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सरकारी हिंदी : ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या!

सुप्रसिद्घ कवि रघुवीर सहाय ने लिखा था कि “हिंदी जैसे कि दुजाहू की बीवी”। यानी हिंदी की सराहना तो सब कर लेंगे पर जब उसको उसका सम्मान देने की बात आएगी तो उसके साथ किसी विधुर की नई बीवी जैसा सलूक किया जाएगा। यही स्थिति हिंदी को लगातार नीचे धकेलती रहती है और हिंदी आज तक उस स्थान पर नहीं पहुँच पाई जहॉं उसे आज़ादी के सत्तर साल में पहुँच जाना था।

केंद्र सरकार के हर सरकारी विभाग और केंद्रीय उपक्रमों में एक रिवाज की तरह हिंदी अधिकारी बैठता है और उसका काम होता है कि वह सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दे। मगर होता उसका उलटा है। मैं स्वयं एक उदाहरण देना चाहूंगा। इस संदर्भ में मुझे वे दिन याद हैं जब एक बार ममता बनर्जी ने मुझे अपने कार्यकाल में रेलवे की हिंदी सलाहकार समिति में रखा था। मैने पहली ही बैठक में रेल मंत्री के समक्ष यह मुद्दा उठाया कि मंत्रालय हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी की कार्यशालाएँ बंद करवाए तथा हिंदी विभाग में कार्यरत कर्मचारियों और अफसरों की फौज भी घटाए। इसके बजाय मंत्री महोदया उन राज्यों पर हिंदी को कामकाज में लाने के लिये अधिक सतर्कता बरतेंं, जो हिंदी भाषी नहीं हैं और जहाँ के लोगों में हिंदी बोलने या बरतने के प्रति कोई रुचि नहीं दिखती अथवा उन राज्यों में जो हिंदी भाषी राज्यों से घिरे हुए हैं पर वहाँ की मुख्य भाषा हिंदी नहीं है। यानी ग और ख श्रेणी के राज्य।

मंत्री महोदया ने मेरी बात का संज्ञान लिया और मुझे चेन्नई स्थित दक्षिण रेलवे का जोन दिया गया ताकि वहाँ जाकर मैं हिंदी कार्यशालाएँ देखूं और चेक करूं कि हिंदी में कामकाज कितना हो रहा है! पर वहाँ जाकर मैने पाया कि हिंदी के नाम पर सिर्फ खानापूरी ही है। दक्षिण रेलवे के महाप्रबंधक, मुख्य जनसंपर्क अधिकारी और मुख्य राजभाषा अधिकारी सिर्फ इतनी ही हिंदी जानते थे जितनी कि दस्तखत करते वक्त रिजर्ब बैंक का गवर्नर। मैने जब वहॉं दबाव बनाया तो पता चला कि स्टाफ ही नहीं है और जो स्टाफ है वह अपने समकक्ष कर्मचारियों की तुलना में कम वेतन पाता है और विरोध दर्ज करने पर कहा जाता है कि हिंदी सेवा करोगे तो क्या हमारी तरह ‘मेवा’ खाओगे! यानी हिंदी विभाग में काम करना है तो उसी मंत्रालय में अपने समकक्ष कर्मचारियों की तुलना में कम वेतन पाना और दूर दराज के स्टेशनों पर उपेक्षित पड़े रहना और कभी-कभार अन्य कर्मचारियों द्वारा पिट जाना भी।

चेन्नई में हिंदी विभाग में तमिल फिल्मों के मशहूर लेखक शंकर की बहू भी काम करती थीं, उन्होंने मुझे बताया कि हमारे घर का माहौल एकदम तमिलमय है और वहां हिंदी का 'क ख ग' बोलने वाला भी कोई नहीं है। मुझे विभाग में ही हिंदी में काम करने, बोलने और बरतने का मौका मिलता है पर वहाँ भी दक्षिण रेलवे का मुख्यालय मुझे हिंदी में काम करने के कारण हर तरह से हतोत्साहित करता है। उनकी यह बात सुनकर मुझे लगा कि इन सरकारी विभागों के वश का नहीं है कि हिंदी को वे जन-जन के लिये संपर्क भाषा बनाएँ और गैर हिंदी भाषी राज्यों में उसे स्वीकार्य दिखाएँँ। उसे अगर लोकप्रियता मिल रही है तो हिंदी फिल्मों और टीवी के सास-बहू टाइप सीरियलों के बूते ही। तो जाहिर है कि हिंदी की छवि वही बनेगी जो ये फिल्में या टीवी सीरियल दिखाएंगे और हिंदी एक गरिमापूर्ण भाषा नहीं बल्कि चलताऊ भाषा बनी रहेगी।

