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उत्तर प्रदेश स्टेट पी.सी.एस.

  • 25 Jun 2025
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वाराणसी में मध्य क्षेत्रीय परिषद की 25वीं बैठक

चर्चा में क्यों?

केंद्रीय गृह मंत्री एवं सहकारिता मंत्री ने उत्तर प्रदेश के वाराणसी में 25वीं मध्य क्षेत्रीय परिषद बैठक की अध्यक्षता की।

मुख्य बिंदु

बैठक के बारे में:

  • प्रधानमंत्री की दृढ़ इच्छाशक्ति तथा भारतीय सशस्त्र बलों की बहादुरी की प्रशंसा करने वाले प्रस्ताव को मध्य क्षेत्रीय परिषद द्वारा सर्वसम्मति से अनुमोदित किया गया।
  • गृह मंत्री ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मध्य क्षेत्रीय परिषद एकमात्र ऐसी क्षेत्रीय परिषद है, जहाँ सदस्य राज्यों के बीच कोई मुद्दा या विवाद मौजूद नहीं है तथा यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
  • वर्ष 2004 से 2014 के बीच जहाँ केवल 11 क्षेत्रीय परिषद बैठकें तथा 14 स्थायी समिति बैठकें आयोजित हुईं, वहीं वर्ष 2014 से 2025 के बीच 28 क्षेत्रीय परिषद बैठकें तथा 33 स्थायी समिति बैठकें हुईं, जो दोगुनी वृद्धि को दर्शाता है।
  • इन बैठकों में कुल 1,287 मुद्दों का समाधान किया गया, जो एक ऐतिहासिक और उत्साहवर्द्धक उपलब्धि है।
  • अन्य प्रमुख मुद्दों के अतिरिक्त महिलाओं तथा बच्चों के खिलाफ बलात्कार के मामलों की त्वरित जाँच तथा न्यायिक निपटान के लिये फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों (FTSC) की स्थापना, प्रत्येक गाँव के निर्दिष्ट दायरे में भौतिक बैंकिंग सुविधाओं का प्रावधान तथा आपातकालीन प्रतिक्रिया सहायता प्रणाली (ERSS-112) के कार्यान्वयन सहित कुल 19 मुद्दों पर विस्तृत चर्चा की गई।
  • गृह मंत्री ने आह्वान किया कि परिषद के सभी राज्यों को बाल कुपोषण का उन्मूलन, स्कूल छोड़ने वालों की दर को शून्य तक लाना तथा सहकारी क्षेत्र को मज़बूत करने के लिये प्रतिबद्धता दिखाएँ।
  • उन्होंने सदस्य राज्यों से यह भी आग्रह किया कि वे ग्राम पंचायतों के राजस्व में वृद्धि करें तथा भारत की त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली को मज़बूत करने के लिये नियम बनाएँ।

क्षेत्रीय परिषदें

  • परिचय: 
    • पूर्वोत्तर परिषद (संशोधन) अधिनियम, 2002 के तहत सिक्किम राज्य को भी पूर्वोत्तर परिषद में शामिल किया गया है।
    • क्षेत्रीय परिषदें राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के तहत स्थापित वैधानिक निकाय हैं, राज्यों के बीच सहकारी कार्य को बढ़ावा देने और एक स्वस्थ अंतर-राज्यीय तथा केंद्र-राज्य वातावरण बनाने के लिये एक उच्च-स्तरीय सलाहकार मंच के रूप में की गई है।
    • क्षेत्रीय परिषदों का विचार पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग (फज़ल अली आयोग, 1953) की रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान प्रस्तावित किया गया था।
    • राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा 15 से 22 के अंतर्गत पाँच क्षेत्रीय परिषदों की स्थापना की गई।
    • उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के लिये एक अलग परिषद है, जिसे पूर्वोत्तर परिषद कहा जाता है। इसकी स्थापना वर्ष 1972 में, पूर्वोत्तर परिषद अधिनियम, 1972 के अंतर्गत की गई थी।
    • सात पूर्वोत्तर राज्यों को क्षेत्रीय परिषदों में शामिल नहीं किया गया है और उनकी विशेष समस्याओं को पूर्वोत्तर परिषद अधिनियम, 1972 के तहत स्थापित पूर्वोत्तर परिषद द्वारा देखा जाता है।
  • संघटन:

क्षेत्रीय परिषद

राज्य अमेरिका

मध्य क्षेत्रीय परिषद

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड

उत्तरी क्षेत्रीय परिषद

हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, चंडीगढ़

पूर्वी क्षेत्रीय परिषद

बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, सिक्किम

पश्चिमी क्षेत्रीय परिषद


राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दादरा और नगर हवेली, दमन एवं दीव

