी यह दिखाती है कि युवा अब पर्यावरण को राजनीतिक विमर्श में शामिल कराना चाहते हैं।
  • स्वास्थ्य से जुड़ा दृष्टिकोण: 
    • वायु गुणवत्ता में कमी और जल की अशुद्धता का सीधा संबंध स्वास्थ्य से है। जब यह समझ बनने लगी है कि पर्यावरणीय गिरावट के कारण अस्थमा, कैंसर और जलजनित रोग बढ़ रहे हैं तो ये मुद्दे घरेलू एवं चुनावी चर्चा का विषय बनने लगे हैं।
  • डेटा-सूचक:
    CSDS और लोकनीति (Lokniti) के वर्ष 2023 के एक सर्वेक्षण के अनुसार 53% शहरी मतदाताओं ने कहा कि वे ऐसे प्रत्याशी को मत देना पसंद करेंगे, जो पर्यावरण सुरक्षा को चुनावी प्राथमिकता देता हो। उल्लेखनीय है कि यह आँकड़ा वर्ष 2014 में महज 19% था।

राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में पर्यावरण को महत्त्व

  • भारत में लंबे समय तक चुनावी घोषणापत्रों में पर्यावरण एक गौण विषय रहा, जिसे केवल सांकेतिक रूप से शामिल किया जाता था। लेकिन हाल के वर्षों में, विशेषकर शहरी मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताओं के कारण, प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्रों में हरित नीतियों (green policies) को अधिक स्थान देना शुरू कर दिया है।
  • घोषणापत्रों की समीक्षा:
    • भारतीय जनता पार्टी:
      • 2014: स्वच्छ भारत मिशन, नदी जोड़ो योजना और हरित आवरण जैसी पहलों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण को महत्त्व दिया गया है।
      • 2019: जल जीवन मिशन, नमामि गंगे, ई-मोबिलिटी को प्राथमिकता मिली; हालाँकि बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में पर्यावरण संबंधी चिंताओं को उतना महत्त्व नहीं दिया गया, जितना अपेक्षित था।
      • 2024: शहरी वायु गुणवत्ता सुधार, सौर ऊर्जा और कार्बन न्यूट्रल शहरों की बात उभरकर आई।
    • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस:
      • कांग्रेस ने वर्ष 2019 के आम चुनाव के घोषणापत्र में ‘पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन’ के लिये एक अलग खंड शामिल किया था, जिसमें ‘ग्रीन न्यू डील’, पर्यावरणीय न्याय और पारिस्थितिकीय पुनर्संतुलन का उल्लेख किया गया था।
      • राज्यों में (जैसे छत्तीसगढ़ या हिमाचल) कांग्रेस पार्टी ने वनों और जल स्रोतों के संरक्षण हेतु ठोस योजनाएँ प्रस्तुत कीं।
    • आम आदमी पार्टी: 
      • आम आदमी पार्टी ने पर्यावरण संबंधी मुद्दों को—जैसे एंटी-स्मॉग गन का प्रयोग, हरित आवरण की वृद्धि करना, यमुना की सफाई, ईवी नीति, दिल्ली में स्वच्छ वायु आदि को अपने चुनावी एजेंडे में अग्रिम पंक्ति में रखा था।

सतत् शासन की ओर झुकाव: नीतियों में परिवर्तन के संकेत

  • शहरी मतदाताओं की पर्यावरणीय चेतना ने न केवल चुनावी विमर्श को प्रभावित किया है, बल्कि नीति-निर्माण और शासन के तौर-तरीकों में भी उल्लेखनीय बदलाव किये हैं। विशेष रूप से नगर-निगमों, राज्य सरकारों और केंद्र द्वारा शहरी योजनाओं में सतत् विकास (sustainable development) के तत्त्वों को समाहित करने के प्रयास तेज़ हुए हैं।

प्रमुख सरकारी पहलें और हरित दृष्टिकोण:

