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राष्ट्रीय विकास और भारतीय भाषाओं के बढ़ते कदम

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने न्यायालय के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए हिंदी और भारतीय भाषाओं के पक्ष में बहुत महत्वपूर्ण बात कही है। उन्होंने कहा कि "हमें अंग्रेजों के युग की मानसिकता को दफनाना होगा। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लगभग 73000 निर्णय हिंदी और भारतीय भाषाओं में पोर्टल पर उपलब्ध हैं। जिला अदालत आम जनता का सबसे पहले संपर्क बिंदु होती है इसलिए उनको अपनी भाषाओं में न्याय देने के लिए तैयार रहना चाहिए"।

प्रश्न यह उठता है कि आख़िर यह अंग्रेज़ी मानसिकता क्या है? इसका उत्तर हम हम सभी जानते हैं- अंग्रेजी मानसिकता है, जनता से दूरी बनाना! उस भाषा में बहस करना जिसे उनका मुवक्किल भी नहीं समझता हो कि न्याय या अन्याय किधर जा रहा है? किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए यह अच्छा नहीं माना जा सकता। गृहमंत्री अमित शाह ने भी 14-15 सितंबर हिंदी दिवस पर फिर दोहराया कि "इस सरकार के नेतृत्व में सभी भारतीय भाषाएं आगे बढ़ रही है। उनमें कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है और हिंदी इन सबको जोड़ने वाली एक कड़ी है।"

क्या सचमुच भारत और भारतीय भाषाओं का वक्त आ गया है? पूरा तो नहीं लेकिन गाड़ी चल पड़ी है और जिस सितंबर के महीने में भारतीय संविधान में हिंदी को लोकतांत्रिक तरीके से उसकी पहुंच, व्यापकता सहजता जैसे गुणों के कारण राजभाषा के रूप में अंग्रेजी के साथ-साथ संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया गया था और इसी उपलक्ष्य में हर वर्ष उत्सव के रूप में मनाया जाता है, तब यह और महत्वपूर्ण है कि इसका पूरा आकलन किया जाए। केवल आकलन ही नहीं, उस पर कैसे निरंतर आगे बढ़कर भारत उस सच्ची आजादी को प्राप्त कर सकता है जैसे यूरोप के देश चीन, जापान और दक्षिण एशिया के देशो ने अपनी पहचान, भाषा और संस्कृति को बचाते हुए प्रगति की है। इसलिए सबसे पहले भारतीय भाषाओं की हाल की कुछ ऐतिहासिक उपलब्धियां पर नजर डालते हैं।

