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चुनावी घोषणा और क़र्ज़माफ़ी, कितना सही-कितना ग़लत!

तिरे वादों पे कहाँ तक मिरा दिल फ़रेब खाए,
कोई ऐसा कर बहाना मिरी आस टूट जाए।

- फ़ना निज़ामी कानपुरी

हर चुनाव के बाद जब वक़्त गुज़रता है और जनता से किए गए वादों को चुनाव में विजयी हुई पार्टी पूरा नहीं करती, तो फ़ना निज़ामी कानपुरी का ये शेर हर वोटर के मन में आता है| अब ऐसा ही कुछ माहौल देश के तीन राज्यों में बन रहा है| ये राज्य हैं– मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान| एक तरफ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहाँ वोटिंग समाप्त हो चुकी है, वहीं राजस्थान में 25 नवंबर को वोटिंग होनी है| लेकिन इससे पहले तमाम राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्रों में जनता से जम कर वादे किए हैं| इसमें मुफ्त की रेवड़ियों के साथ क़र्ज़माफ़ी की भी बात की गई है| चलिए पहले एक नज़र वादों पर डालते हैं, फिर आपको बताते हैं कि आख़िरकार ये चुनावी वादे और क़र्ज़माफ़ी देश के हित में है या फिर उसे और गर्त में ले जाने का काम करेंगे|

छत्तीसगढ़ में दो पार्टियों के बीच ही कड़ी टक्कर है, एक कॉन्ग्रेस और दूसरी बीजेपी। अब कॉन्ग्रेस के वादों की बात करें तो इसमें, धान की खरीदी के लिए 21 क्विंटल/एकड़ का वादा है। वहीं धान का मूल्य कॉन्ग्रेस ने 3,200 रुपए प्रति क्विंटल देने का वादा किया है। कॉन्ग्रेस ने 17.50 लाख परिवारों को आवास देने का वादा किया है। इसके साथ ही तेंदूपत्ता पर कॉन्ग्रेस ने 6,000 रुपए प्रति मानक बोरा का वादा किया है। जबकि, तेंदूपत्ता पर बोनस की बात करें तो कॉन्ग्रेस का कहना है कि वह सत्ता में आती है तो 4 हज़ार रुपए हर साल देगी। वहीं भूमिहीन मज़दूरों को 10 हज़ार रुपए हर साल देने का वादा कॉन्ग्रेस कर रही है। किसानों के स्वास्थ्य की बात करें तो कॉन्ग्रेस ने 10 लाख रुपए तक मुफ़्त इलाज का वादा किया है। गैस सिलेंडर पर कॉन्ग्रेस ने 500 रुपए की सब्सिडी देने की बात कही है। इसके साथ ही जाति जनगणना और 200 यूनिट फ्री बिजली और किसानों का क़र्ज़ माफ़ करने का भी वादा कॉन्ग्रेस ने किया है।

जबकि बीजेपी के वादों की बात करें तो इसमें– धान की खरीदी के लिए 20 क्विंटल/एकड़ का वादा है। इसके साथ ही धान का मूल्य बीजेपी ने भी 3,200 रुपए प्रति क्विंटल देने का वादा किया है। बीजेपी ने 18 लाख परिवारों को आवास देने का भी वादा किया है। जबकि, तेंदूपत्ता पर बीजेपी ने 5,500 रुपए प्रति मानक बोरा का वादा किया है। तेंदूपत्ता पर बोनस की बात करें तो बीजेपी ने भी हर साल 4,500 रुपए देने की बात कही है। वहीं भूमिहीन मज़दूरों को 10 हज़ार रुपए हर साल देने का वादा भी बीजेपी ने किया है। स्वास्थ्य की बात करें तो बीजेपी ने भी कॉन्ग्रेस की तरह किसानों के लिए 10 लाख रुपए तक मुफ़्त इलाज का वादा किया है। वहीं गैस सिलेंडर पर भी बीजेपी का वादा कॉन्ग्रेस की तरह 500 रुपए की सब्सिडी देने का है। इसके अलावा अन्य योजनाओं में बीजेपी ने 1 लाख सरकारी नौकरी और महिलाओं को हर साल 12 हज़ार रुपए देने का वादा किया है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी इसी तरह के वादे दोनों पार्टियों की ओर से किए गए हैं।

