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भारत में नागरिक समाज संगठन

प्रिलिम्स के लिये: नागरिक समाज संगठन, ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन, चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन (NBA) 

मेन्स के लिये: भारत में लोकतंत्र को मज़बूत करने में नागरिक समाज की भूमिका, नागरिक समाज संगठनों के समक्ष चुनौतियाँ और शासन पर उनका प्रभाव

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

नागरिक समाज संगठन (CSO) एक बार फिर केंद्र में आए हैं, क्योंकि वे समुदायों को संगठित करने, अधिकारों की रक्षा करने और शासन में अंतराल को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राज्य और बाज़ार से परे, ये सामूहिक कार्रवाई को गति देते हैं, नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करते हैं और भारत में लोकतंत्र को मज़बूत बनाते हैं। 

नागरिक समाज संगठन (CSO) क्या है? 

  • परिचय: CSO उन गैर-राज्य, गैर-लाभकारी संस्थाओं को कहा जाता है, जो लोगों को स्वेच्छा से एकजुट करके साझा सामाजिक, सांस्कृतिक या नैतिक उद्देश्यों की दिशा में सामूहिक रूप से कार्य करते हैं।        

Types_of_ Civil Society Organization

  • भारत में CSO का विकास 
    • प्राचीन–मध्यकालीन आधार: भारत में नागरिक समाज का आधार धर्म (कर्त्तव्य), दान (परोपकार) और कर्म (कर्मशीलता) जैसी अवधारणाओं पर केंद्रित था, जिन्होंने धार्मिक एवं सामाजिक आंदोलनों के जरिये परोपकार तथा सेवा की भावना को प्रोत्साहित किया। 
    • स्वतंत्रता-पूर्व काल: सुधारकों ने जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता और अन्य सामाजिक कुरीतियों को चुनौती दी तथा स्वैच्छिक कार्यों को सामाजिक सुधार से जोड़ा। 
      • ब्रह्म समाज (1828) (सामाजिक और धार्मिक सुधार को बढ़ावा दिया), थियोसोफिकल सोसाइटी (1879) (आध्यात्मिक एवं शैक्षिक सुधार का प्रसार किया) और रामकृष्ण मिशन (1897) (मानवता की सेवा पर ज़ोर दिया)। 
      • ये प्रयास प्राय: असंगठित और राहत-आधारित थे, लेकिन उन्होंने बाद में लामबंदी के लिये एक नैतिक आधार तैयार किया। 
      • गांधीजी के आत्मनिर्भरता, गरीबों के उत्थान और रचनात्मक कार्यों के दर्शन ने जन भागीदारी तथा स्वैच्छिक सेवा संगठनों को प्रेरित किया। 
    • स्वतंत्रता के बाद: नए भारतीय राज्य ने कल्याणकारी कार्यों का विस्तार किया, लेकिन स्वैच्छिक संगठनों की सहायक भूमिका को भी मान्यता दी। 
      • प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) में सरकार और गैर सरकारी संगठनों के बीच सहयोग पर ज़ोर दिया गया। 
      • त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से सहकारी समितियों, किसान संगठनों और स्थानीय संघों को विकसित होने का अवसर मिला। 
      • वर्ष 1965-67 के सूखे के दौरान, कई अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों ने विदेशी सहायता के साथ भारत में प्रवेश किया और बाद में नागरिक समाज के वित्तपोषण को नया स्वरूप देते हुए स्थायी कार्यालय स्थापित किये। 
    • समकालीन युग: नागरिक समाज कल्याण प्रदाय से आगे बढ़कर अधिकार-आधारित और सशक्तीकरण-आधारित दृष्टिकोण की ओर स्थानांतरित हुआ, जिसका उदाहरण चिपको आंदोलन (1973) तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन (1985) जैसे आंदोलनों में देखा गया। 
      • नागरिक समाज ने अपने एजेंडे का विस्तार किया, जिसमें भोजन का अधिकार, कार्य का अधिकार (MGNREGA), शिक्षा का अधिकार (RTE अधिनियम), स्वास्थ्य का अधिकार और सूचना का अधिकार (RTI अधिनियम) शामिल हुए। 
      • नागरिक समाज संगठनों (CSO) को राज्य के विकास भागीदार के रूप में मान्यता मिली। गैर-सरकारी संगठनों (NGO) ने लैंगिक, जाति, पर्यावरण और वंचित वर्गों के मुद्दों में विस्तार किया तथा लोकतंत्र के वॉचडॉग बन गए। 
      • भारत में लगभग 3.3 मिलियन NGO हैं आज भारत में लगभग 1.5 मिलियन NGO हैं जिनमें 19 मिलियन से अधिक स्वयंसेवक तथा कर्मचारी शामिल हैं, हालाँकि अधिकांश छोटे और स्वयंसेवकों द्वारा संचालित हैं। 