जी-20 के मेजबान देश के रूप में जिस राष्ट्र को ‘इंडिया’ के नाम से दुनिया जानती थी उसे ‘भारत’ के रूप में जानने लगे हैं। लगभग सभी मंचों पर ‘भारत’ शब्द का इस्तेमाल हुआ। चाहे वह राष्ट्रपति के भेजे हुए आमंत्रण हों या प्रधानमंत्री का सभी बैठकों में उद्बोधन। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक कार्यवाही भी शुरू हो गई है और उसमें भी कोई दिक्कत नहीं आएगी। उसका सबसे बड़ा कारण संविधान में पहले से ही ‘इंडिया’ और ‘भारत’ शब्द शामिल था लेकिन बजाय ‘भारत’ शब्द को आगे बढ़ाने के हमने ‘इंडिया’ को आगे किया। खैर देर आए, दुरुस्त आए। हिंदी और भारतीय भाषाओं की प्राचीन परंपराओं के अनुरूप अब यह देश भारत कहलाता है।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय भाषाओं के लिए बहुत ठोस कदम उठाए गए हैं। पहला युगांतरकारी परिवर्तन तो यह है की आजादी के बाद केवल हिंदी की बात की जाती थी और इसीलिए गैर हिंदी प्रांतों में कुछ डर की भावना राजनीतिक स्वार्थों से उभारी गई। उसके अंजाम अच्छे नहीं रहे और अच्छा हुआ कि उस समय इस बात को बहुत तूल नहीं दिया गया। लेकिन भारतीय भाषाएं लगभग हसिए की तरफ आ गई। 1991 के उदारीकरण के बाद तो अंग्रेजी को मानो खुली छूट मिल गई। यह भी आरोप है कि अमेरिका समेत पश्चिमी देश अंग्रेजी को बढ़ाने में जी-जान से जुटे रहे। कभी ग्लोबलाइजेशन के नाम पर, कभी ज्ञान की समृद्ध परंपरा और कभी शिक्षा को बेहतर करने के नाम पर। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है की सन 2000 के बाद से दुनिया भर में अंग्रेजी भाषा में छपने वाली सबसे ज्यादा किताबों की संख्या भारत में ही है। इसका कारण बहुत बड़ी जनसंख्या तो है ही, साथ ही जैसे-जैसे सरकारी स्कूल कम होते गए और निजी स्कूल और विश्वविद्यालय बढ़ते गए, वहां से भारतीय भाषाएं लगभग गायब होती गई। हिंदी क्षेत्र में तो अंग्रेजी का दबदबा इतना बढ़ा है कि वो अंग्रेजी भी ठीक से सीख नहीं पाए और अपनी हिंदी भाषा से भी और दूर हो गए। इसका प्रभाव हिंदी की रचनात्मक उर्वरता और हिंदी समाज पर भी बहुत बुरा हुआ है। बांग्ला मराठी मलयालम तमिल कन्नड़ से भी अंग्रेजी का टकराव हुआ लेकिन दक्षिण के ये राज्य अपनी भाषाओं को बचाने में हिंदी से ज्यादा सक्षम साबित हुए हैं। इसीलिए नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ने का मूल मंत्र चुना गया है और लगातार उसके लिए प्रयास हो रहे हैं। पूरे देश में प्राइमरी शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिए जाना अनिवार्य कर दिया गया है।

ताजा खबर यह भी है कि कर्मचारी चयन आयोग जो केंद्र सरकार के 25 मंत्रालयों के लिए कर्मचारियों की भर्ती करता है और जिसमें ज्यादातर अंग्रेजी का बोलबाला यूपीएससी से भी ज्यादा होता है, वहां अब 23 भारतीय भाषाओं में परीक्षा की तैयारी हो रही है। पिछले 8 सालों से यह परीक्षा हिंदी समेत 13 भाषाओं में हो रही है। 10 वर्ष पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। याद कीजिए, 2011 में तत्कालीन सरकार ने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा 2011 के प्रथम चरण में ही अंग्रेजी लाद दी थी। नतीजा यह हुआ की 3 वर्ष में हिंदी और भारतीय भाषाओं में पढ़ने-लिखने वाले उम्मीदवार गायब हो गए। देशभर में छात्रों ने आंदोलन किया। सबसे पहले आवाज महाराष्ट्र और तमिलनाडु के विद्यार्थियों ने उठाई। मामला न्यायालय तक भी पहुंचा। दिल्ली के मुखर्जी नगर और करोल बाग में बच्चे सड़कों पर उतरे और अंततः 2014 में प्रथम चरण में थोपी गई अंग्रेजी को हटाया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा की कोठारी रिपोर्ट के खिलाफ आखिर प्रथम चरण में अंग्रेजी की जरूरत के क्या कारण रहे? सरकार कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई।