  • स्मार्ट सिटी मिशन (Smart Cities Mission):
    • इस मिशन में ऊर्जा दक्षता, हरित भवन, अपशिष्ट प्रबंधन और शहरी परिवहन में संवहनीयता को बढ़ावा देने पर बल दिया गया है।
    • 100 स्मार्ट शहरों में से कई ने सौर ऊर्जा, EV चार्जिंग स्टेशन और वर्षा जल संचयन जैसे उपाय तत्परता से अपनाए हैं।
  • अमृत योजना (AMRUT):
    • जल आपूर्ति, सीवरेज और हरित क्षेत्रों के विस्तार पर केंद्रित यह योजना शहरी पारिस्थितिकी तंत्र को मज़बूत करने की दिशा में कार्य कर रही है।
  • स्वच्छ भारत मिशन (Shwachh Bharat Mission - Urban):
    • स्वच्छता के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, स्रोत पर गीले-सूखे अपशिष्ट का पृथक्करण और जैव-अपशिष्ट से ऊर्जा निर्माण को बढ़ावा।
  • राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन:
    • शहरी प्रदूषण कम करने हेतु EV को प्रोत्साहन, FAME योजना और चार्जिंग अवसंरचना का विकास।
  • राज्य सरकारों की नवाचार पहलें:
    • दिल्ली: ‘ग्रीन बजट’ के माध्यम से हर परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन।
    • केरल: ‘हरित शहरी नियोजन’ और बायो-फार्मिंग को नगर निकायों में प्रोत्साहन।
    • गुजरात: शहरी वन (Urban Forests) और सौर ऊर्जा पार्क।
  • नागरिक-केंद्रित शासन (Participatory Governance):
    • कई शहरों में पर्यावरणीय निर्णयों में नागरिकों की सहभागिता को बढ़ाया जा रहा है। उदाहरण के लिये, मुंबई का ‘माय सिटी, माय क्लीन सिटी’ अभियान या बेंगलुरु में झील प्रबंधन समितियाँ।
  • डेटा-सूचक:
    2022 के NITI Aayog रिपोर्ट के अनुसार, 45% स्मार्ट शहरों ने अपनी नगर योजना में पर्यावरणीय संकेतकों को समाहित किया है।

नागरिक भागीदारी और जन-आंदोलन

  • शहरी भारत में पर्यावरणीय चेतना के विस्तार में केवल सरकार या राजनीतिक दलों की भूमिका नहीं रही है, बल्कि नागरिक समाज, स्थानीय समूहों और स्वयंसेवी आंदोलनों की भागीदारी ने इसे ज़मीनी स्तर तक पहुँचाया है। पर्यावरण को लेकर नागरिकों की सक्रियता अब नीतियों के अनुरोध से आगे बढ़कर कार्य-आधारित सहभागिता में बदल चुकी है।

प्रमुख नागरिक प्रयास:

  • झील और जल निकाय संरक्षण आंदोलन:
    • बेंगलुरु में काग्गदासपुरा और बेलंदूर झील के संरक्षण हेतु स्थानीय निवासियों, स्कूलों और पर्यावरणविदों ने जन-संगठन बनाए।
    • इन आंदोलनों ने न केवल सरकार पर दबाव डाला बल्कि स्थानीय योजना प्रक्रिया में भागीदारी सुनिश्चित की।
  • स्वैच्छिक वृक्षारोपण और ‘ग्रीन वारियर्स’:
    • दिल्ली, पुणे, हैदराबाद जैसे शहरों में RWA (Resident Welfare Associations) और युवाओं ने ‘मियावाकी पद्धति’ से शहरी वन विकसित किये।
    • ‘Sankalp Taru’ जैसे ऐप-आधारित प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से नागरिकों को ऑनलाइन वृक्ष दान करने का विकल्प दिया गया।
  • प्लॉगिंग और स्वच्छता जागरूकता:
    • प्लास्टिक और कचरे के विरुद्ध जागरूकता फैलाने के लिये ‘Plogging India’ जैसे आंदोलनों ने जॉगिंग को सफाई अभियान से जोड़ा।
  • ऐप आधारित सहभागिता:
    • Swachhata App, MyGov, Green Yatra जैसे डिजिटल उपकरणों से शहरी नागरिक अब सीधे नगर निकायों से संपर्क कर सकते हैं।
    • इससे प्रतिक्रिया समय घटा है और प्रशासन में पारदर्शिता बढ़ी है।
  • शहरी जलवायु आंदोलन:
    • ‘Fridays For Future – India’ जैसे युवा आंदोलनों ने स्कूल और कॉलेज स्तर पर जलवायु न्याय की मांग को संगठित किया।
    • छात्रों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ घोषित करने की मांग करते हुए कई नगर निगमों में ज्ञापन सौंपे।
    • दिल्ली के वसंत कुंज क्षेत्र में ‘Tree Census’ अभियान चलाया गया जिसमें स्थानीय निवासियों ने क्षेत्र के पेड़ों की गणना कर ‘अवैध कटाई’ को रोका और अदालत में याचिका दायर की।