भारत में नागरिक समाज के लिये नियामक ढाँचा: 

  • सोसायटीज़ (Societies): सोसायटीज़ रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1860 — साहित्यिक, वैज्ञानिक और परोपकारी उद्देश्यों के लिये। 
  • ट्रस्ट (Trusts): भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882 — साथ ही राज्यों के अपने सार्वजनिक ट्रस्ट अधिनियम भी हैं (जैसे बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम, 1950)। 
  • कंपनियाँ (Companies): भारतीय कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 8शिक्षा, सामाजिक कल्याण, पर्यावरण आदि जैसी लाभ-निरपेक्ष गतिविधियों (Not-for-Profit) के लिये। 
  • विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (FCRA), 2010: यह उन सभी CSO पर लागू होता है जो विदेशी अंशदान प्राप्त करते हैं। 

लोकतंत्र में नागरिक समाज की भूमिका क्या है? 

  • जवाबदेही सुनिश्चित करना: CSO वॉचडॉग की तरह कार्य करते हैं, राज्य की कार्यवाही की निगरानी करते हैं और राजनीतिक दुरुपयोग तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाते हैं। 
    • मज़दूर किसान शक्ति संगठन (राजस्थान) ने वर्ष 2005 के सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम के पारित होने में अहम भूमिका निभाई। 
    • CSO चुनावों की निगरानी, धांधली का पता लगाने और वैधता सुनिश्चित करने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। 
  • नागरिकों को सशक्त बनाना और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना: नागरिकों को कानून, अधिकारों तथा शासन के विषय में शिक्षित करते हैं, जिससे एक सजग और जागरूक नागरिक समाज कायम रहता है। 
    • सहनशीलता, असहमति के प्रति सम्मान और समझौते को प्रोत्साहित करता है, जिससे लोकतांत्रिक सामाजिक मानदंड मज़बूत होते हैं। 
    • हाशिये पर रहे समूहों (महिलाएँ, गरीब, दिव्यांगजन) को शासन में भागीदारी के लिये मंच प्रदान करता है, जैसा कि CSO द्वारा दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के समर्थन में देखा गया। 
  • महिला सशक्तीकरण: जागोरी और स्वयं जैसे संगठनों ने महिलाओं के अधिकारों के विषय में जागरूकता बढ़ाई है और राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा दिया है। 
    • इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ के "महिला राजनीतिक सशक्तीकरण कार्यक्रम" ने पंचायती राज संस्थाओं में नेतृत्व भूमिकाओं के लिये 15,000 से अधिक महिलाओं को प्रशिक्षित किया है। 
    • PRIDE इंडिया ने शोध और आँकड़ा संकलन के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों को समर्थन दिया है। 
    • SEWA (स्व-नियोजित महिला संघ) असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को सशक्त बनाता है, जिससे उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक सम्मान प्राप्त होता है। 
  • नेतृत्व विकास और प्रतिनिधित्व: विविध सामाजिक हितों की अभिव्यक्ति और एकत्रीकरण को सुगम बनाता है। 
    •  CSOs भविष्य के राजनीतिक नेताओं के लिये प्रशिक्षण का मंच प्रदान करते हैं, जिससे पारंपरिक दलों का एकाधिकार टूटता है। 
    • नागरिक समाज संगठन कठोर राजनीतिक ध्रुवीकरणों को पार करके एक आघात-अवशोषित संस्था के रूप में कार्य करते हैं। संघर्ष-प्रवण परिस्थितियों में सामाजिक सामंजस्य बनाए रखने में मदद करते हैं। 
  • सुधार एवं सार्वजनिक सेवा वितरण में सहयोग: CSOs आर्थिक और राजनीतिक सुधारों के लिए जनमत को संगठित करते हैं।
  • स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता और आपदा राहत जैसी आवश्यक सेवाओं में योगदान देते हैं। (उदाहरण: कोविड-19 महामारी के दौरान, गूंज ने ‘राहत’ पहल शुरू की, जिससे कमज़ोर समुदायों को सहायता प्राप्त हुई।) 
  • वैश्विक शासन: नागरिक समाज न केवल राष्ट्रीय लोकतंत्र को बढ़ावा देता है बल्कि वैश्विक शासन को भी प्रभावित करता है। 
    • मानवाधिकार, महिला अधिकार, दिव्यांग अधिकार और पर्यावरणीय चिंताओं पर बने अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का उपयोग घरेलू नीतियों को आकार देने में किया जाता है।