इसी का नतीजा है कि सिविल सेवा परीक्षा के परिणामों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। हाल के परिणामों में लगभग 8-9% बच्चे भारतीय भाषाओं के चुने गए हैं जबकि सन 80 और 90 में लगभग 15 से 20% प्रतियोगी अपनी भाषाओं में परीक्षा देकर चुने जाते थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है की सिविल सेवा परीक्षा का मौजूदा मॉडल वर्ष 1979 में शिक्षा विद दौलत सिंह ‘कोठारी आयोग’ की सिफारिश के अनुसार लागू किया गया था और पहली बार एक लंबे विचार विमर्श के बाद भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की शुरुआत की गई थी। आजादी के लगभग 30 वर्ष बाद वर्ष 1976 में कोठारी कमेटी ने इन सिफारिश को यह कहकर शामिल किया था कि क्या टैलेंट सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वालों में ही होती है? भारतीय भाषाओं के अधिकांश बच्चे कहां जाएंगे? क्या इनका उच्च सेवाओं में जाने का कोई अधिकार नहीं है? इसलिए एक सच्चे लोकतंत्र में सभी भाषाओं को आठवीं सूची में उल्लेखित सभी भाषाओं को मौका मिलना चाहिए! उन्होंने अपनी सिफारिशों में यह तक कहा था की जिन अधिकारियों को भारतीय भाषाएं नहीं आती, उनको इस देश पर शासन करने का कोई हक नहीं है।" उन दिनों मोरारजी देसाई की जनता सरकार थी और सिफारिश को लागू कर दिया गया। इसका चमत्कारिक असर देखिए की 10 साल पहले जिस परीक्षा में बैठने वालों की संख्या सिर्फ 10000 के करीब थी, वर्ष 1979 में वह एक लाख से भी ज्यादा हो गई। यह होता है लोकतंत्र का विस्तार! लोक की भाषा से पहली बार वे उम्मीदवार इन सेवाओं में आए, जिनके मां-बाप बिना पढ़े-लिखे थे। यानी, पहली पीढ़ी के पढ़े हुए लोग उच्च प्रशासनिक सेवाओं में दाखिल हुए। वर्ष 1989 में ‘सतीश चंद्र कमेटी’ इस परीक्षा के समीक्षा के लिए गठित हुई और उसने माना की सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने से लोकतंत्र तो मजबूत हुआ ही है, भारतीय भाषाओं को भी सम्मान मिला है। 10 वर्ष बाद संघ लोक सेवा आयोग की परंपरा के अनुसार वर्ष 2000 में जाने-माने अर्थशास्त्री योगेंद्र अलग की अध्यक्षता में जो कमेटी बनी उसने भी भारतीय भाषाओं के प्रवेश पर मुहर लगाई। लेकिन अफसोस यूपीएससी की बाकी परीक्षाएं जैसे वन सेवा, आर्थिकी सेवा, मेडिकल सेवा, इंजीनियरिंग परीक्षा इत्यादि अभी भी सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में ही होती हैं। यह पक्ष अभी भी अधूरा है और उम्मीद है कि सरकार आने वाले दिनों में इस पर ध्यान देगी।

इस उम्मीद के पीछे भी इस सरकार ने जो कदम उठाए हैं वे प्रशंसनीय है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई अभी तक केवल अंग्रेजी भाषा में ही होती थी। 3 वर्ष पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में भी शुरू कर दी गई है। पहले वर्ष लगभग 14 कॉलेज और पांच भारतीय भाषाओं के राज्य सामने आए थे। अब इनकी संख्या लगभग 25 कॉलेज और आठ भारतीय भाषाएं हो चुकी है। यह संदेश हर राज्य के उम्मीदवार और उनकी भाषाओं में पढ़ने-लिखने वालों के पास पहुंच गया है कि भारतीय भाषाओं में पढ़ने का भविष्य भी उतना ही उजला है। मेडिकल की परीक्षा जो अंग्रेजी के बिना असंभव मानी जाती थी, मध्य प्रदेश ने सभी मेडिकल कॉलेज में अपनी भाषा हिंदी में पढ़ाकर संभव बना दिया है और वो भी पूरी तैयारी के साथ। अंग्रेजी से हिंदी में किताबें उपलब्ध कराई गई हैं और उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। इस पहलू पर ध्यान उन दिनों तब गया, जब रूस और यूक्रेन की लड़ाई में वहां पढ़ रहे 20000 भारतीय डॉक्टरों की पढ़ाई पर देश का ध्यान गया। पता लगा की सबसे पहले वहां उनकी प्रांतीय व राज्य की भाषा सीखनी पड़ती है। यानी दुनिया के सारे देश मेडिकल की पढ़ाई पहले अपनी भाषाओं की समझ से शुरू करते हैं लेकिन भारत में अंग्रेजी के दीवाने हिंदी में पढ़ने-लिखने से कतराते हैं। लेकिन अंततः भारतीय भाषाओं की लड़ाई जीत की तरफ हैं। इसीलिए मेडिकल प्रवेश परीक्षा, जिसे ‘नीट’ नाम से जाना जाता है और जो पहले सिर्फ अंग्रेजी में होती थी, वह आठ भाषाओं से शुरू होकर अब 15 भाषाओं में होने लगी है।

