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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

विभाजन के कारण

हिंदुस्तान द्वारा स्वतंत्रता का मूल्य दो भागों में विभक्त अनिच्छित विभाजन के रूप में चुकाया गया था। एकता को कायम रखने के भरसक प्रयासों के उपरांत भी यह अखंडता अंनत: छिन्न-भिन्न हो गयी और इतने विकृत अमानवीय रूपों और घृणित दुर्घटना के रूप में सामने आयी कि इससे निकलने वाले परिणाम बेहद दुखद निष्कर्षों पर पहुंचे। हिंदुस्तान की स्वतंत्रता का सुखद सपना विभाजन के भयावह परिणाम को प्राप्त होकर दुखद अंत को प्राप्त हुआ। उच्च पदासीन नेताओं की अदूरदर्शिता की भेंट वह सामान्य नागरिक चढ़ गया जो वस्तुस्थिति से सर्वथा अनभिज्ञ था। भारत विभाजन के पीछे बहुत से कारण उत्तरदायी थे, जिनमें से मुख्य आठ कारणों को राममनोहर लोहिया अपनी पुस्तक ‘भारतीय विभाजन के गुनहगार’ में बताते हैं कि ‘पहला-ब्रितानी कपट, दूसरा-कांग्रेस नेतृत्व का उतारवय, तीसरा-हिंदू-मुस्लिम दंगों की प्रत्यक्ष परिस्थिति, चौथा-जनता में दृढ़ता और सामर्थ्य का अभाव, पांचवां-गांधीजी की अहिंसा, छठां-मुस्लिम लीग की फूटनीति, सातवां-आए हुए अवसरों से लाभ उठा सकने की असमर्थता और आठवां-हिंदू अहंकार।’

आधुनिक इतिहास की विभिन्न बड़ी त्रासदियों में से एक भारत विभाजन की पृष्ठभूमि को समझने के लिए उसके पीछे निहित विभिन्न-राजनीतिक, सामाजिक और सांप्रदायिक कारणों को समझ लेना आवश्यक हो जाता है। सामाजिक स्तर पर एक साथ रहते हुए हिंदू और मुसलमानों को सदियाँ गुजर चुकी थीं लेकिन रहन-सहन, खान-पान और सांस्कृतिक एकता को किनारे रख दिया जाए तो इन दोनों कौमों के मध्य गहरे संबंध-सूत्रों की कमी सदैव विद्यमान रही। इसके पार्श्व में ऐतिहासिक कारण भी जिम्मेदार माने जा रहे हैं। भिन्न संस्कार और विचारों के साथ-साथ पूर्वाग्रहों ने भी इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसमें मुस्लिम लीग की स्थापना भारतीय उपमहाद्वीप पर मुस्लिम हितों को सुरक्षित करने के उद्देश्य के साथ बनाया गया, उसी मुस्लिम लीग ने इस बात का राजनीतिक लाभ उठाया कि कांग्रेस की अदूरदर्शिता के कारण भारतीय मुसलमानों के मन में परसिक्यूशन मेनिया यानी कि सताये जाने की ग्रंथि ने जन्म ले लिया था। मुस्लिम शासकों ने भारत पर लंबे समय तक शासन किया था और इस दौरान उनके द्वारा जिन क्रूर कृत्यों को अंजाम दिया गया था और जिस प्रकार तलवारों के बल पर धर्म परिवर्तन करवाया गया, लंबा समय बीत जाने के पश्चात भी इन दुर्घटनाओं की छाप हिंदू जाति के मानस से मिट नहीं सकी थीं। वहीं दूसरी ओर मुस्लिम जाति के मानस में शासक होने के इतिहास की यादें अभी जीवित थीं और उनकी सामाजिक स्थिति जिस तरह प्राथमिक से द्वितीयक श्रेणी में आ गई थीं, उससे भी उनके भीतर रोष और प्रतिशोध भरा हुआ था। नरेन्द्र मोहन एक और तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि ‘मुसलमानों के दिलों में वे सारे प्रसंग अभी ताजा थे जब सिख शासकों ने उनसे चुन-चुनकर बदले लिये। इससे हिंदू-मानस में मुसलमानों का सामाजिक अपवर्जन या बहिष्कार करने की मनोवृत्ति बद्धमूल होती गयी। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में जिन राष्ट्रीय प्रतीकों का इस्तेमाल किया जा रहा, वे प्रतीक राष्ट्रीय कम, सांप्रदायिक अधिक थे। इससे मुसलमानों का चिढ़ जाना, उनमें धार्मिक आक्रामकता और अक्खड़पन का आ जाना स्वाभाविक था। हिन्दुओं, मुसलमानों के दिलों में दुबके हुए ये संस्कार और पूर्वाग्रह अंग्रेजों द्वारा हवा देने पर नई परिस्थितियों में जाग्रत और उत्तेजित होकर एक बड़ी हद तक देश के बंटवारे के लिए निर्णायक सिद्ध हुए।’

