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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    ‘सुख और दु:ख दोनों ही जीवन से अभिन्न रूप से जुड़े हैं, व्यक्ति को इन सबसे ऊपर उठकर कर्म करना चाहिये’ टिप्पणी करें।

    24 Jan, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भूमिका। 

    • गीता के उपदेश में स्थितप्रज्ञ की धारणा।

    • कर्म तथा सुख और दु:ख का संबंध।

    • निष्कर्ष। 

    गीता हिंदू धर्म तथा वेदांत दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें मोक्ष प्राप्ति को ज्ञान, भक्ति तथा कर्म तीनों मार्गों द्वारा संभव बताया गया है। गीता के उपदेश में स्थितप्रज्ञ की धारणा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। निष्काम कर्मयोग का पालन करने वाला व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ कहलाता है। इस कठिन मार्ग पर चलने की शर्त यह है कि व्यक्ति मन तथा इंद्रियों को पूर्णत: संयमित कर ले और फलासक्ति को पूर्णत: त्याग दे।

    श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि- जिस मनुष्य ने अपनी समस्त मनोकामनाओं पर नियंत्रण पा लिया है, जो लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुख जैसी विरोधी स्थितियों में समभाव रखता है अर्थात् सुखी या दुखी नहीं होता और किसी के प्रति राग और द्वेष से मुक्त रहता है वही स्थितप्रज्ञ है।

    व्यवहारिक रूप से देखें तो यदि व्यक्ति सुख से सुखी नहीं है तो उसे सुख कैसे माना जाए और यदि वह दुख से दुखी नहीं है तो वह दुख कैसे है?

    वस्तुत: सुख या दुख जीवन से जुड़े एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनका जीवन में आना-जाना तय है ठीक वैसे ही जैसे जीवन के बाद मृत्यु का आना तय है या दिन के बाद रात्रि का। बुद्ध जिस इच्छा को दुख का मूल बताते हैं वह इसी सुख, जय या लाभ की इच्छा है क्योंकि इसके बाद विपरीत पक्ष का आना तय है। इसलिये वे इच्छाओं से ऊपर उठकर व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा देते हैं।

    लेकिन यहाँ यह प्रश्न भी उठता है कि यदि व्यक्ति सुख-दुख, जय-पराजय जैसी भावनाओं से प्रभावित नहीं होगा तो वह दया, करुणा, सहानुभूति जैसे मूल्यों से रिक्त हो सकता है। इसके अलावा, प्रतिस्पर्द्धा का अभाव होने से व्यक्ति अकर्मण्य हो सकता है।

    ऐसे में समझना होगा कि गीता के स्थितप्रज्ञ कर्म से आशय संवेदना तथा भावनाओं के प्रति तटस्थ का भाव नहीं है। इसका आशय है वह जो दुख की घटना को तटस्थ रूप से समझ सकता है, वह सुख प्राप्त होने पर भी कर्म से विचलित नहीं होगा। वह जो जन्म को प्रकृति की एक स्वभाविक घटना समझकर तटस्ट है उसके लिये मृत्यु भी स्वाभाविक होगी तथा जो जय को भी प्रकृति का खेल मानकर अपने कर्म में संलग्न रहेगा वह पराजय में भी व्यथित नहीं होगा।

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