शिक्षा से गहरे जुड़े हुए लोग ही एहसास कर सकते हैं कि ग्रामीण अंचलों में सिर्फ प्रांतीय भाषाओं में ही बेहतर शिक्षा उपलब्ध है। अंग्रेजी के दबाव में तो बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं। स्कूल छोड़ने की सबसे बड़े कारण विदेशी भाषा का लादना है। जून 2023 में ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कुछ और क्रांतिकारी कदम उठाए हैं। यूजीसी ने आदेश जारी किए हैं कि जहां कुछ कारणों से केवल अंग्रेजी में ही पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं यदि वहां पढ़ने वाले विद्यार्थी अपनी भाषा में उत्तर लिखना चाहें तो उन्हें इसकी छूट होगी। यानी पहले ऐसा वक्त था की अंग्रेजी भले ही टूटी-फूटी आए लेकिन लिखना अंग्रेजी में होता था अब अपनी भाषाओं में लिखने की छूट दे दी गई है।

इस नजरिया से दिल्ली में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया विश्वविद्यालय अंबेडकर आदि पर नजर डालना जरूरी है। यह सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। सबसे ज्यादा आर्थिक संसाधन इन विश्वविद्यालयों के पास हैं और सबसे ज्यादा सुविधाएं भी। लेकिन क्या कारण है कि कोठारी कमेटी ने वर्ष 1974 से 76 के बीच जब अपनी रिपोर्ट दी थी तब दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 20% से ज्यादा बच्चे स्नातकोत्तर में अपनी भाषा हिंदी में पढ़ते थे, लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजी के कैंसर ने ऐसा असर किया की अपनी भाषाओं में पढ़ना पढ़ना ही बंद हो गया है और यह भी उसी राज्य में जो हिंदी भाषी क्षेत्रों में आता है। संविधान की धाराओं के अनुसार, जिसकी भाषा हिंदी है और इससे भी बड़ी बात की जहां पढ़ने वाले 80% छात्र हिंदी भाषी राज्य के हैं और पढ़ाने वाले भी लगभग 70% अध्यापक अच्छी हिंदी जानते हैं। वहां धीरे-धीरे अपनी भाषाओं में पढ़ना क्यों बंद हुआ? कहीं ना कहीं सत्ता की राजनीति और अंग्रेजी की गुलामी का असर था कि अंग्रेजी हावी होती गई है। इसे भारत सरकार के मंत्रालयों में नियुक्त हिंदी अधिकारी नहीं रोक सकते। इसे रोकने के लिए पहले सरकार और फिर समाज को आगे बढ़ना होगा। सबसे सुखद स्थिति इस समय यह है कि सत्ता की सीट पर बैठे प्रधानमंत्री गृहमंत्री और सभी राजनेता अपनी बात भारतीय भाषा और हिंदी में करते हैं। संसद में भी अधिकतर बहस हिंदी और भारतीय भाषाओं में होती है। राज्य की विधानसभाओं में तो ऐसा होता ही है। इस नजरिया से देखा जाए तो राजनेता जनता की भाषा लोक भाषा के ज्यादा नजदीक हैं बजाय नौकरशाहों के। लेकिन नौकरशाह भी गिरगिट की तरह बदल रहे हैं। यूपीएससी के इंटरव्यू बोर्ड और दूसरे मंचों पर अब वे हिंदी और भारतीय भाषाओं को हिकारत से देखने की जुर्रत नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री जब उनसे सीधे संवाद करते हैं तो हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी के नखरे उन्हें उनके पद से दूर कर सकते हैं।