चुनौतियाँ और विरोधाभास

  • हालाँकि शहरी भारत में पर्यावरणीय चेतना और नागरिक सहभागिता एक सकारात्मक संकेत है, फिर भी व्यावहारिक स्तर पर इस चेतना को नीतिगत एवं प्रशासनिक कार्रवाई में बदलना कई गंभीर चुनौतियों और विरोधाभासों से घिरा हुआ है। कई बार ऐसे ‘हरित वादे’ केवल प्रतीकात्मक सिद्ध होते हैं और ज़मीनी वास्तविकता से मेल नहीं खाते।

प्रमुख चुनौतियाँ:

  • नीति और क्रियान्वयन में अंतर:
    • घोषणापत्र और योजनाओं में सतत् विकास की बात तो की जाती है, लेकिन वास्तविक धरातल पर प्रायः इनका क्रियान्वयन धीमा, अपारदर्शी और सीमित रहता है। उदाहरण के लिये, स्मार्ट सिटी मिशन के कई प्रोजेक्ट्स पर्यावरणीय आकलन के बिना ही आरंभ कर दिये गए।
  • ‘ग्रीनवॉशिंग’ (Greenwashing) का चलन:
    • राजनीतिक दल या औद्योगिक निकाय पर्यावरणीय भाषा का उपयोग ‘ब्रांडिंग’ के लिये करते हैं और उनके वास्तविक कार्य उनकी घोषणाओं या वादों के अनुरूप नहीं होते। 
  • पर्यावरण बनाम विकास की बहस:
    • शहरी अवसंरचना के विस्तार (जैसे मेट्रो, सड़क, कॉरिडोर) के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और पारिस्थितिकी की क्षति का दृश्य उत्पन्न होता है।
    • सार्वजनिक बहस में अब भी ‘विकास’ को ‘हरित संतुलन’ से अलग समझा जाता है।
  • नागरिक सहभागिता का वर्गीय सीमांकन:
    • पर्यावरणीय चेतना प्रायः उच्च शिक्षित और मध्यम/उच्च वर्ग के बीच अधिक है।
    • निम्न आय वर्ग, झुग्गी बस्तियाँ और प्रवासी मज़दूर इस विमर्श में पीछे छूट जाते हैं, जबकि वे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी:
    • पर्यावरण से जुड़ी नीतियाँ दीर्घकालिक होती हैं, जबकि चुनावी राजनीति अल्पकालिक वादों और लाभों पर केंद्रित होती है। अतः सतत् नीतियों को प्रायः वोट पाने का कम प्रलोभनकारी मुद्दा मान लिया जाता है।