दक्षिणी क्षेत्रीय परिषद

आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, पुदुचेरी

  • संगठनात्मक संरचना:
    • अध्यक्ष: सभी पाँच क्षेत्रीय परिषदों के लिये केंद्रीय गृहमंत्री अध्यक्ष होते हैं। वे पूर्वोत्तर परिषद (NEC) के पदेन अध्यक्ष भी होते हैं।
    • उपाध्यक्ष: किसी एक सदस्य राज्य के मुख्यमंत्री होते हैं, जिन्हें वार्षिक क्रमानुसार के आधार पर चुना जाता है।
    • सदस्य: इसके सदस्यों में सदस्य राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री, उपराज्यपाल या प्रशासक शामिल होते हैं।
    • इसके अतिरिक्त, प्रत्येक सदस्य राज्य से राज्यपाल दो मंत्रियों को परिषद के सदस्य के रूप में नामित करता है।
    • सलाहकार: नीति आयोग (पूर्व में योजना आयोग) से एक नामित व्यक्ति, सदस्य राज्यों के मुख्य सचिव और विकास आयुक्त।
    • प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में एक स्थायी समिति होती है, जिसमें सदस्य राज्यों के मुख्य सचिव शामिल होते हैं। राज्य द्वारा प्रस्तावित मुद्दों पर सबसे पहले इस समिति द्वारा चर्चा की जाती है और फिर अनसुलझे मामलों को आगे के विचार-विमर्श के लिये पूर्ण क्षेत्रीय परिषद के समक्ष रखा जाता है।
  • उद्देश्य: 
    • राष्ट्रीय एकीकरण को साकार करना। 
    • तीव्र राज्यक संचेतना, क्षेत्रवाद तथा विशेष प्रकार की प्रवृत्तियों के विकास को रोकना। 
    • केंद्र एवं राज्यों को विचारों एवं अनुभवों का आदान-प्रदान करने तथा सहयोग करने के लिये सक्षम बनाना। 
    • विकास परियोजनाओं के सफल एवं तीव्र निष्पादन के लिये राज्यों के बीच सहयोग के वातावरण की स्थापना करना। 
  • कार्य: प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद एक सलाहकार निकाय होती है और निम्नलिखित विषयों पर चर्चा एवं अनुशंसा कर सकती है-


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चंबल नदी में घड़ियाल शावकों की संख्या में वृद्धि

चर्चा में क्यों?

राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य में इटावा रेंज में 1,186 तथा बाह रेंज में 840 घड़ियाल के बच्चे पैदा हुए हैं, जो अब चंबल नदी में आनंदपूर्वक विचरण कर रहे हैं।

  • घड़ियाल के अंडों को सेने (Incubation) में 50 से 60 दिन लगते हैं तथा जून के आरंभ में बच्चे बाहर निकलते हैं और यह प्रक्रिया लगभग एक माह तक चलती है

मुख्य बिंदु

घड़ियाल के बारे में:

  • परिचय
    • घड़ियाल (Gavialis gangeticus) अपने लंबे थूथन के कारण अन्य मगरमच्छों से अलग है।
    • ये सबसे बड़े जीवित सरीसृप हैं, जो मुख्य रूप से मीठे पानी के दलदलों, झीलों और नदियों में रहते हैं, जिनमें एक खारे पानी की प्रजाति भी शामिल है। 
    • ये रात्रिचर और पोइकिलोथर्मिक (जिन्हें बाह्य-ऊष्मीय या शीत-रक्तीय जीव कहा जाता है तथा इनके शरीर का तापमान आसपास के वातावरण के साथ बदलता रहता है) होते हैं।
  • वितरण: 
    • भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार, घड़ियाल भारत, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल तथा पाकिस्तान की ब्रह्मपुत्र, गंगा, सिंधु एवं महानदी-ब्रह्मणी-बैतरणी नदी प्रणालियों में व्यापक रूप से पाए जाते हैं।
    • वर्तमान में, उनकी प्रमुख आबादी गंगा की तीन सहायक नदियों (भारत में चंबल और गिरवा, तथा नेपाल में राप्ती-नारायणी नदी) में पाई जाती है।
    • ओडिशा भारत का एकमात्र राज्य है, जहाँ तीनों देशज मगरमच्छ प्रजातियाँ- घड़ियाल (Gavialis gangeticus), मगर (Crocodylus palustris) और नमकिया मगर (Crocodylus porosus) प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं।
  • जनसंख्या: 
    • भारत में वैश्विक घड़ियालों की कुल जंगली आबादी का लगभग 80% हिस्सा रहता है। लगभग 3,000 घड़ियाल देश के विभिन्न संरक्षित क्षेत्रों जैसे- राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य, कतर्नियाघाट तथा सोन घड़ियाल अभयारण्य में पाए जाते हैं।
  • मगरमच्छ संरक्षण परियोजना: 

राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य

  • इसे वर्ष 1979 में चंबल नदी की लगभग 425 किमी लंबाई में एक नदी अभयारण्य के रूप में स्थापित किया गया था।
  • इसके बीहड़ राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के त्रि-बिंदु के पास चंबल नदी के किनारे 2-6 किमी तक विस्तृत हैं।
  • राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य को महत्त्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र (IBA) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है तथा यह एक प्रस्तावित रामसर स्थल भी है।



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उत्तर प्रदेश में बनेंगे चार आधुनिक बचाव केंद्र

चर्चा में क्यों?