अब बात करते हैं क़र्ज़माफ़ी की। भारत में चुनावी क़र्ज़माफ़ी के इतिहास को देखें तो सबसे पहला मामला आपको साल 1990 का मिलता है, जब वी.पी. सिंह की सरकार ने पूरे देश में किसानों का क़र्ज़ माफ़ कर दिया था। इस क़र्ज़माफ़ी से सरकारी ख़ज़ाने पर लगभग 10 हज़ार करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ गया था। फिर दूसरी बार क़र्ज़माफ़ी देखने को मिली साल 2008-09 में जब केंद्र की मनमोहन सिंह की सरकार ने पूरे देश के किसानों का 71,680 करोड़ रुपए क़र्ज़ माफ़ कर दिया था। इस क़र्ज़माफ़ी का फ़ायदा यूपीए सरकार को मिला और वो चुनाव में जीत कर फिर से केंद्र की सत्ता में क़ाबिज़ हो गई। इन दो घटनाओं ने नेताओं के ज़हन में ये बात डाल दी कि क़र्ज़माफ़ी वो ब्रह्मास्त्र है जिसके इस्तेमाल से वोटर को अपनी ओर किया जा सकता है।

राज्यों की बात करें तो इसी साल उत्तर प्रदेश की सरकार ने प्रदेश के 33,408 किसानों का क़र्ज़ माफ़ कर दिया। इस क़र्ज़माफ़ी की वजह से राज्य के ऊपर 190 करोड़ का अतिरिक्त बोझ आ गया। वहीं वर्ष 2018 से पहले की बात करें तो यूपी सरकार ने किसानों का 36,000 करोड़ रुपए का क़र्ज़माफ़ किया था। इसके साथ ही महाराष्ट्र ने 34,000 करोड़, पंजाब ने 10,000 करोड़ और कर्नाटक ने 8,000 करोड़ रुपए की क़र्ज़माफ़ी की थी।

भारतीय रिज़र्व बैंक ने मार्च 2016 तक क़र्ज़माफ़ी से राज्य सरकारों के ऊपर पड़ने वाले बोझ पर जो रिपोर्ट दी थी उसके अनुसार, आंध्र प्रदेश पर 46,254 करोड़ रुपए का, बिहार पर 22,092 करोड़ रुपए का, कर्नाटक पर 34,637 करोड़ रुपए का, केरल पर 29,914 करोड़ रुपए का, मध्य प्रदेश पर 20,837 करोड़ रुपए का, महाराष्ट्र पर 35,026 करोड़ रुपए का, राजस्थान पर 26,702 करोड़ रुपए का, तेलंगाना पर 21,902 करोड़ रुपए का, उत्तर प्रदेश पर 57,129 करोड़ और तमिलनाडु पर 66,878 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ है।

वर्ष 2018 में बीबीसी पर छपी एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि उस वक़्त देश भर में दिए गए खेती के लिए लोन का आँकड़ा करीब 4.5 लाख करोड़ रुपए तक का है। इसमें छोटे और मझले किसानों के लिए 2.19 लाख करोड़ रुपए शामिल हैं। जबकि, बाकी की राशि बड़े किसानों के लिए है। वहीं डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2014 से साल 2019 के बीच कुल 10 राज्यों ने 2,36,460 लाख करोड़ रुपए कृषि क़र्ज़माफ़ी की घोषणा की लेकिन सिर्फ 1,49,790 लाख करोड़ रुपए ही बैंकों को रिलीज़ किया। आरबीआई ने भी इसकी तस्दीक राज्य सरकार के बजट से की है।