नीतिगत सुझाव – आगे की राह

  • शहरी भारत में उभरती पर्यावरणीय चेतना और नागरिक सहभागिता को स्थायी, समावेशी एवं प्रभावी नीतियों में रूपांतरित करना वर्तमान शासन व्यवस्था की प्रमुख ज़िम्मेदारी है। इसके लिये केवल कार्यक्रमों की घोषणा पर्याप्त नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधार, जन-संवाद और स्थायी दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
  • प्रमुख नीतिगत सुझाव:
    • पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन को अनिवार्य बनाना:
      • सभी शहरी विकास परियोजनाओं — जैसे सड़क निर्माण, मेट्रो विस्तार, औद्योगिक ज़ोन की स्थापना — के लिये पूर्व-अनुमोदन के तौर पर EIA (Environmental Impact Assessment) को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाया जाए।
      • इसके निष्कर्ष सार्वजनिक मंचों पर साझा किये जाएँ।
    • शहरी शासन में नागरिक भागीदारी के औपचारिक ढाँचे:
      • वार्ड स्तरीय पर्यावरण समितियाँ (Urban Eco-Committees) गठित की जाएँ, जिनमें स्थानीय निवासी, पर्यावरणविद् और RWA सदस्य शामिल हों।
      • नगर निगम बजट में नागरिक पर्यावरण प्रस्तावों को स्थान मिले।
    • हरित बजटिंग (Green Budgeting):
      • प्रत्येक नगर निकाय और राज्य सरकार के बजट में ‘हरित व्यय’ की श्रेणी बने, जिससे स्पष्ट हो कि पर्यावरण पर कितना निवेश हो रहा है (उदाहरण के लिये, दिल्ली सरकार द्वारा अपनाया गया ग्रीन बजट फ्रेमवर्क)।
    • शहरी गरीबों को पर्यावरणीय योजना में शामिल करना:
      • मलिन बस्तियों में भी स्वच्छ ऊर्जा, जल संरक्षण और अपशिष्ट प्रबंधन से जुड़ी योजनाएँ लागू हों।
      • पर्यावरणीय न्याय को नीति का आधार बनाया जाए।
    • शिक्षा और जन-जागरूकता का विस्तार:
      • स्कूलों और कॉलेजों में स्थानीय पर्यावरण पाठ्यक्रम को बढ़ावा दिया जाए।
      • नागरिकों को पर्यावरणीय कानून, अधिकार और शिकायत प्रणाली की जानकारी दी जाए।
    • डिजिटल उपकरणों का सशक्त प्रयोग:
      • नागरिक निगरानी ऐप्स (जैसे AQI ट्रैकर, Tree Watch, Noise Map) को आधिकारिक प्लेटफ़ॉर्म से जोड़ा जाए।
      • आम लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रिपोर्टिंग और सुझाव देने की सुविधा मिले।

निष्कर्ष

  • शहरी भारत में उभरती पर्यावरणीय चेतना केवल एक क्षणिक जनभावना नहीं बल्कि लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत है। पिछले एक दशक में जिस प्रकार नागरिकों ने वायु प्रदूषण, जल संकट, हरियाली के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों को लेकर संगठित प्रतिक्रिया दी है, वह स्पष्ट करता है कि पर्यावरण अब शहरी मतदाताओं के लिये एक प्राथमिक राजनीतिक मुद्दा बन रहा है।
  • भारत का शहरी नागरिक केवल उपभोक्ता नहीं बल्कि नीतिगत भागीदार बनना चाहता है। 
  • राजनीतिक दलों द्वारा घोषणापत्रों में हरित मुद्दों को स्थान देना, सरकारों का सतत् विकास के लिये योजनाएँ बनाना और आम नागरिकों द्वारा स्थानीय स्तर पर प्लॉगिंग, वृक्षारोपण एवं झील संरक्षण जैसे प्रयास — इन सभी ने मिलकर एक नई पर्यावरणीय राजनीति की नींव रखी है।
  • हालाँकि, यह चेतना अभी भी कई विरोधाभासों और सीमाओं से जूझ रही है। नीति और क्रियान्वयन के बीच की खाई, ग्रीनवॉशिंग की प्रवृत्ति और नागरिक भागीदारी में वर्गीय असमानता — ये कुछ ऐसी चुनौतियाँ हैं जो भविष्य की राह को कठिन बनाती हैं।
  • यदि शासन और नागरिक समाज मिलकर सार्थक संवाद, पारदर्शी क्रियान्वयन और समावेशी नीतियों की दिशा में कार्य करें तो इससे लोकतंत्र  निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
  • यह आवश्यक है कि आने वाले वर्षों में पर्यावरणीय मुद्दों को न केवल चुनावी विमर्श में बल्कि विकास के केंद्रीय दृष्टिकोण में शामिल किया जाए, ताकि शहरी भारत केवल संवहनीय शहरों का समूह न होकर सतत् और न्यायसंगत भविष्य का वाहक बन सके।

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