उत्तर प्रदेश सरकार  मानव और बड़े मांसाहारी जीवों के बीच बढ़ते टकराव को देखते हुए चार आधुनिक बचाव केंद्रों की स्थापना कर रही है।

मुख्य बिंदु

बचाव केंद्रों के बारे में

  • वन एवं वन्यजीव विभाग मानव-वन्यजीव संघर्षों, विशेष रूप से बाघ, तेंदुआ और सियार जैसे बड़े मांसाहारी जानवरों के संघर्षों को कम करने और उनसे निपटने के लिये चार आधुनिक बचाव केंद्र स्थापित कर रहा है।
  • ये बचाव केंद्र रणनीतिक रूप से प्रमुख क्षेत्रों में स्थापित किये जाएंगे: पश्चिमी उत्तर प्रदेश, तराई, अवध और बुंदेलखंड, ताकि मानव बस्तियों में भटक कर आने वाले जंगली जानवरों को सुरक्षित आश्रय प्रदान किया जा सके।
  • इन केंद्रों के लिये जिन विशिष्ट स्थानों का चयन किया गया है, उनमें हस्तिनापुर वन्यजीव अभयारण्य (मेरठ), पीलीभीत टाइगर रिज़र्व, सोहागीबरवा वन्यजीव अभयारण्य (महराजगंज) तथा रानीपुर वन्यजीव अभयारण्य (चित्रकूट) शामिल हैं।
  • राज्य सरकार ने इन बचाव केंद्रों की स्थापना के लिये 57.2 करोड़ रुपए आवंटित किये हैं, जो इस पहल के महत्त्व को दर्शाता है।

मानव-वन्यजीव संघर्ष

  • परिचय:
    • मानव-वन्यजीव संघर्ष उन स्थितियों को संदर्भित करता है जहाँ मानव गतिविधियों, जैसे कि कृषि, बुनियादी ढाँचे का विकास अथवा संसाधन निष्कर्षण, में वन्यजीवों के साथ संघर्ष की स्थिति होती है, परिणामस्वरूप मानव एवं वन्यजीवों दोनों के लिये नकारात्मक परिणाम सामने आते हैं।
  • प्रभाव: 
    • आर्थिक क्षति: मानव-वन्यजीव संघर्ष के परिणामस्वरूप लोगों, विशेष रूप से किसानों और पशुपालकों की आर्थिक क्षति हो सकती है। वन्यजीव फसलों को नष्ट कर सकते हैं, बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचा सकते हैं तथा पशुधन को हानि पहुँचा सकते हैं जिससे वित्तीय कठिनाई हो सकती है।
    • मानव सुरक्षा के लिये खतरा: जंगली जानवर मानव सुरक्षा के लिये खतरा उत्पन्न कर सकते हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ मानव और वन्यजीव सह-अस्तित्व में रहते हैं। शेर, बाघ और भालू जैसे बड़े शिकारियों के हमलों के परिणामस्वरूप गंभीर चोट या मृत्यु हो सकती है। 
    • पारिस्थितिक क्षति: मानव-वन्यजीव संघर्ष पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। उदाहरण के लिये, यदि मानव शिकारी-जीवों को मारते हैं तो शिकार प्रजातियों की आबादी में वृद्धि हो सकती है, जो पारिस्थितिक असंतुलन का कारण बन सकती है। 
    • संरक्षण चुनौतियाँ: मानव-वन्यजीव संघर्ष भी संरक्षण प्रयासों के लिये एक चुनौती उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि इससे वन्यजीवों की नकारात्मक धारणा हो सकती हैं तथा संरक्षण उपायों को लागू करना कठिन हो सकता है। 
    • मनोवैज्ञानिक प्रभाव: मानव-वन्यजीव संघर्ष का लोगों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी हो सकता है, विशेष रूप से उन लोगों पर जिन्होंने हमलों या संपत्ति के नुकसान का अनुभव किया है। यह भय, चिंता और आघात का कारण बन सकता है।
  • मानव-वन्यजीव संघर्ष से निपटने के लिये सरकारी उपाय:
    • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972: यह अधिनियम गतिविधियों, शिकार पर प्रतिबंध, वन्यजीव आवासों की सुरक्षा और प्रबंधन तथा संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना आदि के लिये कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
    • जैविक विविधता अधिनियम, 2002: भारत, जैविक विविधता पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का एक हिस्सा है। यह सुनिश्चित करता है कि जैविक विविधता अधिनियम वनों और वन्यजीवों से संबंधित मौजूदा कानूनों का उल्लंघन करने के बजाय पूरक है।
    • राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2002-2016): यह संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क को मज़बूत करने और बढ़ाने, लुप्तप्राय वन्यजीवों तथा उनके आवासों के संरक्षण, वन्यजीव उत्पादों में व्यापार को नियंत्रित करने एवं अनुसंधान, शिक्षा व प्रशिक्षण पर केंद्रित है।
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA): यह अपनी विकास योजनाओं और परियोजनाओं में आपदा की रोकथाम या इसके प्रभावों को कम करने के उपायों को एकीकृत करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों या विभागों द्वारा पालन किये जाने वाले दिशा-निर्देश निर्धारित करता है।


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