लोकतंत्र में नागरिक समाज की चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • लोकतांत्रिक मूल्यों को कमज़ोर करना: सभी नागरिक समाज संगठन लोकतांत्रिक उद्देश्यों का पालन नहीं करते हैं, कुछ निजी हितों, नस्लवाद, राष्ट्रवाद या कट्टरवाद को बढ़ावा देते हैं, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों को कमज़ोर किया जाता है। 
  • वित्तपोषण संबंधी बाधाएँ: CSO को सीमित विदेशी वित्तपोषण (FCRA, 2020 संशोधन के बाद) और अपर्याप्त घरेलू परोपकार के कारण वित्तीय अस्थिरता का सामना करना पड़ रहा है। 
  • राज्य द्वारा वित्तपोषण से नागरिक समाज संगठन भ्रष्ट हो सकते हैं तथा उनका ध्यान लोकतांत्रिक उद्देश्यों से हटकर अल्पकालिक लाभों पर केंद्रित हो सकता है। 
    • इसके अतिरिक्त, कई नागरिक समाज संगठनों में प्रभावी निगरानी प्रणालियों का अभाव है, जिससे उनके प्रभाव का आकलन करना तथा वित्तपोषण प्राप्त करना कठिन हो जाता है। 
    • अपर्याप्त सरकारी प्रतिक्रिया: सरकारी एजेंसियाँ CSO इनपुट के प्रबंधन में अक्षम हो सकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप टकराव, अप्रभावी नीति निर्माण और कमज़ोर लोकतांत्रिक भागीदारी हो सकती है। 
  • अपर्याप्त प्रतिनिधित्व: नागरिक समाज में हाशिये पर पड़े समूहों के लिये समान पहुँच का अभाव संरचनात्मक असमानताओं को कायम रख सकता है तथा लोकतांत्रिक समावेशिता को कमज़ोर कर सकता है। 
  • सांस्कृतिक असंवेदनशीलता: वैश्विक नागरिक समाज के प्रयास स्थानीय सांस्कृतिक संदर्भों को नजरअंदाज कर सकते हैं, विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण में, जिसके परिणामस्वरूप अप्रभावी या अप्रासंगिक हस्तक्षेप हो सकते हैं।
  • आंतरिक अलोकतंत्र: कई नागरिक समाज संगठनों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है, जैसे पारदर्शिता या समावेशी निर्णय लेना, जो उनके द्वारा समर्थित लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत है। 
  • बाह्य हेरफेर: नागरिक समाज संगठनों को विदेशी शक्तियों द्वारा राजनीतिक या आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिये प्रभावित या उपयोग किया जा सकता है, जिससे लोकतंत्र को बढ़ावा देने में उनकी भूमिका विकृत हो सकती है। 
  • स्वयंसेवकों को बनाए रखना: स्वयंसेवकों का उच्च स्तर पर आना और असंगत सहभागिता के कारण दीर्घकालिक परियोजनाओं और सामुदायिक संबंधों को बनाए रखना कठिन हो जाता है। 

CSO की भूमिका बढ़ाने हेतु क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं? 