कहाँ एक ओर मुस्लिम लीग मुसलमानों के हितों की रक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को लेकर आगे बढ़ने की बात कहा करती थी, जहाँ दो राष्ट्रों के सिद्धांत का जिक्र 1940 तक देखने को नहीं मिलता, वहाँ अचानक मुस्लिम लीग ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी एप्रोच में बदलाव किया और मजहबी कूटनीतियों का दौर शुरू कर ‘मुसलमान एक अलग कौम’ का सिद्धांत गढ़ा। इन सभी कृत्यों का परिणाम यह निकला कि जो मुस्लिम लीग सन् 1937 में आम चुनावों में बुरी तरह मात खा गई थी, उसने 1945 के चुनाव में शानदार सफलता प्राप्त की।

मुस्लिम लीग ने सांप्रदायिकता की राजनीति कर अपनी महत्वकांक्षाओं को अमलीजामा पहनाने की शुरुआत कर दी थी। मुस्लिम लीग को और बढ़वा और प्रश्रय देने के पीछे ब्रिटिश सरकार का अपना स्वार्थ निहित था। ब्रिटिश सरकार पहले ही ‘फूट डालो और राज्य करो’ की कुटिलनीति के तहत अपना शासन कायम रखने के लिए सांप्रदायिकता को बढ़ावा देकर विभाजनकारी विचारधारा का बीज बो चुकी थी। लेकिन जब तमाम प्रयासों के उपरांत भी उन्हें यह आभास होने लगा कि उन्हें आखिरकार भारत को स्वतंत्रता प्रदान करनी ही पड़ेगी। तब उन्होंने ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जिससे कि भारत छोड़ने के पश्चात भी वह यहाँ से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सके। साम्प्रदायिकता की सुप्त भावना में चिंगारी लगाकर ब्रिटिश सरकार ने जिस प्रकार विभाजन करवाया, उसके पीछे एकमात्र कारण मजहबी जुनून नहीं रहा।

अंतिम वायसराय और स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटन की विभाजन में भूमिका जितनी मुख्य रही उतनी ही संदिग्धता भी उसमें व्याप्त थी। साथ ही माउंटबेटन से पहले वायसराय रहे मिंटो के इरादों के बारे में जान लेना आवश्यक हो जाता है। ‘कांग्रेस को कमजोर करने और बढ़ रही राष्ट्रीयता को कमजोर करने के लिए मिंटो विभाजनकारी नीति पर चल रहे थे। उनका मत था कि मुसलमानों का समर्थन प्राप्त किया जाए और उन उद्देश्यों को कमजोर किया जाए, जो दोनों समुदायों के बीच एकता कायम करने के लिए किए जा रहे हैं। इसी क्रम में मिंटो ने 1 अक्टूबर, 1906 को मुस्लिम प्रतिनिधि मंडल को आश्वासन दिया कि मुस्लिमों को विधान परिषद् के चुनाव में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है, वे चाहते हैं कि उन्हें जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व ही न मिले, बल्कि उनका राजनैतिक दृष्टि से भी महत्त्व है, क्योंकि मुसलमानों ने साम्राज्य के हितसाधन में बहुमूल्य योगदान किया है।’

कांग्रेस के कमजोर कदमों के अतिरिक्त ब्रिटिश हुक्मरानों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये ने बहुत से ऐसे कार्यों को अंजाम दिया, जिसने मुस्लिम लीग के प्रति तुष्टिकरण की नीति का काम किया। ब्रिटिश सरकार में बहुत से ऐसे अधिकारी मौजूद थे जो पुरज़ोर ढंग से मुस्लिम लीग का समर्थन किया करते थे। इन्हीं अधिकारियों में से एक अधिकारी था, फ्रांसिस मूडी जो कि तत्कालीन पंजाब प्रांत का गवर्नर था और दूसरा अधिकारी था लॉर्ड इस्मे, वह ब्रिटिश हुकूमत के चीफ ऑफ स्टाफ के पद पर आसीन था। फ्रांसिस मूडी द्वारा जिन्ना को लिखा गया कि ‘मैं तो सभी से कहता आ रहा हूँ कि सिख पाकिस्तान के बाहर किस तरह जाते हैं, इसकी मुझे परवाह नहीं है, बड़ी बात है छुटकारा पा जाना।’ ब्रिटिश अधिकारियों की कपटता और धूर्तता का सहज अनुमान इसी बात से लगा लीजिए कि उन्हें लेशमात्र भी इस बात की चिन्ता या परवाह नहीं थी कि विभाजन के परिणाम कितने भयानक साबित होंगे।