इसका असर मीडिया में भी हुआ है। अंग्रेजी के दीवाने कई एंकर व मीडिया कर्मी पिछले कुछ वर्षों में भले ही अंग्रेजी में प्रश्न पूछें, लेकिन सामने वाला यदि हिंदी और भारत की भाषा में जवाब देता है तो वे भी हिंदी भाषा में प्रश्न करते हैं। यानी कि अब परिदृश्य बदल रहा है। न्यायालय में भी हिंदी का प्रवेश भले ही सीमित ही शुरू हो चुका है।सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्णय को भारतीय भाषाओं में अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराया है और इसी का अनुकरण करते हुए उच्च न्यायालय वकीलों की बात उनकी अपनी भाषा में सुनने लगे हैं। केरल हाईकोर्ट ने तो लगभग 6 महीने पहले पहली बार अपना निर्णय मलयालम भाषा में दिया है। तमिलनाडु की सरकार ऊपर से भले ही हिंदी का विरोध करती रहे लेकिन अपनी तमिल भाष को पूरा महत्व देती है। श्री करुणा निधि की सफलता इसी बात में थी कि उन्होंने प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा में पढ़ना अनिवार्य कर दिया था। दक्षिण के ज्यादातर राज्यों में उनकी अपनी भाषा मैट्रिक तक अनिवार्य हैं और उससे आगे भी छात्र अपनी भाषा पढ़ते हैं। महाराष्ट्र के मैट्रिक पढ़ने वाले ज्यादातर छात्रों के पास तो चार भाषाएं (मराठी, इंग्लिश, हिंदी और संस्कृत या उर्दू) होती हैं। जुलाई 2023 में कर्नाटक के एक स्कूल में आठवीं की कक्षा में कन्नड़ पढ़ाना बंद कर दिया था। मामला मीडिया तक पहुंचा और राज्य सरकार ने तुरंत उस स्कूल को चेतावनी दी गई कि राज्य की भाषा पढ़ना अनिवार्य है वरना आपकी मान्यता रद्द कर दी जाएगी। अपनी भाषा में पढ़ने के लिए कर्नाटक सुप्रीम कोर्ट तक गया और अंतत उनकी जीत हुई। पंजाब में आई नई सरकार ने भी सबसे पहला कदम यही किया कि दसवीं कक्षा तक पंजाबी भाषा को अनिवार्य किया और उसके माध्यम में पढ़ने को प्राथमिकता दी गई है।

यहां हिंदी भाषा राज्यों विशेष कर दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र के लिए कुछ सबक हैं। दिल्ली में लगभग 4000 (2000 सरकारी और 2000 निजी) स्कूल हैं। निजी स्कूलों में हिंदी मुश्किल से सिर्फ आठवीं तक पढ़ाई जाती है। आठवीं तक भी अंग्रेजी विदेशी भाषा तो होती ही है, साथ ही चीनी, जापानी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाएं भी पढ़ाई जा रही हैं। इन निजी स्कूलों में 9वीं कक्षा में अंग्रेजी तो अनिवार्य रहती है किंतु हिंदी नहीं। हिंदी का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा और वह भी देश की राजधानी दिल्ली में, जहां साहित्य अकादमी है, हिंदी अकादमी है, भारत सरकार का गृह मंत्रालय है, राजभाषा विभाग है और सबसे ज्यादा हिंदी के 500 लेखक यहां रहते हैं। यदि हिंदी दसवीं तक भी नहीं पढ़ाई जाएगी तो कौन उनकी किताबों को पड़ेगा और खरीदेगा? क्या यह सांस्कृतिक संकट को आमंत्रण देना नहीं है? क्या भाषा के बिना कोई संस्कृति जीवित रह सकती है? क्या अकादमियां सिर्फ कुछ कुर्सी और कुछ बजट को खपाने के लिए बनी हैं?