वहीं राज्यसभा में 15 मार्च, 2022 को राज्य वित्त मंत्री भगवत कारद की ओर से दिए गए एक सवाल के जवाब से यह साफ़ होता है कि हाल के वर्षों में कृषि क़र्ज़ का प्रवाह तेज़ी से बढ़ा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि, वित्त वर्ष 2015-16 में जहाँ कृषि क़र्ज़ बकाया 12 लाख करोड़ रुपए था, वहीं वर्ष 2020-21 में यह 18.4 लाख करोड़ रुपए तक पहुँच गया। जबकि, कृषि क़र्ज़ हासिल करने वाले किसानों की संख्या भी 6.9 करोड़ से 10 करोड़ तक पहुँच गई। वहीं अगर इसमें किसान क्रेडिट कार्ड यानी केसीसी के तहत बाँटे गए क़र्ज़ का आँकड़ा भी जोड़ कर देखें तो 4 अप्रैल को कारद की ओर से लोकसभा में दिए गए जवाब के अनुासर, वित्त वर्ष 2021-22 में क़रीब 7.5 लाख करोड़ रुपए का सिर्फ केसीसी क़र्ज़ बाँटा गया है। हालाँकि,, ये भी सच है कि कारद 15 मार्च को राज्यसभा में दिए गए अपने एक जवाब में बताते हैं कि बीते छह वर्षों में केंद्र सरकार के ज़रिए किसी भी तरह की कृषि क़र्ज़माफ़ी नहीं की गई है और न ही ऐसा कोई प्रस्ताव विचाराधीन है कि किसानों का क़र्ज़ माफ़ कर दिया जाएगा। वहीं राज्यसभा में 2 अगस्त, 2022 को भगवत कारद की ओर से दिए गए एक अन्य जवाब से पता चलता है कि व्यावसायिक बैंक के ज़रिए वर्ष 2017-18 से वर्ष 2021-22 के बीच 10 लाख करोड़ रुपए का नॉन परफॉर्मिंग एसेट को बट्टे में डाल दिया गया।

अब क़र्ज़माफ़ी से होने वाले फ़ायदे और नुकसान की बात करें तो किसानों की क़र्ज़माफ़ी के फ़ायदे और नुकसान को लेकर समय-समय पर देश में चर्चा होती रही है। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि क़र्ज़माफ़ी का फैसला राज्यों के वित्तीय संतुलन के लिए सही नहीं होता है। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन पहले ही क़र्ज़माफ़ी की योजना की आलोचना कर चुके हैं। इसके साथ ही नीति आयोग ने भी क़र्ज़माफ़ी को किसानों की समस्याओं के हल के लिहाज़ से उचित नहीं माना है।

वहीं दूसरे पहलू को देखें तो किसान जो क़र्ज़ खेती के नाम पर लेता है उसका पूरा इस्तेमाल वह खेती को बढ़ावा देने के लिए नहीं करता है। अनुमान है कि किसान कृषि के नाम पर लिए गए कर्ज़ का तीन-चौथाई अपनी निजी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए करता है। यही वजह है कि वह कृषि के माध्यम से बाद में क़र्ज़ चुका पाने की स्थिति में नहीं होता है। आपको बता दें, कृषि से जुडे़ ज़्यादातर मामले राज्य सरकार के दायरे में आते हैं। फिर भी ज़्यादातर राजनीतिक दल स्थायी समाधान पर ज़ोर देने की बजाय तत्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए क़र्ज़माफ़ी का तरीका ही अपनाते हैं।

दूसरी ओर देखें तो क़र्ज़माफ़ी का फायदा देश के बड़े किसान ही ज़्यादातर उठा पाते हैं। छोटे किसानों पर इसका कोई ख़ास असर नहीं होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़ा किसान कुछ हद तक क़र्ज़ चुकाने में सक्षम होता है और वही लोन भी ले पाता है। जबकि छोटे किसानों को क़र्ज़माफ़ी का बहुत बड़ा फ़ायदा नहीं होता है। साथ ही राज्य की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव तो पड़ता ही है।

ऐसे में कई लोगों के मन में ये सवाल उठना लाज़मी है कि अगर क़र्ज़माफ़ी किसानों की समस्या का हल नहीं है तो फिर सही समाधान क्या है? एक्सपर्ट्स मानते हैं कि क़र्ज़माफ़ी की जगह किसानों के उपज की खरीद, उसके रख-रखाव के साथ ही कृषि उत्पादों की मार्केटिंग पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। इसके साथ ही सरकारों को कृषि के लिए ज़रूरी आधारभूत संरचना के साथ कृषि क्षेत्र में पूँजी निवेश को बढ़ाने का प्रयास भी करना चाहिए। वहीं उत्पादन क्षति, सूखा, बाढ़, जलवायु परिवर्तन, पानी की कमी किसानों की परेशानी के मुख्य कारण होते हैं। इसलिए इन समस्याओं से भी किसानों को निजात दिलाने के लिए सरकारों को प्रयास करना चाहिए।

  गौरव पाण्डेय  

गौरव मूलत: प्रयागराज ज़िले से हैं। इन्होंने आईआईएमसी, नई दिल्ली , से हिंदी पत्रकारिता की पढ़ाई की है। इंडिया टुडे ग्रुप में पाँच साल से अधिक पत्रकारिता करने के बाद वर्तमान में फ्रीलांस लेखन कर रहे हैं।

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