बँटवारे की पृष्ठभूमि में इस प्रकार के विषवमन के वक्तव्यों की बड़ी भूमिका रही है। मोहम्मद अली जिन्ना जो कभी हिंदुस्तान की एकता के प्रबल समर्थक रहे थे, समय बदल जाने के साथ उनकी विचारधारा में भीषण परिवर्तन देखने को मिला। अपने एक अध्यक्षीय भाषण में जिन्ना ने कहा था कि ‘यह एक सपना है कि हिंदू और मुसलमान कभी भी एक समान राष्ट्रीयता के रूप में विकसित हो सकते हैं। एकीकृत भारतीय राष्ट्र का यह भ्रम बड़े पैमाने पर फैला हुआ है। हमारी अधिकांश समस्याओं की जड़ यही है। यदि हम समय पर अपने विचारों को संशोधित करने में विफल रहे तो यह भारत के विनाश को प्रेरित कर सकता है। हिंदू और मुसलमान दो भिन्न धार्मिक दर्शनों, सामाजिक परंपराओं और साहित्य से संबंध रखते हैं। वे न तो आपस में विवाह करते हैं, ना ही साथ भोजन करते हैं और वास्तव में वे दो भिन्न सभ्यताओं से संबंध रखते हैं, जो मुख्य रूप से विरोधी विचारों व अवधारणाओँ पर आधारित हैं।’ समय के आगे बढ़ने के साथ-साथ जिन्ना का कांग्रेस की नीतियों के प्रति विद्वेष बढ़ता ही गया। वे अब खुलकर विभाजन के प्रबल समर्थक बन गए और दो राष्ट्रों के सिद्धांत को किसी भी कीमत पर मनवाना चाहते थे। ‘मैं भारत का एक हिस्सा नहीं बनना चाहता। हिंदू राज्य के अधीन होने से तो मैं सब कुछ खो देना ज्यादा पसंद करूँगा।’ पाकिस्तान के निर्माण का सबसे अधिक श्रेय एक ओर जिन्ना को जाता है, वहीं इस पृथकतावादी रवैये में सर सैयद अहमद खाँ की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। ‘सर सैयद अहमद खां मुसलमानों का भला अंग्रेजी राज्य में ही देखते थे। अंग्रेजी राज्य की सुदृढ़ता के लिए वे विभिन्न उपाय भी करने लगे। मुसलमान कांग्रेस के आंदोलन में शरीक न होने पाए इसके लिए वे विभिन्न उद्बोधनों द्वारा मुसलमानों के बीच कारण बताकर उनके दिलों में भय और आशंका का बीज बोने लगे। बाकायदा उन्होंने अगस्त 1888 में अंग्रेजी राज्य के समर्थन में संयुक्त भारतीय राज्यभक्त सभा (यूनाइटेड इंडिया पेट्रियोटिक असोसिएशन) का निर्माण किया। उस समय के अलीगढ़ कॉलेज के तीन अंग्रेज प्रिंसिपल थियोडोर बैंक, मॉरिसन, अर्चवोल्ड जिन्होंने शिक्षित मुस्लिमों के बीच अंग्रेजों और मुसलमानों की ताकत की आवश्यकता समझाई और कांग्रेस को हिंदुओं की संस्था बताकर विरोध किया।’

