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प्रश्न :
प्रश्न. कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (CCUS) को प्रायः ब्रिज टेक्नोलॉजी’ कहा जाता है, जो शून्य-उत्सर्जन की वैश्विक संक्रमण प्रक्रिया में सहायक है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसकी क्षमता और चुनौतियों की परीक्षा कीजिये। (250 शब्द)
17 Sep, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरणउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- CCUS प्रौद्योगिकी के संबंध में संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
- CCUS का एक ‘ब्रिज टेक्नोलॉजी’ के रूप में गहन अध्ययन कीजिये।
- CCUS की क्षमता और भारत के लिये इससे जुड़ी चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।
- CCUS तकनीक के प्रभावी उपयोग की दिशा में आगे बढ़ने के उपाय सुझाइए।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (CCUS) उन प्रौद्योगिकियों का समूह है जो बड़े उत्सर्जन स्रोतों या सीधे वायु से कार्बन डाइऑक्साइड को संग्रहित एवं पृथक करने का कार्य करती हैं, और इसके पश्चात् उसे या तो दीर्घकालिक रूप से भूमिगत भंडारित (CCS) किया जाता है या मूल्यवर्द्धित उत्पादों (CCU) में परिवर्तित एवं पुनः उपयोग किया जाता है।
जब विश्व नेट ज़ीरो की दिशा में अग्रसर है और भारत ने भी 2070 तक शून्य-उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया है, तो CCUS को विविधीकृत डिकार्बोनाइज़ेशन रणनीति (decarbonisation strategy) का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ माना जाता है, विशेषकर उन क्षेत्रों के लिये जहाँ उत्सर्जन समाप्त करना कठिन है।
मुख्य भाग:
CCUS एक ‘ब्रिज टेक्नोलॉजी’ के रूप में
भूमिका
विवरण
समय-सेतु (Time
Bridge)
यह जीवाश्म ईंधनों के क्रमिक चरणबद्ध घटाव (Phase-down) का मार्ग प्रदान करता है, जिससे नवीकरणीय ऊर्जा और अन्य स्वच्छ प्रौद्योगिकियाँ (जैसे हरित हाइड्रोजन) पर्याप्त रूप से विकसित होकर ग्रिड को स्थिर कर सकें।
क्षेत्र-सेतु (Sector-Bridge)
यह “हार्ड-टू-अबैट क्षेत्रों” (जैसे सीमेंट, इस्पात, उर्वरक) के लिये एकमात्र व्यवसायिक रूप से व्यवहार्य समाधान है, जिनका उत्सर्जन रासायनिक प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा है और केवल नवीकरणीय विद्युत से प्रतिस्थापित करके समाप्त नहीं किया जा सकता।
CCUS की क्षमता:
- हार्ड-टू-अबैट क्षेत्रों का डिकार्बोनाइज़ेशन: सीमेंट, इस्पात, रिफाइनरी, रसायन, उर्वरक और कुछ विशिष्ट प्रक्रिया उद्योग जैसे उद्योग, सांद्रित CO₂ धाराओं का उत्सर्जन करते हैं जिन्हें केवल विद्युतीकरण के माध्यम से समाप्त करना कठिन है।
- भारत स्टील और सीमेंट का विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। CCUS इन क्षेत्रों में गहन कटौती (गहन उत्सर्जन कमी) संभव बनाता है, जबकि वैकल्पिक प्रक्रियाएँ विकसित हो रही होती हैं।
- विद्युत क्षेत्र में अनुकूलन क्षमता और ऊर्जा संक्रमण: कोयला भारत के ऊर्जा मिश्रण में प्रमुख है और ऊर्जा सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता है।
- जहाँ ग्रिड स्थिरता या संक्रमणकालीन क्षमता के लिए निर्बाध जीवाश्म ऊर्जा उत्पादन जारी रहता है, वहाँ थर्मल प्लांट या ताप विद्युत संयंत्रों पर CCUS उत्सर्जन को निम्न कर सकता है और नवीकरणीय ऊर्जा, भंडारण तथा ग्रिड उन्नयन के विस्तार होने तक कीमती समय प्रदान कर सकता है।
- कार्बन-रहित ईंधन और रसायनों को संभव बनाना: संग्रहित/कैप्चर्ड CO₂ का उपयोग (निम्न-कार्बन वाले हाइड्रोजन के साथ) सिंथेटिक ईंधन, मेथनॉल, यूरिया या पॉलिमर के उत्पादन के लिये किया जा सकता है, जिससे परिवहन और रसायन उद्योग का डिकार्बोनाइज़ (कार्बनमुक्तीकरण) करने में सहायता मिलती है, जहाँ प्रत्यक्ष विद्युतीकरण मुश्किल है।
- नकारात्मक उत्सर्जन मार्ग: जब इसे बायोएनर्जी (BECCS) या नवीकरणीय ऊर्जा से संचालित डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC) के साथ जोड़ा जाता है, तो CCUS शुद्ध नकारात्मक उत्सर्जन (नेट नेगेटिव एमिशन) प्रदान कर सकता है, जो अवशिष्ट उत्सर्जन के संतुलन और दीर्घकालिक कार्बन बजट को पूरा करने के लिये उपयोगी है।