  • पारदर्शिता और जवाबदेही में वृद्धि: वित्तीय रिपोर्ट, कार्यक्रम परिणाम और प्रभाव आकलन सहित एक राष्ट्रीय CSO डेटाबेस विकसित करना। मानकीकृत रिपोर्टिंग और स्वैच्छिक तृतीय-पक्ष ऑडिट विश्वसनीयता बढ़ा सकते हैं। 
  • साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण का समर्थन करना: सरकारी समितियों, परामर्श मंचों पर प्रतिनिधित्व और निर्णय लेने में CSO डेटा के उपयोग के माध्यम से नीति में CSO की भागीदारी को संस्थागत बनाना। 
  • वित्तपोषण स्रोतों में विविधता: विदेशी निधियों पर निर्भरता कम करने के लिये घरेलू परोपकार, कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) साझेदारी और सामाजिक प्रभाव निवेश को प्रोत्साहित करना। 
  • नियामक ढाँचे को सरल बनाना: सरकार FCRA को सरल बना सकती है और एकल खिड़की डिजिटल प्रणाली के माध्यम से CSO पंजीकरण और अनुपालन को सुव्यवस्थित कर सकती है। 
  • स्वयंसेवा को बढ़ावा देना: स्वयंसेवा को बढ़ावा देने के लिये राष्ट्रीय अभियान शुरू करना, सामुदायिक सेवा को शिक्षा में एकीकृत करना, स्वयंसेवकों का डेटाबेस बनाए रखना तथा स्वयंसेवकों को नागरिक समाज संगठनों से जोड़ने के लिये डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करना। 

निष्कर्ष: 

सिविल सोसाइटी सहभागितापूर्ण लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो राज्य और नागरिकों के बीच के अंतर को कम करता है। CSOs को मज़बूत करना केवल शासन का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह समाज को अपनी भविष्य दिशा स्वयं तय करने के लिये सशक्त बनाने का माध्यम है। एक जीवंत सिविल सोसाइटी ही एक सुदृढ़ लोकतंत्र का वास्तविक मापदंड है। 

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में नागरिक समाज संगठनों की उभरती भूमिका और सहभागी लोकतंत्र में उनके योगदान पर चर्चा कीजिये।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs) 

मेन्स:

  1. पर्यावरण संरक्षण से संबंधित विकास कार्यों के लिए भारत में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका को कैसे मज़बूत किया जा सकता है? प्रमुख बाधाओं पर प्रकाश डालते हुए चर्चा कीजिये। (2015) 
  2. विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA), 1976 के तहत गैर-सरकारी संगठनों के विदेशी वित्तपोषण को नियंत्रित करने वाले नियमों में हाल के बदलावों की आलोचनात्मक जाँच कीजिये। (2015) 
  3. क्या सिविल सोसाइटी और गैर-सरकारी संगठन आम नागरिक को लाभ पहुँचाने के लिये सार्वजनिक सेवा वितरण का कोई वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत कर सकते हैं? इस वैकल्पिक मॉडल की चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। (2021) 
  4. विकास के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से निपटने में सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्र के बीच किस तरह का सहयोग सबसे अधिक उत्पादक होगा? (2024) 
  5. सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्टों में भारत के विकास को और अधिक समावेशी बनाने की क्षमता है क्योंकि वे कुछ महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक मुद्दों से संबंधित हैं। टिप्पणी कीजिये। (2024)

शासन व्यवस्था

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सोशल मीडिया को विनियमित करने का आह्वान

प्रिलिम्स के लिये: भारत का सर्वोच्च न्यायालय, सोशल मीडिया, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000, IT अधिनियम, 2000 की धारा 69A, IT अधिनियम, 2000 की धारा 79(1), सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021, के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017), अनुच्छेद 21। 

मेन्स के लिये: भारत में सोशल मीडिया का विनियमन, समाज के विभिन्न वर्गों पर सोशल मीडिया का प्रभाव।

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने हास्य कलाकारों द्वारा की गई आपत्तिजनक टिप्पणियों के खिलाफ मामले की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की कि सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यवसायीकरण कर रहे हैं। न्यायालय ने चेतावनी दी कि इस प्रकार की सामग्री कमज़ोर वर्गों की गरिमा को ठेस पहुँचा सकती है और सरकार से आग्रह किया कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सामाजिक संवेदनशीलताओं के बीच संतुलन स्थापित करने हेतु प्रभावी दिशानिर्देश तैयार करे।

सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख अवलोकन और सिफारिशें 

  • प्रमुख अवलोकन:  
    • व्यावसायीकरण और जवाबदेही: सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्रीकरण (Monetisation) करते हैं, जो प्राय: प्रतिबंधित अभिव्यक्ति के साथ मिश्रित हो जाती है। न्यायालय ने चेतावनी दी कि इस प्रकार की अभिव्यक्ति का उपयोग कमज़ोर वर्गों (दिव्यांगजन, महिलाएँ, बच्चे, अल्पसंख्यक, वरिष्ठ नागरिक) पर प्रहार करने के साधन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। 
    • हास्य बनाम गरिमा: जहाँ हास्य आवश्यक है, वहीं आपत्तिजनक चुटकुले एवं असंवेदनशील टिप्पणियाँ कलंक और भेदभाव को बढ़ावा देती हैं तथा वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने के संवैधानिक दायित्व को ठेस पहुँचाती हैं।
    • डिजिटल क्षेत्र में स्पष्ट सीमाएँ: न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यावसायिक अभिव्यक्ति और प्रतिबंधित अभिव्यक्ति के बीच स्पष्ट सीमांकन होना चाहिये, क्योंकि गैर-ज़िम्मेदार ऑनलाइन टिप्पणियाँ गरिमा, सामाजिक सद्भाव तथा सामुदायिक विश्वास को कमज़ोर करती हैं।
  • सिफारिशें: 
    • परिणामों सहित दिशानिर्देश: केंद्र सरकार को (नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन से परामर्श कर) इन्फ्लुएंसर/पॉडकास्टरों के लिये नियामक दिशानिर्देश बनाने का निर्देश दिया गया, जिनमें अनुपातिक और लागू किये जाने वाले परिणाम हों, केवल ‘औपचारिकता’ न हो। 
    • संवेदनशीलता और ज़िम्मेदारी: सामाजिक नुकसान के लिये उल्लंघनकर्त्ताओं की जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए सोशल मीडिया उपयोगकर्त्ताओं के बीच जागरूकता, संवेदनशीलता और डिजिटल नैतिकता के महत्त्व पर बल दिया गया। 
    • माफी और अधिकारों का संतुलन: इन्फ्लुएंसरों को अपने प्लेटफार्मों के माध्यम से बिना शर्त माफी मांगने का आदेश दिया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसका उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करना नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता और गरिमा के बीच संतुलन बनाना है ताकि विविध समाज में सामुदायिक अधिकारों की रक्षा की जा सके।

भारत में सोशल मीडिया के उपयोग को नियंत्रित करने वाले प्रमुख नियम क्या हैं? 

  • प्रमुख कानून: 
    • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 इलेक्ट्रॉनिक संचार और सोशल मीडिया को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कानून है। 
      • धारा 79(1) मध्यस्थों (जैसे फेसबुक, X, इंस्टाग्राम) को तृतीय-पक्ष सामग्री के लिये देयता से ‘सुरक्षित आश्रय’ (Safe harbour) का संरक्षण प्रदान करती है, बशर्ते वे निष्पक्ष मंच के रूप में कार्य करें और सामग्री को नियंत्रित या संशोधित न करें। 
      • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69A सरकार को संप्रभुता, सुरक्षा, रक्षा, विदेशी संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था की रक्षा करने और अपराधों को भड़काने से रोकने के लिये ऑनलाइन सामग्री को अवरुद्ध करने की अनुमति प्रदान करती है। 
    • सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को उपयोगकर्त्ता सुरक्षा सुनिश्चित करने, गैरकानूनी सामग्री को हटाने और गोपनीयता, कॉपीराइट, मानहानि और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जागरूकता फैलाने का आदेश प्रदान करता है। 
      • इन नियमों में 2023 के संशोधन ने मध्यस्थों को भारत सरकार से संबंधित झूठी या भ्रामक सामग्री हटाने के लिये बाध्य किया था। हालाँकि, इसके प्रवर्तन पर सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने दुरुपयोग की आशंका का हवाला देते हुए रोक लगा दी है। 
    • प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ: 
      • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) में, सर्वोच्च न्यायालय ने आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 66A को उसकी अस्पष्टता के कारण निरस्त कर दिया। न्यायालय ने दोहराया कि आलोचना, व्यंग्य और असहमति अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत संरक्षित हैं, जब तक कि वे अनुच्छेद 19(2) के तहत लगाए गए युक्तिसंगत प्रतिबंधों के दायरे में न आते हों। 
        • धारा 66A में कंप्यूटर या इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के माध्यम से झूठी या आपत्तिजनक जानकारी भेजने को अपराध घोषित किया गया था, जिसके लिये अधिकतम 3 वर्ष का कारावास निर्धारित था। 
      • के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) में, सर्वोच्च न्यायालय ने गोपनीयता को अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान की। 

सोशल मीडिया को विनियमित करने की आवश्यकता क्यों है? 