पाकिस्तान के निर्माण में जितनी बड़ी भूमिका का निर्वहन जिन्ना ने किया, उतनी बड़ी भूमिका किसी अन्य की नहीं रही। विनायक दामोदर सावरकर, माधव सदाशिव गोलवलकर या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदू मुस्लिम एकता पर प्रश्न चिन्ह भले ही लगाए परंतु विभाजन को पूर्णतः समर्थन उनकी ओर से नहीं दिया गया। ‘18 जनवरी 1948 यानी कि विभाजन के उपरांत गाँधी जी के अंतिम अनशन के छठवें दिन गांधीजी की सभी मांगें मान ली गईं। इस दौरान सभी धर्मों, संगठनों के प्रमुख लोग, कांग्रेस के सभी दिग्गज मौजूद थे, सरकार के वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद थे, पाकिस्तान के राजदूत भी मौजूद थे। आलम यह था कि गाँधी जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण आर.एस.एस. के प्रतिनिधि के रूप में हरिश्चंद्र इन मांगों से सहमत न होने के बावजूद मौजूद थे, इस दौरान हरिश्चंद्र ने कहा कि हम सब लोग आपके सामने शपथ लेते हैं कि आपके आज्ञा का पूरा पालन होगा, आपके अनशन से घर-घर रोना मच गया है, हम शपथ लेकर कहते हैं कि पूर्ण शांति रहेगी। हम मकान नहीं माँगेंगे और न ही नौकरी। ईश्वर जैसे रहने देगा, रहेंगे। भारत के कष्टपूर्ण विभाजन को, जिन्होंने देखा और समझा उन समकालीन लोगों में समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया भी थे। वे विभाजन के प्रबल विरोधी थे, उनका मानना था, इस विभाजन से किसी भी समुदाय, हिन्दू और मुस्लिम, दोनों को हानि पहुंचेगी। वे सीधे तौर पर विभाजन के लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं को दोषी मानते थे, खासकर नेहरू, गाँधी को। वे नेहरू को जहाँ सत्तालोलुप मानते थे, इसी के तहत नेहरू ने बंटवारे को स्वीकार किया। उन्होंने नेहरू पर कई तरह के आरोप लगाकर नेहरू को दोषी माना, वे नेहरू को बहरूपिया कहने से भी नहीं चूके, गाँधी को अनिश्चयी और दृढ़हीन व्यक्ति माना।’ 1940 के आसपास जब मुस्लिम लीग ने मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति की शुरुआत की थी तो भीमराव अंबेडकर ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मुस्लिम लीग की छिपी हुई कुटिलता की ओर इंगित करने का प्रयास किया था। ‘भीमराव अंबेडकर कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के बेहद खिलाफ़ थे। महात्मा गाँधी की मुस्लिम परस्त नीति खासकर उनके द्वारा चलाए गए खिलाफत आंदोलन को मूर्खतापूर्ण करार दिया और 1920 से शुरू हुए दंगों की लंबी अवधि की श्रृंखला को खिलाफत आंदोलन की मूल जड़ बताया। इस महत्त्वपूर्ण विषय पर उन्होंने अपने दो महीनों का अमूल्य समय अज्ञातवास में बिताकर अंग्रेजी में ‘थॅाटस ऑफ पाकिस्तान’ लिखी, बाद में इसका संशोधित संस्करण भी प्रकाशित हुआ, जिसका हिंदी संस्करण ‘पाकिस्तान और भारत का विभाजन’ प्रकाशित हुआ। अंबेडकर ने पृथक निर्वाचन अधिनियम, लखनऊ समझौता, खिलाफत आंदोलन, मोपला हत्याकांड, सांप्रदायिक पंचाट सहित उन सभी प्रावधनों का मुखर विरोध किया, जिसमें मुस्लिम तुष्टीकरण किया गया हो, इसके लिए गाँधी और कांग्रेस की तीखी आलोचना की।’

राममनोहर लोहिया और अंबेडकर ने कांग्रेस और गाँधी जी की तुष्टिकरण की नीतियों का खुलकर विरोध किया। वे यह मानते थे कि व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के कारण भारत विभाजन की कगार पर आ पहुंचा है, परंतु तमाम विरोधों के बावजूद, गांधीजी के यह कहने पर भी कि ‘विभाजन मेरी लाश पर होगा’ अंतत: यह महादुर्घटना हुई और अपनी तमाम प्रकार की विकराल समस्याओं को लेकर आई। मौलाना आजाद की पुस्तक ‘आजादी की कहानी’ में देश विभाजन से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के संबंध के निवारण हेतु उत्तर देते हुए लार्ड माउंटबेटन का कथन उद्धृत है जिसमें कहा गया है कि ‘कम से कम इस प्रश्न पर मैं आपको पूरा आश्वासन दे सकता हूँ। यह मेरा उत्तरदायित्व होगा कि कहीं भी रक्तपात और दंगा न हो। मैं एक सैनिक हूँ और एक सिविलियन अधिकारी नहीं माना जाता। यदि एक बार विभाजन सिद्धांत रूप में मान लिया जाए तो मैं आदेश निकाल कर इस बात की व्यवस्था करूँगा कि देश में कहीं भी सांप्रदायिक दंगे न हों। यदि कहीं ज़रा सी भी गड़बड़ी हुई तो मैं कड़ी कार्रवाई करके उसे प्रारंभ में ही दबा दूंगा। मैं शस्त्र-पुलिस का भी उपयोग नहीं करूँगा। मैं सेना और वायुसेना को काम में लूँगा और जो कोई गड़बड़ी की कोशिश करेगा, उसे दबाने के लिए मैं टैंकों और हवाई जहाजों का प्रयोग करूँगा।’ परंतु यह आश्वासन केवल आश्वासन रूप में ही रह गए, धरातल पर यह कभी उतार उतारे ना गए और विभाजन को हिंदू-मुस्लिम के मध्य के विवाद के निवारण के रूप में देखा गया था, उसी के फलस्वरूप इतनी भीषण तबाही का दौर मानवता ने देखा, जिसके घाव आज तक रिसते प्रतीत होते हैं।

  डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय  

(लेखक डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक से उपाधि प्राप्त की तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। वर्तमान में दिल्ली शिक्षा निदेशालय के अंतर्गत हिंदी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं।)

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