ध्यान दें:



मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न. भारत में दिव्यांगजनों के लिये सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाई गई नीतियाँ कितनी प्रभावी हैं? इन नीतियों के कार्यान्वयन में अभी भी मौजूद कमियों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    08 Jul, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्याय

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत में दिव्यांगजनों के अधिकारों को कायम रखने वाली एक हालिया उपलब्धि को रेखांकित करते हुए उत्तर लेखन की शुरुआत कीजिये।
    • भारत में दिव्यांगजनों के लिये सामाजिक न्याय की प्रमुख नीतियों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
    • नीतियों की प्रभावशीलता को रेखांकित कीजिये।
    • नीतियों के कार्यान्वयन में कमियों का उल्लेख कीजिये और सुधार के उपायों का सुझाव दीजिये।
    • एक संबद्ध अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय का उदहारण देते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    हाल ही में राजीव रतूड़ी बनाम भारत संघ (2023) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः स्पष्ट किया कि सेवाओं और अवसरों तक पहुँच का अधिकार दिव्यांगजनों का अधिकार एक मूल मानवाधिकार है।

    • हालाँकि, दिव्यांगजन अधिकार (RPWD) अधिनियम, 2016 जैसी कानूनी प्रगतियों के बावजूद, इन अधिकारों के कार्यान्वयन में अंतराल बने हुए हैं तथा दिव्यांगजनों को अभी भी सुगम्यता, शिक्षा और रोज़गार में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।

    मुख्य भाग:

    भारत में दिव्यांगजनों के लिये सामाजिक न्याय हेतु प्रमुख नीतियाँ:

    • दिव्यांगजन अधिकार (RPWD) अधिनियम, 2016: RPWD अधिनियम दिव्यांगता की परिभाषा को बढ़ाकर 21 श्रेणियों तक विस्तारित करता है और शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवा तथा सुलभता के क्षेत्र में दिव्यांगजनों के अधिकारों की गारंटी देता है।
      • इस अधिनियम में सरकारी नौकरियों में 4% तथा उच्च शिक्षा में 5% आरक्षण का प्रावधान किया गया है, जिसका उद्देश्य दिव्यांगजनों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना है।
    • सुगम्य भारत अभियान: वर्ष 2015 में शुरू किया गया यह अभियान दिव्यांगजनों के लिये सार्वजनिक स्थानों, परिवहन प्रणालियों और डिजिटल बुनियादी अवसंरचना के अभिगम में सुधार लाने पर केंद्रित है।
    • राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999: यह अधिनियम ऑटिज़्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता तथा एकाधिक दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के लिये विभिन्न कल्याणकारी उपायों के माध्यम से सहायता प्रदान करता है।
    • मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017: यह मानसिक रोग से ग्रस्त व्यक्तियों के अधिकारों और देखभाल की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, जिसका उद्देश्य समावेशी मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ प्रदान करना है।

    नीतियों की प्रभावशीलता:

    • सकारात्मक प्रगति:
      • मीडिया प्रतिनिधित्व के लिये सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश रूढ़िवादिता को चुनौती देने तथा दिव्यांगजनों के लिये अधिक समावेशी और सम्मानजनक समाज को बढ़ावा देने में सहायता कर रहे हैं।
        • इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण हाल ही में आई फिल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ है, जो इस तरह के सकारात्मक चित्रण की एक बानगी है।
      • वेब सामग्री सुगम्यता दिशानिर्देश (WCAG) 2.1 में वेब कंटेंट को अधिक सुलभ बनाने के लिये विस्तृत सिफारिशें शामिल हैं।
        • IPL मैचों का सांकेतिक भाषा में प्रसारण सही दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
    • सीमित प्रभावशीलता के क्षेत्र:
      • डिजिटल एक्सक्लूज़न: डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन (DEF, 2024) द्वारा किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि केवल 36.61% दिव्यांगजन नियमित रूप से डिजिटल सेवाओं का उपयोग करते हैं, जिसका मुख्य कारण वेबसाइट की अपर्याप्त सुलभता और सहायक प्रौद्योगिकी का अभाव है।
      • रोज़गार संबंधी बाधाएँ: कार्यस्थल पर भेदभाव, भौतिक रूप से दुर्गम कार्य वातावरण और सीमित व्यावसायिक प्रशिक्षण के कारण दिव्यांगजनों को रोज़गार पाने में गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
        • 4% आरक्षण के बावजूद, 1.3 करोड़ रोज़गार योग्य दिव्यांगजनों में से केवल 34 लाख ही रोज़गार प्राप्त कर पाए हैं।

    नीतियों के कार्यान्वयन में अंतराल:

    • कानूनी और प्रशासनिक बाधाएँ: प्रशासनिक अक्षमताओं के कारण नीतियों का कार्यान्वयन प्रायः कागज़ों तक ही सीमित रह जाता है।
      • उदाहरण के लिये, कई राज्यों ने दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के अनुसार दिव्यांगता पर राज्य सलाहकार बोर्ड का गठन नहीं किया है।
      • जटिल प्रक्रियाओं और डिजिटल बुनियादी अवसंरचना की कमी के कारण दिव्यांगजनों को प्रायः विशिष्ट दिव्यांगता पहचान पत्र (UDID) प्राप्त करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे लाभ तक उनकी पहुँच में बाधा उत्पन्न होती है।
    • सामाजिक कलंक और जागरूकता की कमी: कानूनी कार्यढाँचों के बावजूद, सामाजिक दृष्टिकोण अभी भी सक्षमतावाद में गहराई से जड़ जमाए हुए हैं। दिव्यांगजनों को समानता के बजाय दया के नज़रिये से देखा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक, शैक्षिक और रोज़गार के क्षेत्रों में उनका अपवर्जन होता है।
      • दिव्यांगजनों का मीडिया में प्रतिनिधित्व न्यूनतम और प्रायः रूढ़िवादी होता है, जिससे नकारात्मक धारणाएँ प्रबल होती जाती हैं।
    • ग्रामीण एवं हाशिये पर स्थित समुदायों में अभिगम-अक्षमता: दिव्यांगजन आबादी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा (लगभग 69%) ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है, जहाँ अभिगम-अक्षमता एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है
      • लिंग, जाति एवं ग्रामीण-शहरी विभाजन जैसे कारक इन चुनौतियों को और जटिल बना देते हैं, विशेषकर महिलाओं और वंचित समूहों के लिये, जिन्हें बहुस्तरीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
    • बुनियादी अवसंरचना और स्वास्थ्य देखभाल में अंतराल: हालाँकि RPWD अधिनियम सुलभ बुनियादी अवसंरचना को अनिवार्य करता है, लेकिन भारत की केवल 3% इमारतें पूरी तरह से सुलभ हैं।
      • इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवाएँ प्रायः दिव्यांगजनों के अनुकूल नहीं होती हैं तथा आयुष्मान भारत जैसी सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाएँ सहायक साधनों या दीर्घकालिक दिव्यांगता देखभाल को पर्याप्त रूप से कवर नहीं करती हैं।

    नीतियों की प्रभावशीलता बढ़ाने के उपाय:

    • कार्यान्वयन और निगरानी को सुदृढ़ बनाना: RPWD अधिनियम, 2016 का पूर्ण प्रवर्तन सुनिश्चित करने की दिशा में निगरानी और उत्तरदायित्व के लिये मज़बूत तंत्र स्थापित किये जाने चाहिये।
      • गैर-अनुपालन को दूर करने के लिये दिव्यांगता-समावेशी उपायों के साथ सरकारी और निजी क्षेत्र के अनुपालन का नियमित ऑडिट आवश्यक है।
    • समावेशी रोज़गार प्रथाएँ: राष्ट्रीय स्तर पर दिव्यांगता-समावेशी रोज़गार नीति को लागू किया जाना चाहिये, जो सुलभ कार्य वातावरण, उचित समायोजन और नियुक्ति प्रक्रियाओं में लचीलेपन को अनिवार्य बनाती है।
      • कंपनियों को दिव्यांगजनों को नियुक्त करने के लिये प्रोत्साहन प्रदान करना तथा उनकी रोज़गार प्रगति पर नजर रखना आवश्यक है।
    • व्यापक स्वास्थ्य सेवाएँ: आयुष्मान भारत जैसी राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाओं में दिव्यांगता-विशिष्ट आवश्यकताओं को एकीकृत करना, जिसमें सहायक उपकरण, दीर्घकालिक पुनर्वास और विशिष्ट मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ शामिल हैं।
    • प्रशासनिक प्रक्रियाओं को सरल बनाना: विशिष्ट दिव्यांगता पहचान पत्र (UDID) प्राप्त करने की प्रक्रिया को सरल बनाया जाना चाहिये तथा मोबाइल ऐप के माध्यम से कल्याणकारी आवेदनों को अधिक सुलभ बनाया जाना चाहिये, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि दिव्यांगजन प्रशासनिक विलंब के बिना आसानी से लाभ प्राप्त कर सकें।
    • जागरूकता और संवेदनशीलता में वृद्धि: सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने और दिव्यांगजनों के समावेशन को बढ़ावा देने के लिये राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान शुरू किया जाना चाहिये।
      • स्कूलों, कार्यस्थलों और मीडिया को दिव्यांगजनों के प्रति सम्मान एवं सहानुभूति की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये शामिल किया जाना चाहिये।

    निष्कर्ष:

    “वास्तव में दिव्यांगता केवल यह है कि हम भिन्नताओं को स्वीकारने और सम्मान देने में असमर्थ हों।" भारत के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि वह केवल नियमों के पालन तक सीमित मानसिकता से आगे बढ़े और समावेशन की एक पूर्ण संस्कृति को बढ़ावा दे, ताकि दिव्यांगजन डिजिटल और भौतिक, दोनों ही क्षेत्रों में राष्ट्र की प्रगति में सार्थक रूप से भागीदारी कर सकें तथा संयुक्त राष्ट्र 'दिव्यांगजन के अधिकारों पर अभिसमय' (CRPD) की भावना को सशक्त रूप से प्रतिपादित किया जा सके।

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