हाल ही में राष्ट्रीय भाषा संगम की बड़ौदा में हुई गोष्ठी में गुजरात का अनुभव याद आता है। गुजरात साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ने बताया कि यहां भी स्कूलों में अंग्रेजी पैर प्रसार रहा था। गुजराती समाज इसके विरोध में उठ खड़ा हुआ। हर हफ्ते गुजरात साहित्य अकादमी के भवन से वहां के शिक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री के पास जुलूस जाता रहा और 3 महीने में उन्हें यह मानना पड़ा कि गुजराती न केवल दसवीं बल्कि 12वीं तक पढ़ाई जाएगी। दिल्ली के लिए तो यह उदाहरण और भी प्रासंगिक है। हिंदी भाषा देश की राजधानी में दसवीं तक पढ़ना, हिंदी थोपना नहीं होगा। बल्कि इससे पूरे देश के लिए अपनी भाषाओं के पक्ष में एक अच्छा संदेश भी जाएगा। उसके बाद आप दूसरी भाषाएं पढ़ें, या कितनी भी विदेशी भाषाएं पढ़ें उस पर कोई रोक नहीं है।

इसलिए यहां के सभी सरकारी और निजी स्कूलों में कम से कम दसवीं तक तो हिंदी तुरंत अनिवार्य की जाए और जरूरत हो तो हिंदी के लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार बिना किसी राजनीतिक मतभेद के सामने आएं और सरकार को मजबूर करें। दक्षिण के राज्यों के 11वीं-12वीं के बच्चे भले ही इंजीनियर की तरफ जा रहे हों या मेडिकल परीक्षा की तरफ ज्यादातर मामलों में, उनके पास उनकी अपनी भाषा भी होती है और यही कारण है कि उनकी क्षमता, अपनी भाषा में भी होती है और अंग्रेजी में भी। ज्यादातर समाज शास्त्रियों का आकलन है कि समझ के लिए अपनी भाष बहुत जरूरी होती है और यही समझ उन्हें अपने समाज व उसकी समस्याओं को हल करने के काम आती है। यह अचानक नहीं है कि दक्षिण के राज्य उत्तर के मुकाबले में ज्यादा तार्किक और बेहतर विकास की तरफ अग्रसर हैं। फिर वह चाहे जनसंख्या नियंत्रण का मामला हो, स्त्री शिक्षा का हो, शिक्षा की बेहतरीन का हो या फिर कानून व्यवस्था का। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी उत्तर भारत के मुकाबले वे कहीं बेहतर साबित कर रहे हैं। हिंदी भाषा के उत्सव को मनाते वक्त हम सब का यह दायित्व है कि हम अपने चारों तरफ शिक्षा का ऐसा वातावरण तैयार करें जिसमें बच्चे विदेशी भाषा के दबाव में किताबें और शिक्षा से दूर ना हो। गांधी जी को भी याद करते हुए कृपया सोचें कि सौ वर्ष पहले उन्होंने कितने जोर से अपनी भाषा में पढ़ने की वकालत की थी। अपनी भाषा में पढ़ेंगे-सोचेंगे तो उनकी रचनात्मकता कई गुना बेहतर होगी। वो वैज्ञानिक उपलब्धियां में आगे बढ़ेंगे। उद्योग व्यापार में सफलता पाएंगे। इन्हीं सबसे सांस्कृतिक-सामाजिक विकास होता है। अपनी मातृभाषा में ली गई शिक्षा पूरे परिदृश्य को बदल सकती है और किसी भी देश का उद्देश्य ऐसा ही समग्र विकास होना चाहिए।

  प्रेमपाल शर्मा  

(जाने-माने लेखक और शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा (पूर्व संयुक्त सचिव, भारत सरकार) वर्ष 1981 में सिविल सेवा की परीक्षा में चयनित हुए थे। अभी तक इनकी कुल 25 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले 30 से अधिक वर्षों में देश के लगभग सभी राष्ट्रीय अखबारों में इनके 1000 से अधिक लेख व स्तंभ प्रकाशित हो चुके हैं। ये वर्तमान समय में सिविल सेवा परीक्षार्थियों को पढ़ाने का कार्य करते हैं।)

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