- औद्योगिक क्लस्टर और रोज़गार सृजन: क्लस्टर किये गए CCUS हब (अवक्षेपण स्थल/कैप्चर साइट्स + साझा परिवहन/भंडारण) भारत में स्किल्ड ग्रीन जॉब्स/रोज़गार सृजित कर सकते हैं, अवक्षेपण/कैप्चर उपकरणों के विनिर्माण को प्रोत्साहित कर सकते हैं और एक घरेलू आपूर्ति शृंखला का समर्थन कर सकते हैं।
भारत के लिये प्रमुख चुनौतियाँ एवं सीमाएँ:
- उच्च लागत और ऊर्जा हानि: अवक्षेपण/कैप्चर प्रौद्योगिकियाँ पूंजी-गहन हैं और परिचालन लागत बढ़ाती हैं, साथ ही वे एक ऊर्जा हानि भी लगाती हैं (शुद्ध संयंत्र दक्षता कम हो जाती है)। प्रबल कार्बन मूल्य निर्धारण या सब्सिडी के बिना, इसकी आर्थिक व्यवहार्यता कमज़ोर है।
- आधारभूत ढाँचे की आवश्यकता: CCUS के लिये CO₂ के परिवहन (पाइपलाइनों) और सुरक्षित भंडारण स्थलों के नेटवर्क की आवश्यकता होती है। एक सुरक्षित एवं एकीकृत परिवहन और भंडारण नेटवर्क का निर्माण उच्च प्रारंभिक लागत और लंबे क्रियान्वयन समय की मांग करता है।
- भूवैज्ञानिक भंडारण आकलन और दायित्व: भारत को उपयुक्त जलाशयों (रिज़र्वॉयर) की पहचान करने के लिये व्यापक, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध भूवैज्ञानिक मूल्यांकन (Geological Appraisals) की आवश्यकता है, साथ ही संग्रहीत CO₂ की दीर्घकालिक ज़िम्मेदारी, स्वामित्व और निगरानी पर स्पष्ट कानूनों की भी आवश्यकता है।
- अवसर लागत और प्रौद्योगिकी विकल्प: सावधानीपूर्वक प्राथमिकता न दिये जाने पर, CCUS में निवेश दुर्लभ सार्वजनिक और निजी पूंजी को नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रिड भंडारण और ऊर्जा दक्षता जैसे किफायती विकल्पों से हटा सकता है।
- सीमित घरेलू उद्योग और अनुसंधान एवं विकास (R&D): बड़े पैमाने की अवक्षेपण प्रणालियों, कंप्रेसरों और CO₂-सहनशील सामग्रियों की स्वदेशी क्षमता अभी प्रारंभिक अवस्था में है, जिसके लिये अनुसंधान एवं विकास और विनिर्माण के पैमाने में विस्तार की आवश्यकता है।
CCUS प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग की दिशा में कदम:
- एक स्पष्ट राष्ट्रीय CCUS रणनीति तैयार करना: बिंदु स्रोतों, संभावित भंडारण स्थलों का मानचित्रण करना और प्रारंभिक हब्स के लिये प्राथमिकता वाले औद्योगिक क्लस्टरों की पहचान करना। समयसीमाओं एवं ज़िम्मेदारियों के साथ एक रोडमैप प्रकाशित करें।
- विश्वसनीय कार्बन मूल्य निर्धारण/ राजकोषीय प्रोत्साहन लागू करना: बाज़ार की विफलताओं को ठीक करने के लिये कार्बन मूल्य निर्धारण, कर छूट, पूंजीगत सब्सिडी, व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण (वायेबिलिटी गैप फंडिंग) और निम्न-कार्बन वाले उत्पादों के लिये उत्पादन प्रोत्साहनों को संयोजित करना।
- CCUS हब्स एवं साझा अवसंरचना विकसित करना: सार्वजनिक-निजी साझेदारी में क्षेत्रीय केंद्रों/regional hubs को प्रोत्साहित किया जाए जहाँ विभिन्न उद्योग लागत और जोखिम कम करने के लिये अवक्षेपण/कैप्चर, परिवहन और भंडारण सुविधाओं का सामूहिक उपयोग कर सकें।
- विनियामक और कानूनी ढाँचा: साइट परमिटिंग, CO₂ संपदा अधिकार, दीर्घकालिक दायित्व तथा निगरानी और सत्यापन मानकों के लिये कानून बनाएँ। दायित्व हस्तांतरण की समयसीमा और एक संरक्षक व्यवस्था को परिभाषित करें।
- अनुसंधान एवं विकास (R&D) और घरेलू विनिर्माण में निवेश: कम लागत वाले अवक्षेपण विलायकों, ठोस अवशोषकों, झिल्ली प्रौद्योगिकियों, डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC) तथा कंप्रेसरों और पाइपलाइन निर्माण के पैमाने में विस्तार हेतु अनुसंधान को सहायता प्रदान करना।
- हाइड्रोजन और औद्योगिक डिकार्बोनाइज़ेशन के साथ एकीकरण: CCUS नीति को ग्रीन/ब्लू हाइड्रोजन रणनीतियों और औद्योगिक डिकार्बोनाइजेशन योजनाओं के साथ संरेखित करना चाहिये ताकि समन्वित लाभ उत्पन्न हो सकें (उदाहरण के लिये, संक्रमणात्मक विकल्प के रूप में ब्लू हाइड्रोजन के साथ CCS)।
निष्कर्ष:
CCUS कोई चमत्कारिक समाधान नहीं, बल्कि एक व्यवहारिक पुल है, विशेषकर भारत के उन उद्योगों के लिये जिनके उत्सर्जन में कमी लाना कठिन (हार्ड-टू-अबैट) है और जहाँ आवश्यक हो वहाँ नकारात्मक उत्सर्जन प्रदान करने के लिए। इसकी संभावना विशाल है, परंतु यह सशर्त है: सफलता पैमाने के माध्यम द्वारा लागत कम करने, सक्षम करने वाली नीतिगत और राजकोषीय रूपरेखाएँ बनाने, अवसंरचना और घरेलू क्षमता विकसित करने तथा पारदर्शी विनियमन और सामुदायिक सहमति सुनिश्चित करने पर निर्भर करती है।
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