  • कमज़ोर समूहों की सुरक्षा: अनियमित प्लेटफॉर्म अपमानजनक सामग्री, साइबर बुल्लिंग, ट्रोलिंग और शोषण को बढ़ावा देते हैं, खासकर महिलाओं, बच्चों, वरिष्ठ नागरिकों, अल्पसंख्यकों और विकलांग व्यक्तियों के लिये। 
  • गलत सूचना और अभद्र भाषा पर अंकुश लगाना: फर्जी खबरों, डीपफेक, घृणा अभियानों और अतिवादी प्रचार का तेज़ी से प्रसार सामाजिक सद्भाव, लोकतांत्रिक संवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा को कमज़ोर करता है। 
    • प्रभावी विनियमन से दुष्प्रचार पारिस्थितिकी तंत्र पर अंकुश लगाया जा सकता है तथा सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखा जा सकता है। 
  • मानसिक स्वास्थ्य और नैतिक मूल्यों की सुरक्षा: अंतहीन स्क्रॉलिंग, छूट जाने का डर (FOMO) और चुनिंदा पहचान जैसी विशेषताएँ युवाओं में नशे की लत, चिंता और अवसाद को बढ़ावा देती हैं। 
    • विनियमन डिजिटल कल्याण, ज़िम्मेदार डिज़ाइन और नैतिक संचार मानकों को बढ़ावा दे सकते हैं। 
  • प्रभावशालियों की जवाबदेही सुनिश्चित करना: इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग के बढ़ते चलन के साथ, उपयोगकर्त्ता अक्सर अप्रकटित पेड प्रमोशन्स और अवैध उत्पादों (जैसे, बेटिंग ऐप्स) के कारण वित्तीय जोखिमों में फंस जाते हैं। विनियमन पारदर्शिता, खुलासा मानदंडों और उपभोक्ता संरक्षण को सुनिश्चित करता है। 
  • डेटा गोपनीयता एवं सुरक्षा: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बड़े पैमाने पर उपयोगकर्त्ताओं का डेटा एकत्रित करते हैं, अक्सर उनकी सूचित सहमति के बिना। इससे गोपनीयता का उल्लंघन, निगरानी और लाभ या राजनीतिक प्रभाव के लिये दुरुपयोग होता है। इनका विनियमन, अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त गोपनीयता के संवैधानिक अधिकार की रक्षा के लिये आवश्यक है। 
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ज़िम्मेदारी में संतुलन: अनुच्छेद 19(1)(a) मुक्त अभिव्यक्ति की गारंटी प्रदान करता है, लेकिन यह अनुच्छेद 19(2) के तहत युक्तिसंगत प्रतिबंधों (लोक व्यवस्था, नैतिकता, शिष्टता, राज्य की सुरक्षा) के अधीन है। विनियमन वैध मुक्त अभिव्यक्ति और हानिकारक/अपमानजनक सामग्री के बीच संतुलन बनाने में मदद करता है। 

भारत में सोशल मीडिया को विनियमित करने में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • नियामक क्षमता पर दबाव: ऑनलाइन सामग्री की अत्यधिक मात्रा के कारण निरंतर निगरानी करना कठिन हो जाता है। इसके साथ ही उपयोगकर्त्ताओं की गुमनामी उन्हें घृणा फैलाने वाले भाषण, फेक न्यूज़ और हानिकारक सामग्री साझा करने के लिये और अधिक साहसी बना देती है, जिससे नियामक क्षमता पर दबाव पड़ता है। 
  • पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की निर्णय लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं होती तथा सामग्री की निगरानी से जुड़ी नीतियों में जवाबदेही का अभाव होता है। स्वतंत्र निगरानी के न होने से इनकी अपारदर्शी कार्यप्रणाली एवं मनमानी फैसलों को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं। 
  • हानिकारक सामग्री की परिभाषा: हानिकारक सामग्री को परिभाषित करना एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों में अंतर के कारण आम सहमति बनाना कठिन हो जाता है। यह अस्पष्टता वैध अभिव्यक्ति तथा प्रतिबंधित भाषण के बीच एक 'ग्रे ज़ोन' (अनिश्चित क्षेत्र) उत्पन्न करती है। 
  • स्वतंत्र अभिव्यक्ति बनाम सेंसरशिप: किसी भी प्रकार का नियमन प्रयास सेंसरशिप या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश के रूप में देखा जा सकता है, विशेष रूप से तब जब मानदंड स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ और अनुपातिक न हों। 
  • सीमा पार क्षेत्राधिकार संबंधी मुद्दे: हानिकारक सामग्री का एक बड़ा हिस्सा भारत के क्षेत्राधिकार के बाहर से आता है, जिससे घरेलू कानून के तहत प्रवर्तन और विनियमन कठिन हो जाता है। 
  • राजनीतिक निष्पक्षता संबंधी चिंताएँ: सामग्री की निगरानी से जुड़े निर्णयों पर अक्सर राजनीतिक पक्षपात के आरोप लगते हैं, जिससे प्लेटफॉर्म की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं और नियामक तंत्र में जनता का विश्वास कमज़ोर पड़ता है। 