ऐसी अफसरशाही से क्या आप उम्मीद करते हैं कि हिंदी वाकई राजभाषा का ओहदा पा पाएगी? इसके बाद जो हिंदी अधिकारी विभाग में बैठे हुए हैं वे प्रयोग में आने वाले शब्दों के जो हिंदी अनुवाद पेश करते हैं वे बेहद हास्यास्पद और विचित्र होते हैं। वे चीजों को और उलझा देते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि जो शब्द लोक में प्रचलित हैं उन्हें जस का तस दे दिया जाए। अगर हिंदी में आम-फहम शब्द नहीं हैं तो उन्हें जटिल बनाने का क्या मतलब? इससे होता यह है कि उस जटिल शब्द गढ़ने वाले हिंदी अधिकारी को लोग महान मान लेते हैं। इस तरह कैसे यह उम्मीद की जाए कि आने वाले सौ वर्षों में भी हिंदी को वह हैसियत मिलेगी जिसकी वह अधिकारी है और जिसका वादा राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में हमेशा दुहराया गया। हिंदी के उत्थान के नाम पर हो रहे सरकारी खर्च को बंद किया जाए और एक बार सख्ती से कह दिया जाए कि सारा कामकाज हिंदी में होगा। जिस अफसर को हिंदी नहीं आती है उसे अनिवार्य रूप से हिंदी सीखनी होगी और जिस शब्द के लिए उपयुक्त शब्द उसे नहीं सूझ रहा उसे वह जस का तस प्रयोग करे। जब हमें कुर्सी, मेज या लालटेन जैसे पुर्तगाली शब्दों पर कोई ऐतराज नहीं है तो अंग्रेजी के शब्द या अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द जस के तस क्यों नहीं लिये जाएँ। ऐसा नहीं है कि अतीत में हुक्मरान पूरे देश के लिये कोई आमभाषा नहीं बनाते थे। अंग्रेजों के वक्त में हिंदुस्तानी आम तौर पर सभी परदेसी लोगों के साथ बातचीत का एक माध्यम थी। और मुगलों के वक्त उर्दू जो कि हिंदी का ही एक रूप है। इसलिये हिंदी में अगर बांग्ला के शब्द आ जाएँ अथवा मराठी व गुजराती शब्दों की भरमार हो जाए तो ऐसा कौन सा तूफान बरपा हो जाएगा।

हिंदी तब ही फली-फूलेगी जब वह बाजार पर छा जाएगी। जैसे सारी की सारी बॉलीवुड फिल्में बनती हिंदी में हैं पर उसमें हिंदी भाषियों के लिए कोई खास स्थान नहीं है। अधिकांश बड़े कलाकार, निर्देशक और निर्माता अहिंदी भाषी हैं। वे वहाँ पैसा इसलिये लगाते हैं क्योंकि शत-प्रतिशत रिटर्न की गारंटी है। विलायत से आकर यहॉं लोग हिंदी में काम करना अपना गौरव समझते हैं। चाहे वे कैटरीना कैफ रही हों या सनी लियोन। पर वे हिंदी नहीं सीखते। उनके डायलाग रोमन में लिखे जाते हैं और निजी बातचीत में वे अंग्रेजी बरतते हैं। अगर खान बंधुओं या फिर कुछ अन्य अभिनेताओं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश फिल्मी कलाकार रोमन में लिखी गई स्क्रिप्ट पढ़ते हैं। एक बार शाहरुख खान से मेरी मुलाकात दिल्ली में एक राजनीतिज्ञ के यहॉं हुई तो उन्होंने बताया कि एक फिल्म में उनके सामने रोमन में लिखी गई स्क्रिप्ट दी गई तो उन्होंने ऐतराज किया। तब निर्देशक ने कहा कि सर फिलहाल काम चला लीजिये आज कोई हिंदी ट्रांसलेटर नहीं है। यानी उसके पास कोई देवनागरी स्क्रिप्ट में लिखने वाला कोई आदमी नहीं था। यहाँ तक कि मशहूर हिंदी कवि हरिवंशराय बच्चन के सुपौत्र और हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन के पुत्र अभिषेक बच्चन हिंदी की देवनागरी में लिखी गई स्क्रिप्ट नहीं पढ़ पाते। ऐसे समय में कैसे उम्मीद की जाए कि हिंदी बाजार पर कब्जा कर लेगी?

इसकी वजह है कि हिंदी भाषियों ने अपनी भाषा को बाजारू तो बना दिया है मगर उसे बाजारोन्मुख बनाने की कोई पहल नहीं की। जब तक वह भाषा बाजार पर राज नहीं करती उसे बोलने वाला लुंपेन ही कहलाएगा। हम यह बात सारे उन शहरों में देखते हैं जो एक जमाने में हिंदी के गढ़ थे पर आज वहाँ हिंदी भाषी को अल्पज्ञानी और कूढ़मगज लुंपेन समझा जाता है। चाहे वह मुंबई हो या कोलकाता अथवा दिल्ली। सिर्फ लखनऊ, पटना, रांची, भोपाल, रायपुर, जयपुर और देहरादून से हिंदी का विकास नहीं हो सकता। कहने को तो हिमाचल और हरियाणा भी हिंदी भाषी राज्य हैं पर उनकी राजधानियों शिमला और चंडीगढ़ में राज अंग्रेजी ही करती है और इसकी वजह है हिंदी भाषियों का बाजार पर राज नहीं करना। इसलिये अगर वाकई आप हिंदी को पूरे देश में सर्वमान्य करवाना चाहते हैं तो हिंदी में ऐसे प्रेरक लोग तैयार करिये, हिंदी को जादू-टोने और कहानी-किस्सों से बाहर निकालिये। उसे ज्ञान-विज्ञान और यायावरी तथा सामाजिक विज्ञान की भाषा बनाइये। सिर्फ तब ही हिंदी को वह दरजा मिल पाएगा।

शंभूनाथ शुक्ल

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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