भारत में सोशल मीडिया की विश्वसनीयता और उपयोगिता में सुधार हेतु क्या उपाय किये जा सकते हैं? 

  • मज़बूत कानूनी-नीति ढाँचा: IT अधिनियम, 2000 को डिजिटल इंडिया एक्ट के माध्यम से अद्यतन किया जाए, ताकि प्लेटफॉर्म की जवाबदेही, डेटा सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सके। इसके साथ ही किसी भी अतिरेक से बचने के लिये न्यायिक निगरानी का प्रावधान भी आवश्यक है। 
  • एल्गोरिदमिक पारदर्शिता और जवाबदेही: एल्गोरिदम की ऑडिटिंग, पारदर्शिता रिपोर्ट तथा स्वतंत्र निरीक्षण निकायों को अनिवार्य किया जाए। तटस्थता और शीघ्र समाधान सुनिश्चित करने के लिये AI-आधारित मॉडरेशन टूल्स के उपयोग को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। 
  • प्रौद्योगिकीय और संस्थागत क्षमता: साइबर फॉरेंसिक लैब्स का विस्तार किया जाए, एजेंसियों की क्षमताओं को सशक्त बनाया जाए तथा गोपनीयता व एन्क्रिप्शन मानकों की रक्षा करते हुए AI-सक्षम निगरानी प्रणालियों का एकीकरण किया जाए। 
  • डिजिटल साक्षरता और नैतिक उपयोग: राष्ट्रव्यापी डिजिटल साक्षरता अभियान चलाए जाएँ, जिनका उद्देश्य गलत सूचना, डीपफेक तथा साइबरबुलिंग के खिलाफ जागरूकता फैलाना हो। साथ ही ज़िम्मेदार ऑनलाइन व्यवहार को बढ़ावा दिया जाए एवं ऐसे नैतिक डिज़ाइन प्रथाओं को अपनाया जाए जो उपयोगकर्त्ता के कल्याण को प्राथमिकता दें। 
  • वैश्विक और बहु-हितधारक सहयोग: सीमापार विनियमन (Cross-Border Regulation) के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को मज़बूत किया जाए तथा एक समावेशी व भविष्य-उन्मुख डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण हेतु नागरिक समाज, शिक्षाविदों एवं उद्योग जगत की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।

निष्कर्ष

सोशल मीडिया का नियमन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कमज़ोर समूहों की गरिमा और अधिकारों के साथ संतुलित करने के लिये आवश्यक है। मज़बूत कानूनी ढाँचे, प्रौद्योगिकीय समाधान, डिजिटल साक्षरता तथा नैतिक प्रथाओं के संयोजन से जवाबदेही सुनिश्चित की जा सकती है, गलत सूचना को रोका जा सकता है, एवं एक सुरक्षित, समावेशी व विश्वसनीय ऑनलाइन पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया जा सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गोपनीयता संबंधी चिंताओं और जवाबदेही की आवश्यकता के बीच संतुलन को ध्यान में रखते हुए, भारत में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को विनियमित करने में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। 

UPSC सिविल सेवा परीक्षा के पिछले वर्ष के प्रश्न:  

मेन्स

प्रश्न. ‘सामाजिक संजाल स्थल’ क्या होती हैं और इन स्थलों के क्या सुरक्षा उलझने प्रस्तुत होती हैं? (2013) 

प्रश्न. बच्चों को दुलारने की जगह अब मोबाइल फोन ने ले ली है। बच्चों के समाजीकरण पर इसके प्रभाव पर चर्चा कीजिये। (2023) 


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